Dainik Bhaskar की कवरस्टोरी पढ़कर कुछ असहज सा महसूस कर रहा हूं. 5 साल में 77% बढ़ी स्पोर्ट्स इंडस्ट्री विज्ञापनों से 66% की कमाई कोहली और धोनी को यह है शीर्षक इस कवरस्टोरी का.
इसका अर्थ यह नहीं है कि विकास के इस अनोखे से पहलू का मैं विरोध करूंगा या उससे असहमत हूं । मामला यह है कि मल्टीनेशनल कंपनी के विज्ञापनदाता तथा स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने वाली खास सोसायटी ने जिन खेलों को बढ़ावा दिया है उनमें कबड्डी और क्रिकेट की चर्चा की गई है क्रिकेट को सर्वाधिक स्पॉन्सरशिप का लाभ मिला करता है । बड़े उद्योगपतियों व्यक्तियों एवं मल्टी नेशंस और देसी कंपनियों द्वारा केवल और केवल उन खेलों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो ऑलरेडी लोकप्रिय हैं यहां तीरंदाजी शूटिंग कुश्ती जैसे उन खेलों को 0 अथवा कुछ प्रतिशत ही स्पॉन्सरशिप और सपोर्ट मिलता है यह ग्राउंड रियलिटी ।
बेशक रिपोर्ट बहुत ही उपयोगी एवं सूचना पर है प्रस्तुतकर्ता नहीं भले ही कुछ मुद्दे स्पष्ट ना किया हो तथापि रिसर्च तो की है और विषय भी बेहद समसामयिक है । अखबार लिखता है कि स्पोर्ट्स इंडस्ट्री में किस पर कितना खर्च किया जाता है यहां 11% 3 की स्पॉन्सरशिप में 6% विज्ञापन पर 20.6% ग्राउंड स्पॉन्सरशिप तथा 4.6% फ्रेंचाइजी के जरिए भुगतान होता है मीडिया का लगभग 57.1% रिपोर्टेड है ।
यहां मैं आर्टिकल प्रस्तुतकर्ता अखबार को बताना चाहूंगा कि क्रिकेट शुरू से खेल को मैं खेल के तौर पर स्वीकार नहीं करता यह एक अपने आप में उद्योग है जिस तरह फिल्म उद्योग वस्त्र उद्योग ठीक उसी तरह क्रिकेट उद्योग । अतः इसकी आंकड़ों को शामिल न करने के बाद प्रो कबड्डी तथा अन्य खेलों के लिए उद्योगपति एवं मल्टी नेशन कंपनी साथ ही साथ देसी कंपनियां कुछ भी खास करते नजर नहीं आ रही हैं ।
जिसके परिणाम स्वरूप केवल क्रिकेट थी सर्वोपरि समझ में आता है और हम अपने चिंतन में क्रिकेट को खेल के रूप में स्थान दे रहे हैं ।
बैडमिंटन तीरंदाजी गोल्फ बिलियर्ड स्नूकर शूटिंग रेसलिंग वॉलीबॉल फुटबॉल पर कंपनियों की नजर कम है इतना ही नहीं कंपनियां या विज्ञापनदाता व्यक्ति या कोई भी राष्ट्रहित में बहुत अधिक नहीं सोचते हैं वे केवल अपने प्रोडक्ट के ग्राहक तक पहुंचने के लिए बहुत ज्यादा समझदार नहीं हुए ।
यहां तक कि प्रो कबड्डी के विज्ञापन में धोनी को तरजीह दी जा रही है भारत का अपना खेल विदेशी खेल के कांधे को पकड़कर आगे बढ़ रहा है इस बात की समीक्षा भी आलेख में विस्तारपूर्वक की जा सकती थी बहरहाल आलेख एक चिंतन की दिशा अवश्य दे गया वह यह कि हमारे विज्ञापनदाता खेलों के प्रति बहुत ज्यादा पॉजिटिव एटीट्यूड नहीं रखते हैं बल्कि उनका ध्यान उनके कस्टमर्स पर है यहां आपको बता दूं कि अगर 11 ग्राम पंचायत में छोटे-छोटे स्थानों पर बैंक के बीमा कंपनियां मल्टी नेशन कंपनीज तथा देसी कंपनियां व्यक्ति अथवा कोई भी स्पॉन्सरशिप