फ्योदोर दोस्तोयेवस्की |
मशहूर रूसी लेखक फ्योदोर
दोस्तोयेवस्की की गिनती शेक्सपियर, दांते, गेटे और टॉलस्टॉय जैसे महान
लेखकों के साथ होती है. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की का जन्म 11 नवंबर, 1821 को रूस के मास्को शहर में
हुआ था. उनके पिता मिखाईल अंद्रयेविच मास्को के मारीइंस्काया नामक खैराती अस्पताल
में चिकित्सक थे. वह समाज के धार्मिक तबक़े से संबंध रखते थे और 1828 में उन्हें कुलीनों की
श्रेणी मिली. 1831-1832 में उन्होंने तूजर गुबेर्निया में छोटी सी जागीर
ख़रीद ली. किसानों के साथ उनका बर्ताव बहुत बुरा था, जिसकी वजह से उनके नौकरों ने 1836 में उनका क़त्ल कर दिया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की की मां का स्वभाव अपने पति के स्वभाव से बिल्कुल उलट था. वह
धार्मिक विचारों वाली सभ्य और सुसंस्कृत महिला थीं. उनका देहांत 1837 में हुआ. फ्योदोर
दोस्तोयेवस्की के बड़े भाई मिखाईल उनसे बहुत स्नेह करते थे. फ्योदोर दोस्तोयेवस्की
ने 1838 में पीटर्सबर्ग के
सैन्य-इंजीनियरी विद्यालय में दाख़िला लिया. यहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद 1843 में वह सेना में भर्ती हो
गए, लेकिन एक साल बाद उन्होंने
नौकरी छो़ड दी और सारा वक़्त साहित्य को समर्पित कर दिया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के 1845 में प्रकाशित पहले लघु उपन्यास दरिद्र नारायण से उन्हें बेहद कामयाबी मिली. उनकी गिनती मशहूर यथार्थवादी लेखकों की जमात में होने लगी. उनके समकालीन रूसी समालोचक विस्सारिओर बेलीन्सको ने दरिद्र नाराय के बारे में लिखा था-युवा लेखक ने रूसी साहित्य में पहली बार छोटे व्यक्ति के भाग्य को सामाजिक त्रासदी के रूप में अभिव्यक्ति दी है और अधिकारहीन और भूले-बिसरे व्यक्तित्व में गहन मानवीयता का उद्घाटन किया है. कुछ वक़्त बाद 1848 में उनका लघु उपन्यास रजत रातें और इसके एक साल बाद 1849 में नेतोच्का नेज्वानोवा प्रकाशित हुआ. इन उपन्यासों में यथार्थवाद के वे लक्षण उभरकर सामने आए, जिन्होंने फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को अपने समकालीन लेखकों से अलग दर्जा दिया.
