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16.4.13

हिडिम्ब : क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण एक दुर्लभ उपन्यास

श्री एस.आर.हरनोट का उपन्यास हिडिम्ब पर्वतांचल के एक भूखण्ड, वहां की
श्री एस.आर.हरनोट
एथनिक संस्कृति और उसकी समकालीन सामाजिक वस्तुस्थिति को रेखांकित करता एक ऐसा यथार्थपरक आख्यान है जो देहात के उत्पीडि़त आदमी की जैवी कथा और उसके समग्र परिवेश का एक सही लोखाचित्र के फ्रेम में प्रस्तुत करता है। भाषा और भाव के स्तर पर उलटफेर से गुरेज़ करता हुआ, किन्तु पहाड़ी देहात के ज्वलंत जातीय प्रश्नों को उनकी पूरी पूरी तफ़सीलों के साथ उकेरता हुआ। कहानी यों चलती है जैसे कोई सिनेमेटोग्राफ हो। लेखक खुद भी एक क्रिएटिव छायाकार है इसलिए सम्भवत: उसने हिडिम्ब की कहानी को एक छाया चित्रकार की तरह ही प्रस्तुत किया है। अपने गद्य को सजीव लैण्डस्केपों में बदलता हुआ। इस प्रकार के कथा शिल्प में पहली बार यह महसूस हुआ कि यथार्थ के मूल तत्व को उसमे किस तरह महफूज रखा जा सकता है। ऐसा गल्पित और कल्पित यथार्थ एक साथ अर्थमय भी है और अपने परिप्रेक्ष्य में भव्य भी।

उपन्यासकार ने सबसे पहले अपने पाठक को मूल कथा-चरित्रों का परिचय दिया है। इस तरह के परिचय अक्सर पुराने क्लासिक उपन्यासों में देखे जा सकते हैं। हिडिम्ब में ऐसी पूर्व-प्रस्तुतियां आख्यान के लिये भूमिका का निर्माण करती हैं ताकि लक्षित पाठक उसकी सराहना के लिए उत्प्रेरित हो सके। ऐसे पूर्वविवरण कथा के लिए क्षुधाबोधक का काम करते हैं जिन्हें लेखक ने डूबकर लिखा है। ये वस्तुपरक नहीं, चरित्रांकन करते हुए आत्मीय विवरण हैं, जिससे कथा रूपी नाटक का प्रांगण तैयार होता है। विक्टर ह्यूगो से लेकर पास्तरनाक तक के अनेक उपन्यासकारों में यह परिपाटी कहीं कथारम्भ में तो कहीं कहीं बीच में और अन्त में भी देखने को मिलती है ताकि कथाविशेष के परिवेश की औपचारिक जानकारी मिल सके। कथा का यह एक ऐसा लचीला खोल है जिसमें वह न सिर्फ़ अपनी चाल में तल्लीन एक केंचुए की तरह आगे सरकने लगती है बल्कि अपने घटना क्रियागत परिमाण को भी मर्यादित करती चलती है।

उपन्यासकार ने शावणू नड़, उसकी घरवाली सूरमादेई, बेटी सूमा और बेटे कांसीराम की दुनिया को अपनी कलम से टटोला है। यह दुनिया है विषाद, अन्याय और अभाव को वहन करती दुनिया जो कहानी के अन्त तक- जब कि नड़ अकेला रह जाता है–उसका पीछा नहीं छोड़ती। बकौल लेखक नड़ वह जाति है ’जिसकी ज़रूरत क्षेत्र के लोगों को कभी सात, कभी बारह तो कभी बीस तीस बरस बाद काहिका के लिए पड़ती है।’ काहिका एक नरबलि की अति प्राचीन परम्परा है। ’नड़ इस उत्सव का मुख्य पात्र होता’ है। ’लेकिन जब उसकी ज़रूरत नहीं होती वह अछूत, चाण्डाल बन जाता’ है। उत्सव के समय ’वह ब्राह्मण हो जाता है’–देवता, पुजारी, गूर सब उत्सव की शोभायात्रा में उसका अनुगमन करते हैं। अन्यथा ’गांव–बेड़ के पिछवाड़े का’ वह ’एक आवारा कुत्ता’ है। ’पूजा पाठ करते हुए’ यदि ’ब्राह्मण’ उसे देख ले तो उसे’ गालियां देने’ लगे। नड़ परिवार विशेष में जन्म लेने के कारण उसे काहिका को एक बड़े दण्ड के रूप में भोगना ही है। उपन्यासकार ने उक्त देवोत्सव को रेशारेशा बयान किया है ताकि पाठक यह जान सकें कि किस तरह पहाड़ी समाज में आज भी ऐसे मुकाम हैं जहां आदमी से खुद उसके सामाजिकों द्वारा एक बलिपशु का-सा बर्ताव किया जाता है। उसके सभी विवरण इस बारे में प्रामाणिक हैं जो किसी सम्वेदनशील मन में सहज ही रूढि़यों के खिलाफ़ आक्रोश और खण्डन-भाव को संचरित कर सकते हैं।