ट्रेनिंग के मामले में शुरू कर दें तो हम विश्व कप के साथ साथ अमेरिका और चीन से अधिक गोल्ड जीत कर ला सकते हैं एशियन एवं ओलंपिक गेम्स में वास्तव में केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों को ऐसी कंपनिओं विज्ञापन दाताओं की जरूरत है जो अन्य स्पोर्ट्स में स्पॉन्सरशिप करें खासतौर पर ट्रेनिंग में । जरूरत है छोटे नगरों जबलपुर इंदौर ग्वालियर भुवनेश्वर पटना सहित अन्य प्रदेशों के महत्वपूर्ण किंतु छोटे नगरों में चलाए जा रहे कैंप्स को वित्तीय सहायता मुहैया कराने की किंतु यह सोच कंपनियों में आज तक विकसित नहीं हुई जो इस देश का भी दुर्भाग्य है । बीसीसीआई भारत का सबसे शक्तिशाली संगठन है लेकिन उसके सापेक्ष राज्य आश्रित प्रशिक्षण संस्थानों कि अपनी समस्याएं हैं जिसका निराकरण वित्तीय सहायता की उपलब्धता से सहज संभव है मैं जानता हूं कि यह आलेख इसी मल्टीनैशनल किसी एक जिक्र तक नहीं पहुंच पाएगा नहीं ऐसा कोई सोच पाएगा वह इसलिए भी कि एक तो हिंदी मैं लिखा गया आलेख है साथ ही सोशल मीडिया पर एक सामान्य से व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत चिंतन है जिसकी मोटे तौर पर बहुत अधिक वैल्यू नहीं होगी परंतु में साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि अगर कंपनियां अर्थात विज्ञापनदाता इस और ध्यान दें और सरकारें ऐसी कोई पॉलिसी बनाएं जिससे कि स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने के लिए कंपनियां स्पॉन्सरशिप के तरीकों पर पुनर्विचार करके मदद करें बेहद सराहनीय कदम होगा
इसका अर्थ यह नहीं है कि विकास के इस अनोखे से पहलू का मैं विरोध करूंगा या उससे असहमत हूं । मामला यह है कि मल्टीनेशनल कंपनी के विज्ञापनदाता तथा स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने वाली खास सोसायटी ने जिन खेलों को बढ़ावा दिया है उनमें कबड्डी और क्रिकेट की चर्चा की गई है क्रिकेट को सर्वाधिक स्पॉन्सरशिप का लाभ मिला करता है । बड़े उद्योगपतियों व्यक्तियों एवं मल्टी नेशंस और देसी कंपनियों द्वारा केवल और केवल उन खेलों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो ऑलरेडी लोकप्रिय हैं यहां तीरंदाजी शूटिंग कुश्ती जैसे उन खेलों को 0 अथवा कुछ प्रतिशत ही स्पॉन्सरशिप और सपोर्ट मिलता है यह ग्राउंड रियलिटी ।
बेशक रिपोर्ट बहुत ही उपयोगी एवं सूचना पर है प्रस्तुतकर्ता नहीं भले ही कुछ मुद्दे स्पष्ट ना किया हो तथापि रिसर्च तो की है और विषय भी बेहद समसामयिक है । अखबार लिखता है कि स्पोर्ट्स इंडस्ट्री में किस पर कितना खर्च किया जाता है यहां 11% 3 की स्पॉन्सरशिप में 6% विज्ञापन पर 20.6% ग्राउंड स्पॉन्सरशिप तथा 4.6% फ्रेंचाइजी के जरिए भुगतान होता है मीडिया का लगभग 57.1% रिपोर्टेड है ।
