आध्यात्मिक
चैतन्य के सहारे जीवन जीने की कला कम लोग ही जानते हैं । उनमें एक नाम डा. अनुराधा
उपरीत का भी है । प्रोफेसर योगेश उपरीत की सहचरी स्वर्गीय श्रीमती अनुराधा उपरीत
का जन्म 1 सितंबर 1947 को स्वर्गीय श्रीयुत बाबूलाल जी चौरे सिवनी-मालवा के घर हुआ । उनकी जन्म स्थली
यानी सिवनी मालवा की शुक्ला गली आध्यात्मिक चिंतन की पाठशाला सी हुआ करती थी ।
समकालीन सामाजिक व्यवस्था आज की अपेक्षा अधिक सहिष्णु एवं सामाष्ठिक सरोकारों के तानेबानों में कसी हुई हुआ करती थी । सभी जानते हैं कि तब नारी के
रूप में जन्म लेते ही एक तयशुदा सीमारेखा में रहना अवश्यंभावी होता था । परंतु उस काल में भी स्वर्गीय बाबूलाल जी चौरे
बेटियों के लिए बेहतर शिक्षा दीक्षा के मायने समझते थे । बेटी के लिए शिक्षा के
मुद्दे पर उनकी सकारात्मक सोच के आगे कोई बाधा कैसे आती ?
श्रीमती अनुराधा उपरीत की गंभीर अध्ययन प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करते पिता एवं
स्वर्गीय माता श्रीमती काशी बाई के आशीर्वाद एवं अपने अथक परिश्रम से श्रीमती उपरीत का नाम प्रदेश की
प्रावीण्य सूची में मैट्रिक के
नतीजों में था ।
विवाह
के उपरांत अध्ययन का सिलसिला रुकता भी कैसे .... ?
प्रो. उपरीत ने सहधर्मिणी की अध्ययन की रुचि को बढ़ावा ही दिया एशिएन्ट
हिस्ट्री से स्नातकोत्तर की उपाधि के बाद उन्हौने होमियोपैथी की डिग्री भी प्राप्त
की । नवागत बहुओं की उच्च शिक्षा के लिए अक्सर ससुराल पक्ष सबसे अधिक बाधक होता है
किन्तु मोहनपुर का उपरीत परिवार सर्वथा बेटों की तरह बेटियों-बहुओं को शिक्षा के
लिए प्रेरित करता है जिसका सबसे पहला उत्कृष्ट उदाहरण श्रीमती अनुराधा उपरीत
बनीं ।
अपने शैक्षिक स्तर में वृद्धि करना
उद्देश्य न था उनका वरन सभी से ये कहते उनको सहज ही ये कहते सुना जा सकता था कि – “महिलाओं को जितना अधिक
संभव हो ज्ञान हासिल कराते रहना चाहिए । दुनिया
भी तो एक यूनिवर्सिटी ही है जो जीवन को
ज्ञान का अक्षय भंडार उपलब्ध कराती है ”
जीवन अवसान के एक दिन पूर्व तक श्रीमती
ने अपने परिजनों /
परिचितों को फोन कर कर के हितकारणी के जॉब-फेयर
के बारे में सूचना दी जो उनके सामाजिक
चैतन्य का हालिया उदाहरण ही था ।
पति की व्यस्तता के बावजूद अक्सर वे सामाजिक
रिश्तों को न भूलने देतीं थी । जब प्रो. उपरीत को समय मिलता दूसरों के दु:ख सुख
बांटने जोड़े से निकला करतीं थीं ।
उनका सामाजिक चिंतन को एक कमिटमेंट कहना बेहतर है । वे सब जो श्रीमती अनुराधा जी को करीब से जानते हैं वे इस आलेख में दर्ज़ सभी बिन्दुओं से सहमत ही
होंगे ।
श्रीमती
अनुराधा उपरीत जी के पुत्र अर्चित ने बताया
- कि मम्मी ने हमको रिश्ते निबाहने
की शिक्षा क्रिया के रूप में सिखाई आज हम