वह 1847 से पांचवें दशक के मुक्ति आंदोलन के एक अहम कार्यकर्ता पेत्रोशेवस्की के मंडल में जाने लगे. इस मंडल में काल्पनिक समाजवादियों की रचनाओं का अध्ययन किया जाता था और 1848 की फ़्रांसीसी क्रांति के विचारों पर चिंतन-मनन किया जाता था. इसका उनके लेखन पर असर प़डा. पेत्राशेवस्की के मंडल के अन्य सदस्यों के साथ फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को 23 अप्रैल, 1849 को गिरफ्तार करके पीटर पाल के क़िले में बंद कर दिया गया. उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई. उन्हें गोली मारने से कुछ ही लम्हे पहले ज़ार निकोलाई प्रथम के आदेश पर उनकी मौत की सज़ा को चार साल के निर्वासन (1850-1854) और निर्वासन काल के ख़त्म होने पर आम सैनिक के तौर पर सैन्य सेवा में बदल दिया गया. 1856 में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को साइबेरिया से पहले त्वेर औरफिर पीटर्सबर्ग आने की इजाज़त मिली. कुछ ही वक़्त बाद 1859 में उनके लघु उपन्यास चाचा का सपना, स्तेपान्चिकोवो गांव और उसके वासी तथा 1851 में अपमानित और अवमानित प्रकाशित हुए. निर्वासन के बाद उनकी लिखी प्रमुख रचना मुर्दाघर की टिप्पणियां थी. साइबेरिया में तक़रीबन दस साल तक शारीरिक और नैतिक यातनाओं के बावजूद उनका ज़िंदगी और इंसान में यक़ीन बना रहा. लेकिन मानवीय व्यथाओं और वेदनाओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता और मानव जाति के भाग्य में उनकी गहन रुचि और ज़्यादा बढ़ गई. अब वह पहले से ज़्यादा जोश और लगन के साथ सामाजिक न्याय के रास्ते तलाश करने लगे. इस दौरान वह पत्रकार के तौर पर सामने आए. वह नागरिक नामक पत्रिका का संपादन करते थे, जिसमें उन्होंने अपनी लेखक की डायरी का प्रकाशन शुरू किया, जो बाद में अलग प्रकाशन के रूप में 1876, 1877 में हर माह प्रकाशित हुई. इसमें सामाजिक जीवन के ज्वलंत मुद्दों और साहित्य मुख्य तौर पर शामिल रहा. 9 फ़रवरी, 1881 को पीटसबर्ग में उनका निधन हो गया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की ने अपनी रचनाओं में जनमानस की परेशानियों और उनकी तकली़फ़ों का वर्णन इस तरह किया है कि पात्र जीवंत हो उठते हैं. उनके लघु उपन्यास दरिद्र नारायण में दो पात्र हैं एक युवा महिला वरवारा दोब्रोसेलोवा है और दूसरा बुज़ुर्ग मकार देवुश्किन है. दोनों आमने-सामने किराये के मकानों में रहते हैं और पत्रों के ज़रिये एक-दूसरे से बातचीत करते हैं. उनके पत्रों से उनकी परेशानियों और एक-दूसरे के प्रति उनके स्नेह का पता चलता है. अपने पत्र में मकार वरवारा को संबोधित करते हुए लिखते हैं-
मेरी प्यारी वरवारा अलेक्सेयेव्ना, आपको मैं यह बताना चाहता हूं कि आशा के विपरीत पिछली रात मैं बहुत अच्छी तरह से सोया और इस बात की मुझे बड़ी ख़ुशी है. वैसे यह सही है कि नई जगह पर और नए घर में हमेशा ढंग से नींद नहीं आती. यही लगा रहता है, यह ऐसे नहीं है, यह वैसे नहीं है. आज मैं बिल्कुल ताज़ा दम होकर, बहुत ही ख़ुश-ख़ुश जागा हूं. मेरी रानी, आज की सुबह भी कितनी प्यारी है. हमारी खिड़की खुली हुई है, धूप खिली हुई है, पक्षी चहचहा रहे हैं, हवा में बसंत की महक बसी है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है और बाक़ी सब कुछ भी बसंत के अनुरूप है, उसकी सुषमा में ढला हुआ है. मैंने तो आज बड़ी मधुर-मधुर कल्पनाएं भी की हैं और वारेन्का, आप ही उन सारी कल्पनाओं का केंद्र बिंदु है. मैंने