यहां मैं आर्टिकल प्रस्तुतकर्ता अखबार को बताना चाहूंगा कि क्रिकेट शुरू से खेल को मैं खेल के तौर पर स्वीकार नहीं करता यह एक अपने आप में उद्योग है जिस तरह फिल्म उद्योग वस्त्र उद्योग ठीक उसी तरह क्रिकेट उद्योग । अतः इसकी आंकड़ों को शामिल न करने के बाद प्रो कबड्डी तथा अन्य खेलों के लिए उद्योगपति एवं मल्टी नेशन कंपनी साथ ही साथ देसी कंपनियां कुछ भी खास करते नजर नहीं आ रही हैं ।
जिसके परिणाम स्वरूप केवल क्रिकेट थी सर्वोपरि समझ में आता है और हम अपने चिंतन में क्रिकेट को खेल के रूप में स्थान दे रहे हैं ।
बैडमिंटन तीरंदाजी गोल्फ बिलियर्ड स्नूकर शूटिंग रेसलिंग वॉलीबॉल फुटबॉल पर कंपनियों की नजर कम है इतना ही नहीं कंपनियां या विज्ञापनदाता व्यक्ति या कोई भी राष्ट्रहित में बहुत अधिक नहीं सोचते हैं वे केवल अपने प्रोडक्ट के ग्राहक तक पहुंचने के लिए बहुत ज्यादा समझदार नहीं हुए ।
यहां तक कि प्रो कबड्डी के विज्ञापन में धोनी को तरजीह दी जा रही है भारत का अपना खेल विदेशी खेल के कांधे को पकड़कर आगे बढ़ रहा है इस बात की समीक्षा भी आलेख में विस्तारपूर्वक की जा सकती थी बहरहाल आलेख एक चिंतन की दिशा अवश्य दे गया वह यह कि हमारे विज्ञापनदाता खेलों के प्रति बहुत ज्यादा पॉजिटिव एटीट्यूड नहीं रखते हैं बल्कि उनका ध्यान उनके कस्टमर्स पर है यहां आपको बता दूं कि अगर 11 ग्राम पंचायत में छोटे-छोटे स्थानों पर बैंक के बीमा कंपनियां मल्टी नेशन कंपनीज तथा देसी कंपनियां व्यक्ति अथवा कोई भी स्पॉन्सरशिप ट्रेनिंग के मामले में शुरू कर दें तो हम विश्व कप के साथ साथ अमेरिका और चीन से अधिक गोल्ड जीत कर ला सकते हैं एशियन एवं ओलंपिक गेम्स में वास्तव में केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों को ऐसी कंपनिओं विज्ञापन दाताओं की जरूरत है जो अन्य स्पोर्ट्स में स्पॉन्सरशिप करें खासतौर पर ट्रेनिंग में । जरूरत है छोटे नगरों जबलपुर इंदौर ग्वालियर भुवनेश्वर पटना सहित अन्य प्रदेशों के महत्वपूर्ण किंतु छोटे नगरों में चलाए जा रहे कैंप्स को वित्तीय सहायता मुहैया कराने की किंतु यह सोच कंपनियों में आज तक विकसित नहीं हुई जो इस देश का भी दुर्भाग्य है । बीसीसीआई भारत का सबसे शक्तिशाली संगठन है लेकिन उसके सापेक्ष राज्य आश्रित प्रशिक्षण संस्थानों कि अपनी समस्याएं हैं जिसका निराकरण वित्तीय सहायता की उपलब्धता से सहज संभव है मैं जानता हूं कि यह आलेख इसी मल्टीनैशनल किसी एक जिक्र तक नहीं पहुंच पाएगा नहीं ऐसा कोई सोच पाएगा वह इसलिए भी कि एक तो हिंदी मैं लिखा गया आलेख है साथ ही सोशल मीडिया पर एक सामान्य से व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत चिंतन है जिसकी मोटे तौर पर बहुत अधिक वैल्यू नहीं होगी परंतु में साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि अगर कंपनियां अर्थात विज्ञापनदाता इस और ध्यान दें और सरकारें ऐसी कोई पॉलिसी बनाएं जिससे कि स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने के लिए कंपनियां स्पॉन्सरशिप के तरीकों पर पुनर्विचार करके मदद करें बेहद सराहनीय कदम होगा