काहिका उत्सव में उसके पिता की बलि के बाद शावणू को जमीन का एक टुकड़ा विरासत में मिला था। तब वह बच्चा ही था। कहानी में काहिका प्रकरण को लेखक ने फ्लैशबैक में लेकर अपने इस मुख्यपात्र के अन्दर के बनाव और बदलाव के लिए कथा के वर्तमान का आधार तैयार किया है। पश्चदर्शन की इस शैली से कथा के निकट वर्तमान के साथ-साथ अतीत को समोकर उसने एक साथ दो आयामों को खोजा है ताकि पूरी कथा एक लड़ी में पिरोयी जा सके। उपन्यासकार ने नदी किनारे की उसकी कृषि भूमि का हवाला भी रुचिकर ढंग से दिया है। यह महज़ लैण्डस्केपिंग नहीं, परिवेश और संस्कृति का मानवीय तत्वबोध भी उसमें समाहित है। जैसे–

ज़मीन काफ़ी उपजाऊ थी। उम्दा किस्म की मिट्टी से सनी हुई।.... नीचे थोड़ी दूर एक पौराणिक नदी बहती थी।’


यहां पौराणिक नदी का होना यह साबित करता है कि वह एक प्रसिद्ध प्राचीन नदी होगी जिसका प्रसंग पुराणों में मिलता है। आगे–

’वहां कुदरत का नज़ारा बड़ा ही अद्भुत था। एकदम विलक्षण। विचित्रता अनूठी थी। काव्य के नौ रसों में से एक। पहाड़ी ढलान से नीचे उतरते खेत, मानो छन्दों में पिरोये हुए हों। दूर से देखने पर वह एक छोटा सा टापू लगता था।’

एक बेजोड़ सौन्दर्य बोध जिसकी उर्ध्व रेखाएं पूरे भूखण्ड को कथा की समानधर्मिता में ब्लेण्ड करती चलती है। प्रयोग काव्यात्मक है और चित्रात्मक भी, जो अन्तत: कथा के विकास और आने वाले बदलावों तक स्थायी रूप से ज़हन में बना रहता है। परिवेश के सामाजिक सांस्कृतिक तत्व को जानने के लिए निम्न उद्धरण सटीक होगा–

’ज़मीन के आगे एक बड़ा चरांद था जिसमें घाटी के कई गावों के पशु और भेड़-बकरियां चरा करते थे...बहुत पहले न कोई चरवाहा होता, न गवाला।...(पशु) दिनभर खूब चरते...शाम होने लगती तो खुद अपने अपने घरों को लौट आते...(लोगों) ने बाघों को भी (कई बार) नदी किनारे पशुओं के साथ सोते-जागते देखा था।’

उपन्यासकार ने यह चित्र खींच कर घाटी में व्याप्त पहले वक्तों की शान्ति को चित्रित किया है। एक ऐसा माहौल जहां बाघ-बकरी एक साथ रहते हैं।
शावणू की ज़मीन पर दौरे पर आये मंत्री की नज़र पड़ती है। यहां कथाकार ने लोलुप मंत्री का एक असुन्दर किन्तु कलात्मक व्यंगचित्र बनाया है। तन्जिया लहज़ा कहानी में उपयुक्त आवेग का संयोजन करता चलता है। एक छोटी सी बानगी–

’ज़मीन मंत्री के लिए जिस्मानी हवस की तरह हो गयी थी। वह जिस मकसद से दौरे पर आया था उसे भूल गया। सामने थी तो बस वही ज़मीन।...उसकी आंखों में वह नड़ परिवार और उसका घर चुभता चला गया।’

