विचार या विचार समूह संप्रदायिकता का स्वरूप है । दूसरे शब्दों में सांप्रदायिकता विचार अथवा विचार समूह का पर्यायवाची है। सांप्रदायिकता के विस्तार की प्रवृत्ति किसी भी देश के लिए खतरे की घंटी है। सामाजिक परिस्थितियों एवं सांस्कृतिक निरंतरताएं तथा सभ्यता के विकास अनुक्रम को नुकसान पहुंचाने वाला सांप्रदायिकता का विस्तार मूल दार्शनिक और अध्यात्मिक सिद्धांतों का अवसान करता है।
संप्रदायिकता अस्पृश्य नहीं है, परंतु इसका विस्तार करने का प्रयास अवश्य अस्पृश्य और अग्राह्य है। कोई भी संप्रदाय सम्मान विचारधाराओं का ऐसा स्वरूप होता है.जिसमें आध्यात्मिक तत्वों का मिश्रण होता है। बात बहुत कठिन नहीं है इसे आसानी से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए आपके मन में ऐसी प्रक्रिया आकार लेती है जिससे आप एक ऐसे विश्व की कल्पना कर रहे हैं जो सद्भावना और सहिष्णुता को कायम करने के प्रयास करता है और सफल भी रहता है। इसके लिए आप अपने विचार का संप्रेषण किसी दूसरे को करेंगे कोई दूसरा तीसरे को करेगा कोई तीसरा चौथे को करेगा और इसका विस्तार चैन सिस्टम से बहुत अधिक हो जाता है। आपका विचार बुद्ध की तरह विस्तारित होने लगता है और आप एक स्प्रिचुअल व्यक्ति के रूप में स्थापित हैं..!
यह स्थिति आपके जीवन काल में व्यवस्थित रूप से चलती है परंतु दीर्घकाल में आपके अनुयाई आपके विचार को इधर-उधर थोपते नजर आते हैं। कई कई बार आपके अनुयाई शस्त्र के बल पर तो कई बार लोग लालच देकर अपने संप्रदाय को विस्तार देना चाहते हैं। मेरी नजदीक घटित एक घटना के उदाहरण से आपको समझाना चाहता हूं ।
एक परिवार में मां को कैंसर हो गया था । उस कैंसर की पतासाजी चिकित्सकों ने की और परिवार को बताया कि यह महिला कुछ दिनों के लिए इस दुनिया में रह सकती है इसका जाना प्रभावित है यह अधिक दिनों तक आपके साथ रह नहीं सकती । एक संप्रदाय के एक अनुयाई ने जो अब संप्रदाय को विस्तारित करने प्रचारक बन चुका था, उस परिवार से संपर्क करता है और उसे कुछ धनराशि तथा कुछ अभिमंत्रित पानी इत्यादि के सेवन की सलाह देता है। इसके पहले वह व्यक्ति के परिवार की मूल साधना के संसाधनों को एक कपड़े में बांधकर ताक पर रख देने का आदेश देता है। कैंसर लाइलाज रोग है। आप सब जानते हैं कि कैंसर में जीवन की प्रत्याशा बहुत कम ही होती है जिसे न के बराबर कहा जा सकता है। वास्तव में उस महिला को कैंसर न था कुछ दिनों में महिला स्वस्थ हो गई। परंतु पूरा का पूरा परिवार दूसरे संप्रदाय के मूल्यों और सिद्धांतों को मानने लगा। किस विचार को मानना है या उसे त्यागना है इसका अधिकार मनुष्य का है इसमें कोई शक नहीं परंतु यहां में उस व्यक्ति को कटघरे में खड़ा करना चाहता हूं जिसने झूठ बोलकर भावात्मकता को आधार बनाकर अपने संप्रदाय का विस्तार किया।
