3.1.14

तो क्या अब तक का प्रजातंत्र सामंतशाही जैसा था ..?

आम जीवन का पावर की तरफ़
पहला क़दम ही तो है
साभार : ndtv के इस पन्ने से
बेशक कल आम-जीवन और
खास जीवन में कोई फ़र्क न होगा
तो क्या अब तक का प्रजातंत्र सामंतशाही जैसा था ..? यह सवाल  केज़रीवाल वाले प्रजातांत्रिक मोड तक आते ही तेज़ी से ज़ेहनों में गूंजने लगा है. ऐसे सवाल उठने तय थे अभी तो बहुत से सवाल हैं जिनका उठना सम्भव ही नहीं तयशुदा भी है . मसलन क्या वाक़ई हम आज़ादी से दूर हैं.. क्या सियासी एवम ब्योरोक्रेटिक सिस्टम के साथ आम आज़ादी एक आभासी आज़ादी से इतर कुछ भी न थी . ..? अथवा पावर में आते ही आम आज़ादी से परहेज़ होने लगता है.. !!
      वास्तव में प्रजातांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ़ जाते हुए नज़र आने वाले ये सवाल इस लिये उठ रहे हैं क्योंकि कहीं न कहीं आम-जीवन ये महसूस करने लगा था कि -"डेमोक्रेटिक-सिस्टम" में उसका हस्तक्षेप पांच बरस में बस एक बार ही हो सकता है. पांचवे बरस आते आते भोला-भाला आम-जीवन अपने आप को कुछ तय न कर पाने की स्थिति में पाता है. और तब जो भी कुछ तात्कालिक वातवरण आम जीवन के पक्ष में बनता है यक़ीनन आम जीवन उसी के साथ होता है. 
   पर भारतीय प्रज़ातांत्रिक व्यवस्था में की खूबी को नकारना बेमानी होगा जिसने आमूल-चूल परिवर्तनों के रास्ते की गुंजाइशें आमजीवन के वास्ते सुरक्षित रखीं हैं. वरना केज़रीवाल एंड कम्पनी को रास्ता क़तई न मिलता. 
     चलिये वापस सवालों की तरफ़ चलते हैं - आमजीवन से उभरे उन सवालों के उठने की वज़ह क्या थी..?
   वज़ह थी चुनाव प्रक्रिया में ढेरों कमियां, वास्तविक समस्याओं पर विमर्श का अभाव, तथा प्रजातांत्रिक अबोधता , पावर में बैठे लोगों के हथकंडे. जी हां इसके अलावा मध्यवर्ग की नकारात्मक सोच कि "कोऊ नृप होय हमैं का हानि " तथा निम्नवर्ग की वोट-बेचने की प्रवृत्ति .... जी हां यही सब  है जो सवाल खड़े करने की प्राथमिक वज़हें बने. पर अब लगता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था अब सरलीकृत होने जा रही है.. लोग क्रांतियां करेंगे.. क्रांतियां अकेले अकेले भी होंगी आवाज़ें उठेंगी मुट्ठियां तनेंगी .. वो दिन दूर नहीं जब "पावर" ये न कह पाएगा कि -"हमने आपके लिये अमुक सुविधाएं जुटाईं " अगर कहेगा तो लोग साफ़ तौर पर कहेंगे- "श्रीमन ये आपका दायित्व था "
       आने वाले समय में चुनाव प्रक्रिया में निर्वाचन आयोग के कठोर प्रबंधन और अधिक सफ़ल होंगे निर्वाचन प्रक्रिया में शामिल अभ्यर्थी अत्यधिक शालीन और शिष्ट होंगे . चुनाव से नवसामंत हट जाएंगे कमज़ोर-कृशकाय-भूखा-नंगा भी पावर में आएगा तो कोई बड़ी बात न होगी. पर ये सवाल कि - " क्या अब तक का प्रजातंत्र सामंतशाही जैसा था .." गले से नहीं उतर रहा आज़ भी शिष्ट और तृप्त लोग पावर में हैं .. ये अलग बात है कि उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है.. दूसरा पहलू ये भी कि - ये समय वो समय है जो उन स्वार्थी मतदाताओं  के लिए भी अब आत्मचिंतन का अवसर दे रहा है.. अभी भी वक़्त है मित्रो भारतीय-प्रजातंत्र आज भी विश्व के "आकर्षण का केंद्र है" जो अब चरमोत्कर्ष पर होगा  
   

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

Wow.....New

अलबरूनी का भारत : समीक्षा

   " अलबरूनी का भारत" गिरीश बिल्लौरे मुकुल लेखक एवम टिप्पणीकार भारत के प्राचीनतम  इतिहास को समझने के लिए  हमें प...

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में