यह वाक्य मेरे लिए सदा से ही घृणास्पद रहा है। इस वाक्य के मेरे कानों में पड़ते ही मेरा मस्तिष्क क्रोध से भर गया था, और आज तक शिलालेख की तरह अंकित भी है। खैर यह मेरा अपना चिंतन है कदाचित कुछ लोगों का भी हो लेकिन जो पुत्र के पिता होते हैं वे केवल अहंकार के पिटारे से अधिक मुझे कुछ नजर नहीं आते।
पुत्र संतान का गौरव अर्जित कराना तो सदियों से जारी है। भारत जैसे सनातनी देश में भारतीयों को यह जानकारी नहीं है कि भारत में शक्ति पूजा होती है। बेटियों के बिना कुछ भी नहीं बेटी दिवस पर विमर्श के लिए यह विषय जानबूझकर मैंने उन अल्प बुद्धि अभिभावकों के लिए चुना है जो केवल बेटों को अपना श्रेष्ठ संसाधन मानते हैं। जबकि मेरा दृष्टिकोण इससे इतर है। यह इसलिए नहीं कि -" ईश्वरीय संयोग से मैं बेटियों का पिता हूं बल्कि इसलिए कि मैंने हर मोर्चे पर बेटियों को सफल होते देखा है।"
अक्सर घर के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग किसी की संतान बेटी होने पर शोक ग्रस्त हो जाते हैं। इन बुजुर्गों ने ना तो वेदों का अध्ययन किया होता है और ना ही वे यह जानते कि वेदों के निर्माण में ऋषिकाओं का विशेष योगदान रहा है। ज्यादा दूर नहीं ऋग्वेद के कुछ अंश को पढ़ ले तो सब कुछ साफ हो जाएगा।
मुझे-"पुत्र के पिता बोध की जरूरत नहीं है। अगर मुझे संतान से प्रेम है तो यह सब तथ्य द्वितीयक हो जाते हैं।"
आज मैं इस बात का रहस्योद्घाटन करना चाहता हूं कि पुत्र संतान का जनक या जननी होना गौरव और गरिमा की बात नहीं है बल्कि एक अच्छी संतान का जनक या जननी होना गौरव की बात है।
भारतीय समाज को समझना चाहिए कि उसकी विरासत में बहुत कुछ ऐसा है जो यह सिद्ध करता है कि बेटियां भी बेटों के समकक्ष हैं। यह ऐतिहासिक और हमारी सांस्कृतिक निरंतरता के अन्वेषण से स्पष्ट हो जाता है। मुझे घटना याद आ रही है कि एक पुत्र संतान का पिता अपने पुत्र के विवाह के समय पुत्र के पिता और माता का दायित्व अपने भाई पर छोड़ना चाहता था। उसका यह कहना था कि मैंने यह दायित्व तुम्हें इसलिए देना चाहता हूं क्या कि तुम्हें क्योंकि मैं तुम्हें भी पुत्र बोध हो सके।
छोटे भाई का इंकार कर देना साहस का कार्य था। उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि जब ईश्वर ही नहीं चाहते कि मुझे ऐसा कोई बोध हो तो फिर आप ऐसा प्रयास क्यों कर रहे हैं? और फिर मैं तो पुत्री संतान को भी पुत्र संतान के समतुल्य समझता हूं।
समाज का नकारात्मक चिंतन आप सकारात्मक दिशा की ओर जाता नजर आ रहा है। बिटिया दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं देकर आपसे आग्रह करूंगा कि कृपया बेटियों को लेकर किसी भी तरह की मानसिक ग्रंथि ना पाले। कृपया उसे एक संतान के रूप में देखें आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप अपनी संतानों का विभाजन पुत्र या पुत्री के रूप में करें।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि मेरे भांजे के विवाह के समय उसके ससुर बेहद भावुक होकर मुझसे मिले और उन्होंने कहा हम आपके कृतज्ञ हैं और हमसे कोई कमी रह गई हो तो क्षमा कीजिए।
मैंने पूछा- "आज आपने कन्यादान किया है न..?"
उनका उत्तर था- हां.. !
मेंरा प्रतिप्रश्न-" अर्थात दाता तो आप हो न ? तो फिर आपका हाथ हमारे हाथों के ऊपर है हम याचक हैं। याचक का स्तर हमेशा ही दाता से नीचे होता है मैं आपको प्रणाम करना चाहता हूं आपको प्रणाम है।
भाव से परिपूर्ण पुत्री संतान के उस पिता को इस संवाद से जो प्रसन्नता हुई होगी उसका आंकलन करना बहुत मुश्किल है। पर मुझे विश्वास है कि-" इस तो कैसे संवाद से आप सबके मस्तिष्क में संतान के प्रति विभेद के दृष्टिकोण का अंत अवश्य हो जाएगा।"
सुधि पाठक आप सबको नमन करते हुए आत्मिक अनुरोध करना चाहता हूं-" आप पुत्र संतान , उत्कंठा में भ्रूण हत्याएं रोक दीजिए और अपनी पुत्री संतान को भी पुत्र संतान के समतुल्य ही मानिए। वंश केवल पुत्रों से नहीं चलता है, यह समाज का गलत दृष्टिकोण है। वंश पुत्रियां भी आगे नहीं जाती है यह वैज्ञानिक सत्य है। आप की संतान में आपका डीएनए है और वह डीएनए अनंत काल तक जीवित रहता है उसका स्थानांतरण होता रहता है। तो आप किस आधार पर कहते हैं कि वंश पुत्र ही चलाते हैं यह एक उत्तराधिकारी व्यवस्था हो सकती है लेकिन वैज्ञानिक और अध्यात्मिक व्यवस्था यह नहीं है जिसे आपने अपने मस्तिष्क को कूड़ेदान बनाकर संभाल कर रखा है।