30.8.18

अचार की एक फांक : हरेश कुमार की वाल से

 

गुरुकुल घरोंदा के एक आचार्य थे। वे जनसंघ के टिकट पर सांसद बन गए, तो उन्होंने सरकारी आवास नहीं लिया। वे दिल्ली के बाजार सीताराम, दिल्ली-6 के आर्य समाज मंदिर में ही रहते थे । वहां से संसद तक पैदल जाया करते थे कार्रवाई में भाग लेने।

वे ऐसे पहले सांसद थे, जो हर सवाल पूछने से पहले संसद में एक वेद मंत्र बोला करते थे। वे सब वेदमंत्र संसद की कार्रवाई के रिकॉर्ड में देखे जा सकते हैं। उन्होंने एक बार संसद का घेराव भी किया था, गोहत्या पर बंदी के लिए ।

एक बार इंदिरा जी ने किसी मीटिंग में उन स्वामी जी को पांच सितारा होटल में बुलाया। वहां जब लंच चलने लगा तो सभी लोग बुफे काउंटर की ओर चल दिये। स्वामी ही वहां नहीं गए । उन्होंने अपनी जेब से लपेटी हुई बाजरे की सूखी दो रोटी निकाली और बुफे काउंटर से दूर जमीन पर बैठकर खाने लगे। 

इंदिरा जी ने कहा - "आप क्या करते हैं ? क्या यहां खाना नहीं मिलता ? ये सभी पांच सितारा व्यवस्थाएं आप सांसदों के लिए ही तो की गई है।"

तो वे बोले - "मैं संन्यासी हूं। सुबह भिक्षा में किसी ने यही रोटियां दी थी । मैं सरकारी धन से रोटी भला कैसे खा सकता हूं।"

इंदिरा जी का धन्यवाद देते हुए होटल में उन्होंने इंदिरा से एक गिलास पानी और आम के अचार की एक फांक ली थी।जिसका भुगतान भी उन्होंने इंदिरा जी के मना करने के बावजूद किया था !

जानते हैं यह महान सांसद और संन्यासी कौन थे?

ये थे संन्यासी स्वामी रामेश्वरानंद जी। कट्टर आर्य समाजी। परम गौ भक्त । अद्वितीय व्यक्तित्व के स्वामी जी ।
स्वामी जी हरियाणा के करनाल से सांसद थे । 
ऐसे अनेकों साधक हुए इस देव भूमि भारत पर , लेकिन हम नेहरू-गांधी के आगे देख नही पाए । शायद हमें पढ़ाया भी नहीं गया । कभी मौका लगे तो आप भी अवश्य जानिए ऐसे व्यक्तित्वों को। भारत को तपस्वियों का देश ऐसे ही नहीं कहा जाता ।

29.8.18

स्वर्ग की बातें झूठी बातें


स्वर्ग की बातें झूठी बातें,इल्म तो है मस्ताने को
हम क्यों जाएं पागलखाने पागल को समझाने को
जब भी हम खुद से मिलते हैं,खुद को जाना करते हैं
हम खुद से ही फिर सीखेंगे,क्यों आए समझाने को
कितने पंथ कितनी राहें,कितने दर्शन कितनी सोच
हम तो हैं कबीर के अनुचर,गीत हमें भी गाने दो
अपनी गठरी खुद ही रख लो,हमको मत दो बोझा ये
हम खुद अपना कमा ही लेंगे,खुद को भी अजमाने दो
ईश्वर अल्लाह परमपिता सब से मिलना है हमको
किसने सौंपा तुमको जिम्मा इन सब से मिलवाने को
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

27.8.18

अनकिया सभी पूरा हो : श्री अशोक चक्रधर

मॉरीशस में सम्पन्न विश्व हिंदी सम्मेलन पर चुटीली रिपोर्ट श्री एम एल गुप्ता आदित्य जी के ई-सन्देश से प्राप्त हुई । 
चौं रे चंपू! लौटि आयौ मॉरीसस ते?
दिल्ली लौट आया पर सम्मेलन से नहीं लौटपाया हूं। वहां 

