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ज्ञान रंजन जी : अभियक्ति के क्षण |
उत्तिष्ठ! जागृत चरैवेति चरैवेति! प्राप्निबोधत। उठो जागो और चलते रहो, उन्हे प्राप्त करो जो तुम्हारा मार्ग दर्शन कर सकते हैं। कहा गया है कि जीवन चलने का नाम है,चलती का नाम गाड़ी है, चलते-चलते ही अनुभव होते हैं, चलते रहना एक जीवित होने का प्रमाण है। ठहर जाना समाप्त हो जाना है। मार्ग में हम कुछ देर रुक सकते हैं, आराम कर सकते हैं, अपने आस पास को निहार सकते हैं उसका जायजा ले सकते हैं। सुंदर दृष्यों को अपनी आँखों में भर सकते हैं जिससे वे मस्तिष्क के स्मृति आगार में स्थाई हो सके। एक यायावर जीवन भर चलते रहता है, चलते चलते ही सत्य को पा जाता है -
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विमोचन |
“ये भी देखो वो भी देखो, देखत-देखत इतना देखो, मिट जाए धोखा, रह जाए एको”
दुनिया को जानने एवं अपने को पाने के लिए यात्रा जरुरी है, भ्रमण जरुरी है।
भ्रमण बुद्धू भी करता है और बुद्ध भी करता है। वैसे भी भ्रमण शब्द में भ्रम प्रथमत: आता है। बुद्धू भ्रमित तो पहले से ही है, भ्रमण करते हुए उसका भ्रम और भी बढ जाता है। वह सत्यासत्य निर्णय नहीं कर पाता, बुरा-भला में अंतर नहीं कर पाता। लेकिन बुद्ध के भ्रमण करने से उसकी सत्यासत्य के निर्णय करने की क्षमता बढती है। बुद्ध को यदि कोई भ्रम रहा हो तो वह भी भ्रमण से नष्ट हो जाता है। उसका भ्रम दूर हो जाता है, बुद्ध की बुद्धि निर्मल हो जाती है। बुद्धि या विवेक का निर्मल हो जाना ही जीवन का सार है। वह पहुंच जाता है यार के निकट, जिसकी खोज में आज तक के मुनि भटकते रहे हैं, यायावर भटकते रहे हैं।
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फोटो परिचय बाएँ से : मैं,समीर भाई,
डा० हरिशंकर दुबे ,
श्रीयुत ज्ञानरंजन,श्रीयुत पी० के० लाल, |
समीर लाल "समीर" की पुस्तक” देख लूँ तो चलूँ” मुझे प्राप्त हुई। तो मैने भी सोचा देख लूँ तो चलूँ। देखने लगा, उसके पन्नों की सैर करने लगा तो किस्सागोई शैली में रचित इस पुस्तक को पूरा पढ कर ही उठा। एक प्रवाह है लेखन में जो आपको दूर तक बहा ले जाता है। सहसा जब घाट पर नाव लगती है तो एक झटके से ज्ञात होता है अब किनारे आ पहुंचे। बैक मिरर में सिगरेट पीती महिला और उसकी उम्र का सटीक अंदाजा लगाना कार ड्राईव करते हुए, गजब का अंदाज है। अपने घर और वतन को छोड़ते हुए शनै शनै सब कुछ पीछे छूट जाना, इनके छूटने से असहज हो जाना एक प्रेमी की तरह। प्रियतम पीछे छूट रहा है, फ़िर मिलेंगे वाली बात है।
“कार अपनी गति से भाग रही है, माईलोमीटर पर नजर जाती है। 120 किलो मीटर प्रति घंटा। मैं आगे हूँ। रियर मिरर में देखता हूँ, वो पीली कार बहुत देर से मेरे पीछे चली आ रही है, दुरी उतनी ही बनी है।“
यही जीवन का संघर्ष है। समय के साथ चलना। अगर समय से ताल-मेल न बिठाएगें तो वह हमें बहुत पीछे छोड़ देगा। जीवन की आपा-धापी में अपना स्थान बनाए रखने के लिए कुछ अतिरिक्त उर्जा की आवश्यकता पड़ती है। अगर अनवरत आगे रहना है तो गति बनाए रखना जरुरी है। यक्ष के प्रश्न की तरह अनेक प्रश्न उमड़ते-घुमड़ते हैं, जिनका उत्तर भी चलते-चलते ही मिलता है।
“अम्मा बताती थी मैं बचपन में भी मोहल्ले की किसी भी बरात में जाकर नाच देता था। बड़े होकर भी नाचने का सिलसिला तो आज भी जारी है।“
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डा० हरिशंकर दुबे : अध्यक्षीय उदबोधन |
