2.12.20

एक प्रधानमंत्री अंतर्राष्ट्रीय चूक

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने मंगलवार को भारत में किसानों द्वारा नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन के बारे में चिंता व्यक्त ( यूट्यूब लिंक ) की । ट्रूडो ने सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक या गुरु नानक की 551 वीं जयंती के अवसर पर कनाडाई सांसद बर्दिश चग्गर द्वारा आयोजित एक फेसबुक वीडियो कांफ्रेंस में भाग लेते हुए ये चिंता जाहिर की। उनके साथ कनाडा के मंत्री नवदीप बैंस, हरजीत सज्जन और सिख समुदाय के सदस्य शामिल थे। ट्रूडो ने कहा, “अगर मैं किसानों द्वारा विरोध के बारे में भारत से आने वाली खबरों की बात करूं स्थिति गंभीर है और हमें चिंता है। ट्रूडो ने कहा "आपको याद दिला दूं, शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार की रक्षा के लिए कनाडा हमेशा खड़ा रहेगा। हम बातचीत के महत्व पर विश्वास करते हैं और इसीलिए हम अपनी चिंताओं को उजागर करने के लिए सीधे भारतीय अधिकारियों के पास कई माध्यमों से पहुंच गए हैं।
 जस्टिन का यह भाषण केवल भारतीय मूल के कैनेडियन नागरिकों को संतुष्ट करने  वाला  वक्तव्य है जो उन्हें आगामी समय में राजनैतिक   लाभ दिला सकता है । वैसे भी कनाडा के आगामी आम चुनावों की परिस्थितियां जस्टिन  तू डूब के अनुकूल नहीं है। परंतु श्रीमती प्रियंका चतुर्वेदी जी ने जस्टिन ट्रूडो की इस हरकत पर ट्वीट करते हुए भारतीय मामलों में हस्तक्षेप ना करने की स्पष्ट  संदेश दिए  और आंतरिक मुद्दे के शीघ्र निपटान के लिए भारत के प्रधानमंत्री महोदय से  अनुरोध किया है। 
    आपको याद होगा जस्टिन ट्रूडो की 2018 वाली भारत यात्रा जिस पर यूट्यूब पर बहुत ज़बरदस्त कॉमेडी पेश करते हुए उनकी यात्रा को एक कलाकार ने डिजास्टर तक की संज्ञा दी डाली
भारत की ओर से फिल्मी कलाकार जस्टिन से मिले 

इस यात्रा को ना केवल विश्व में याद रखा है बल्कि Justin trudeau की आने वाली पीढ़ियों का इतिहास भी यही होगा।
   मुझे तो लगता है कि कैनेडियन प्रधानमंत्री के दिल का 2018 वाला
घाव अभी तक नहीं भरा है ।
  अपने ही देश में समस्याओं से घिरे जस्टिन के मुंह से भारत को नागरिक अधिकारों का ज्ञान बांटने वाले जस्टिन ट्रूडो को चाहिए कि -" खालिस्तान के समर्थकों को कनाडा आमंत्रित करें वहां की नागरिकता दें  और कनाडा को खालिस्तान के रूप में विकसित करलें । इससे बेहतर विकल्प उनके पास कोई शेष नहीं है अथवा एक और विकल्प है कि वह भारत के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करें ।  वैसे भी भारत में 1 इंच भी भूमि देशद्रोहियों के लिए अब शेष नहीं है। वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह

1.12.20

कोविड19 टीकाकरण के लिए 13.77 लाख से बड़ी आर्मी तैयार है !