एक और उदाहरण बहुत नजदीक से मुझे देखने को मिला। मेरे अधीनस्थ कर्मचारी की संतान का मानसिक संतुलन अक्सर बिगड़ जाया करता है। ऐसी स्थिति में जहां से राहत की सूचना मिलती है वहां पर किसी का भी जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस क्रम में अधीनस्थ कर्मी ने बताया कि-" अमुक व्यक्ति का परिवार उसकी संतान की इस बीमारी का अंत कर सकता है।"
मैं जानता था कि यह केवल एक छलावा और झूठा आश्वासन है। फिर भी किसी भी दुखी व्यक्ति को मना करके उसकी आत्मा को आहत ना करने के उद्देश्य से मैंने उससे उस प्रक्रिया को देखने का यह उस प्रक्रिया में शामिल होने का यह कहते हुए नैतिक रुप से समर्थन किया कि-" इस बात का ध्यान रखना कि तुम अपनी संस्कृति और पैतृक आचरण वंशानुगत परंपराओं का पालन करते रहना।""
कर्मचारी ने कहा ऐसा नहीं होगा वह लोग बहुत विश्वसनीय हैं वह ऐसा ऑफर भी नहीं देंगे।"
अधीनस्थ कर्मचारी के विश्वास का सम्मान करते हुए उसे अवकाश दिया । इस व्यक्ति ने स्वास्थ्य सुधार के लिए कुछ सत्रों का आयोजन किया। कर्मचारी की सुल्तान का स्वास्थ उस कालखंड में ठीक रहा। ऐसा अक्सर होता भी रहा है। परंतु कर्मचारी को ऐसा प्रतीत हुआ कि इलाज के लिए आयोजित सत्रों से ही लाभ मिल रहा है। मुझे वह अधीनस्थ कर सूचित किया करता था कि हां मेरी संतान अब पहले से बेहतर है।
इस बात की जानकारी उसने सत्र के आयोजकों को भी दी। बस फिर क्या था आयोजक उसके पैतृक गांव तक पहुंच गए। और परिवार को इस बात के लिए तैयार करने लगे कि वे अपनी आस्था का केंद्र बदल दें। घर की धार्मिक पुस्तकों को लपेटकर ऐसे स्थान पर रख दें जहां सामान्य रूप से जाना आना नहीं होता है। उस समय एक कर्मचारी और उसका परिवार चकित रह गया। और उसने स्पष्ट रूप से मना भी कर दिया।
अबकी बार वह जब सप्ताहांत के अवकाश से लौटकर आया तो उसने मुझे घटना का विस्तार से विवरण दिया। उसने यह भी स्वीकारा कि-" सर आपका संदेह सत्य था।
मैंने कहा कि यदि इन सारी प्रक्रियाओं से दुनिया को स्वस्थ किया जा सकता था तो कोविड-19 के लिए इससे मुफीद और क्या होता।।
जो जो संप्रदाय अपनी मान्यताओं को प्रतिस्थापित करने के लिए इस तरह के प्रयास करते हैं उन संप्रदायों का स्थायित्व कब तक बना रहेगा मुझे संदेह है। आपको भी संदेह करना चाहिए।
हाल ही में एक जिले में कुछ लोग एक खास वर्ग की आबादी को इकट्ठा करके उन्हें ज्ञान ध्यान की बातें बता रहे थे । सब कुछ ठीक चलता रहा अधिकारों पर बात हुई कर्तव्यों पर बात हुई सामाजिक विसंगतियों पर बात हुई सभी बातों को गंभीरता से सुना गया। उस समुदाय ने वक्ताओं के उस अनुरोध का तीखा विरोध तक किया जबकि समुदाय को मौजूदा आस्था से विमुक्ति का आग्रह वक्ताओं ने किया ।
महात्मा गौतम बुद्ध के सिद्धांत और उनके समकालीन तथा बाद के अनुयाई आध्यात्मिकता का प्रचार करते रहे इससे बौद्ध मत के विस्तार समकालीन अखंड भारत बौद्ध मत सीरिया तक पहुंच गया था। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं यह इतिहास में दर्ज है। इसके पूर्व सनातन व्यवस्था अपनी खूबी के कारण ही विश्व में विस्तारित रही है ऐसा मेरा मानना है।
उपरोक्त कथनों का आशय यह है कि