आपकी तुलना आकाश में उड़ने वाली चिड़िया से की, जिसका जन्म ही लोगों को ख़ुशी देने और प्रकृति की शोभा बढ़ाने के लिए होता है. इसी समय मैंने यह भी सोचा वारेन्का, चिंताओं और परेशानियों में घुलने वाले हम लोग भोले-भाले और निश्चिंत गगन-विहारी पक्षियों से ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकते. कुछ ऐसी, इसी तरह की दूसरी बातें भी मेरे दिमाग़ में आईं यानी बहुत दूर-दूर की तुलनाएं करता रहा, उपमाएं ढूंढता रहा. प्यारी वारेन्का, मेरे पास एक किताब है, उसमें यह सब, यही सारी बातें बहुत विस्तार से लिखी हुई हैं. मेरी रानी, मैं इसलिए यह लिख रहा हूं कि तरह-तरह के सपने आया करते हैं दिल-दिमाग़ में और अब तो चूंकि बसंत के दिन हैं तो विचार भी बड़े मधुर-मधुर हैं, तीव्रता से उड़ते-घुमड़ते हैं, मन को छूने वाले हैं और सपने भी हैं बहुत कोमल-कोमल, गुलाबी रंग में रंगे हुए. इसी कारण मैंने यह सब लिख डाला है. वैसे मैंने किताब से ही ये सारी बातें ली हैं. उसमें लेखक ने कविता के रूप में ऐसी ही इच्छा व्यक्त की है और लिखा है-
काश कि मैं पक्षी ही होता
एक शिकारी पक्षी
ऐसी ही अन्य बातें भी. उसमें तरह-तरह के दूसरे विचार भी व्यक्त किए गए हैं. ख़ैर हटाइए उन्हें. यह बताइए कि आज सुबह-सुबह आप कहां गई थीं? आपको एक पौंड मिठाई भेज रहा हूं. आशा है कि वह आपको पसंद आएगी. हां, भगवान के लिए मेरी बिल्कुल भी चिंता नहीं कीजिएगा, किसी भी तरह की बात मन में नहीं लाइएगा. तो विदा, मेरी प्यारी.
इसी तरह वरवारा भी मकार को पत्र का जवाब देते हुए लिखती हैं-
आप जानते ही हैं या नहीं कि आख़िर मुझे आपसे पूरी तरह झगड़ा करना पड़ेगा. दयालु मकार अलेक्सेयेविच, क़सम खाकर कहती हूं कि आपके उपहार स्वीकार करते हुए मेरे दिल को दुख होता है. मैं जानती हूं कि आपको इनके लिए कितनी क़ुर्बानी करनी पड़ती है. अपने लिए ज़रूरी कितनी चीज़ों से मुंह मोड़ना और इंकार करना पड़ता है. कितनी बार आपसे यह कह चुकी हूं कि मुझे कुछ भी, बिल्कुल कुछ भी नहीं चाहिए कि मैं आपकी अब तक कि कृपाओं का बदला चुकाने में असमर्थ हूं. क्या ज़रूरत थी ये गमले भेजने की? गुल मेहंदी के पौधे तो ख़ैर ठीक हैं, लेकिन जिरेनियम भेजने की क्या ज़रूरत थी? असावधानी से कोई एक शब्द मुंह से निकल जाने की देर है, मिसाल के तौर पर जिरेनियम के बारे में और आप उसे फ़ौरन ख़रीदने चल दिए. सच बताइए, महंगे हैं न? कितने सुंदर फूल हैं उसमें लाल रंग के, क्रॉस वाले. कहां मिल गया आपको जिरेनियम का ऐसा गमला? मैंने उसे खिड़की के बीचोबीच ऐसी जगह पर रख दिया है कि उस पर सबकी नज़र प़डे, फ़र्श पर एक बेंच रख दूंगी और उस पर दूसरे गमले सजा दूंगी. बस, ख़ुद मुझे कुछ अमीर हो जाने दीजिए. फ़ेदोरा की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं. हमारे कमरे में तो अब मानो स्वर्ग की बहार है, साफ़-सुथरा, रौशन. और मिठाइयां भेजने की क्या ज़रूरत थी. हां, मैंने आपके पत्र से अभी यह अंदाज़ा लगाया है कि आपके यहां कुछ गड़बड़ ज़रूर है-वहां स्वर्ग है, बसंत है, महक-लहक है और पक्षी चहचहाते हैं. आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, मेरी आंखों में धूल झोंकने, मुझे यह दिखाने के लिए अपनी आमदनी का बेशक कैसा ही हिसाब क्यों न पेश करें कि वह सारी आप ख़ुद पर ही ख़र्च करते हैं, आप मुझसे कुछ भी नहीं छुपा सकते. बिल्कुल सा़फ़ है कि आप मेरी ख़ातिर अपनी ज़रूरतों को पूरा करने से इंकार करते हैं.