“नर्तकी” शब्द को उल्टा पढे तो “कीर्तन” होता है। जब तक चित्त में विमलता नहीं होगी, कीर्तन नहीं होगा। चित्त की विमलता से ही कीर्तन का भाव मन में प्रकट होता है। कीर्तन से ही मन का मयूर नाचता है। जब मन का मयूर नृत्य करता है आनंदोल्लास में, तो देह स्वत: नृत्य करने लगती है। लोग समझते हैं कि वह नाच रहा है। वह नाच नहीं रहा है, वह स्व के करीब पहुंच गया है। तभी नर्तन हो रहा है। नर्तन भी तभी होगा जब वह अपने अंतस की गहराईयों में उतर जाएगा मीरा की तरह। “पग घुंघरु बांध मीरा नाची थी हम नाचे बिन घुंघरु के।“ बस यही विमल भाव जीवन भर ठहर जाएं, बस यूँ ही नर्तन होते रहे जीवन में। बिन घुंघरु के नृत्य होगा, अनहद बाजा बजेगा। रोकना नहीं कदमों को थिरकने से। प्रकृति भी नृत्य कर रही है, उसके साथ कदम से कदम मिलाना है। अपने को जान लेना ही नर्तन है।
“देख लूँ तो चलूँ” पढने पर मुझे इस में आध्यात्म ही नजर आ रहा है। “आध्यात्म याने स्वयं को जानना।“ लेखक अपने को जानना चाहता है। प्रत्येक शब्द से आध्यात्म की ध्वनि निकल रही है। मंथन हो रहा है। मंथन से ही सुधा वर्षण होगा।
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विमोचन |
दादू महाराज कहते हैं –
“घीव दूध में रम रहया, व्यापक सबही ठौर
दादू वक्ता बहुत हैं, मथ काढे ते और।
दीया का गुण तेल है राखै मोटी बात।
दीया जग में चांदणा, दीया चाले साथ।“
बस कुछ ऐसा ही मंथन मुझे “देख लूँ तो चलूँ” में दृष्टिगोचर होता है। दीया ही साथ चलता है। साहिर का एक शेर प्रासंगिक है –
दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया वह लौटा रहा हूँ मैं।
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राजेश कुमार दुबे "डूबे जी " |
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संचालन का जोखिम |
समीर लाल "समीर" भी यही कर कर रहे हैं। दुनिया से मिले अनुभव को दुनिया तक पहुंचा रहे हैं। तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा। साधु भाव है। मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ लेकिन “देख लूँ तो चलूँ” को पढकर जो भाव मेरे मन में सृजित हुए उन्हे शब्दों का रुप दे दिया। इस पुस्तक को दो-बार,चार बार फ़िर पढुंगा और मंथन करने के पश्चात जो नवनीत निकलेगा उसे आप तक पहुंचाने का प्रयास करुंगा। समीर लाल "समीर" को पुस्तक के विमोचन पर हार्दिक शुभकामनाएं। सफ़र यूँ ही जारी रहे।
ललित शर्मा के ब्लाग ललित.काम से साभार
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डा०विजय तिवारी किसलय और तस्वीरें /विस्तृत विवरण शीघ्र ही |
टिप्पणियाँ
vo bhi kamal tha.
kul milakar mitra
jordar dhamal tha.
आपके माध्यम से समीर लाल जी को बहुत बहुत बधाई। समीर जी इतने महान साहित्यकार होंगे मैं नहीं जानता था। ज्ञानरंजन जी का नाम एक बार दद्दू से सुना था। आज कुछ डिटेल मालुम पड़ा। लाल के जोड़ीदार बवाल नजर नहीं आ रहे। वो नहीं आए थे क्या ? आपकी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी।
देखना चाहो तो जो भी देख लो ए 'लाल' तुम,
बात चलने की मगर करना नहीं फिलहाल तुम,
चाहिए जितना जिगर ,इतना तो है ही आपका,
'Best Seller", कृति के लेखक बनो हर हाल तुम.
हार्दिक बधाई और शुभ कामनाए.
ज्ञान रंजित टिप्पणियों ने जिज्ञासा जगा दी है कि शिघ्र ही पुस्तक प्राप्त कर पढ़ ली जाए. ज्ञान जी ने साहित्यिक समीक्षा करने में अत्यंत सतर्कता बरती है.विषय के इतर इन्होने प्रष्ठ भूमि का जायज़ा अधिक लिया है. 'प्रवासियों' की मन: स्थिति पर उनका ये आलेख एक महत्त्वपूर्ण दस्तवेज़ है. ज्ञान दादा को सलाम.
-मंसूर अली हाशमी
http://aatm-manthan.com
take care
and yes for sameer ji...
समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं