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सोमवार, जनवरी 28, 2019

बैंडिट क्वीन वाली सीमा याद है न ?


                                         

                  हाँ वही सीमाबिस्वास जो साधारण से चेहरा लिए जन्मी , एन एस डी से खुद को मांजा और बन गई विश्व प्रसिद्ध फ़िल्म बैंडिट क्वीन की सबसे चर्चित नायिका । सीमा विश्वास जो काम किया है वह उनका कला के प्रति समर्पण का सर्वोच्च उदाहरण है । अगर आप उनके जीवन जाने तो पता चलता है कि कला साधना असाधारण लोग ही कर पाते हैं । असाधारण लोग लक्ष्य पर सीधा देखते हैं । 
सीमा की कहानी देख कर लगा कि - "जीवन संघर्ष कुछ न कुछ देकर जाता है ।" 
मुझे हमेशा महसूस होता है कि कलाकार की ज़िंदगी एक अभिशप्त गंधर्व की ज़िंदगी होती है । उसे औरों के सापेक्ष बेहद मेहनत करनी होती है । 
सीमा विश्वास नवाजुद्दीन सिद्दीकी ओम पुरी यह कोई खास चेहरे वाले नहीं है यह ग्लैमरस चेहरा नहीं लेकर आए हैं पर अपनी अभिनय क्षमता के दम पर आपने देखा होगा यह उत्कृष्टता के उन मानकों पर खरे उतरते हैं जो एक अभिनेता के लिए जरूरी है . अपने दौर में यह शापित गंधर्व कितना कष्ट सह रहे होंगे इसका अंदाज उनकी बायोग्राफी से लगाया जा सकता है . आईएएस बनना डॉक्टर इंजीनियर बनना औसत ख्वाहिश है ! मध्यमवर्ग खासकर भारत का एक लीक पर चलने का आदी होता है उसे रिस्क उठाने का अभ्यास नहीं है कारण है पारिवारिक आर्थिक परिस्थितियां जो निश्चय के घनघोर पर्यावरण में आकार लेती हैं. और हजारों हजार कलाकार मर जाते हैं उन सब में क्रिएशन और क्रिएटिविटी समाप्त हो जाती है कारण सिर्फ इतना होता है कि उन्हें कोई सपोर्ट आसानी से नहीं मिलता समझ गए ना आप क्यों कह रहा हूं कि कलाकार अभिशप्त गंधर्व होते हैं .
लेखक कवि साहित्यकार नाटक संगीत साधक और चित्रकार ईश्वर के बहुत करीब होते हैं इसीलिए कई तो ऐसे भी देखे गए जिनके पास जीवन यापन के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं होते ।
समाज उन्हें नसीहत देता है पान की दुकान क्यों नहीं खोल लेते ?
कुछ लोग पूछते हैं क्या सोच के तुमने यह लाइन चुनिए कोई गवईये नचइये बन जाने से पेट नहीं भरता ..... छोड़ो यह सब बकवास है कुछ हुनर सीखो जो पेट के लिए काम आए यह पेंटिंग वेंटिंग बनाना यह सब क्या है ?
कला से कभी भी आपका कैरियर सुनिश्चित नहीं रहता यह अलग बात है कि कभी किसी को प्रतिष्ठा मिल जाती है । शापित गंधर्व को बहुत कुछ सोचना पड़ता है बहुत कुछ समझना पड़ता है यह दुनिया को असल राह भी बताएं तो भी लोग उस पर कोई विश्वास नहीं करते । तब तो और मदद नहीं होती जब भी अभाव के साथ सीखते रहते हैं ।
लेकिन यश पाते ही कलाकारों के आगे पीछे दुनिया घूमती है । मेरी एक शिष्या शालिनी अहिरवार ने कल ही मुझसे पूछा था :- कि आज जो हाथ प्रतिष्ठित कलाकार के गले में मालाएं कांधे पर दुशाला डालकर सम्मान देते हैं.... तब कहां होते हैं सर जब एक साधन हीन कलाकार क अपनी साधना में व्यस्त होता है उसे उस वक्त बड़े सपोर्ट की जरूरत होती है किंतु ना तो परिवार ना ही समाज कोई भी मदद करने आगे नहीं आता ?
सवाल स्वाभाविक है और सवाल विचारणीय है शालिनी सही पूछ रही है शुरुआत घर से होनी चाहिए लेकिन घर भी एक सीमा के बाद कलाकार के प्रति अपनी संवेदनाएं तिरोहित कर देता है परिवार के लोग उस कला साधक की उपेक्षा करने से बाज नहीं आते तो समाज के लोग निश्चित तौर पर उपेक्षित कर ही देंगे । 
जबलपुर के रघुवीर यादव को अक्सर लोग हंसी में उड़ाते थे रघुवीर यादव हमारे शहर के ही महान कलाकार हैं लेकिन जब वे जबलपुर में अपनी कला साधना कर रहे थे तो लोग कितने पॉजिटिव थे उनके इस काम के लिए पूरा शहर जानता है और जैसे ही एकेडमी का वर्ड उन्हें हासिल हुआ मैसी साहब फिल्म के लिए तो प्रथम ग्रह आगमन पर घर में जगह नहीं थी वेलकम करने वालों की संख्या और घर की लंबाई चौड़ाई यानी क्षेत्रफल मैं कोई संतुलन नहीं था कुल मिलाकर अभावग्रस्त जीवन उपेक्षा और अमर्यादित नसीहत है कलाकार को छलनी करती है लेकिन यही से निकलता है आत्मविश्वास का रास्ता ।
शालिनी ड्रामा आर्टिस्ट है ड्रामा डायरेक्शन में भी रुचि है और तो और लिखती भी है सोच से बहुत मजबूत है लेकिन अभाव औसत मध्यमवर्ग की तरह उसे भी घेरे रहते हैं पर शालिनी के साथ एक अच्छी बात है कि उसके परिवार से उसे पूरा सपोर्ट मिलता है ।
मुझे बेहतर तरीके से याद है कि मेरी आने के पहले इन्हें डूबे हुए सूरजों को मंच दिलाने के नाम पर कुछ लोगों ने बहुत शोषित किया है । एक खास विचारधारा से जोड़ने की कोशिश की और बाल एवं किशोर कलाकारों की अपनी उड़ानों पर रोक लगाने की अनजाने में कोशिश की । 
2014 के वर्षान्त में बाल भवन आते ही मुझे यह बात खटकने लगी थी कि एक खास सख्शियत ने बच्चों को गुमराह कर रखा है । बच्चों की प्रतिभा संवारने की बजाय एक खास विचारधारा से जोड़ा जा रहा है । 
प्रतिभाओं के साथ इस तरह का बर्ताव किसी भी साधक से करना ईश्वर की आराधना नहीं बल्कि ईश्वर के काम में बाधा डालना है ।
पूरे 3 बरस लगे उस सख्शियत को बच्चों के दिमाग़ से हटाने में । अदभुत प्रतिभा के धनी बच्चों को उसके मोहजाल से निकाला और फिर शुरू की साधना .... लगातार बच्चों के अभिभावकों में आकर्षण और विश्वास भी बढ़ने लगा । काश सब समझें सब मेरे दर्द को
*मैं इन डूबे हुए सूरज को उठाने की कोशिश में लगा हूं आप भी साथ दीजिए ना !*

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