शिखा वार्ष्णेय जी से आज भारतीय एवं पश्चिमी परिवेश में हुई बातचीत से यह तय हो गया है की स्त्री-विमर्श की विषय वस्तु जो आजकल संचार माध्यमों पर हावी है वो कदापि उपयुक्त नहीं है. आज उनके ब्लॉग स्पंदन पर जो कविता है उसमें जो भी कुछ शामिल है वो है उंचाइयो की तलाश और खुली हवा की अपेक्षा.
बंद खिड़की के पीछे खड़ी वो,
सोच रही थी कि खोले पाट खिड़की के,
आने दे ताज़े हवा के झोंके को,
छूने दे अपना तन सुनहरी धूप को.
उसे भी हक़ है इस
आसमान की ऊँचाइयों को नापने का,
खुली राहों में अपने ,
अस्तित्व की राह तलाशने का,[आगे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये ]
शिखा वार्ष्णेय जी के अंतस में पल रही कवयत्री का दर्शन देखिये उनकी ही इन पंक्तियों में अपने लिए उठे ये हाथ , तो शिखा! क्या बात हुई
होगी दुआ कुबूल, जो कर किसी बेबस के वास्ते
आइये स्त्री-विमर्श के लिए वास्तविक-विषय वस्तु को खोजें इस चर्चा में
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चित्र एक में पर्यवेक्षक श्रीमती सुषमा मांडे ने कुपोषण से जूझने के तरीके बताये और नीचे चित्र में प्रोबेशनर आई ए एस डाक्टर मधुरानी तेवतिया ने भी सुदूर गाँव में मनाये जा रहे महिला दिवस कार्यक्रम में रूचि ली
इस तरह मनाया हमने गाँव में जाकर महिला दिवस