उन “क्रियाओं” का अर्थ समझ पा रहे हैं ।
श्रीमती अनुराधा जी में
संगठनात्मक संयोजना का अदभुत गुण था । अपनी योग्यता एवं क्षमताओं के अहंकार से दूर
समाज के सबसे छोटे अकिंचन परिवार को भी आदर सहित स्वीकारना आज के दौर में सबसे
कठिन विषय है पर ये सब उनके लिए सरल एवं सहज
इस कारण था क्योंकि वे सर्वदर्शी थीं । नेत्रहीन कन्याओं के बीच जब
प्रोफेसर उपरीत का जन्म दिवस मनाया गया तब उनके
करुणामय हृदय को बेहद तृप्ति मिली
थी ।
भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक जीवन दर्शन एक
ऐसा फलसफा है जिसमें आध्यात्मिकता को सर्वोपरि स्थान मिलता है । जैसे ही आप अपने
बच्चों में सकारात्मकता का बीजारोपण करेंगे वैसे ही आप भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक
वैभव को सहज समाज पाएंगे । समकालीन परिस्थितियाँ आध्यात्मिकता के लिए
अनुकूल रही थी तभी स्वर्गीया अनुराधा
उपरीत ने विकास के साथ जीवन के मूल्यों को को बचाने की कला को स्वयं में
विकसित कर लिया था । कारण मात्र यह था कि – उनका बचपन एक ऐसे कुटुंब में हुआ जहां
“सबसे सबके सरोकार” को महत्व मिलता है । सिवनी-मालवा के देवल मोहल्ले की शुक्ला गली ...........
मुहल्ला तो कभी महसूस ही नहीं होता पूरा बड़ा भरा पूरा परिवार सा दृश्य नज़र आता था
वहाँ । चूल्हे भले अलग अलग जलें पर कौन किस घर में खाना खाएगा ये कभी भी तय न हो
सका था । फिर मोहनपुर यानी श्रीमती अनुराधा उपरीत के ससुराल में भी सामाजिक
समदृष्टि का अभाव न होना श्रीमती उपरीत के व्यक्तित्व को निखारने में कम सहायक न
था ।
अपने 47 वर्ष के वैवाहिक जीवन का अर्थ
बताते हुए प्रो. उपरीत भरे गले से कहते
हैं - “ जीवन के हर उतार चढ़ाव के साथ साथ समूचे मित्र परिवारों / रिश्तेदारों /
परिचितों के लिए सकारात्मक चिंतन वही रख सकता है जिसमे सबके लिए सहज सहिष्णुता
हो ।
अपनी दौनो पुत्रियों को क्रमश: श्रीमती जया और प्रिया को
सतत शिक्षा से जुड़े रहने की सलाह देने वाली ,
एक विशाल हृदय वाली देवी श्रीमती अनुराधा उपरीत को नार्मदीय ब्राह्मण समाज की
महिलाओं ने सामाजिक महिला संगठन की बागडोर दो बरस पहले सौंपी थी वे एक एक परिवार
से व्यक्तिगत रूप से जुड़ गईं जुड़ी तो पहले भी पर इस बार सबके बच्चों खासकर बेटियों
से जुड़ाव अदभुत अनुकरणीय स्थिति को दर्शा रहा था
। देवलोक गमन तक वे अपने दायित्व का सुचारू निर्वाहन करतीं रहीं अपने नि:धन के दो दिन पूर्व तक घर घर फोन कर
हितकारणी सभा के जॉब फेयर की सूचना देतीं रहीं
।
नियति से हम असहमत भी कैसे हों ?
पर आज बार बार मन यही कहता है हे ईश्वर यह अवसान हमें स्वीकार्य नहीं कदापि नहीं
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ॐ शांति शांति
शांति