 

हमारी सीमाओं की रक्षा करने  14 लाख से अधिक  वीर सैनिक तैनात हैं इसी तरह  भारत के सभी गांव शहर में 13 लाख 77 हज़ार आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उतनी ही हेल्पर्स एवं आशा वर्कर ऊषा वर्कर हजारों प्रोजेक्ट ऑफीसर सुपरवाइजर एएनएम भारत में कोविड-19 के लिए तैयार  और निकट भविष्य में प्राप्त होने वाले टीके आसानी से मात्र 3 से 6 माह के भीतर लगा सकने में सक्षम है। 


 1975 से प्रारंभ  icds कार्यक्रम का इतना लाभ होने का है जिसकी विश्व में परिकल्पना ही ना की होगी यह मेरा दावा है । 
बात उन दिनों की है जब हम लिटरेसी को लेकर बहुत परेशान थे गांव में साक्षरता की दर को देखकर दुख होता था 2007 आते आते हमने जब गांवों का सैंपल सर्वे किया तो पाया 2004 से 2007 तक जिस तेजी से वृद्धि हुई उसकी वजह आंगनवाड़ी केंद्रों के साथ शिक्षा विभाग का कन्वर्जेंस तेजी से बड़ा यह एक उदाहरण मात्र है यह समझने के लिए कि अगर आंगनवाड़ी केंद्रों का इंवॉल्वमेंट किसी भी मुहिम के लिए किया जाता है तो उसकी सफलता की गारंटी कोई भी ले सकता है। 1996 में जब मैं इस सेवा का हिस्सा बना तब कुपोषण गैर बराबरी अशिक्षा कुरीतियां सोशल इंटेक्स को काफी नेगेटिवली रिफ्लेक्ट  कर रहे थे। इसकी  जड़ में  अशिक्षा बड़ा योगदान था । और देखते देखते  मंजर तेजी से बदल गया। 
   राज्य सरकारों ने इस सेवा की उपयोगिता को देखते हुए बहुत तेजी से सेवा के विस्तार को अपनाया उपहार के रूप में पाया कुपोषण के मामलों में कमी इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी की संख्या में इजाफा टोटल सैनिटेशन प्रोग्राम्स के कारण सकारात्मक वातावरण  बनाने के मामलों में बढ़ोतरी । 
मुझे अच्छी तरह याद है मेरे  सिलेक्शन  मेरी सिलेक्शन में यह पूछा था - "आप और कहीं जॉब कर सकते थे आपने आईसीडीएस को क्यों चुना 
" मैंने अपनी क्रैचस दिखाते हुए कहा कि -"1963 में  पोलियो का टीका होता तो शायद मैं इन्हें यूज नहीं कर रहा होता ।
 समझ लीजिए कि दक्षिण एशिया के चीन को छोड़कर समूचे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत जैसी व्यवस्था कहीं भी नजर नहीं आ सकती यहां तक कि यूरोप के अफ्रीका के देशों में भी ऐसी शासकीय तौर पर बनाई गई व्यवस्था के बारे में कोई सोच भी ना रहा होगा और इसका फायदा हम उठा सकेंगे यह तय है कोविड-19 का वैक्सीन तो आने दीजिए ।
इन सबके साथ साथ अगर ओपिनियन लीडर पॉलीटिकल लीडर सोशल वर्कर सोशल मीडिया इस कार्यक्रम में साथ देंगे तो भारत में कोविड-19 का वैक्सीनेशन विश्व के लिए सबसे कम समय में सबसे अधिक उपलब्धियों वाले आईकॉनिक अभियान के रूप में नजर आएगा। मुझे ऐसा लगता है कि अगर आप पूरे देश को 25 दिनों में टीकाकरण करना चाहे तो भी हम अपना टारगेट आसानी से हासिल कर लेंगे। यह मेरा 30 साल की सार्वजनिक जिंदगी का अनुभव कहता है।

30.11.20

जन्मपर्व पर शुभतामय संदेशों के लिए आभार

आभार नमन 
आज पूर्णिमा है 
    ॐ रामकृष्ण हरि:

