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खुद को नया विस्तार देने जा रहा हूँ 
 तय नहीं मंजिल
  मगर मैं जा रहा हूँ .  
मैं अकेला ही तो आया था यहाँ – 
इक जुड़ा दूजा जुड़ा फिर कारवां .... 
बात जो थी कल में अब वो कहाँ – 
सबके ज़ेहन में पनपते आसमाँ ! 
     निकल के घर
  से बताने ये ही सबको आ रहा हूँ !! 
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मखमली  बिस्तर  की  जुगतें  मत लगा -   
शूल की शैया सजा दे, तेग से तकिया बना ! 
अतिथि हूँ आपका, कुछेक-दिन का साथ है – 
फिर वही यायावरी है और तड़पती आवाज़ है  
      मीत, अब में
  जा रहा हूँ गीत भी ले जा रहा हूँ !!  
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सच कहूं संघर्ष हूँ !  संघर्ष
  का परिणाम हूँ . 
झुका न जो सच कभी, वो टूटता अंजाम हूँ ! 
गीत पीडा के मुझे अब दिल से गाने दीजिये – 
पल हैं जितने पास मेरे मुस्कुराने दीजिये !! 
     पीर इतनी है
  कि अब मैं मुस्कुराने जा रहा हूँ !! 
                      
  गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” | 
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बुधवार, सितंबर 30, 2015
खुद को नया विस्तार देने जा रहा हूँ
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