तीन-चार दिन इतना काम किया किअब लौटकर एक ख़ालीपन सा लग रहा है। करनेको कुछ काम चाहिए।
एक काम करपूरी बात बता!
उद्घाटन सत्रअटल जी की स्मृति में दो मिनिटके मौन से प्रारंभ हुआ। दो हज़ार से अधिक प्रतिभागियों के साथ दोनों देशों के शीर्षस्थ नेताओंकी उपस्थिति श्रद्धावनत थी और हिंदी कोआश्वस्त कर रही थी। ‘डोडो और मोर’ की लघुएनीमेशन फ़िल्म को ख़ूब सराहना मिली। औरफिर अटल जी के प्रति श्रद्धांजलि का एक लंबासत्र हुआ। ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’ सेजुड़े चार समानांतर सत्र हुए। चार सत्र दूसरे दिनहुए। ‘हिंदी प्रौद्योगिकी का भविष्य’ विषय परविचार-गोष्ठी हुई। प्रतिभागी विभिन्न सभागारों मेंजमे रहे। भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों कोतिलांजलि दे दी गईलेकिन रात में देश-विदेश केकवियों ने अटल जी को काव्यांजलि दी। तीसरेदिन समापन समारोह हुआ। देशी-विदेशी विद्वानसम्मानित हुए। सत्रों की अनुशंसाएं प्रस्तुत कीगईं। भविष्य के लिए निकष को भारत का प्रवेश द्वार बताया गया। 
कछू बात तौ हमनैं अखबारन में पढ़ लईं। तूकोई खास बात बता! 
--एक ख़ास बात ये कि जिस होटल में हमें टिकाया गया, उसी में दो दशक पहले अटल जी ठहरे थे। इस बार यहां सुषमा जी ठहरी थीं। उनके निर्देशनमें पूरा सम्मेलन उसी कक्ष के पास वाले कक्ष सेसंचालित हो रहा था। वहां की खिड़कियों सेबंदरगाह के दूसरी ओर पुराना आप्रवासी भवनदिखता है। बंदरगाह पहले एक प्राकृतिक खाड़ीथा। यहीं जहाज आए। जहाजी उतरे। यह प्राकृतिक खाड़ी न होती तो इस छोटे से द्वीप पर बड़े जहाज न आ पाते और इस द्वीप का उपयोग एक सभ्य समाज को बसाने के लिए न हो पाता।मॉरीशसवासियों के प्रतापी भारतवंशी पुरखों केउद्यम से यहां गन्ने की खेती हुई। गन्ने ने सोना बरसा दिया। समृद्धि आने लगी और सन साठ में आज़ादी मिलने के बाद यह देश भारतवंशियों के हाथ में आ गया। विदेशी रहे, पर वर्चस्व भारतवंशियों का और उनकी भाषा का हुआ।उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं कोजीवित रखा। चचाअब चुनौती है हिंदी-भोजपुरीको बचाए रखने की।
चौंअब लोग हिंदी नायं बोलैं का?
पिछले दस-पंद्रह साल में मॉरीशस बदल गया है। मैंने दस साल बाद यह जो मॉरीशस देखा, इसकी नई पीढ़ी में एक अलग तरह का स्वाभिमान है। अभी तक हम इसे कहते आ रहे हैं, गिरमिटिया देश। गिरमिटिया देश वे देश हैंजिनमें भारत से गए मजदूरों के श्रम की बुनियाद पर सम्पन्न देशों नेअपने मुनाफ़े के महल बना लिए। मॉरीशस के अलावा त्रिनिडाड-टोबैगो, सूरीनाम, गुयाना, फीजी और नेटाल (दक्षिण अफ्रीकाआदि देशों में जोमज़दूर आते थेउन्हें गिरमिटिया मज़दूर कहा जाता रहा है। यह मजदूर एग्रीमेंट के तहत भेजेजाते थे। एग्रीमेंट का अपभ्रंश गिरमिटिया हो गया। मैंने मॉरीशस के एक नवयुवक से पूछा कि गिरमिटिया सम्बोधन आपको ठीक लगता है? युवक ने कहा, न तो ठीक लगता है, न बुरा लगता है। हमारे पुरखे