    गुरुवर का जन्मपर्व मना रहा हूँ आप सबके साथ । 

29 नवम्बर को मेरा जन्मपर्व था ।  आप सब ने मुझे व्यक्तिगत रुप से उपस्थित होकर / टेलीफोन कॉल कर/ वीडियो  आडियो के जरिए तथा सोशल मीडिया पर शुभकामनाएं देने वाले शब्दों से युक्त उत्साहवर्धक और जीवन में जीने की जिजीविषा को नव संचार देने वाली शुभकामनाएं भेजीं । कुछ टेलीफोन कॉल शाम के बाद अचानक स्वास्थ्य खराब होने के कारण मैं रिसीव नहीं कर सका ब्लड प्रेशर का अचानक बढ़ जाना जरा दुखद रहा क्षमा चाहता हूं।
आप सब के शुभकामना संदेश के प्रति एवं विविध प्रकार की कलात्मक तरीके से अभिव्यक्त भावनाओं का सम्मान करता हूं। उन बच्चों का विशेष रूप से हार्दिक आभार और उन्हें अनवरत स्नेह देना चाहता हूं जिन्होंने अपने स्वरों में गीत उच्च स्तरीय शब्दों में कविता संप्रेषित की हैं ।
जीवन का आलाप यानी मेलोडी ऑफ लाइफ़ यही है। मैं ऐसे किसी स्वर्ग की कल्पना नहीं करता जहां ग्रंथों में वर्णित दृश्य होते हैं। धरती पर ही सब कुछ है स्वर्ग भी...। सनातन अध्यात्म और दुनिया भर की विचारधाराएं अब  स्वीकारने लगी हैं कि..  स्वर्ग कहीं है तो इस धरा पर ही है। मन में मानस में चिंतन में अगर शुचिता और निष्कपट प्रेम हो तो सब कुछ संभव है हां स्वर्ग का धरा पर होना भी । गुरुदेव कहते हैं प्रेम ही संसार की नींव है..! 
           अपनी स्वर्गीय मातुश्री पिताश्री भाईयों एवं संतानों से पहले परमपिता परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ हूं जिन्होंने मुझे पृथ्वी पर अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए भेजा है। नेति नेति ब्रह्म के प्रति कृतज्ञता के साथ परिवार जन , बिल्लोरे कुटुम्ब, चौरे परिवार, बालभवन परिवार, अखिल भारतीय नार्मदीय ब्राह्मण समाज, जबलपुर इकाई साहित्य सेवी साथियों, महिला बाल विकास विभाग के सहकर्मियों स्टेडियम ग्रुप नाट्यलोक एवं जानकी रमण परिवार एवं सभी साथियों के प्रति विनम्र कृतज्ञता के साथ नतमस्तक हूं जिनकी शुभकामनाओं ने यह साबित कर दिया कि शुभकामनाएं जीवन को स्वर्ग तुल्य आनंद देती है ।  यूं तो वे कविता लिखते नहीं है लेकिन यह सत्य है कि वे कविता जीते हैं Satish Billore जी की कविता Suryansh Nema की कविता के साथ यहां प्रस्तुत है 
आपका स्नेह पात्र
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

