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रविवार, अक्टूबर 14, 2018

MeToo Vs To me By Girish Billore

मी टू बनाम टू मी
मी टू कैंपेन से असहमत को बिल्कुल नहीं हूं असहमति की कोई वजह भी नहीं होनी चाहिए मी टू कैंपेन इन बरसों से दबी हुई एक आवाज है देर से ही सामने आ रही है जहां तक सवाल है इसके दुरुपयोग होने का तो मेरा कहना यह है यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है कोई भी ऐसे अवसर नहीं छोड़ता अगर वह बुद्धिमान समझदार और पूर्वाग्रह ही ना हो ।
अगर कोई किसी को कमजोर महसूस करता है तो निश्चित तौर पर उसकी कोशिश होती है कि कभी ना कभी अपनी बात को अभिव्यक्त कर दी और उसे अवसर मिलना ही चाहिए ।
समाज की परिस्थितियां अगर बेहद आदर्श होती तो ऐसी स्थिति उत्पन्न ही ना होती लेकिन माया नगरी मुंबई की कहानी ही गजब है पेज 3 पर स्वयं को एक्स्पोज़र दिलाने वाली इस कम्युनिटी जिसे केवल और केवल अपनी सेलिब्रिटी इमेज को मेंटेन करने के लिए अनिच्छा से ही सही खूबसूरत दिखना होता है मुस्कुराना होता है और अपने आप को एंटरटेनमेंट प्रोडक्ट बनाए रखने की कोशिश सतत जारी रहती है ।
यह मीडिया ही है जो उनके कपड़े उन पर केंद्रित गाशिप को हवा देता है ।
और उसी से प्रेरित होकर लोग यह समझते हैं कि माया नगरी में सब कुछ आसान है वैसे होता भी है कास्टिंग काउच जैसा
कॉम्प्रोमाइज सामान्य रूप से सुना जाता रहा है।
*कॉम्प्रोमाइज करने की जरूरत क्यों पड़ती है...?*
यह एक बड़ा सवाल है ऐसी कई कहानियां है जो साबित करती हैं कि कॉम्प्रोमाइज करने वाली या करने वाली के पास कोई विकल्प नहीं होता । कई बार तो महिला अथवा पीड़ित पक्ष कार स्वयं यह मानसिकता लेकर माया नगरी में दाखिल होता है यह सब कुछ स्वाभाविक है पार्ट आफ बिजनेस है..... शायद शायद क्या निश्चित थी उन्हें यह समझाया जाता है इस सफलता का मूल मंत्र आपकी योग्यता ना होकर समझौता है ।
मेरे मित्र ऑफिसर श्रोतीय ने कभी कहा था- कला के मामले में सफलता का रास्ता शोषण से ही निकलता है । मुझे उनकी बात न केवल हास्यास्पद लगी बल्कि तब मैं यह सोचता था यह बड़ा घटिया सोच वाला व्यक्ति है ।
लेकिन ऐसा नहीं है आज जब यह सारी घटनाएं क्रमश: सामने आ रही है तो कहीं ना कहीं स्पष्ट होता है कि यह बात बहुत पहले ही सामने आनी चाहिए थी जिससे मी टू कैंपेन की आवश्यकता ना होती ।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति इस तरह के एक्सपोजर से शर्मिंदगी का बोझ उठा चुके हैं ।
माया नगरी में यह सब उतना ही सहज है इसका सभी हिंदुस्तानियों को एहसास था ।
अब यह प्रश्न उठता है बार-बार उठता है की पुरानी बातें क्यों उभर रही है ?
सवाल बिल्कुल जायज है उभरना चाहिए सवाल करना चाहिए किंतु मेरे विचार से इस सवाल का उत्तर यह होगा कि तब कोई ऐसा प्लेटफॉर्म ना होगा जिस पर अपनी बात सुरक्षित तरीके से कही जा सके । यह बात सामान्य रूप से स्पष्ट है कि मी टू कैंपेन इन सोशल मीडिया के कारण महिलाओं में अथवा विक्टिम्स में आत्मविश्वास जगा सका है ।
लेकिन इस बात की क्या गारंटी की जो भी कुछ किया जा रहा है उसके पीछे आरोप लगाने वाले की मंशा क्या है ?
आरोप प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने के लिए तो नहीं है ?
आरोप कर्ता की इच्छा अनुचित लाभ प्राप्त करने की तो नहीं है ?
और उसकी अपनी सहमति से ऐसा कुछ हुआ तो नहीं हुआ ?
एक बुजुर्ग नेता को मेरे शहर में ब्लैकमेल करने के लिए ऐसा षडयंत्र किया गया । वहीं दूसरी ओर दो अधिकारियों के साथ भी ऐसा कुछ ही हुआ है लेकिन प्रथम दृष्टया यह तीनों मामलों में कथित विक्टिम भी स्वैच्छिक रूप से शामिल थीं । यद्यपि वे आपराधिक षडयंत्र कारी प्रवृत्ति के गिरोह की सदस्य थीं । पर तीनों पुरुषों में आत्मनियंत्रण की शक्ति न थीं ।
बात जो भी हो हमें इतना विजिलेंट होना तो जरूरी है कि हम अपने चारित्रिक स्तर को मेंटेन करके रखें अगर हम यह नहीं करते तो मी टू कैंपेन में फंसते ही चले जाएंगे और पारिवारिक सामाजिक कानूनी स्थितियों का सामना करने लायक भी नहीं रह पाएंगे ।
भारत के कल्चर में मी टू कैंपेन की आवश्यकता आज से बरसों पहले से ही थी अभी तो केवल रजत फलक और राजनीति से जुड़े लोग इस कैंपेन की जद में है अगर गौर से देखें समाज शास्त्रियों एवं महिलाओं के संबंध में काम करने वाली संगठनों एवं लोगों से बात करें तो पाएंगे मी टू कैंपेन की जरूरत घर परिवार कुटुंब में सबसे ज्यादा होती है । अगर सच्चाई जानेंगें तो आप चकित रह जाएंगे कि कुटुंब, परिवार, नौकर चाकर, सभी में कोई न कोई विक्टिम आसानी से आप खोज सकते हैं ।

हमारे गाँव की औरतें अपने प्रति यौनिक हिंसा के अपमान  का ख़ुलासा करने के लिये महीनों या वर्षों का इन्तज़ार नहीं करतीं । ये हम नहीं वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा दीदी का अनुभव जन्य कोट है ।

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