*ये सब क्या आसान नहीं !*
विवेकानंद की आत्मकथा की दूसरी बार अध्ययन करते समय मेरी निगाह उस पन्ने पर जाकर रुक जाती है , जहां कि स्वामी विवेकानंद ने आदि गुरु शंकराचार्य के हवाले से लिखा है की दुनिया में तीन चीजें आसानी से उपलब्ध नहीं होती एक मनुष्यत्व दूसरी मुमुक्षत्व अर्थात मुक्ति की कामना और तीसरी महापुरुषों का साथ !
तीनों का मिलना आज के युग में बेशक कठिन है । इसे कैसे प्राप्त करना है आगे बताऊंगा अभी तो जानिए कि स्वामी विवेकानंद के 39 वर्षीय जीवन का मूल्यांकन करना मेरे जैसे जड़ बुद्धि के लिए वैसा ही है जैसे काले वाले कम्बलों को रंगना ।
पर उनके जीवन क्रम से इतना अवश्य सीख चुका हूं कि किसी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार लेना कदापि ठीक नहीं ।
विवेकानंद के जीवन का प्रारम्भ इसी बात की ओर इशारा करता है । मैं यह लेख किसी भी प्रकार की धार्मिक दृष्टांत के तौर पर नहीं लिख रहा हूं मैं उतना ही नास्तिक हूं जितना विवेकानंद ने मुझे बताया उनकी सलाह है कि मैं नास्तिक रहूं... पर किसके लिए पर किसके प्रति आस्थावान न रहूं अपने कथन के आगे वाले हिस्सों में स्पष्ट कर दूंगा ।
सबसे पहले यह जान लीजिए कि स्वामी विवेकानंद गुरु देव को अंगीकृत करने में 6 साल का समय लगाया स्वामी रामकृष्ण परमहंस बहुत धैर्यवान थे उन्होंने भी जो लक्ष्य किया था की विवेकानंद को वह अपना सब कुछ सौप कर जाएंगे उन्होंने वैसा ही किया वैसा ही हुआ ।
स्वामी विवेकानंद ने अपनी पारिवारिक परिस्थितियों का जिक्र करते हुए परमहंस से कहा कि मेरी तकलीफों दुखों का अंत करा दो स्वामी, रामकृष्ण ने उनकी तकलीफों के अंत के लिए सीधे मां काली के समक्ष निवेदन करने को कहा।
रात्रि के दूसरे तीसरे पहर में चमत्कार सा हुआ स्वामी विवेकानंद पहली बार मां के दर्शन के लिए कमरे में गए मां के समक्ष उन्हें माने साक्षात दर्शन दिए साकार मां के दर्शन पाकर स्वामी विवेकानंद ने मां से कहा मां मुझे विवेक दो वैराग्य दो ज्ञान दो भक्ति दो ताकि मुझे तुम्हारे निरंकर दर्शन का लाभ मिलता रहे ।
परमहंस जानते थे कि ऐसा कुछ ही चल रहा है विवेकानंद जाएंगे और अपने भाइयों और परिवार के बारे में कुछ ना बोलेंगे उन्होंने दूसरी बार भी जा फिर तीसरी बार भी हर बार विवेकानंद केवल यही सब मांगते रहे ।
बस यह अध्याय मेरे जीवन का अंतिम और प्रथम उद्देश्य है ऐसी स्थिति तब आती है जब की मन में ना किसी के अपयश का प्रभाव नाही यश की अपेक्षा हो ऐसा ही विवेक के साथ हुआ मैं विवेकानंद नहीं हूं अभी मुझे शत-शत जन्म देने होंगे आत्मा के शुद्धिकरण के लिए एक जन्म पर्याप्त नहीं है ।
पर अच्छा गुरु मिल जाए तो मुक्ति मार्ग की कल्पना की जा सकती है । मनुष्य मात्र को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह सब कुछ करता है सड़कों पर घूमता हुआ भिखारी जब यह गाता है करते हो तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है तो वह भीख नहीं मांग रहा होता वास्तव में इस तत्व का दर्शन करा रहा होता है की मनुष्य होने की पहली शर्त है कि अस्थावान बनो ! तभी मनुष्यत्व पाओगे जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने भाषित किया है ।