इस तरह की झांकियां आगे आने वाले हालात का न सिर्फ़ संकेत देती हैं बल्कि पाठक के रुझान का भी उद्दीपन करती हैं। यहां कहानी की आगामी लीक को लेखक ने बखूबी स्पष्ट कर दिया है। मंत्री के काल्पनिक प्रोजेक्शन और ज़मीन को लेकर उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके लचर चरित्र को उघाड़ कर सामने रख देता है। हिडिम्ब की कहानी में जगह जगह रूपकों की रचना हुई है जो स्थिति विशेष की बेहतरीन ढंग से तजु‍र्मानी करते हैं। मंत्री के दरबार में ज़मीन के सौदे के लिए शावणू की हाजि़री वाला प्रसंग सटीक ढंग से रूपक में बांधा है। जैसे–

’मंत्री ने उसे भेड़िए की आंख से देखा। सिर से पांव तक...बाहर बंधा बकरा मिमियाया था।’

उपयु‍र्क्त रूपक को और ज्यादा सार्थक, उत्तेजक और अन्याय का द्योतक बनाती निम्न पंक्तियां स्थिति को संकेतात्मक रूप से सम्वेदनशील बना जाती हैं–
’शावणू ने....एक सरसरी नज़र कमरे की दीवारों पर डाली। सामने गांधी जी की फोटो टंगी थी। उस पर इतनी धूल और जाले जम गए थे कि पहचानना कठिन था।’..

मंत्री के साथ शावणू का साक्षात्कार, डाक बंगले में मंत्री का दारू पीना और ज़मीन बेचने में शावणू की साफ इन्कारी एक दलित के अन्दर की चिनगारी और नागवार हालात को बखूबी बयान करते हैं। उक्त दृश्य में बकरे का फिर वही रूपक स्थिति का कुछ इस तरह समाहार करता दिखायी देता है–

’बकरे के पास पहुंचकर शावणू के पैर अनायास ही रुक गये। उसे दया भरी दृष्टि से देखा। फिर आरपार घाटियों की तरफ। अनुमान लगाया होगा कि सांझ और बकरे की जिन्दगी में कितना फासला शेष रह गया है।....उस समय उसे अपने और बकरे में कुछ अधिक फर्क न लगा।’

फर्क था तो बस इतना कि बकरा शीघ्र ही शाम को मंत्री और उसके परिकरों की पार्टी के लिए जिबह होने वाला था जबकि शावणू को इन्तजा़र था उस दुखद घड़ी का जब मंत्री राजस्व के सेवादारों से मिलकर किसी न किसी प्रकार उसकी पुश्तैनी ज़मीन पर काबिज़ हो जाएगा। उस ज़मीन पर, जो अब तक उसे आजीविका देती रही थी। अपनी इस चाह को पूरा करने के लिये मंत्री स्थानीय तत्वों को उपयोग में लाता है। इनमें मुख्य हैं पंचायत का पूर्व प्रधान, शराब का ठेकेदार और डिपो का सेक्रेटरी। मंत्री के ये जीहजूरिये उसकी इच्छाओं का पूरा ध्यान रखते हैं। उसे खुश करने के लिये वे किसी से भी बदतमीज़ी पर आमादा हो सकते हैं। ’शावणू जानता’ है ’कि वे तीनों उस मंत्री के खासमखास हैं’ और उनके फैलाए जाल में ’कोई भी भला आदमी फंस सकता है।’ लेखक ने इन्हें लार टपकाते कुत्तों की संज्ञा दी है। ये लोग ज़मीन के मालिक शावणू पर हर तरह का दवाब डालते हैं मगर उसकी बीवी कड़ा रुख अपनाती है और उन्हें खदेड़ने के लिए ’विकट और विराट रूप’ भी धारण कर लेती है।

हिडिम्ब में न सिर्फ़ नड़ परिवार और उससे जुड़े प्रसंगों की कहानी कही गयी है बल्कि घाटी में आ रहे नये बदलावों की ओर भी इशारा किया गया है। यहां ’कुछ (लोग) चरस-भांग और विदेशी नशा बेचकर तो कुछ देवदार जैसी बेशकीमती लकड़ी की तस्करी करके’ मालामाल हुए हैं। आसपास के जनपदों पर सामाजिक टीका-टिप्पणी और व्याख्या उपन्यास को एक वचनबद्ध कृति का दर्जा देती है और बीच बीच में दिखायी देते काले स्पॉट पाठक को इस बात का भान करा देते हैं कि विकास के नाम पर पर्वतांचल का आदमी किस तरह अपने ही घर द्वार पर शोषक तत्व का बन्धक बना है।

शोभा लुहार ने इस कहानी में एक चरित्रशाली ग्रामीण दस्तकार की भूमिका निभाई है। वह वयोवृद्ध है। अपने से काफ़ी कम उम्र के शावणू से उसकी अभिन्न मित्रता है। दोनों जब-जब भी कहानी में एक साथ नज़र आये हैं कहानी को एक गम्भीर और अर्थमय वातावरण दे जाते हैं। नायक के संकटग्रस्त जीवन में कहीं इन्सानी उच्चता है तो वह यहीं है, शोभा की दोस्ती में। ’जैसे-जैसे उम्र ढलती गई, लुहार का काम पीछे छूटता रहा’। शोभा के बच्चों ने भी पुश्तैनी काम नहीं किया। जिससे इस वयोवृद्ध दस्तकार को अपना ’आरन बन्द करना पड़ा’। जाति-वर्ग के लिहाज़ से यद्यपि शोभा लोहार शावणू से श्रेष्ठ है फिर भी शावणू नड़ को वह पूरा सम्मान देता है। एक भेंट में उसको उसने ’मंजरी पर बैठने के लिए (भी) कहा था’।

उपन्यासकार ने इन पात्रों के मध्यम से जातिवाद पर करारी टिप्पणी की है। साथ यह भी दर्शाया है कि नये सामाजिक बदलाव ने किस प्रकार पारम्परिक दस्तकारी का खात्मा किया है। उसके एवज़ कोई दूसरा सम्मानजनक आर्थिक विकल्प भी नहीं दिया। यह है एक नये और खतरनाक संक्रमण की जीती-जागती तसवीर। पूरा हिडिम्ब मानवीय त्रासद की एक अत्यन्त दर्द भरी कहानी है जिसमें मानव निर्मित अवरोध प्रकृतिस्थ भूखण्ड को एकाएक क्षतिग्रस्त कर देते हैं। बस एक सपना है जो मरीचिका की तरह आगे से आगे सरकता जाता है। प्रलयान्त मोहभंग की स्थिति तक।
आंचलिक होते हुए भी यह उपन्यास क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण है। यही वे प्रसंग हैं जो हमारे समकालीन विघटन को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। मुसलसल उदासीनता और अंधेरा छाया है इस कहानी पर। घटित से उभरता हुआ उपेक्षित मानव जीव्य। पर्वतीय घाटी का कड़वा सच। प्रकृति का बेहिसाब दोहन, पर्यावरण में आदमी की दखलन्दाजी, नशीले पदार्थों की तस्करी इस उपन्यास के कुछ ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं जो हमारी आज की इन्सानी दुनिया के बदरूप मटियालेपन को उभार कर सामने लाते हैं।

घाटी को नशानोशी और उससे जुड़े काले व्यापार ने बुरी तरह अपनी गिरिफ्त में कस रखा है। स्थानीय दलाल/ठेकेदार इस काम के लिए ग़रीब और दलित परिवार के बच्चों को बूटलैगर बनाकर खुलेआम अपना धन्धा चला रहे हैं। बच्चे, जिनकी उम्र स्कूल जाने की थी, वे माल को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने पर विवश किए जाते हैं। ऐसे माहौल में नशे के वे भी शिकार हुए हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण हैं खुद शोभा लोहार और शावणू नड़ के बच्चे। इन दर्दनाक स्थितियों की दुश्वारियों में खोए एक दूसरे की पारस्परिकता से बंधे दोनों मित्रों के सरोकार एक साथ अलग-अलग स्तरों पर कहानी को आगे बढ़ाते चलते हैं। जहां मंत्री और ज़मीन का किस्सा खत्म हुआ वहां शोभा की करुण कहानी शुरू हो जाती है। शोभा दुखी है अपने बच्चों के कारण। छोटा विदेशी नशे का शिकार हुआ जबकि बड़ा दारू-भांग पीता है। दुख की विशेष मन:स्थिति में शोभा की भावभंगिमा हृदय को छूने वाली है। जैसे कि–