भी स्वयं को गिरमिटिया कहते आ रहे हैं तो हमने भी एक स्तर पर स्वीकार करलिया। उन्होंने संघर्ष कियाकुर्बानियां दींहमआभारी हैं उनकेलेकिन हम तो आज़ाद मॉरीशसमें पैदा हुए। फिर हमें क्यों कहा जाए गिरमिटिया,क्यों कहा जाए प्रवासी! हम मॉरीशसवासी हैं, मॉरीशियन हैं। हमें एक स्वायत्त देश का नागरिक मानकर मॉरीशियन कहा जाना चाहिए। बात सही है चचायह स्वाभिमान और अपने देश के प्रतिप्यार का मामला है। लोकतांत्रिक ढांचे पर खड़ाकोई भी देश आकार या क्षमता के कारण छोटा या बड़ा नहीं होता। वह एक सम्प्रभु देश होता है। यहतो मॉरीशस का बड़प्पन है कि वे स्वयं को भाषाऔर संस्कृति के साम्य के कारण छोटा भारतकहते हैं। बहरहालकहा जा सकता है किसम्मेलन सफल रहा। उसके परिणाम अच्छे रहे। यह पूरा सम्मेलन अटल जी को समर्पित था।उनके प्रति श्रद्धावनत था और भविष्य के लिएकार्यावनत। श्रेष्ठ नागरिकों से बसा हुआ एक सभ्यऔर सुंदर देश है मॉरीशस। धार्मिककार्मिक औरचार्मिक देश है। 
घूमा-फिरी करी कै नायं? 
घूमा-फिरी की बात तो घूमने वाले लोग जानें कि कितने घूमे, कितने फिरे। पर हम तो रहे घिरे। निरंतर किसी  किसी काम में। पहले दिन उद्घाटन सत्र के बाद श्रद्धांजलि सभा हुई। मुझे सुषमा जी ने संचालन सौंप दिया। तीन हज़ार की उपस्थिति में कौन नहीं होगा जो बोलना न चाहेगा और वह भी सारे के सारे हिंदी के बोलने वाले लोग बैठे हों तब। संयम के साथ ढाई घंटे श्रद्धांजलि सभा चली और विदेशी विद्वानों को अधिक समय दिया गया। उसके तत्काल बाद अपना सत्र था, प्रौद्योगिकी का। वह तीन घंटे चला। उसके अगले दिन निकष और इमली पर विचार गोष्ठी होनी थी, उसकी तैयारियों में लगे। थोड़ी अव्यवस्था तो जरूर थी, घोषणा किसी स्थान की हुई। सत्र कहीं हुए। इसमें वक्ता और श्रोता सभी भटकते रहे। बहरहाल, पहला सत्र रिजीजू जी की अध्यक्षता में हुआ था। उन्होंने बड़ी रुचि से निकष और कंठस्थ को देखा, सुना। चचा अब ज़रूरी ये है कि योजनाओं को मंत्रीगण समझें और उनको व्यवहार में लाया जाना देखें। इस मामले में यह सम्मेलन मुझे उपलब्धि नजर आता है, क्योंकि संगोष्ठी में विदेश राज्य मंत्री एम. जे. अकबर बैठे थे। उन्होंनेप्रौद्योगिकी से जुड़े हुए पच्चीस विद्वानों को सुना और उसके प्रति अपनी गंभीरता दिखाई।
मंत्री का कल्लिंगे?
जब तक सरकार के मंत्रीगण नहीं समझेंगे कि प्रौद्योगिकी हिंदी के विकास के लिए सर्वाधिक ज़रूरी है, तब तक योजनाएं फाइलों में रहेंगी। आधे-अधूरे प्रयत्नों के साथ उत्पाद बनाए जाएंगे जो जनता तक नहीं जाएंगे। इस बार निकष का प्रारूप तीन हज़ार के सभागार में दिखाया गया कि वह हिंदी सीखने, परीक्षा देने और प्रमाण-पत्र प्राप्त करने वाला वैश्विक द्वार होगा। जिसमें उनकी सुननेबोलने, लिखने और पढ़ने की ऑनलाइनकक्षाएं दी जाएंगी, परीक्षाएं ली जाएंगी, प्रमाण-पत्र दिए जाएंगे। इन सबके बाद काव्यांजलि हुई। रात के बारह बज गए। लौटते ही अगले दिन के लिए अपने सत्र की अनुशंसाएं तैयार करनी थीं।