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बुधवार, जून 15, 2016

तीन रचनाएँ : गिरीश मुकुल





ग़ज़ल                                        

संगमरमर को काट के  निकलीं
बूंद निकली तो ठाट से निकलीं
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बंद ताबूत में थी इक “चाहत” !
एक आवाज़ काठ से निकली !!
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बद्दुआएं लबों पे सबके  है -
नेकियां  किसकी गांठ से निकली !!
🌺🌺🌺
शाम की बस से बेटी लौटी है !
मिलने सखियों से ठाट से निकली !!
🌺🌺🌺
झुर्रियों वाले चेहरे पे  गज़ब की रौनक
मोहल्ले भर में ईदी,  वो बाँट के निकली !!

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गीत :-

नागफनी जिनके आँगन में
उनके घर तक जाए कौन ?
घर जिनके जले मकडी के
रेशम उनसे लाए कौन !
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एक ही मेरे मन का साथी
शीतल रश्मि समर्पण करता
चाँद मेरा जो अन्तरंग है
सूरज के गुन गाए कौन..?


जिज्ञासा दब गई भूख में
पोथी पूज न पाया बचपन
चीख रहे हैं आज आंकड़े
बूढ़ी आँख पढ़ाए ...?
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हर उत्तर से प्रश्न प्रसूते
प्रश्न-प्रश्न डूबे हैं उत्तर
प्रश्न चिन्ह जीवन जो हो तो
ऐसा चिन्ह मिटाए कौन ?
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लघु रचना
डूबे सूरज को उठा लूँ तो चलूँ ।        
नए उजालों को सम्हालूँ तो चलूँ ।।
रात भर चलना है घुप अँधेरों में-
इक कंदील साथ जगालूँ तो चलूँ ।।
सियासी कहे है वोट हूँ इंसान नहीं
ऐसे कथनी की होली  जलादूं तो चलूँ ।।

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