[ ] जो विचार या विचार समूह जिस भूखंड में विस्तारित होता है या हो रहा हो उसे उस भूखंड की कालगत परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करना होगा। तभी वह विचार या विचारों का समूह स्थायित्व प्राप्त कर सकता है।
[ ] कोई भी विचार या विचार समूह तलवार के जोर पर अगर स्थापित भी कर दिया जाए तो दीर्घकाल में उसका समापन सुनिश्चित है।
[ ] देश काल परिस्थिति के साथ साथ जो विचार या विचार समूह में परिवर्तनशीलता का गुण नहीं होता वह विचार अथवा विचार समूह भी अधिकतम कुछ शताब्दियों तक ही जीवित रह सकता है।
भारत में शैव, वैष्णव,शाक्त, वैदिक,स्मार्त, बौद्ध, जैन, के अलावा कई और भी ज्ञात अज्ञात विचार स्थाई हैं। पारस्परिक आपसी वैमनस्यता देखने को कभी नहीं मिलती। चार्वाक तथा रक्ष संस्कृति की विचारधारा को छोड़कर सभी उपरोक्त वर्णित विचार सांस्कृतिक परंपराओं की निरंतरता के साथ जीवंत है इनमें आपसी विद्वेष देखा नहीं गया ।
द्वैत अद्वैत, द्वैताद्वैत, के सिद्धांत भी चिर स्थाई से हो गए हैं। कबीर अकाट्य है तो रहीम और मिर्जा गालिब का अध्यात्मिक दर्शन आज भी विद्यमान है।
यवन भी चाहते थे कि वे बलपूर्वक अपनी सांस्कृतिक निरंतरता को भारत में स्थापित कर देंगे। परंतु ऐसा हो ना सका। ऐसा होना संभव भी न था होता भी कैसे भारत एक भौगोलिक संरचना नहीं है इसकी अपनी सांस्कृतिक निरंतरता है सामाजिक व्यवस्था है।
यहां बिना नाम लिए संकेतों में स्पष्ट करना आवश्यक है कि-" जिस विचार में लचीलापन ना हो परिवर्तनशीलता का गुण ना हो वह न तो बलपूर्वक विस्तार पाता है और ना ही छल या कपट पूर्वक। लोभ लालच देकर तो उसके स्थायित्व को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा।"
तय आपको करना है कि आप अपने विचार को विस्तारित करने अथवा विचार समूह को विस्तारित करने के लिए कौन सा तरीका अपनाते हैं वैसे तो यह सब जरूरी भी नहीं है क्योंकि सर्वोपरि है एकात्मता का महत्वपूर्ण सूत्र। जो सर्वे जना सुखिनो भवंतु अथवा विश्व बंधुत्व का नवनीत है। अंत में सिर्फ इतना जानना जरूरी है कि-" संप्रदायिकता बुरी चीज नहीं है बल्कि सांप्रदायिक होना और उसे
बल अथवा छल कपट से विस्तार करने की कोशिश गलत है अग्राह्य है ।
संप्रदायिकता अस्पृश्य नहीं है, परंतु इसका विस्तार करने का प्रयास अवश्य अस्पृश्य और अग्राह्य है। कोई भी संप्रदाय सम्मान विचारधाराओं का ऐसा स्वरूप होता है.जिसमें आध्यात्मिक तत्वों का मिश्रण होता है। बात बहुत कठिन नहीं है इसे आसानी से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए आपके मन में ऐसी प्रक्रिया आकार लेती है जिससे आप एक ऐसे विश्व की कल्पना कर रहे हैं जो सद्भावना और सहिष्णुता को कायम करने के प्रयास करता है और सफल भी रहता है। इसके लिए आप अपने विचार का संप्रेषण किसी दूसरे को करेंगे कोई दूसरा तीसरे को करेगा कोई तीसरा चौथे को करेगा और इसका विस्तार चैन सिस्टम से बहुत अधिक हो जाता है। आपका विचार बुद्ध की तरह विस्तारित होने लगता है और आप एक स्प्रिचुअल व्यक्ति के रूप में स्थापित हैं..!