स्वामी विवेकानंद ने शंकराचार्य के हवाले से मुमुक्षत्वं की ओर संकेत किया है अर्थात मुक्ति की कामना मुक्ति की कामना दैहिक भौतिक कदापि नहीं है मुक्ति की कामना सर्वदा आध्यात्मिक और आत्मिक चिंतन पर अवलंबित है सबसे पहले अच्छा मनुष्य बनना जरूरी है फिर मुक्ति की कामना काम मार्ग सरलता से प्रशस्त हो ही जाता है ।
स्वामी विवेकानंद जी के जन्म को 156 वर्ष से अधिक होने को आए हैं फिर भी महापुरुषों के होने का एहसास अब तक मुझे नहीं हो रहा है उनका तमाम साहित्य मौज़ूद है फिर भी यह सोच कर कि मैं महापुरुषों की संगत में कैसे जाऊं दुखी हूँ वास्तव में दुःखी होने की जरूरत ही नहीं है । रोज़ रात अब उनको सिरहाने रख लेता हूँ । याद आते ही पढ़ लेता हूँ लो हो गई न महापुरुष की संगति यही तो आदि गुरु शंकराचार्य ने महापुरुषों की संगत के बारे में जो कहा था । यही तो मेरे जीवन का भी तीसरा उद्देश्य है ।
फिर भी सोचता हूँ महापुरुषों को कैसे पहचान पाऊंगा ? अभी तो गुरु ही नहीं कर पाया हूं उम्र की आधी सदी पार कर चुका हूं पिछले नवंबर में 55 का हो गया हूं और अभी तक मैंने गुरु दीक्षा ही नहीं ली है ? और फिर मानस में मुक्ति की कामना भी को भी तो सृजित करना है ...?
पर जब चिंतन करता हूं तो पाता हूं की प्रभु दत्तात्रेय कितने गुरु बनाए थे आप सब जानते हैं । यह मिथक नहीं है दत्तात्रेय पहचानने में कोई गलती नहीं की वह जिससे गुण हासिल कर लेते उसे गुरु का पद दे देते । अगर आपको भौतिक रूप में गुरु की प्राप्ति नहीं है न आप गुरु की तलाश न कर सके हो आज से ही आत्म चिंतन प्रारंभ कर सकते हैं । ऐसी स्थिति में आत्मा से बड़ा गुरु कोई नहीं हो सकता ।
पर रोटी कपड़ा मकान और उसके बाद आज के दौर में यश सम्मान बैंक बैलेंस बेहतरीन स्टेटस जैसी जरूरतें भी तो आन पड़ी हैं ! जाने दीजिए बहुत बड़े विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है अच्छा मनुष्य बनने के लिए मात्र सरल रास्ता और बता दूं वह है मानवता का किसी की आंखों में आंसुओं का गिरना देखना जिस दिन तुम्हें भारी पड़ने लगेगा उस दिन तुम अच्छे मनुष्य बन जाओगे और उसी दिन मुमुक्षत्व का आभास तुम्हें हो जायेगा जैसी नवम अवतार बुद्ध को हुआ था समझ गए न सुधिजन बुद्ध राजकुमार से अचानक मनुष्य हुए और फिर उनमें मुमुक्षत्व भाव का प्रवाह हुआ महापुरुषों का संग फिर सहज हो जाता है ।
ध्यान रहे हम बुद्ध के काल भी नहीं है हमारा काल है फर्जी धन संग्रहण करने वाले व्यापारी महापुरुषों का दौर है ।
सुधिजन कृपया प्रभु की शरण में जाने के पूर्व हमारी आध्यात्मिक आईकॉन के जीवन को पढ़ ले आप को संत की संगत अर्थात महापुरुषों से मिलना सहज जावेगा ।
पूर्व में आस्था और अनास्था का ज़िक्र किया था तो जानिए मैं निरा नास्तिक हूँ - रिचुअल्स को लेकर । उन रिचुअल्स पर मेरी तनिक भी आस्था नहीं है जो डराते हैं कि ऐसा न किया तो ईश्वरीय कोप का भाजन होना होगा । ईश्वर प्रेम का व्यापारी है गुस्सैल दैत्य नहीं है जिसे नाराज़गी हो । ब्रह्म के प्रति आस्तिक हूँ जो निरंकार है निर्विकार है सृजक है संवादी है उसके मेरे बीच न पंडित न मुल्ला न पादरी न और कोई भी भाषण कर्ता प्रवचनकार ।
रास्ते उसके ( ईश्वर के ) हैं वही बताएगा कि कैसे चलना है किस रास्ते चलना है । बस एक बार मिल तो लूँ उससे पर बहुत मायावी है मानस में छिपा हुआ है नज़र नहीं आता ।
ॐ श्री रामकृष्ण हरि