Ad

बुधवार, दिसंबर 19, 2012

रैपिस्ट मस्ट बी हैंग्ड टिल डैथ

        
 सरकार को नारी के साथ बलात्कार उसके खिलाफ़ सबसे जघन्य हिंसा मानने में अब देर नहीं करनी चाहिये.नारी की  गरिमा की रक्षा के लिये बलात्कार को किसी भी सूरत में हत्या से कमतर आंकना सिरे से खारिज करने योग्य है.  घरों में काम करने वाली नौकरानियां, दफ़्तरों का अधीनस्त अमला, इतना ही नहीं उंचे पदों पर काम कर रहीं महिलाएं तक भयभीत हैं. मुझसे नाम न लिखने की शर्त पर एक महिला अधिकारी कहतीं हैं-"हम कितना भी दृढ़ता दिखाएं आखिरकार औरत हैं पल भर में हमारा हौसला खत्म करने में कोई लापरवाही नहीं करता पुरुष प्रधान समाज . "
 ब्लाग जगत की महत्वपूर्ण लेखिका Aradhana Chaturvedi (आराधना चतुर्वेदी रिसर्च स्कालर  )  खुद भयभीत हैं -"मैं दिल्ली में रहती हूँ. अकेले बाहर आती-जाती हूँ. शाम को जल्दी आने की कोशिश करती हूँ, पर सर्दियों में तो छः बजे अँधेरा हो जाता है. 
अभी तक शॉक्ड हूँ कल की घटना से. बार-बार लग रहा है कि ये घटना मेरे साथ भी हो सकती है. सोच रही हूँ वेंटीलेटर पर गंभीर हालत में पड़ी उस लड़की के बारे में. तबीयत ठीक नहीं, बाहर भी नहीं जा सकती...आंदोलन कर रहे जे.एन.यू. के सभी छात्रों के साथ हूँ."
                                           मेरे मित्र कुमारेंद्र सिंह सेंगर जी की  एक बात विचारणीय है-"जब समाज में हर एक बात को सेक्स से जोड़ कर देखा जाने लगा है, सेक्स को, कामुकता को, स्त्री-देह को व्यापक सौन्दर्य-बोध के साथ परोसा जाने लगा है,गानों में, खेलों में, कपड़ों में, खाने में, स्वास्थ्य में, शिक्षा में, वाहनों में, सौन्दर्य-प्रसाधनों में..........लगभग सभी जगहों पर, सभी क्षेत्रों में कामुकता को, देह को, सेक्स को प्रमुखता दी जा रही हो वहां आप मनोविकारी लोगों से संयम की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ?"
    अखबारों और मीडिया घरानों को चाहिये कि औरतों के खिलाफ़ करतीं खबरों तस्वीरों को छापना बंद करें. अंतरजाल पर भी कई ऐसी खबरिया साइट्स हैं जो सन्नी-लियोन और पूनम पांडॆ ब्रांड मामलों.और. तस्वीरों को  टाप रेटेट बता कर लाइम लाइट में रखतीं हैं.. कुमारेंद्र सिंह सेंगर जी का इशारा इनकी ओर भी है.. ध्यान से देखें तो लगता है कि कुमारेंद्र जी सेक्स के व्यवसायिक अनुप्रयोग को भी बलात्कार की एक सीढ़ी बता रहें हैं.. मीडिया हाउसेस के लिये भी आत्म-चिंतन का दौर आ गया है.    
                                                उनकी इस सवालिया टिप्पणी पर आत्म-चिंतन करना होगा. व्यापारी होती जा रही सामाजिक संरचना में केवल चेहरों.. कामुकता को बढ़ावा देते इश्तहारों , फ़्रंट पेज पर सेक्स को स्थान देते रिसाले, बेशक़ उत्प्रेरक बन जाते हैं. किंतु चारित्रिक विकास का दौर में माता पिता अपनी ज़वाबदेही से मुकर नहीं सकते. मुन्नी-शीला, फ़ेविकोल, वाले गीतों पर जब बच्चा थिरकता है तो  अभागे माता पिता बच्चे के इस कुरूप विकास को महिमा-मंडित करते नज़र आते हैं. उफ़्फ़ क्यों नहीं समझ पा रहा है  90 प्रतिशत भारतीय (शायद काटजू साहब वाला ) कि हम कुछ गलीच बो रहें हैं औलादों के ज़ेहन में. ?
      