’कोई देखता तो जानता कि उम्र के इस पड़ाव पर बैठे शोभा के दर्द कितने तीखे और गहरे थे। जिसने अपनी टोपी की ओट में बरसों से इज्ज़त-परतीत छिपा-बचा के रखी, बुढ़ापे में किस तरह जाती रही।’

’शोभा ने गीली आंखों से शावणू की तरफ देखा था। दर्दीली नज़रों का स्पर्श शावणू को भीतर तक बींध गया था। वह जानता था कि यह दर्द अकेले शोभा का नहीं है। इस घाटी के गावों में न जाने कितने बुजुर्ग होंगे जो अपने घर में पराए की तरह दिन काट रहे थे।’

शोभा और शावणू की आपसी हमदर्दी और अपने-अपने दुखों के विनिमय से भरी यह दोस्ताना जुगलबन्दी कथा के अन्त तक उपन्यास को एक ऐसा गाढ़ा रंग देती है जो इन्सानी ज़ात और उसकी नैतिकता के समूल विखण्डन की ओर इशारा करता है। इन दोनों के दुख भरे संवाद हिडिम्ब की कहानी के अभिन्न अंग है। उनके दुख में आदमी नहीं, जानवर भी शिरकत करते दिखाये गये हैं। एक उदाहरण –

’दोनों मेमने जो बड़ी देर से आंगन में उछल-कूद कर रहे थे, शोभा के पास आकर सो गए। कुत्ते की भी जुगाली खत्म हो गई थी। वह दुम हिलाता आया और शोभा से सट कर बैठ गया। आंखें उसकी तरफ थीं। भीगी-भीगी हुई सी।’

सहसा यह वृत्त चेखव के आयोना पोतेपोव और उसके गमज़दा घोड़े की याद ताज़ा कर जाता है। आदमी और जानवर के बीच का अनन्य जुड़ाव दर्शनीय है। लेखक के पास सजाने के लिए कोई अलंकार न सही वह ऐसे ही मार्मिक दृश्यों से सहज अलंकरण का काम अपने गल्प में अन्यत्र भी लेता है।

शावणू के बेटे कांसी की मौत भी ड्रग माफिया की वजह से होती है। एक साजिश के तहत ठेकेदार और प्रधान द्वारा उसे खाने के लिए ज़हर मिला प्रसाद दिया जाता है ताकि वे मंत्री को ज़मीन न देने वाले नड़ परिवार से बदला ले सकें। वे कांसी की हत्या ही नहीं करते, उसकी ’लाश को भांग के नशे में बर्बतापूर्ण लातों-घूसों से’ मार कर अपनी घृणित भावना की पूर्ति भी करते हैं। उनकी इस जाति संहारक साजि़श में कहीं स्कूल का नशेड़ी मास्टर भी शामिल है। मास्टर जो अन्यथा समाज में एक आदर्श रुतबा रखता है। लेखक ने यहां परोक्ष रूप से एक साथ दो सामाजिक संस्थानों और उनके संचालकों पर ज़ोरदार प्रहार किया है। उसने कांसी की दर्दनाक मौत के बाद स्कूल के आसपास के वातावरण को भी उदासीन कर दिया है। मानो प्रकृति भी उस मौत पर शोक मना रही हो––

’स्कूल की छत पर बैठा कौऔं का दल उड़ गया। वे कई पल कर्कश आवाज़ करते रहे। उनकी करकराहट किसी अनहोनी को कह रही थी। कोई उनकी भाखा जानता तो देखता विद्याघर में आज कितना अनर्थ हुआ था ?......’

’.....वहां ऐसा कौन था जो उनकी भाखा सुनता। थोड़ी देर बाद पता नहीं वे कहां चले गये। वहां जो कुछ घटा उसका डर पूरे मैदान में पसर गया। न हवा चल रही थी। न कोई कौआ या चिडि़या ही कहीं चहचहा रही थी।’

