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19.4.14

चावल के दानों पर हुए अत्याचार का प्रतिफ़ल: पोहा उर्फ़ पोया...

गूगल बाबा के पास है पोहे का अकूत भंडार 
दिनेश को अपनी बारी का इंतज़ार है..
 हम  डिंडोरी जाते समय इसी महाप्रसाद 
यानि पोहेका सेवन करते हैं सुबह-सकारे..!!
 मित्रो पोएट्री जैसे मेरा प्रिय शगल है ठीक उसी तरह मेरे सहित बहुतेरे लोगों का शौक सुबह सकारे पोहा+ईट= पोहेट्री है.  पो्हे के बारे  गूगल बाबा की झोली  किसम किसम की रेसिपी और सूचनाएं अटी पड़ी है. पर एक जानकारी हमने खोजी है जो गूगल बाबा के दिमाग में आज़ तलक नईं आई होगी कि हम बहुत निर्दयी हैं.. क्योंकि  हम चावल Rice के दानों पर हुए अत्याचार के प्रतिफ़ल पोहे सेवन कितना मज़ा ले लेकर करतें हैं.  जैसे ही ये भाव मन में आया तो मन बैरागी सा हो गया. किंतु दूसरे ही क्षण लगा बिना अत्याचार के हम अन्नजीवी हो ही नहीं सकते सो मन का वैराग्य भाव तुरंत ऐसे गायब हुआ जैसे किसी सरकारी  के मन से ऊपरी आय से घृणा भाव तिरोहित होता है. अस्तु ..आगे बांचिये . पोहा जबलईपुर में खासकर करमचन्द चौक पर सुबह-सकारे मिलता है तो  इंदोर (इंदौर) में किसिम किसिम के पोए चौराए चौराए (चौराहे-चौराहे) मिलते हैं. हम अपनी मौसेरी बहन के घर पहुंचे तो हमको सेओं-पोया,कांदा-पोया,आलू-पोया, पोया विद ग्रीन-मैंगो, न जाने  कितने कितने  स्वाद भरे पोए (पोहे) खिलाए सुधा ताई ने. 

                अंतर्ज़ाल की सुप्रसिद्ध लेखिका अर्चना चावजी से हम अनुरोध करने वाले थे कि वे "पोहे के सर्वव्यापीकरण : विशेष संदर्भ इन्दोर "  पर एक ललित नि:बंध लिखें.. पर वे नानी बन गईं हैं अपनी इस पदोन्नति से वे अति व्यस्ततम स्थिति में हैं अतएव अधिक अपेक्षा ठीक नहीं सो सुधिजन जानें कि- हम अपने बेहतर अनुभव के आधार पर दावे के साथ यह तथ्य प्रतिपादित करतें हैं कि भारतीय वोटर और इंदोरी पोहा एक ही गुणधर्म वाले हैं.. जिसके साथ भी मिलते हैं ठीक उसी में समाविष्ट हो स्वादिष्टतम बनने की सफ़ल कोशिश कर ही लेते हैं. किंतु असर अपनी इच्छानुसार ही छोड़ते हैं. भाई समीरलाल जी- कित्ते बरस हो गए कनाडा गए ..  कनाडा से जबलपुर  तीन बरस आय थे न बड्डा  .. पर न तो करमचंद चौक वाले पोहे का ठेला लगना बंद हुआ न ही सुबह सवेरे मनमोहन टी स्टाल इंद्रा-मार्केट के समोसों का साइज़ ही कम हुआ. इतना ही नहीं गोपाल होटल वाला मिल्क-केक जो आप अंकल के लिये डाट न पड़े इस चक्कर में ले जाते थे उसका ही स्वाद बदला है.  भाई इंडिया में बदलाव आसानी से नहीं आते .. चीजे बदल भी जावें तो अचरज़ न कीजै.. बस होता यूं है कि "बाटल" बदल जाती है. हिस्ट्री उठा के देख लीजिये ... न तो जबलईपुर में कोई खास बदलाव आया न हीं इन्दोर के पोये में.. अब प्रदेश के इन दो महानगर (?) में खास बदलाव नहीं हुए तो जान लीजिये देश में भी ऐसा कुछ नया न हो जावेगा जैसा केज़रीकक्का खांस- खखार के कहते फ़िर रए हैं.  
              चोरी, डकैती, बदमासी, उल्लू-बनाविंग योजनाएं, आदि आदि सर्वत्र यथावत हैं. सबका एजेंडा एक ही है कि किसे किस तरह और कित्ता उल्लू बनाया जावे. 
       चलो सोया जावे........... फ़िज़ूल में कुछ भी अनाप-शनाप लिखा गया... आज़ पोहे से शुरू कथा का अंत किधर किया आप भी मुझ पर हंस रहे होंगे.. पर सुधि पाठको जब आप दिन भर खबरों में लोगें को अनाप-शनाप कहते -सुनते हैं तो इत्ता सा अनाप-शनाप मेरा पढ़ लिया तो कोई बुराई है क्या..... ??

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