12.11.21

ऊन-सलाई वाले दिन..!


  वो दिन जो अब कभी नहीं लौटेंगे यकीन कर लो कभी नहीं लौटेंगे । न मां तुम हो ना तुम्हारी वह सखियां जो सर्दियों वाली दोपहरी में आंगन भर देती थीं गौरैया तब परेशान हो जाती थी फिर भी बगल में सूख रहे अनाज को चुग ही लेती थी। मां तब तुम थी जब मिट्टी के आंगन में दिवाली के बाद दोपहर रोज दिवाली हुआ करती थी। हंसी ठहाको के अचानक पटाखे फूटा करते थे। तो कभी पता नहीं चलता था कि किसी के दुख में मुंह में ऊपर वाले तालु और जीव के बीच से आप सब किच्च किच्च की आवाज निकाल रही हैं या गौरैया के झुंड से चिक चिक की आवाज निकल रही है। कभी कभार पता चल जाता था जब कोई सखी साड़ी के पल्लू से कोरों को सुखाती । 
   परिवार के हर सदस्य के  लिए हर साल एक नया स्वेटर बुनने वाली तुम और तुम्हारी सखियां ऊन वाले से बहुत रिक झिक करतीं थीं । आखिर हारता वही था।
     मां मुझे याद है और जिसे याद ना होगा याद आ जाएगा सड़क पर फेरी लगाता ऊन वाला पूरे गांव में- ले ल्यो ऊन लेल्यो केशमी उन वाल्या कुल 200 या 300 रुपयों में गांव भर को ठंड से बचने का साधन दे जाता था। और फिर शुरू होती थी आप सब की साधना। रोज दोपहर 12 बजे से शाम तक स्वेटर की बुनाई का दौर बचा खुचा काम हम सब को खिलाने पिलाने के बाद लालटेन की जीवनी रोशनी महिंद्रा देती थी। हमें मालूम था कि हमारी स्वीट मां तुम जरूर बुनोगी ।
   हाथ बुनाई की स्वेटर अलग-अलग डिजाइन में पूरा वातावरण कलरफुल और जाड़ा उससे तो पूरा गांव कह दिया करता था- जाड़ा तो क्या जाड़े का बाप भी आ जाए तो हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हमें मालूम नहीं कब सोती थी कब जाती थी सोती हुई थी या नहीं भगवान जाने।
    अब तो ऊन-सलाई, ऐसा लगता है इतिहास है। मुझे याद है एक बार जब मैं जॉब पर लगने के बाद किसी आंगनवाड़ी के इंस्पेक्शन पर गया तो देखा कि- वह वर्कर स्वेटर बुन रही है। खाली समय था मुझे भी कोई आपत्ति नहीं थी परंतु अकारण भय वश वह उसे छुपाने की कोशिश की अपनी लगी..!
   और जब मैंने उससे कहा जरा दिखाओ तो डरते कांपते उस महिला ने जब स्वेटर दिखाई तब मुझे तुम्हारी बहुत याद आई थी। मैंने उससे कहा था कि आज तुमने मेरी मां की याद दिला दी। डिजाइन बहुत अच्छी बनाई है।
  औरतें तब पिछड़ी नहीं थी कुछ किताबें पढ़ कर कोई पढ़ा लिखा नहीं बन जाता। यह औरतें तब आत्मनिर्भर थी हर घर में सिलाई मशीन हर घर में ऊन-सलाई पुराने ऊन के गोले, जो अक्सर नई डिजाइन में बनी स्वेटर के साथ फिर हमारे सीने से जा सकते थे। मां तुम बहुत याद आती हो सीने पर चिपके हुए उन स्वेटर्स को याद करता हूं तो बहुत याद आती हो। याद है मौसी और मंगला दीदी ने भी फूल भी बुनकर टाक दिए थे मेरी हरी और सफेद ट्विटर पर। बहुत कठिन बुनाई थी।
     वह अब वह कला वह आत्मनिर्भरता
ना गांव में है ना शहर में। पता नहीं तुम सब जो आठवीं या मैट्रिक तक भी पढ़ीं न थीं । कुछ तो निरक्षर ही थी और कुछ 2-3 क्लास पढ़ी हुई । पर ऊन के गोले में लपेट कर बखूबी बचत को जमा कर घरेलू बचत को हिफाजत से रख देती थीं । न अब किसी के पास स्वेटर बुनने का वक्त है और ना ही स्वेटर की गर्मी में अपनी ममत्व की गर्मी को समाहित करके पहनाने की हिम्मत ही शेष है। सुना है टाइम किसी के पास नहीं है। अब हमारी गली से ऊन वाला नहीं निकलता । ना वह दोपहर की आंगनवाली सभाएं सजतीं । तब आप नई बेटियों और बहुओं को जीवन के संकल्प समझाती। मां आप आंगन नहीं सजते । 
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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