महान रूसी समालोचक विस्सारिओन बेलीन्की ने अपने लेख 1846 के रूसी साहित्य पर दृष्टि में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के बारे में लिखा था-रूसी साहित्य में श्री दोस्तोयेवस्की के समान तेज़ी से, इतनी जल्दी से ख्याति पाने का मिसाल नहीं है.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के 1845 में प्रकाशित पहले लघु उपन्यास दरिद्र नारायण से उन्हें बेहद कामयाबी मिली. उनकी गिनती मशहूर यथार्थवादी लेखकों की जमात में होने लगी. उनके समकालीन रूसी समालोचक विस्सारिओर बेलीन्सको ने दरिद्र नाराय के बारे में लिखा था-युवा लेखक ने रूसी साहित्य में पहली बार छोटे व्यक्ति के भाग्य को सामाजिक त्रासदी के रूप में अभिव्यक्ति दी है और अधिकारहीन और भूले-बिसरे व्यक्तित्व में गहन मानवीयता का उद्घाटन किया है. कुछ वक़्त बाद 1848 में उनका लघु उपन्यास रजत रातें और इसके एक साल बाद 1849 में नेतोच्का नेज्वानोवा प्रकाशित हुआ. इन उपन्यासों में यथार्थवाद के वे लक्षण उभरकर सामने आए, जिन्होंने फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को अपने समकालीन लेखकों से अलग दर्जा दिया.
वह 1847 से पांचवें दशक के मुक्ति आंदोलन के एक अहम कार्यकर्ता पेत्रोशेवस्की के मंडल में जाने लगे. इस मंडल में काल्पनिक समाजवादियों की रचनाओं का अध्ययन किया जाता था और 1848 की फ़्रांसीसी क्रांति के विचारों पर चिंतन-मनन किया जाता था. इसका उनके लेखन पर असर प़डा. पेत्राशेवस्की के मंडल के अन्य सदस्यों के साथ फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को 23 अप्रैल, 1849 को गिरफ्तार करके पीटर पाल के क़िले में बंद कर दिया गया. उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई. उन्हें गोली मारने से कुछ ही लम्हे पहले ज़ार निकोलाई प्रथम के आदेश पर उनकी मौत की सज़ा को चार साल के निर्वासन (1850-1854) और निर्वासन काल के ख़त्म होने पर आम सैनिक के तौर पर सैन्य सेवा में बदल दिया गया. 1856 में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की को साइबेरिया से पहले त्वेर औरफिर पीटर्सबर्ग आने की इजाज़त मिली. कुछ ही वक़्त बाद 1859 में उनके लघु उपन्यास चाचा का सपना, स्तेपान्चिकोवो गांव और उसके वासी तथा 1851 में अपमानित और अवमानित प्रकाशित हुए. निर्वासन के बाद उनकी लिखी प्रमुख रचना मुर्दाघर की टिप्पणियां थी. साइबेरिया में तक़रीबन दस साल तक शारीरिक और नैतिक यातनाओं के बावजूद उनका ज़िंदगी और इंसान में यक़ीन बना रहा. लेकिन मानवीय व्यथाओं और वेदनाओं के प्रति उनकी संवेदनशीलता और मानव जाति के भाग्य में उनकी गहन रुचि और ज़्यादा बढ़ गई. अब वह पहले से ज़्यादा जोश और लगन के साथ सामाजिक न्याय के रास्ते तलाश करने लगे. इस दौरान वह पत्रकार के तौर पर सामने आए. वह नागरिक नामक पत्रिका का संपादन करते थे, जिसमें उन्होंने अपनी लेखक की डायरी का प्रकाशन शुरू किया, जो बाद में अलग प्रकाशन के रूप में 1876, 1877 में हर माह प्रकाशित हुई. इसमें सामाजिक जीवन के ज्वलंत मुद्दों और साहित्य मुख्य तौर पर शामिल रहा. 9 फ़रवरी, 1881 को पीटसबर्ग में उनका निधन हो गया.
