8.11.21

भारत केवल एक भूमि नहीं बल्कि विचार भी है


  भारत एक भूखंड का नाम नहीं है बल्कि भारत एक विचार भी है इस विचार में अंतर्निहित है-
[  ] भारत की सभ्यता
[  ] सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश द्वार
[  ] आध्यात्मिक जीवन धारा
[  ] सांस्कृतिक वैभव
[  ] वैश्विक सहिष्णुता
       भारतीय सभ्यता बहुत प्राचीन है कोई भी नकार नहीं सकता। भ्रांति वर्ष या उदाहरणों की साक्ष्यों की उपलब्धता ना होने के कारण यह कई बार कहा गया है कि भारत की सभ्यता का विकास बिंदु लगभग 5000 वर्ष पुराना है। इस संबंध में चिंतन एवं अध्ययन से पता चलता है कि भारत की सभ्यता का विकास वर्तमान मन्वंतर में 25000 वर्ष पूर्व हुआ। इसके पूर्व भारतीय सभ्यता वनचारी सभ्यता थी इसमें कोई शक नहीं। वनचारी सभ्यता का अर्थ समझने के लिए श्रीयुत श्रीधर वाकणकर को संदर्भित किया जा सकता है। उनकी खोज से स्पष्ट हो जाता है कि मध्य भारत में भी प्राचीन मानव के आवासीय प्रमाण मिले हैं। और यह प्रमाण लगभग डेढ़ लाख से दो लाख वर्ष पूर्व के हैं। यहां यह प्रमाण नहीं मिलते कि भारत में मनुष्य प्रजाति का प्राणी अफ्रीका से आया था। इसके पीछे मेरा अवलोकन है कि-"जहां मानव प्रजाति के पूर्व अन्य स्पीशीज के सृजन का अवसर प्रकृति ने दिया वहां कालांतर में मानव सभ्यता का विकास हुआ है। अब यह कहना सर्वथा संदिग्ध होगा कि- अफ्रीका से मानव प्रजाति का झील विकसित हुआ"
    डायनासोर जो मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के नजदीक स्थित जिला डिंडोरी के जंगलों में पाए जाते थे। इस बात की गवाही देते हैं वहां मिले फॉसिल। अर्थात डायनासोर  और उससे छोटे जीवो का अस्तित्व भारत में रहा है ऐसी घटनाएं और जगह भी हो सकती हैं इससे असहमति नामुमकिन है। सुधि पाठक जन इसका तात्पर्य है कि जीव विकास के लिए अनुकूल परिस्थिति जब मध्यप्रदेश में करोड़ों साल पूर्व रही है तो मानव जीवन के अस्तित्व में आने की परिस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता।
[  ] सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश द्वार
शनै शनै वनवासी मानव जीवन ने अपने आप को विकसित किया और यह विकास बौद्धिक कारणों से कर लिया। जिसका का प्रथम चरण का समूह में रहना आत्मरक्षा के प्रयास का नाम जैसे गुफाओं में रहना आदि आदि। फिर धीरे-धीरे समूह का विस्तार हो जाना यह प्रक्रिया मेरे अनुमान से लगभग पच्चीस से पचास हजार वर्ष में पूर्ण हुई होगी। इस प्रकार क्रमश: परंतु धीरे-धीरे सभ्यता विकसित होती रही।
[  ] आध्यात्मिक जीवन धारा-
भारत की आध्यात्मिक जीवन धारा  की रीढ़ की हड्डी है । भारत में जिन सिद्धांतों को हजारों साल पहले प्रतिपादित कर दिया वे मानवता के सिद्धांत थे । द्वैत अद्वैत के मूल आधार पर विश्व बंधुत्व का उद्घोष करता हुआ यह मंत्र सर्वे जना सुखिनो भवंतु मानव संस्कृति का मूल आधार है। इसके बिना कोई भी संस्कृति दीर्घकाल तक व्यवस्थित और स्थापित नहीं रह सकती। भारत का अध्यात्म कहता है कि जब मानवीय मूल्यों का संरक्षण करना हो तो शत्रु को