28.7.14

काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!

मृत काग
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
            छोटी बिटिया श्रृद्धा ने स्कूल से लौटकर मुझसे पूछा.. पापा- “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” का अर्थ विन्यास कीजिये.. मैने दार्शनिक भाव से कहा – बेटी यहां कागज के कारण जीवन व्यर्थ गंवाने की बात है.. शायद कागज रुपए के लिये प्रयोग किया गया है.. ?
बेटी ने फ़िर पूछा- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” अब फ़िर से बोलिये.. इसका अर्थ क्या हुआ..
हतप्रभ सा मैं बोल पड़ा – किसी ऐसी घटना का विवरण है जिसमें कौआ दही के कारण जीवन खो देता है..
गदही
बेटी ने बताया कि आज़ स्कूल में एक कहानी सुना कर टीचर जी ने इस काव्य पंक्ति की व्याख्या की. कहानी कुछ यूं थी कि एक दही बेचने वाली के दही वाले घड़े में लालची कौआ गिर के मर गया. महिला निरक्षर थी पर कविता करना जानती थी सो उसने अपने मन की बात  कवित्त में कही- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” इस पंक्ति को दुहराने लगी . फ़िर राह पर किसी पढ़े लिखे व्यक्ति से उक्त पंक्ति लिपिबद्ध कराई..
         पढ़े लिखे व्यक्ति ने कुछ यूं लिखा – “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
                        फ़िर राह में एक अन्य पढ़े लिखे व्यक्ति से भेंट हुई, जिससे उसने लिखवाया , दूसरे व्यक्ति ने यूं लिखा.. “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”

 कागद 

समय की वास्तविकता यही है..विचार मौलिक नहीं रह पाते हैं. सब अपने अपने नज़रिये से विचार करते हैं.. जिसके पास मौलिक विचार हैं वो उनको विस्तार देने में असफ़ल है और जिनके पास मौलिक चिंतन ही नहीं है वे किसी ज़रिये से भी प्राप्त विचारों को अपने तरीके से गढ़ कर विस्तार दे रहे हैं. यही है   आज़ के दौर का यथार्थ. जिसे देखिये वो अपनी दुम्दुभी बज़ाने के चक्कर नें मन चाहे विचार परोस रहा है. बस शब्दों हेर फ़ेर वाला मामला है. अर्थ बदल दीजिये.. लोगों को ग़ुमराह कर अपना उल्लू सीधा कर लीजिये .. सब के सब  जाने किस जुगाड़ में हैं.   क्या हो गया है युग को  जिसे देखिये वो कुतर्कों की ठठरी पर अमौलिक चिंतन की बेजान देह ढोने को आमादा हैं. न तो समाज न ही तंत्र के स्तंभ.. सब के सब एक्सपोज़ भी हो रहे हैं कोई ज़रा कम तो कोई सुर्खियों में . मित्रो.. दुनिया अब "गदही" सी लगने लगी है.. 
ऐसी गदही में  मैं क्यों क्यों इनवाल्व होने चला मिसफ़िट हूं क्यों न कहूं.. - “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ” 

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

Wow.....New

अलबरूनी का भारत : समीक्षा

   " अलबरूनी का भारत" गिरीश बिल्लौरे मुकुल लेखक एवम टिप्पणीकार भारत के प्राचीनतम  इतिहास को समझने के लिए  हमें प...

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में