           प्रयास ब्लाग के युवा लेखक दीपक तिवारी अपने     एक आलेख में लिखते हैं कि-" राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के सिर्फ 2011 के आंकड़ों पर ही नजर डाल लें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है कि आखिर महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं। महिलाओं के साथ बलात्कार, शारीरिक उत्पीड़न और छेड़छाड़ के साथ ही महिलाओं के अपहरण और घर में पति या रिश्तेदारों के उत्पीड़न के मामलों की लिस्ट काफी लंबी है। साल 2011 में हर रोज 66 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुई। एनसीआरबी के अऩुसार 2011 में बलात्कार के 24 हजार 206 मामले दर्ज हुए जिनमें से सजा सिर्फ 26.4 फीसदी लोगों को ही हुई जबकि महिलाओं के साथ बलात्कार के अलावा उनके शारीरिक उत्पीड़न, छेड़छाड़ के साथ ही उनके उत्पीड़न के 2 लाख 28 हजार 650 मामले दर्ज किए गए जिसमें से सजा सिर्फ 26.9 फीसदी लोगों को ही हुई। ये वो आंकड़ें हैं जिनमें की हिम्मत करके पीड़ित ने दोषियों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई…इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि असल में ऐसी कितनी घटनाएं घटित हुई होंगी क्योंकि आधे से ज्यादा मामलों में पीड़ित समाज में लोक लाज या फिर दबंगों के डर से पुलिस में शिकायत ही नहीं करती या उन्हें पुलिस स्टेशन तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। सबसे बड़ी बात ये है कि आंकड़ें इस पर से पर्दा हटाते हैं कि इन मामलों में कार्रवाई का प्रतिशत सिर्फ 25 है…यानि कि 75 फीसदी मामले में या तो आरोपी बच निकले या फिर ये मामले सालों तक कोर्ट में लंबित पड़े रहते हैं और आरोपी जमानत पर खुली हवा में सांस ले रहा होता है।अगर 71.1 प्रतिशत दरिंदे खुले आम घूम रहें हों तो कौन भयभीत न होगा. 
                      यौनिक अपराधों की सुनवाई केवल 30 दिन से अधिक का वक़्त नहीं मिलना चाहिये. सजा मौत से कम न हो वरना रेशमा जैसी नारी  जीवन भर एक आक्रांत जीवन जियेगी शायद मुस्कुराहट लौट न पाए कभी . बेटियों के खिलाफ़ होते समाज को वापस नेक चलनी की राह दिखाने के लिये अगर कठोर क़ानून न बने तो समाज का पतन दूर नहीं होगा. 
                  मेरे व्यक्तिगत राय ये भी है कि एक ऐसा कानून बनाया जाये जो औरत के खिलाफ़ जिस्मानी ज़्यादती को हत्या के समान कारित माने. सच्चे पुरुष कभी भी किसी नारी के आत्म सम्मान की हत्या नहीं करते. बलात्कारी सदैव हत्यारा होता है. कसाब सरीखा आतंकी होता है... उससे बस  जितना जल्द हो सके दुनिया से बिदाई "फ़ांसी के तख्त पर" दे देनी चाहिये. 
                     मैं एक कवि हूं.. कितना नर्म हूं फ़ांसी की मांग करना मेरी प्रकृति के खिलाफ़ है पर सामाजिक संस्कारों वश मुझे लगता है कि -"जो नारी जैसी नर्म हृदया के हृदय को घात करे उसे जीने का अधिकार देना सर्वदा अनुचित है."
                                           बकौल विचारक पत्रकार  श्री  रवींद्र बाजपेई -"दिल्ली में बलात्कार के आरोपियों को फांसी पर टांगने की मांग चारों तरफ गूँज रही है लेकिन जिस देश में आतंकवादियों को फांसी पर लटकाने में दस बरस का वक़्त लगता हो वहां इस तरह के अपराधियों को उनके कुकर्म की सजा देने में कितनी देर होगी यह विचारणीय है।"  
          सवालों पर एक दीर्घ विराम लगा सकती राजनैतिक इच्छा शक्ति. 


वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने


हां सदमा मग़र हादसा
देखा नहीं कोई !
और न तो  साथ मेरे
जुड़ती है कहानी हादसे जैसी......!!
मग़र नि:शब्द क्यों हूं..?
सोचता हूं
अपने चेहरे पे
सहजता लांऊ तो कैसे ?
मैं जो महसूस करता हूं
कहो बतलाऊं वो कैसे..?
वो जितना रोई होगी बस में दिल्ली की लड़की
मेरी आंखों के आंसू भी सुखाए उसी पगली ने
न मैं  जानता उसे न पहचानता हूं मैं ?
क्या पूछा -"कि रोया क्यूं मैं..?"
निरे जाहिल हो किसी पीर तुम जानोगे कैसे
ध्यान से सुनना उसी चीख
सबों तक आ रही अब भी
तुम्हारे तक नहीं आई
तो क्या तुम भी सियासी हो..?
सियासी भी कई भीगे थे सर-ओ-पा तब
देखा तो होगा ?
चलो छोड़ो न पूछो मुझसे
वो कौन है क्या है तुम्हारी अब वो कैसी है ?
मुझे मालूम क्या मैं तो 
जी भर के 
दिन भर रोया हूं
मेरे माथे पे 
बेचैनियां
नाचतीं दिन भर  !
मेरा तो झुका है 
क्या तुम्हारा 
झुकता नहीं है सर..?

 सुनो तुम भी
दिल्ली से आ रहीं चीखैं.. ये चीखैं
हर तरफ़ से एक सी आतीं.. जब तब 
तुम सुन नहीं पाते सुनते हो तो गोया 
समझ में आतीं नहीं तुमको 
समझ आई तो फ़िर किसकी है 
ये तुम सोचते होगे
चलो अच्छा है जानी पहचानी नहीं निकली !!
हरेक बेटी की आवाज़ों फ़र्क  करते हो
अगर ये करते हो ख़ुदा जाने क्या महसूस करते हो..?
हमें सुनना है  हरेक आवाज़ को 
अपनी समझ के अब 
अभी नहीं तो बताओ 
प्रतीक्षा करोगे कब तक
किसी पहचानी हुई आवाज़ का 
रस्ता न तकना तुम
वरना देर हो जाएगी 
ये बात समझना तुम !!
                     
     

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में