भी प्रोटेक्शन दो और जब न्याय का महत्व रेखांकित करना हो तो महाभारत करो। शब्दों का खेल नहीं बल्कि हमारी सभ्यता की मूलभूत विशेषता है। महाभारत क्यों हुआ कृष्ण ने दुर्योधन से न्याय हित  में कुल 5 गांव मांगे थे दुर्योधन मान लेते पांडव युद्ध के लिए आगे ना बढ़ते। न्याय को न करने वाला सदैव शूलों की शैया पर लेटता है । वरदान जो अभिशाप बन जाता है इच्छा मृत्यु का वरदान बीच में जैसे पवित्र व्यक्ति के लिए अभिशाप बन गया। अभिशाप इसलिए कि नुकीले वाणों से बनी सैया पर एक लंबी अवधि तक उन्हें लेटे रहना पड़ा। उन्होंने द्रोपती के चीरहरण के समय महिला के हित में एक भी आवाज ना उठाई। वास्तव में यह एक संदेश भी है कि यदि आप कमजोर के हितों के रक्षक नहीं है तो आपको उसका परिणाम अवश्य मिलेगा। अफगानिस्तान की परिस्थितियों को देखिए जुल्म जुर्म और आक्रांता का दस्तावेज बन गया है अफगानिस्तान। इतिहास में कभी भी इन्हें सकारात्मक नजरिए से कोई नहीं देखेगा। मुझे तो संदेह है कि ऐसी विचारधारा भी बहुत जल्दी समाप्त हो जाएगी जो कमजोर वर्ग के लिए हिंसक हो। आपने देखा होगा माया इंका,मिस्त्र की सभ्यता
,मेसोपोटामिया की सभ्यता,सुमेरिया की सभ्यता,असीरिया की सभ्यता,चीन की सभ्यता,यूनान की सभ्यता,रोम की सभ्यता समाप्त हुई इसके पीछे उनकी आध्यात्मिक विचारधारा में कमियां निश्चित रूप से मौजूद रही है।
[  ] सांस्कृतिक वैभव-
भारत के सांस्कृतिक विकास में धर्म जो संप्रदाय नहीं है,मानवीय मूल्य, आध्यात्मिक दर्शन, मानवता के प्रति प्रतिबद्धता, जन के अधिकारों जैसे तत्वों का न्याय और निष्ठा का समावेशन किया गया है जिसके परिणाम स्वरूप हमारा सांस्कृतिक स्वरूप वैभवशाली है। और यही वैभव आकृष्ट करता है दुनिया को।
[  ] वैश्विक सहिष्णुता
क्योंकि भारत में विश्व बंधुत्व का समावेश है अतः भारत का सदैव प्रयास होता है कि विश्व के साथ संबंध सकारात्मक रहे। इसके उदाहरण सम्राट अशोक के काल के पूर्व द्वापर और उसके पूर्व त्रेता युग के इतिहास में परिलक्षित होता है।
    इंडोनेशिया बाली जावा सुमात्रा श्रीलंका इत्यादि क्षेत्रों की यात्रा कर बुद्ध ने भी यही साबित किया है।
   अखंड भारत यही है इस का भौगोलिक स्वरूप राजनीतिक स्वरूप सामाजिक एवं आर्थिक स्वरूप भले ही सीमा में बंधा हुआ हो परंतु वैचारिक रूप से जहां एक भारतीय जाता है वहां एक भारत जन्म ले लेता है। अन्य संप्रदायों को बल छल कपट और लालच देकर अपनी संस्कृति और पूजा प्रणाली वितरित करते हुए हमने देखा है आप भी देखते हैं। लेकिन भारतीय ऐसा नहीं करते। भारतीय सनातन के विस्तार के लिए कार्य नहीं करते। क्योंकि सनातन में सन्निहित मूल्यों का क्षरण नहीं होता। अगर आप अमृत की परिभाषा जानना चाहते हैं तो सनातन के मूल्यों को देख सकते हैं। सनातन को स्वीकार नाना स्वीकार ना यहां यह सवाल नहीं है और ना ही मैं सनातन का प्रचारक हूं पर सनातन व्यवस्था अनूठी सामाजिक व्यवस्था है क्यों अनादि है अनंत है।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

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