ग्राहम लुक्स |
ट्रंप की वक्रोक्ति
आनी तय थी पर्यावरण के मसले पर विकसित देशों को दीनो-ईमान
के पासंग पर रखा जाना अब तो बहुत मुश्किल है. स्मरण हो कि जलवायु परिवर्तन के
मुद्दे पर 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2015.को एक
महाविमर्श का आयोजन हुआ था. उद्देश्य था
ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी कार्बन डाई आक्साइड गैस के विस्तार को रोका जावे. समझौता भी ऐतिहासिक ही कहा जा
सकता है . 2050 तक
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 40 और 70 प्रतिशत
के बीच कम किया जाने की और 2100 में शून्य के स्तर तक लाने
के उद्देश्य की पूर्ती के लिए तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक
ग्लोबल वार्मिंग में कमी लाने का लक्ष्य नियत करना भी दूसरा वैश्विक कल्याण का संकल्प है. इस समझौते का मूलाधार रहा
है . जो ट्रंप भाई जी के अजीब बयान से खंडित हुआ नज़र आ रहा है.
साफ़ साफ़ न कहते हुए ट्रंप ने न केवल
पेरिस समझौते से हटने की कोशिश की है वरन चीन और भारत जैसे देशों के विकास के रथ को रोकने
की छद्म रूप से कोशिश की है.
जर्मनी के डायचे
वैले एक जर्नलिस्ट ग्राहम लुक्स ने तो 177 देशों द्वारा दस्तावेज़ के हस्ताक्षरित होने के हफ्ते भर के भीतर ही संदेह व्यक्त करते हुए साफ़
तौर पर संधि को एक धोखा करार दिया था. जर्नलिस्ट ने अपने संदेह का आधार में विकसित
देशों के नेता भविष्य में मुकर सकते हैं .
अमेरिकन रिपब्लिकन लीडर्स का जिक्र अपने आलेख में लुक्स ने साफ़ तौर
पर कर दिया था. हुआ भी यही एन पर्यावरण दिवस के तीन दिन पूर्व ट्रंप का समझौते से
यह कह कर हटना कि वे अमेरिकी रियाया के
हितों के संरक्षण की वज़ह से संधि से हट रहे हैं हालांकि बराक ओबामा ने इस पर ट्रंप
की “कड़ी निंदा” करने में देर न की.
विश्व की अन्य शक्तियां भी ट्रंप की
इस विपरीत अभिव्यक्ति के खिलाफ हैं. जहां तक भारत का सवाल है भारत के लीडर्स और जन
मानस ग्लोबल वार्मिंग के लिए अत्यधिक सतर्क हैं . बच्चों में ग्लोबल वार्मिंग के
लिए चिंता है. वैसे भी भारत के सम्बन्ध में स्मरण ही होगा कि जब जब अमेरिका ने
भारत को घेरने की कोशिश की भारत ने विकल्प तलाशने में विलम्ब नहीं किया.
एक ओर भारत और चीन की अर्थ व्यवस्थाएं
क्रमश: सुदृढ़ होती हैं वहीं दूसरी ओर 2015 के पेरिस समझौते के बाद अमेरिका को
विकाशशील देशों को ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए तकनीकी एवं आर्थिक मदद की चिंता सता रही है . उसका एक कारण
यह भी है कि – “अमेरीकी युवा बेरोज़गार के मुहाने पर है”
अमेरीका का इतिहास उठा के देखें तो अमेरीकी
प्रशासन विश्व की परवाह किये बिना केवल अपनी भौगोलिक सीमाओं एवं नागरिकों के हितों
के बारे में ही सोचता है. यह अमेरीका का मूलभूत सिद्धांत है. मात्र 83 बरस बाद
ग्लोबल टेम्प्रेचर में अगर 2 से 2.7 डिग्री का इजाफा हुआ तो तय है कि आने वाली
नस्लें अमेरिका के डोनाल्ट ट्रंप के माथे पर ठीकरा फोड़ती नज़र आएगी.
लेकिन भारत कुछ ही वर्षों में वो
तकनीकी हासिल कर लेगा जिससे कार्बन उत्सर्जन में कमी लाई जा सकेगी . इस मुद्दे पर
मैं ही नहीं बल्कि हर भारतीय को अपने वैज्ञानिकों पर भरपूर भरोसा है.
रहा सवाल चीन का तो चीन भी भारत के
समानांतर ही कार्य करेगा. और मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि एशिया अन्य बातों
को भुला कर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर एकीकृत प्लान विश्व के सामने पेश अवश्य
करेगा.
मुझे यह भी विश्वास है कि अब तक हमारे
वैज्ञानिक ट्रंप महाशय के वक्तव्य के पूर्व ही बहुत कुछ अनुसंधान कर चुके होंगे.
अमेरिका का वर्तमान नेतृत्व अजीब सी
भ्रम की स्थिति में है . किन्तु अमेरिका यह नहीं जानता कि भारतीय बच्चे तक ग्लोबल-वार्मिंग के खतरे को रोकने के
लिए चिंतनरत हैं . ट्रंप साहब की चिंता अमेरिकी
लोगों की बेरोज़गारी, तथा विश्व को लड़वाने और
फिर हथियार बेचने से कमाए धन का बड़ा
हिस्सा चैरेटी पर खर्च न करने की है तो सनद रहे भारत के बच्चों तक में कार्बन उत्सर्जन को रोकने या कमी लाने का चिंतन
मौजूद है.
आलेख के प्रारम्भ में ग्राहम लुक्स के आलेख का ज़िक्र किया था जिसमें
उन्हौने पेरिस समझौते को सन्देश की नज़र से देखा था आलेख के अंत में मैं आशान्वित
हूँ कि एक यही बिंदु है जो हमें विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठा दिला सकता है. अत: केवल स्वचछता एवं सतत अनुशीलन
करते रहिये और अगले कुछ वर्षों में वैकल्पिक ऊर्जा के प्रयोग, ऊर्जा के कम स्तेमाल
, तथा ऐसे वैज्ञानिक अनुसंधानों में
जुटाना होगा जिनसे हम विश्व को पर्यावरण की रक्षा हेतु एक ऐसी तकनीकी दे सकें जिससे
ओजोन परत सुरक्षित रखने के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमीं लाई जा सके.
गिरीश
बिल्लोरे मुकुल
969 ,
गेट न. 04
जबलपुर
मध्यप्रदेश