यह स्थिति आपके जीवन काल में व्यवस्थित रूप से चलती है परंतु दीर्घकाल में आपके अनुयाई आपके विचार को इधर-उधर थोपते नजर आते हैं। कई कई बार आपके अनुयाई शस्त्र के बल पर तो कई बार लोग लालच देकर अपने संप्रदाय को विस्तार देना चाहते हैं। मेरी नजदीक घटित एक घटना के उदाहरण से आपको समझाना चाहता हूं ।
एक परिवार में मां को कैंसर हो गया था । उस कैंसर की पतासाजी चिकित्सकों ने की और परिवार को बताया कि यह महिला कुछ दिनों के लिए इस दुनिया में रह सकती है इसका जाना प्रभावित है यह अधिक दिनों तक आपके साथ रह नहीं सकती । एक संप्रदाय के एक अनुयाई ने जो अब संप्रदाय को विस्तारित करने प्रचारक बन चुका था, उस परिवार से संपर्क करता है और उसे कुछ धनराशि तथा कुछ अभिमंत्रित पानी इत्यादि के सेवन की सलाह देता है। इसके पहले वह व्यक्ति के परिवार की मूल साधना के संसाधनों को एक कपड़े में बांधकर ताक पर रख देने का आदेश देता है। कैंसर लाइलाज रोग है। आप सब जानते हैं कि कैंसर में जीवन की प्रत्याशा बहुत कम ही होती है जिसे न के बराबर कहा जा सकता है। वास्तव में उस महिला को कैंसर न था कुछ दिनों में महिला स्वस्थ हो गई। परंतु पूरा का पूरा परिवार दूसरे संप्रदाय के मूल्यों और सिद्धांतों को मानने लगा। किस विचार को मानना है या उसे त्यागना है इसका अधिकार मनुष्य का है इसमें कोई शक नहीं परंतु यहां में उस व्यक्ति को कटघरे में खड़ा करना चाहता हूं जिसने झूठ बोलकर भावात्मकता को आधार बनाकर अपने संप्रदाय का विस्तार किया।
एक और उदाहरण बहुत नजदीक से मुझे देखने को मिला। मेरे अधीनस्थ कर्मचारी की संतान का मानसिक संतुलन अक्सर बिगड़ जाया करता है। ऐसी स्थिति में जहां से राहत की सूचना मिलती है वहां पर किसी का भी जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस क्रम में अधीनस्थ कर्मी ने बताया कि-" अमुक व्यक्ति का परिवार उसकी संतान की इस बीमारी का अंत कर सकता है।"
मैं जानता था कि यह केवल एक छलावा और झूठा आश्वासन है। फिर भी किसी भी दुखी व्यक्ति को मना करके उसकी आत्मा को आहत ना करने के उद्देश्य से मैंने उससे उस प्रक्रिया को देखने का यह उस प्रक्रिया में शामिल होने का यह कहते हुए नैतिक रुप से समर्थन किया कि-" इस बात का ध्यान रखना कि तुम अपनी संस्कृति और पैतृक आचरण वंशानुगत परंपराओं का पालन करते रहना।""
कर्मचारी ने कहा ऐसा नहीं होगा वह लोग बहुत विश्वसनीय हैं वह ऐसा ऑफर भी नहीं देंगे।"
अधीनस्थ कर्मचारी के विश्वास का सम्मान करते हुए उसे अवकाश दिया । इस व्यक्ति ने स्वास्थ्य सुधार के लिए कुछ सत्रों का आयोजन किया। कर्मचारी की सुल्तान का स्वास्थ उस कालखंड में ठीक रहा। ऐसा अक्सर होता भी रहा है। परंतु कर्मचारी को ऐसा प्रतीत हुआ कि इलाज के लिए आयोजित सत्रों से ही लाभ मिल रहा है। मुझे वह अधीनस्थ कर सूचित किया करता था कि हां मेरी संतान अब पहले से बेहतर है।
इस बात की जानकारी उसने सत्र के आयोजकों को भी दी। बस फिर क्या था आयोजक उसके पैतृक गांव तक पहुंच गए। और परिवार को इस बात के लिए तैयार करने लगे कि वे अपनी आस्था का केंद्र बदल दें। घर की धार्मिक पुस्तकों को लपेटकर ऐसे स्थान पर रख दें जहां सामान्य रूप से जाना आना नहीं होता है। उस समय एक कर्मचारी और उसका परिवार चकित रह गया। और उसने स्पष्ट रूप से मना भी कर दिया।
अबकी बार वह जब सप्ताहांत के अवकाश से लौटकर आया तो उसने मुझे घटना का विस्तार से विवरण दिया। उसने यह भी स्वीकारा कि-" सर आपका संदेह सत्य था।