फ्योदोर दोस्तोयेवस्की ने अपनी रचनाओं में जनमानस की परेशानियों और उनकी तकली़फ़ों का वर्णन इस तरह किया है कि पात्र जीवंत हो उठते हैं. उनके लघु उपन्यास दरिद्र नारायण में दो पात्र हैं एक युवा महिला वरवारा दोब्रोसेलोवा है और दूसरा बुज़ुर्ग मकार देवुश्किन है. दोनों आमने-सामने किराये के मकानों में रहते हैं और पत्रों के ज़रिये एक-दूसरे से बातचीत करते हैं. उनके पत्रों से उनकी परेशानियों और एक-दूसरे के प्रति उनके स्नेह का पता चलता है. अपने पत्र में मकार वरवारा को संबोधित करते हुए लिखते हैं-
मेरी प्यारी वरवारा अलेक्सेयेव्ना, आपको मैं यह बताना चाहता हूं कि आशा के विपरीत पिछली रात मैं बहुत अच्छी तरह से सोया और इस बात की मुझे बड़ी ख़ुशी है. वैसे यह सही है कि नई जगह पर और नए घर में हमेशा ढंग से नींद नहीं आती. यही लगा रहता है, यह ऐसे नहीं है, यह वैसे नहीं है. आज मैं बिल्कुल ताज़ा दम होकर, बहुत ही ख़ुश-ख़ुश जागा हूं. मेरी रानी, आज की सुबह भी कितनी प्यारी है. हमारी खिड़की खुली हुई है, धूप खिली हुई है, पक्षी चहचहा रहे हैं, हवा में बसंत की महक बसी है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है और बाक़ी सब कुछ भी बसंत के अनुरूप है, उसकी सुषमा में ढला हुआ है. मैंने तो आज बड़ी मधुर-मधुर कल्पनाएं भी की हैं और वारेन्का, आप ही उन सारी कल्पनाओं का केंद्र बिंदु है. मैंने आपकी तुलना आकाश में उड़ने वाली चिड़िया से की, जिसका जन्म ही लोगों को ख़ुशी देने और प्रकृति की शोभा बढ़ाने के लिए होता है. इसी समय मैंने यह भी सोचा वारेन्का, चिंताओं और परेशानियों में घुलने वाले हम लोग भोले-भाले और निश्चिंत गगन-विहारी पक्षियों से ईर्ष्या किए बिना नहीं रह सकते. कुछ ऐसी, इसी तरह की दूसरी बातें भी मेरे दिमाग़ में आईं यानी बहुत दूर-दूर की तुलनाएं करता रहा, उपमाएं ढूंढता रहा. प्यारी वारेन्का, मेरे पास एक किताब है, उसमें यह सब, यही सारी बातें बहुत विस्तार से लिखी हुई हैं. मेरी रानी, मैं इसलिए यह लिख रहा हूं कि तरह-तरह के सपने आया करते हैं दिल-दिमाग़ में और अब तो चूंकि बसंत के दिन हैं तो विचार भी बड़े मधुर-मधुर हैं, तीव्रता से उड़ते-घुमड़ते हैं, मन को छूने वाले हैं और सपने भी हैं बहुत कोमल-कोमल, गुलाबी रंग में रंगे हुए. इसी कारण मैंने यह सब लिख डाला है. वैसे मैंने किताब से ही ये सारी बातें ली हैं. उसमें लेखक ने कविता के रूप में ऐसी ही इच्छा व्यक्त की है और लिखा है-
काश कि मैं पक्षी ही होता
एक शिकारी पक्षी
ऐसी ही अन्य बातें भी. उसमें तरह-तरह के दूसरे विचार भी व्यक्त किए गए हैं. ख़ैर हटाइए उन्हें. यह बताइए कि आज सुबह-सुबह आप कहां गई थीं? आपको एक पौंड मिठाई भेज रहा हूं. आशा है कि वह आपको पसंद आएगी. हां, भगवान के लिए मेरी बिल्कुल भी चिंता नहीं कीजिएगा, किसी भी तरह की बात मन में नहीं लाइएगा. तो विदा, मेरी प्यारी.