ऐसे विवरण एपिक तत्वों से परिपूर्ण हैं। हूबहू प्रेमचन्दीय गल्प जैसी सरल और इन्सान को छू सकने वाली सहज भावना से ओतप्रोत। इस कथा प्रकरण के अन्त में ’घास काटती’ हुई औरत द्वारा ’भियाणी नायिका का’ यह गीत पाठक को और ज्यादा स्पन्दित कर देता है जिसमें यह कहा गया है: ’अरी भियाणी, कानों में क्या कथनी सुन ली, नौजवान की मौत हो गई, चिडि़या शाख पर रो दी।’ इस तरह के गाथाई किस्से कथा को क्या और ज्यादा दारुण नहीं बना देते ? यह दुख का विषय है कि कहानी, उपन्यास आज सामान्य लोक से उठ कर विशेष लोक में चले गये हैं। कथाकार को अब गाथाओं में गुंथी पीड़ाओं की जगह नगर-लोक ज्यादा प्रिय है।

इस कहानी में अप्रत्याशित मोड़ तब आता है जब बेटी सूमा घाटी में आये एक विदिशी युवक एरी से इकरारनामे के आधार पर विवाह कर लेती है। पुराणपंथी समाज अब उन लोगों के लिए पराया है जो जातीय परिधि से बाहर होने के कारण अन्तर्जातीय व्यवहार में लगातार घृणा व उपेक्षा का सामना कर रहे हैं। विदेशी इन रूढि़यों से सर्वथा मुक्त हैं। कॉण्ट्रेक्चुअल शादियां अब उन के लिए टाइमपास का एक सरलतम उपाय है। इसके बरक्स भारतीय समाज के लिए विवाह आज भी एक अहम संस्कार है। यह कोई व्यापारिक विनिमय का विषय नहीं। इकरारनामा जबकि एक गैर ज़िम्मेदाराना व्यवस्था है। इस की अवधि समाप्त होने पर विवाह अमान्य हो जाते हैं। पौर्वात्य भारत इसे कभी नहीं अपना सकता। यदि ऐसा हुआ तो इसके लिये जिम्मेदार है जातीय वर्गवाद। उपन्यासकार ने इस नयी विवाहपद्धति के परिणामस्वरूप आने वाले खतरों से भी सावधान किया है। यह उन कुलीन वर्गों पर एक गहरा कटाक्ष है। विशेषकर, आसपास निवास कर रहे उन ग़रीब तथा अकुलीन वर्ग के लोगों की ओर से जो अपनी जवान होती बेटियों के विवाह के लिए रिश्ते व साधन नहीं जुटा पाते। शावणू नड़ काण्ट्रेक्चुअल विवाह होने के बावजूद अपनी परम्परा और संस्कृति से विमुख नहीं हुआ है। कन्या की विदाई के समय उसके अन्दर वही भाव हैं जो एक भारतीय पिता के अन्दर ऐसे अवसरों पर स्पष्ट चीन्हे जा सकते हैं। ’दुल्हन मुन्नी उर्फ़ सूमा चली गई। सब कुछ पीछे छूटता रहा....पिता। घर। आंगन। गोशाला। पशु। खेत। क्यार। खलिहान....और पता नहीं क्या क्या ?’ शावणू के अन्दर का पिता, वियोग में पूरी तरह डूबा है जिसे लेखक ने लोकगीत की इन पंक्तियों से भावमय बना दिया है–

’इमली रा बूटा नीवां नीवां डालू
तिस्स पर बैठिया पंछी रूदन करे।
मां बोले बेटी बड़े घरे ब्याहणी
पलंगा पर बैठी बैठी राज करे।
हिडिम्ब महाभारत का एक मिथक पात्र है जिसे कथाकार ने एक बहुआयामी रूपक में बांधा है। हिडिम्ब और उसकी बहन हिडिम्बा के प्रक्षेपक, उपन्यास की कथा को एक ऐसी गाथा का रूप देते हैं जो पौराणिक होते हुए भी न सिर्फ़ लोक आस्था को व्यंजित करती है बल्कि एक ऊर्जा के रूप में निरात्म और आत्मिक दोनों स्तरों पर आज के मानवीय द्वन्द्व को भी प्रकाशित करती है। कहानी के अन्त में ये असुर आत्माएं अपने प्रकोप से चौफेर ताण्डव रचाती हैं जिसे हम एक छोटी सी किन्तु एक अर्थमय मैटाफोरिक प्रलय भी कह सकते हैं। कथा के अन्त का प्राकृति जनिक विध्वंस खुद मनुष्य के पापों और अतिवादिता का परिणाम है जिसके समाप्त होने पर ही नयी सुबह की उम्मीद की जा सकती है।

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