11दिसम्बर,1983' पूछो परसाई से' स्तम्भ में भिलाई से सुरेश कुमार जैन ने परसाई जी से एक सवाल किया
था कि -"वेदों की वैज्ञानिकता को आप क्या मानते हैं ? "
उत्तर कुछ ये
था - वेदों की वैज्ञानिकता से आपका क्या अर्थ? क्या यह अर्थ है कि वेदों में आधुनिक विज्ञान है? कुछ पुरातनवादी यह दावा करते हैं कि आज जो वैज्ञानिक खोजें हुई हैं, वे सब वेदों में हैं। यह मूर्खता है, अंधविश्वास
है।अगर यह बात सही होती तो ये भारतीय वैज्ञानिकों को पहले ही बता देते कि अमुक वेद
की ऋचाओं में अणु विस्फोट से ऊर्जा उत्पन्न करने का सूत्र दिया है। हम क्यों हाथ
जोड़ते पश्विम के देशों के।
वेद हैं और
वेदांग हैं फिर उपवेद हैं, भाष्य हैं। इनकी रचना एक साथ नहीं हुई। सबसे
प्राचीन ऋग्वेद हैं। उस समय आर्य केवल शिकार पर निर्भर नहीं रहे थे । वे खेती करने
लगे थे।उनकी छोटी-छोटी बस्तियां बस गयीं थीं ।वे प्रकृति के हर तत्व और क्रिया को
चामत्कारिक मानते थे और प्रकृति से संघर्ष भी चला था। जो पत्थर की रगड़ से आग पैदा
करते थे,वे कितना विज्ञान जानते थे उससे बहुत अधिक विज्ञान
तो सिंधु घाटी के पास था ।
वेदों की रचना
हजार सालों में हुई होगी । फिर उपवेद की रचना हुई ।विज्ञान, गणित,ज्योतिष, चिकित्सा
शास्त्र आदि की जानकारी वेदों और उपवेदों में है ।
यह सही है कि ज्यामिति(ज्यामेट्री ) और गणित के कुछ
सिद्धांत भारत में सबसे पहले खोजे गए।शून्य,दशमलव दुनिया को
भारत ने ही दिए ।आयुर्वेद एक पूर्ण चिकित्सा शास्त्र है । चरक ने औषधि और सुश्रुत
ने शल्य क्रिया पर श्लोक लिखे। वाग्भट्ट ने चिकित्सा शास्त्र को और आगे
बढ़ाया।बाणभट्ट ने तारों,ग्रहो,उपग्रहों
का अध्ययन किया। उसके शिष्यों ने इसे आगे बढ़ाया ।
यह सब चारों वेदों में है ,यह कहना गलत है । यह कहना भी गलत है कि वेदमंत्र ब्रह्मवाणी है । सारा
विज्ञान वेदों में मानने वाला बड़ा सुखी मुर्ख रह सकता है । असल में उत्पादन के
साधन,जीवन के रूप,समाज व्यवस्था आदि के
साथ धीरे-धीरे ज्ञान और विज्ञान का विकास हुआ।
यह गर्व गलत नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने कुछ ज्ञान दुनिया को
पहली बार दिया। इस अर्थ में प्राचीन ग्रीक भी हमसे पीछे थे । मगर इस कारण पीछे लौटना,उस प्राचीन को स्वर्णयुग मानना, उसकी याद करके आधुनिकता को
नकारना-हमारे देश और समाज के लिए घातक है । यह पुरानी रस्सी से फांसी लगाकर
आत्महत्या करने की तरह है ।ज्ञान और विज्ञान की लगातार विकासशील परम्परा होती है ।
किसी युग में विज्ञान शिखर पर पहुंच जाए और फिर समाज उस विज्ञान से वंचित हो जाए,ऐसा नहीं होता। यह तभी होता है जब पूरी सभ्यता किसी कारण मिट जाए ।
गणित एवं आयुर्वेद पर अपने टिप्पणी देते हुए
परसाई जी ने अन्य सभी वेदों के लिए साफ तौर पर लिखा है कि - "हम प्राचीन युग
को स्वर्णयुग मान कर उसके पीछे आधुनिकता को नकारें न .... "
परसाई जी यहाँ
सही हैं ...... खासकर बोको-हराम एवं आई एस आई एस के