इसी तरह वरवारा भी मकार को पत्र का जवाब देते हुए लिखती हैं-
आप जानते ही हैं या नहीं कि आख़िर मुझे आपसे पूरी तरह झगड़ा करना पड़ेगा. दयालु मकार अलेक्सेयेविच, क़सम खाकर कहती हूं कि आपके उपहार स्वीकार करते हुए मेरे दिल को दुख होता है. मैं जानती हूं कि आपको इनके लिए कितनी क़ुर्बानी करनी पड़ती है. अपने लिए ज़रूरी कितनी चीज़ों से मुंह मोड़ना और इंकार करना पड़ता है. कितनी बार आपसे यह कह चुकी हूं कि मुझे कुछ भी, बिल्कुल कुछ भी नहीं चाहिए कि मैं आपकी अब तक कि कृपाओं का बदला चुकाने में असमर्थ हूं. क्या ज़रूरत थी ये गमले भेजने की? गुल मेहंदी के पौधे तो ख़ैर ठीक हैं, लेकिन जिरेनियम भेजने की क्या ज़रूरत थी? असावधानी से कोई एक शब्द मुंह से निकल जाने की देर है, मिसाल के तौर पर जिरेनियम के बारे में और आप उसे फ़ौरन ख़रीदने चल दिए. सच बताइए, महंगे हैं न? कितने सुंदर फूल हैं उसमें लाल रंग के, क्रॉस वाले. कहां मिल गया आपको जिरेनियम का ऐसा गमला? मैंने उसे खिड़की के बीचोबीच ऐसी जगह पर रख दिया है कि उस पर सबकी नज़र प़डे, फ़र्श पर एक बेंच रख दूंगी और उस पर दूसरे गमले सजा दूंगी. बस, ख़ुद मुझे कुछ अमीर हो जाने दीजिए. फ़ेदोरा की ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं. हमारे कमरे में तो अब मानो स्वर्ग की बहार है, साफ़-सुथरा, रौशन. और मिठाइयां भेजने की क्या ज़रूरत थी. हां, मैंने आपके पत्र से अभी यह अंदाज़ा लगाया है कि आपके यहां कुछ गड़बड़ ज़रूर है-वहां स्वर्ग है, बसंत है, महक-लहक है और पक्षी चहचहाते हैं. आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें, मेरी आंखों में धूल झोंकने, मुझे यह दिखाने के लिए अपनी आमदनी का बेशक कैसा ही हिसाब क्यों न पेश करें कि वह सारी आप ख़ुद पर ही ख़र्च करते हैं, आप मुझसे कुछ भी नहीं छुपा सकते. बिल्कुल सा़फ़ है कि आप मेरी ख़ातिर अपनी ज़रूरतों को पूरा करने से इंकार करते हैं.
महान रूसी समालोचक विस्सारिओन बेलीन्की ने अपने लेख 1846 के रूसी साहित्य पर दृष्टि में फ्योदोर दोस्तोयेवस्की के बारे में लिखा था-रूसी साहित्य में श्री दोस्तोयेवस्की के समान तेज़ी से, इतनी जल्दी से ख्याति पाने का मिसाल नहीं है.
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