रास्ते
खोजते भीगते भागते, जिसके दर पे थे उसने
बचाया नहीं
कागज़ों पे लिखे
गीत सी ज़िंदगी- जाने क्या क्या हुआ उस रात में ?
तेज़ धारा बहा ले
गई ज़िंदगी रेत से बह रहे थे नगर के नगर –
क्रुद्ध बूंदों
ने छोड़ा नहीं एक भी, शिव की आँखें खुलीं थी उस रात में !
हर तरफ़ चीखतीं
भयातुर देहों को तिनका भी मिला न था इक हाथ में-
बोलिये क्या
लिखें क्या सुनें क्या कहें- जो बचा सोचता ! क्यूं बचा बाद में ?
जो कुछ भी हुआ था
वज़ह हम ही थे- पर सियासत को मुद्दों पे मुद्दे मिले.
बेरहम चैनलों पे लोग थे, गिद्धों की तरह आदमी थे
जुटे-
काटकर अंगुलियां मुद्रिका ले गये हाथ काटे गये चूड़ियों के
लिये
निर्दयी लोगों के
इस नगर में कहो क्या लिखूं, शब्द छुपते हैं आघात में .
मत कहो गीत गीले
होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में...
* गिरीश बिल्लोरे ”मुकुल”