8.3.23

राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे


जबलपुर में रसरंग बरात का अपना 30 साल पुराना इतिहास है। हम भी नए-नए युवा होने का एहसास दिलाते थे। कार्यक्रमों में येन केन प्रकारेण उपस्थिति और उपस्थिति के साथ अधकचरी कविताएं कभी-कभी सुनाने का जुगाड़ हो जाता था।

देखा देखी हमने भी राजनीति पर व्यंग करना शुरू कर दिया.... सफल नहीं रहे....कहां परसाई जी कहां हम.... कहाँ राजा-भोज कहाँ गंगू तेली,,,!

 हमने अपनी कविताएं जेब में रख ली और अभय तिवारी इरफान झांसी सुमित्र जी  मोहन दादा यानी अपने मोहन शशि भैया की राह पकड़ ली। गीत लिखने लगे शशि जी के गीत गीत गीले नहीं होते बरसात में की तर्ज पर अपनी हताशा दर्ज करती गीत मिले हुए अब के बरसात में और ठिठुरते रहे सावनी रात में..! अथवा सुमित्र जी का गीत “मैं पाधा का राज कुंवर हूं...!”

पूर्णिमा दीदी के गीत अमर दीदी के गीत गहरा असर छोड़ते थे और अभी भी भुलाए नहीं भूलते। बड़े गजब के गीत लिखते हैं सुकुमार से कवि चौरसिया बंधु हमारे अग्रज उस दौर की कविताएं बिल्कुल घटिया न थी।

छंद मर्मज्ञ भाई आचार्य संजीव वर्मा सलिल ने तो गीत रचना में छंद की प्रतिष्ठा को रेखांकित कर दिया था।

जी हां 30-35  बरस पुराना साहित्यिक एनवायरमेंट जबलपुर में वापस नहीं लौटेगा,  कारण क्या है, मुझे नहीं मालूम पर यूनुस अदीब,  पथिक जी रसिक जी कमाल के गीतकार हैं।

आज आप जिनको पत्रकार कहते हैं वह पत्रकार नहीं कवि और गीतकार भी थे जी हां मैं जिक्र कर रहा हूं गंगा पाठक जी का। फैक्ट्री से लौटकर मानसेवी पत्रकार के रूप में गंगा भैया की कविता प्रभावित करने के लिए काफी हुआ करती थी।

पूज्य रामनाथ अग्रवाल जी के घर की गोष्ठी हो या सुमित्र जी के ठिकाने पर आनंद का अनुभव होता था भले ही घर देर से लौटने पर यानी लगभग रात 3 बजे तक लौटने पर कितनी फटकार न मिली हो।

दूसरे दिन अखबारों में अपने नाम को तलाशना हमारा शौक बन गया था। शशि जी ने खूब छापा कवि बना दिया। एक गोष्ठी में शायद वह गोष्टी सुमित्र जी के जन्मदिन पर थी। मेडिकल निवासी गेंदालाल जी सुमित्रा जी को जरी शॉपी उपहार स्वरूप। और कहने लगे माला काहे से बनती है जरी से और फूल से - तो गेंदा हम हैं जा जरी लै लो कमरा उन्मुक्त खिलखिला हट से गूंज गया। तभी  पूज्य मां गायत्री ने खीर खिला दी। सुमित्र जी और शशि जी ने बताया था कि-" कवि गोष्ठियों को कार्यशाला समझा जाना चाहिए।"

 सच में अब कार्यशालाएं नहीं होती। अनेकांत को छोड़कर कोई भी संस्था निरंतर कवि गोष्ठी नहीं करती। मध्यप्रदेश लेखक संघ ने कुछ दिन तक मोर्चा संभाला पर कवियों में भी राजनेता के गुण आ ही जाते हैं कोई बात नहीं मध्य प्रदेश लेखिका संघ ने बहुत दिनों तक इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

सूरज भैया का पढ़ने का तरीका और मानवीय संवेदना ओं को उभार कर लिखने की प्रवृत्ति अद्भुत है अद्वितीय है।

गणेश नामदेव जी का डायरी खोलने का स्टाइल अभी तक आंखों के सामने घूमता है। कुछ दिनों बाद तो यह लगने लगा था कि जबलपुर में पुष्प वर्षा करो तो हर तीसरा फूल किसी ना किसी कवि के माथे पर ही लगता है। फिर धीरे-धीरे कहानी मंच मिलन मित्र संघ की यादें ताजा हो रही है।

हिंदी मंच भारती ने भी नए स्वर नए गीत कार्यक्रमों का सिलसिला जारी रखा था। अखंड कवि सम्मेलन इसी जबलपुर में हुआ है। गजब की बात है कि कवियों का टोटा नहीं पड़ा।

उस दौर में समाचार पत्र भी गजब काम करते थे। तब साहित्यकार पत्रकार भी हुआ करते थे अब यदा-कदा अरुण श्रीवास्तव जैसे साहित्यकार पत्रकार की तरह नजर आते हैं।

माटी की गागरिया जैसी कविता लिखने वाले भवानी दादा को कौन भूलेगा। पूजनीय सुभद्रा जी केशव पाठक पन्नालाल श्रीवास्तव नूर के इस शहर में कविता अब कराह रही है ।

ऐसा नहीं है कि बसंत मिश्रा यशोवर्धन पाठक विनोद नयन कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं या राजेश पाठक प्रवीण ने कोर कसर छोड़ रखी हो। पर पता नहीं क्या हो गया है वह कार्यशाला नहीं होती जिसे हम गोष्ठी कहते थे। मणि मुकुल जी को भूलना गलत होगा। साधारण सा व्यक्तित्व साधारण सी कविता मणि मुकुल के अलावा बहन गीता गीत भी लिखती हैं तो डॉ संध्या जैन श्रुति ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। विनीता पैगवार, रजनी कोठारी

सवाल गंगाचरण से भी है जब लिखते हैं तो अटेंशन पाते हैं जब पढ़ते हैं तो गहरा असर छोड़ते हैं। यूनुस अदीब, संतोष नेमा अभी की कोशिश कर रहे हैं।

    राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे के लिए इंतज़ार कीजिये 



 

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