मैंने कहा कि यदि इन सारी प्रक्रियाओं से दुनिया को स्वस्थ किया जा सकता था तो कोविड-19 के लिए इससे मुफीद और क्या होता।।
जो जो संप्रदाय अपनी मान्यताओं को प्रतिस्थापित करने के लिए इस तरह के प्रयास करते हैं उन संप्रदायों का स्थायित्व कब तक बना रहेगा मुझे संदेह है। आपको भी संदेह करना चाहिए।
हाल ही में एक जिले में कुछ लोग एक खास वर्ग की आबादी को इकट्ठा करके उन्हें ज्ञान ध्यान की बातें बता रहे थे । सब कुछ ठीक चलता रहा अधिकारों पर बात हुई कर्तव्यों पर बात हुई सामाजिक विसंगतियों पर बात हुई सभी बातों को गंभीरता से सुना गया। उस समुदाय ने वक्ताओं के उस अनुरोध का तीखा विरोध तक किया जबकि समुदाय को मौजूदा आस्था से विमुक्ति का आग्रह वक्ताओं ने किया ।
महात्मा गौतम बुद्ध के सिद्धांत और उनके समकालीन तथा बाद के अनुयाई आध्यात्मिकता का प्रचार करते रहे इससे बौद्ध मत के विस्तार समकालीन अखंड भारत बौद्ध मत सीरिया तक पहुंच गया था। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं यह इतिहास में दर्ज है। इसके पूर्व सनातन व्यवस्था अपनी खूबी के कारण ही विश्व में विस्तारित रही है ऐसा मेरा मानना है।
उपरोक्त कथनों का आशय यह है कि
[ ] जो विचार या विचार समूह जिस भूखंड में विस्तारित होता है या हो रहा हो उसे उस भूखंड की कालगत परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करना होगा। तभी वह विचार या विचारों का समूह स्थायित्व प्राप्त कर सकता है।
[ ] कोई भी विचार या विचार समूह तलवार के जोर पर अगर स्थापित भी कर दिया जाए तो दीर्घकाल में उसका समापन सुनिश्चित है।
[ ] देश काल परिस्थिति के साथ साथ जो विचार या विचार समूह में परिवर्तनशीलता का गुण नहीं होता वह विचार अथवा विचार समूह भी अधिकतम कुछ शताब्दियों तक ही जीवित रह सकता है।
भारत में शैव, वैष्णव,शाक्त, वैदिक,स्मार्त, बौद्ध, जैन, के अलावा कई और भी ज्ञात अज्ञात विचार स्थाई हैं। पारस्परिक आपसी वैमनस्यता देखने को कभी नहीं मिलती। चार्वाक तथा रक्ष संस्कृति की विचारधारा को छोड़कर सभी उपरोक्त वर्णित विचार सांस्कृतिक परंपराओं की निरंतरता के साथ जीवंत है इनमें आपसी विद्वेष देखा नहीं गया ।
द्वैत अद्वैत, द्वैताद्वैत, के सिद्धांत भी चिर स्थाई से हो गए हैं। कबीर अकाट्य है तो रहीम और मिर्जा गालिब का अध्यात्मिक दर्शन आज भी विद्यमान है।
यवन भी चाहते थे कि वे बलपूर्वक अपनी सांस्कृतिक निरंतरता को भारत में स्थापित कर देंगे। परंतु ऐसा हो ना सका। ऐसा होना संभव भी न था होता भी कैसे भारत एक भौगोलिक संरचना नहीं है इसकी अपनी सांस्कृतिक निरंतरता है सामाजिक व्यवस्था है।
यहां बिना नाम लिए संकेतों में स्पष्ट करना आवश्यक है कि-" जिस विचार में लचीलापन ना हो परिवर्तनशीलता का गुण ना हो वह न तो बलपूर्वक विस्तार पाता है और ना ही छल या कपट पूर्वक। लोभ लालच देकर तो उसके स्थायित्व को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा।"
तय आपको करना है कि आप अपने विचार को विस्तारित करने अथवा विचार समूह को विस्तारित करने के लिए कौन सा तरीका अपनाते हैं वैसे तो यह सब जरूरी भी नहीं है क्योंकि सर्वोपरि है एकात्मता का महत्वपूर्ण सूत्र। जो सर्वे जना सुखिनो भवंतु अथवा विश्व बंधुत्व का नवनीत है। अंत में सिर्फ इतना जानना जरूरी है कि-" संप्रदायिकता बुरी चीज नहीं है बल्कि सांप्रदायिक होना और उसे
बल अथवा छल कपट से विस्तार करने की कोशिश गलत है अग्राह्य है ।