मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के बीच एक चेतना है जो दर्शन का मूलाधार है । चेतना वर्ग विहीनता का आधार है । चेतना की पृष्ठभूमि के घनत्व में जो चिंतन होता है वह स्वाधिकार के साथ समष्टि के अधिकारों की मौजूदगी का आभास कराता है ।
किसी पर कुछ भी मत लादो पंथ वर्ग में मत बांधों । जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो उसके अधिकारों पर अतिक्रमण मत कौए की तुलना कोयल से मत करो । कोयल को काग के अनुकरण एवम अनुशरण की सलाह देना चाहते तो निरे मूर्ख हो। गाय का दूध बकरी के दूध का समानार्थी हो सकता है विकल्प भी है पर वो गाय के स्तन से निकला गाय का दूध नहीं है । उसे जो है वह रहने दो । अगर बलात बदलाव करोगे तो मूर्खता होगी । कुल मिलाकर किसी को बदलने की ज़रुरत क्या है। अतएव दर्शन का मूल तत्व है कि मानव जीवन आत्मोन्नति के लिए है ।
वामपंथ कहता है पदार्थ श्रेष्ठ है, सनातन की व्याख्या है... पुरुषार्थ से अर्जित पदार्थ के साथ उपभोक्ता को आत्मोन्नति का अभ्यास करना ही होगा । वाम ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करता है । दैहिक संपृक्ति के साथ आत्मज्ञान के सहारे सनातन ईश्वर से अंतिम मिलन का पथ स्वीकार करने की सलाह देता है । सनातन अवधारणाओं पर विमर्श एवम अभ्यास को मार्ग सुझाता है ।
सनातन धर्म में देह एवम भावात्मकता का विश्लेषक बना देता है। जवकि वामपंथ या अन्य सम्प्रदाय -"सामाजिक क़ानून बनाते नज़र आते हैं ।" क़ानून बनाना राजा का धर्म है । राजा जो जन गण का प्रशासनिक प्रबन्धन कर्ता है । राजा एक शक्ति है वो भारत में प्रजातंत्र में निहित है । उसे बनाने दो । बाज़ारों को बाज़ार की तरह काम करने दो उससे घृणा मत करो कयोंकि वाज़ार दैहिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पुरुषार्थ के रास्ते खोलता है। जो वस्तु को अत्यधिक मूल्यवान मत बनाओ । Cost enhancement करना अत्यधिक लाभ कमाने की पृवृत्ति को स्थापित करने की कोशिश है ।
उपरोक्त की तर्ज पर मूल्य का क्षरण भी मत करो वरना अनाधिकृत उपभोग वृत्ति को समर्थन मिलेगा, साथ ही उत्पादक सबसे पहले श्रम की कीमतों को गिराएगा । श्रमिकों के अधिकार अतिक्रमित होंगे । एक श्रमिक के साथ उसका परिवार उच्च स्तर पर नहीं जा सकेगा । हो सकता है श्रमिक आधी रोटी खाने पर मजबूर हो जाए।
कोविड-19 महाविनाश की असफल कोशिश थी । उसके सर्वाधिक प्रभाव काल में चीन की जीडीपी में उछाल आया है ।
कार्ल मार्क्स ने सर्वजन हिताय का तत्व मूल रूप अपने चिंतन में रखा था । लेनिन औऱ स्टालिन ने इसे भटका दिया । कार्ल मार्क्स का लक्ष्य था मज़दूरों को सामर्थ्य देना । पर सम्पति पर अधिकार से वंचित कर देना। यह एक सीमा तक ठीक था । पर भारत के संदर्भ में फिट नहीं था । रामायण काल जिसमें राजा मांधाता से लेकर राम के वंशजों तक का काल देखें तो वह कालावधि प्रजातांत्रिक-मोनार्की की कालावधि है । प्रजा का महत्व अधिक रहा है। इसी कारण गांधी जी ने -रामराज की अवधारणा को श्रेष्ठ माना यद्यपि प्रयोग वादी होने एवम सोवियत विचारधारा के कारण उनकी बात सैकेंडरी रही।
यहां मेरा मानना है कि-"साम्यवाद की अवधारणा भारत के अनुकूल नहीं है ।"
भारतीय सामाजिक आर्थिक विकास का मॉडल रामराज ही है । क्योंकि यह मॉडल पदार्थ के उपयोग उपभोग एवम आत्मोन्नति की ओर समानता से देखता है।
पर आज़ाद भारत के संविधान में ही धर्म को रिलीज़न यानी सम्प्रदाय कह कर जिस प्रकार से भ्रमित किया गया उसके परिणाम से आप हम सब परिचित हैं । सनातन धर्म ही धर्म है शेष सब पंथ या सम्प्रदाय कहे जाने चाहिए। डिक्शनरीयों में धर्म शब्द को उसकी प्रकृति अनुसार परिभाषित कर धर्म ही लिखना चाहिये ।
उपरोक्त बिंदु ओर जरा सा विषयांतर होना पड़ा पर ज़रूरी था।
( शेष फिर कभी )