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जनवरी, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बिना विवेकानंद जी को समझे विश्व गुरु बनने की कल्पना मूर्खता है

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100 से ज्यादा वर्ष बीत गए , विवेकानंद को समझने में भारतीय समाज और राजनीति दोनों को ही बेहद परिश्रम करना पड़ रहा है मुझे तो लगता है कि अभी हम समझ ही नहीं पाए कि विवेकानंद  किस मार्ग के पथिक रहे और इस मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने भारत सहित विश्व को प्रेरणा दी । अगर ऐसा होता तो विवेकानंद के बताए मार्ग पर हम स्वतंत्रता के पहले से ही चलने लगते और अब तक हम उस शिखर पर होते जिस का आव्हान आज भारत कर रहा है.... विश्व गुरु की धरती पर विश्व गुरु का टैग लगाना बहुत मुश्किल नजर आ रहा है तब 19वीं शताब्दी में स्वामी ने साफ कर दिया था कि कैसा सोचो यह सनातन में साफ तौर पर लिखा है उसके अभ्यास में लिखा है कैसा जिओ इस बारे में स्वामी ने साफ कर दिया था यूरोप की यात्रा से लौटकर जब उन्होंने लोक सेवा का संकल्प लिया और पूरे भारत में एक अलख सी जगा दी थी । भारत में स्वामी के उस सानिध्य को भी अनदेखा किया जिसका परिणाम आप देख रहे हैं । अगर विवेकानंद को समझने की कोशिश अब तक नहीं हुई है तो करना ही होगा बच्चों को इस तरह के पाठ पढ़ाने ही होंगे अब जब यह एलानिया तौर पर कहा जा रहा है कि भारत विश्व गुरु बनने की ओर अग्रस

कल्लू का सोशियो-पॉलिटिकल चिंतन : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

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हमारे कल्लू भाई दिन भर काम धंधे में मशरूफ रहते हैं . सुबह उठते गर्म पानी रखते अपने लिए और दो कप चाय एक खुदके और एक अपनी पत्नी परमेसरी के लिए  बना देते हैं ।        तब जाकर परमेसरी बिस्तर से बाहर निकलती वह भी ऐसी अंगड़ाई लेते हुए जैसे सपेरे की टोकरी से वह निकलती है  जिसका नाम आमतौर पर हमारे यहां रात में नहीं लेते ।  कल्लू भाई की सुबह  तो यूं ही होती है  ।        बड़ी मुश्किल परमेसरी रोते झीकते  कलेवा बनाती कल्लू  कलेउ के तौर पर रोटी और अथाना प्याज के साथ निपटा के निकलते और सीधे थोक सब्जी मंडी में जाकर सब्जियां खरीदते फिर.... गली-गली चलाना पड़ता आलू ले लो प्याज ले लो टमाटर ले लो की टेर के साथ  ।  लगभग तीन चार  बजे तक सब्जी बेच के कल्लू भाई ₹500/ -₹600/ तक कमा लेते हैं ।         उन्हें पेट भरने के लिए इतना पर्याप्त समझ में आता पर हालात तब मुश्किल में आ जाते जब कभी परमेसरी बीमार हो जाती ।  यूं तो वह अक्सर बीमार रहती बीमारी क्या आराम करने की इच्छा हो तो बीमार होने का ऐलान करना परमेसरी की मूल प्रवृत्ति में शामिल है ।      और इसी के सहारे परमेसरी को  आराम मिल जाता और कल्लू को ओव

कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा

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हम देखेंगे...!! अमन ज़वां फिर से होगा, वो वक़्त  कहो कब आयेगा जब बाज़ीचा-ए-अत्फालों में जब, बम न गिराया जाएगा कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन, वो दिन जरूर फिर आयेगा . पेशावर जैसा मंज़र भी , फिर न दोहराया जाएगा ननकाना जैसा गुरुद्वारों  पर फिर संग न फैंका जाएगा वादा कर दो तुम हो ज़हीन, शब्दों के जाल न बुनना अब हाथों में बन्दूक लिए कोई कसाब न आयेगा ..! आवाम ने जो भी सोचा है,उस पे अंगुली मत अब तू उठा जब आग लगी हो बस्ती में, तो सिर्फ तू अपना घर न बचा ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का राज यहाँ जहां मैं भी हूँ और तुम भी हो ये घर जो तेरा अपना है, हमसाये का तारान यहाँ तू न गा । गुस्ताख़ परिंदे आते हैं, खेपें बारूदी ले लेकर - बेपर्दा होतें हैं जब भी तब- बरसाते अक़्सर पत्थर । न ख़ल्क़ वहां, न स्वर्ग वहां, सब बे अक्ली की बातें हैं- कोशिश तो कर आगे तो बढ़, हर घर ख़ल्क़ हो जाएगा ।। गिरीश बिल्लोरे मुकुल