संदर्भ में तो एक तरफा सटीक बात कही थी उनने । किसी धर्म पंथ में समयानुसार देश
काल परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन स्वाभाविक हैं धर्म कानून-व्यवस्था को
रेग्यूलेट नहीं करता वरन मानवता के प्रति सजगता या कहूँ कि
"मानवता-सापेक्ष" बनाने की व्यवस्था को आकार देने की कोशिश करता
है । ऐसे में धर्माधारित राज्य की परिकल्पना करना सर्वथा गलत है । इस हेतु
विचारक विद्वान आध्यात्मिकता को स्वीकारते हुए प्राणियों के लिए धर्म के सिद्धान्त
को सर्वोपरि मानते हैं । न कि धर्म के लिए प्राणी जुटाने पर भरोसा रखते हैं । कुल
मिला कर परसाई जी सही कह गए थे । परंतु परसाई जी के इस जवाब को केवल सनातन
से जोड़कर देखना भी गलत है । उनके इस महान उत्तर को आज के संदर्भ में व्यापक रूप से
देखा और समझा जाना चाहिए । पर ये नही भूलना चाहिए कि उनका मत ही अंतिम सत्य है विकी में लिखा यह आलेख या गलत है अथवा परसाई जी इस बारे में न जान पाएँ हों ................
शिवकर बापूजी तलपदे (1864 - 17 सितम्बर 1917) कला एवं संस्कृत के विद्वान तथा आधुनिक समय के विमान के प्रथम आविष्कर्ता थे। उनका जन्म ई. 1864 में मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था ।[1] वो ‘जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट, मुंबई’ से अध्ययन समाप्त कर वही शिक्षक नियुक्त हुये ।[2] उनके विद्यार्थी काल में गुरू श्री चिरंजीलाल वर्मा से वेद में वर्णित विद्याओं की जानकारी उन्हें मिली। उन्होनें स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ एवं ‘ऋग्वेद एवं यजुर्वेद भाष्य’ ग्रंथों का अध्ययन कर प्राचीन भारतीय विमानविद्या पर कार्यकरने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखकर वैदिक विमानविद्या पर अनुसंधान आरंभ किया ।[3]
शिवकर ने ई. 1882 में एक प्रयोगशाला स्थापित किया और ऋग्वेद के मंत्रों के आधार पर आधुनिक काल का पहला विमान का निर्माण किया ।[4]इसका परीक्षण ई. 1895 में मुंबई के चौपाटी समुद्र तट पर कियागया था । इस कार्यक्रम में उपस्थित प्रत्यक्षदर्शियों में सयाजीराव गायकवाड़, लालजी नारायण, महादेव गोविन्द रानाडे आदि प्रतिष्ठित सज्जन उपस्थित थे । शिवकर विमान को जनोपयोगी बनाना चाहते थे लेकिन उन्हें अंग्रेज सरकार से किसी भी प्रकार की सहायता नहीं मिली थी ।[5] शिवकर ने ई. 1916 में पं. सुब्राय शास्त्री से महर्षि भरद्वाज की यन्त्रसर्वस्व - वैमानिक प्रकरण ग्रन्थ का अध्ययन कर ‘मरुत्सखा’ विमान का निर्माण आरंभ किया । किन्तु लम्बी समय से चलरही अस्वस्थता के कारण दि. 17 सितम्बर 1917 को उनका स्वर्गवास हुआ एवं ‘मरुत्सखा’ विमान निर्माण का कार्य अधूरा रह गया ।[6]
मेरा मत है कि -"सभ्यता
आधुनिक बदलाव के अभाव में स्थिर जल की तरह होती है । जिसमें मलिनता का
उत्पादन स्वाभाविक है ।" आप भी यही सोच सकें तो बेहतर होगा
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