29.11.20

स्व इंदिरा जी , मोदी जी बनाम किसान आंदोलन

 किसान आंदोलन में किसान कहां है यह सोचना पड़ा जब हमने पाया कि एक बंदा यह बोल रहा था कि हमने कनाडा में जाकर सिखों को ठोका इंदिरा को ठोका मोदी को भी ठोकेंगे ....? - इससे आंदोलन की पृष्ठभूमि और आधार स्पष्ट हो चुका है। भारत की सर्वप्रिय प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी का उल्लेख कर प्रजातांत्रिक अवस्था को धमकाना यह साबित करता है कि आंदोलन का आधार और उद्देश्य किसान तो कदापि नहीं है। आंदोलन प्रजातांत्रिक जरूरत है प्रजातंत्र से अनुमति भी देता है। भारत के संविधान के प्रति हमें आभार व्यक्त करना चाहिए की भारत सरकार आंदोलनों के प्रति डिक्टेटर रवैया अपना सकें । ऐसे प्रावधान संविधान में सुनिश्चित कर दिए गए।
किसान आंदोलन का अर्थ समझने के लिए स्व. इंदिरा गांधी के लिए अपमान कारक  बाात कह देंना आंदोलन की आधार कथा कह देता है । इस वाक्य  को लिखना तक मेरे मानस को झखजोर रहा है कि -"इस तरह की भाषा का प्रयोग करना केवल खालिस्तान आंदोलन की पुनरावृत्ति है । किसी भी आंदोलन के लिए हमें भारत का संविधान स्वीकृति स्वभाविक रूप से देता है । परन्तु आंदोलन की पृष्ठभूमि जिस तरह से तैयार की गई उससे साबित हो रहा है कि देश के विरुद्ध कोई एक ऐसी ताक़त काम कर रही है जो एक बार फिर भारत को भयभीत कर देना चाहती है। 
 इस तस्वीर में भिंडरावाले का चित्र लगा कर जो कुछ किया जा रहा है उसे किसान आंदोलन का नाम देना सर्वाधिक चिंतनीय मुद्दा है ।
    मित्रो सी ए ए के विरोध में किये गए आंदोलन का आरम्भ एवम अंत और उसकी  पृष्ठभूमि के मंज़र को देखें तो साफ हो जाता है कि यह आंदोलन भी केवल भारत को खत्म करने की बुनियाद पर खड़ा किया था ।
     भारतीय  के रूप में कोई भी व्यक्ति इस प्रकार के आंदोलनों को  कैसे स्वीकारे आप ही तय कर सकते हैं । स्व इंदिरा गांधी जी की निर्मम हत्या का हवाला देकर मोदी जी के अंत की धमकी कनाडा के लोगों को मारने के उदाहरण के साथ देना क्या किसान आंदोलन का आधार हो सकता है ?
मेरी बुद्धि यह स्वीकार नहीं करती । रवीश ब्रांड लोग चाहें तो स्वीकार सकते हैं ।
   ज्ञानरंजन जी द्वारा सम्पादित पहल के एक आर्टिकल में  जिस कानून का हवाला देकर जबलपुर के पूर्व वाशिंदे प्रोफेसर भुवन पांडे ने फोन पर मुझे सन्तुष्ट करने की कोशिश की उससे सहमत होने का कोई सवाल ही नहीं उठता । आयातित विचार धारा के पोषक एवम प्रमोटर्स इन प्रोफेसर साहब ने जो कहा सुनकर हंसी आती है । वे उस वर्ग को मासूम बता रहे थे जो केवल दक्षिण पंथी विचारकों से बाकायदा डिस्टेंस मेंटेन कर रहे थे । शाहीनबाग के पथभ्रष्ट आंदोलन के समर्थन में इतने अधीर होकर लिख दिया जैसे कि अन्य किसी वर्ग की भावना का कोई महत्व ही नहीं है ।
बेचारे प्रोफेसर साहब का मानस जिस CAA के जिस आंदोलन को दादी नानी वाला आंदोलन करार दे रहे हैं अपने आलेख में उसके लिए पैसा दादाओं- नानाओं ने भेजा था यह किससे छिपा है ? 
 केंद्र सरकार की गुप्तचर व्यवस्था को चाहिए कि अब हर आंदोलन पर पैनी नज़र रखी जावे  वरना हम किस आतंकी संगठन के कुत्सित प्रयास के शिकार हो जाएं किसी को पता भी नहीं लगेगा ?
Twitter पर एक बुजुर्ग की सलाह दी उल्लेखनीय है नीचे लिंक पर क्लिक करके अवश्य देखिए
https://twitter.com/realshooterdadi/status/1332727043864215552?s=09
  

