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सोमवार, अप्रैल 04, 2016

वामअंग फरकन लगे 01

इस आलेख का जय श्रीराम से कोई वास्ता नहीं न ही तुलसीबाबा से . न ही उनके इस काव्यांश से . हाँ अर्थ अवश्य निकलेगा 
लेखक हूँ लिखूंगा . लिखना मेरा धर्म है . तुम्हारी नींद अल्लसुबह खुल जाती है तो क्या मैं भी सुबह सकारे उठ जाऊं. न बाबा न मुझे रात प्रेत घेर लेते हैं बोलते हैं लिखो वरना........ वरना क्या ........... ?
वरना कुछ नहीं बस यूं ही हम तो मज़ाक कर रहे हैं . चलो उनने कहा तो लिक्खे देता हूँ . 
                 रविवार का अवकाश ख़त्म कर मैंने अपने दफ्तर में कई दुश्मन पैदा कर लिए बरसों से जो चला आ रहा है .  रविवार का अवकाश हमने तोड़ दी नाराज होंगे ही . खैर  बात किधर से शुरू करूँ  ...... सूरज भाई की किताब पढ़ रहा था. उनकी एक गज़ल  शेर मन को भाया. भाई तो पूरी ग़ज़ल गई है......   पर ये देखिये क्या खूब लिखा है - 
"खुद परस्ती में बाँट गया इंसां
आज कितना सिमट गया  इंसां"
             वाकई पूरी ग़ज़ल में एक और शेर है जो दिल को बार बार यह करने के लिए मज़बूर किया करता है कि अब सूरज राय जी की अंगुलियाँ चूम लेना जिनने कलम पकड़ के ये लिखा -
       दायरा  बढ़  गया है  बातों  का 
       और सोचों से घाट गया  इंसां .
                    सुबह सकारे वाट्सएप पर अलग स्टाइल  सुप्रभात कहने वाला शायर बेहद तीखा है . तीखा इस वज़ह से है क्योंकि वो सचाई उगल रहा है . वो कह रहा है 
      मयकदे का ख़याल आते ही 
      मस्जिदों से पलट गया  इंसां
                      मित्रो मुझे मुनादी कर कर के बदनाम मत करो सूरज भाई ने कहा वही मैं सपाट लहजे में साफ़ साफ़ वाट्सएप फेसबुक पे कहा करता हूँ कि भाई व्यापक  सोचिये, खुदपरस्त मत बनिए, मयकदे का खयाल ज़ेहन में न आने दीजिये वरना लक्ष्य से भटक जाओगे तो मुझे पता नहीं क्या क्या कह देते हैं . 
                    सुबह कुछ मित्रों को बताया कि भाई अंधेरों से मत लिपटो ........ हमारा काम अवसाद में जीना नहीं है न ही हम अवसादी लाल हैं. अपनी चेतना में आयातित विचारों को जगह मत दो जो छत्तीसगढ़ में मज़लूम लोगों के खून से सफ़ेद कपड़ों को लाल बना कर ध्वज का रूप दे तो कुछ भाई लोग इत्ते खफा होगे कि बस लगे मुझे गरियाने. भाई ........ बाएँ अंग को फड़कने मत दो किसी अंग को भी फड़कने मत दो . ज़िंदा रहो ज़िंदा रहने दो बरसों से किसी की हाफ-पेंट को "चड्डी" और उसे पहने हों को "चड्डीधारी" कह माखौल उड़ा के क्या कहना चाह रहे हो यही न कि आप इस उस की चड्डी झांकते फिरते हो . मित्र मछलियाँ आकाश में न कभी उड़ीं न कभी उडेंगी . सिगमेंट में जीना छोड़ दो . ये सबसे बड़ी साम्प्रदायिकता है . मत बांटो गैर ज़रूरी पर्चे , न ही किताबों के वो अंश जो रिलिवेंट नहीं तो क्या मैं धर्मांध हूँ. न मेरी जाकिर अली रज़नीश से कोई लड़ाई है न महफूज़ मुझसे मिले बिना लखनऊ वापस जाते हैं तो युद्ध कहाँ हैं ......... आपकी अक्ल से युद्द उपज रहे हैं अब्दुल आज भी सरस्वती वन्दना में शामिल है. चन्दन आज भी अलाव कूद रहा है वो दौनो दोस्त हैं वो युद्ध नहीं परसते वो मिलके क्रिकेट खेलते हैं रानीताल मैदान में या शहीद स्मारक ग्राउंड में . 
                 तुम हो कि माचिस लिए घूम रहे हो शहर की फिजा बिगाड़ने में . तुमको डर है न कि कौमें एक न हों जाएं ? मेरे हिसाब से डर रहे हो..... मिल गए तो तुम्हारे खोमचे पलट जाएंगें ... मुझे मालूम है ........ तुम्हारी हरकतों से अब्दुल हई "अंजुम" साब ने बहुत पहले चेता दिया था -
                  तेज़ चलने वाली है हवा अंजुम
                  बुझा के चिराग अंगनाई में रखिये . 
        क्यों फरकन लगे न ........ 



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