विचार-गोष्ठी में भी अनेक अनुशंसाएं प्राप्त हुईं।पता नहीं ऊर्जा कहां से आती है, जो आपसे काम कराती है। काम डॉविजय कुमार मल्होत्रा ने भीरात भर किया। वर्धा विश्वविद्यालय की ओर से भी कागज़ आए। समापन समारोह के प्रारंभ में आठसत्रों का लेखा-जोखा बताने के लिए आठ कोज़िम्मेदारी दी गई थी। प्रत्येक के लिए समय दियागया तीन मिनिट का। अब भला तीन-तीन घंटों केसत्रों का ब्यौरा तीन-तीन मिनिट में कैसे दिया जासकता था। मेरे सत्र के काग़ज़ों का पुलिंदा मेरे हाथ में था। पहले वक्ता प्रोगिरीश्वर मिश्र का एकमिनिट तो मंचस्थ लोगों को संबोधित करने में हीनिकल गया। अपने सत्र की रपट वे बहुत अच्छीतरह बता रहे थे। तीन मिनिट पूरे होते हीसंचालिका महोदया ने डायस पर पर्ची रख दी।अच्छा हुआ उन्होंने वह पर्ची देखी ही नहींयादेखकर अनदेखी कर दी। डेढ़-दो मिनिट औरलेकर अपनी बात गरिमापूर्वक पूरी कर दी। अबमेरी बारी थी। डायस पर जाते ही मेरे हाथ से
अच्छा हुआ उन्होंने वहपर्ची देखी ही नहींया देखकरअनदेखी कर दी। डेढ़-दो मिनिट औरलेकर अपनी बा गरिमापूर्वक पूरीकर दी। अब मेरी बारी थी। डायसपर जाते ही मेरे हाथ से काग़ज़ों कापुलिंदा गिर गया। काग़ज़ बिखर गए।सभागार में सबके सामने मैंने कागज़ उठाए और माइक पर मेरा पहला वाक्य लगभग ऐसा थाउठाते समयये काग़ज़ मुझसे कह रहे थे कि अगर तुम हमारा सहारा लोगे तो तीन मिनिट में अपनी बात पूरी  करपाओगे। हमें डायस के माइक केनीचे दबा दो’ और चचा मैंने अपनेकाग़ज़ डायस पर रखे माइक के नीचेदबा दिये। स्मृति और अपने आईपैड पर लिखे नोट्स के सहारे मैंनेअनुशंसाएं सुना दीं अपनी बातसमाप् करने के लिए मैं एक कवितासुनाने को था कि अचानक पर्ची गई। मैंने अपनी सुनास पर कोमलब्रेक लगाए।
 मेरे कुर्सी पर लौटने तक शायद सुषमा जी ने संचालिका को पांच मिनिट का इशारा कर दिया। उसके बाद किसी को पर्ची नहीं भेजी गई। बने तसल्ली से अपनेअपने सत्र की अनुशंसाएं पढ़ीं फिर देशी-विदेशी विद्वानों को सम्मानित कियागया। सी-डैक द्वारा बनाई हुईनिकष’ फिल्म दिखा गई। वहां केकार्यकारी राष्ट्रपति का मार्मिकभाषण हुआ। धन्यवाद दिए गए।
अपनी कबता हमें तौ सुनाय दै!
सुनिए!
अनुपालन को प्यासी बैठीं
जाने कितनी अनुशंसाएं,
आड़े आती हैं शंकाएं
पीड़ित करतीं आशंकाएं।

है कौन पूर्णता का दावा
जो दावे से कर पाता है,
कितना भी कर डाले लेकिन
अनकिया बहुत रह जाता है।

चिन्हित करने के बावजूद
मंज़िल आगे बढ़ जाती है,
गति का लेखा पीछे आकर
गुपचुप-गुपचुप पढ़ जाती है।

मंज़िल हो जाय परास्त, अगर
गतिमान प्रगति का चक्का हो,
अनकिया सभी पूरा हो, यदि
संकल्प हमारा पक्का हो।

तीन बजे भोजन हुआ। पांच बजे बस आ गई। नौ बजे की फ्लाइट से वापसी हो गई। आपसे मिलना था, सो आ गया, वरना अभी परवर्ती काम बाकी थे। दूसरे सत्रों का ब्यौरा भी तैयार कर रहा हूं।

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...