22.11.20

ब्राह्मणों के विरुद्ध ज़हरीले होते लोग



              वामन मेशराम
   जाति व्यवस्था कब से आई क्यों आई इसे समझने के लिए हमें समझना होगा कि  हम एक तरह की कबीलों में रहने की मानसिकता के आदिकाल से ही शिकार हैं। और यह मानसिक स्थिति हमसे अलग नहीं हो पाती है।
      भारत में इसे जाति व्यवस्था कह सकते हैं तो यूरोप में इसे रंग भी और नस्लभेद की व्यवस्था के रूप में अंगीकार किया है। उधर अब्राहिमिक संप्रदायों ने तो तीन खातों में बांट दिया है । इतने से ही काम नहीं चला और गंभीर वर्गीकरण प्रारंभ कर दिए गए किसी रिपोर्ट में देख रहा था कि अकेले इस्लाम में 70 से अधिक सैक्ट बन गए हैं । सनातनीयों ने भी शैव वैष्णव शाक्त आदि के रूप में समाज को व्यक्त कर दिया था।समाज के विकास के साथ असहमतियाँ पूरे अधिकार के साथ विकसित होती चली गईं । जाति व्यवस्था का कोई मौलिक आधार तो है नहीं भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का प्रवेश होना कबीले वाली मानसिकता का सर्वोच्च उदाहरण है।
वामन मेश्राम जैसे लोग जिसका फायदा उठाकर एक विशेष समूह को टारगेट कर की केवल सामाजिक भ्रम पैदा कर रहे हैं। वास्तव में उनके पास ऐसा कोई आधार भारतीय संविधान के लागू होने के बाद शेष तो नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में भी वैसी नहीं है जैसा उनके द्वारा परिभाषित किया जा रहा है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को देखने से स्पष्ट होता है कि-"अब भारत में जातिगत संरक्षण जैसे मसलों पर मजमा लगाना अर्थहीन और राष्ट्रीय एकात्मता के भाव को तार तार करना है...!"
  अब तो वामन मेश्राम और बामसेफ का नैरेटिव उतना ही अप्रासंगिक है जितना ब्रिटिश इंडिया के समय एवं उसके पहले हुआ करता था। अब बाकायदा सामुदायिक समरसता कीजिए न केवल वातावरण तैयार है अगर वातावरण का असर ना हुआ तो कठोर कानूनी प्रावधानों को चाहे जितना से कोई भी उपयोग में ला सकता है।
  हां यहां एक खास बिंदु उभर कर आता है जिस से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि-"अब मुद्दा विहीन बामसेफ के पास केवल व्यवस्था को डराने धमकाने के अलावा अपने लोगों को उकसाने का कार्य बाकी रह गया है !"
हाल के दिनों में 10 या 11 साल के बच्चे ने एक भाषण प्रतियोगिता में कहा था कि-"आज भी भारत में दलित महिलाओं का शोषण सर्वाधिक हो रहा है..!"  मैं जानता हूं कि उस बच्चे का मस्तिष्क इतना तो पता भी नहीं चल सकता । उस बच्चे के माता पिता को भी जानता हूं जो एक खास है  एजेंडे को  लेकर हर जगह मुखर हो जाते हैं । बच्चे के भाषण में  लैगेसी साफ नजर आ रही थी । हम सब जानते हैं कि कमजोर का शोषण करना शोषक की मूल प्रवृत्ति है। हम देखते हैं कि जहां तक महिलाओं के अधिकारों दिव्यांगों के अधिकारों या किन्नरों के अधिकारों की बात होती है तब हमारा चिंतन खो जाता है। यह एक मानसिकता है इसे बदलना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में ना तो वामन मेश्राम प्रासंगिक हैं ना ही वे लोग ही प्रासंगिक हैं जो वर्गीकरण करते हैं और वर्ग संघर्ष कराने या उसे जीवित रखने पर विश्वास करते हैं। किंतु डेमोक्रेटिक सिस्टम में  ऐसी कोई सेफ्टी गार्ड नहीं लगे हैं जो यह तय कर दें कि  ऐसे अप्रासंगिक विषयों पर जहर न उगल सकें ।
   यूट्यूब पर एक वीडियो देख रहा था एक सिख वक्ता ने बामसेफ की मीटिंग में ना केवल राम की परिभाषा को बदल दिया बल्कि गुरु तेग बहादुर के बलिदान को भी नकारते हुए ब्राह्मण वर्ग को यह तक कह दिया कि यदि सांप और ब्राह्मण एक साथ नजर आ जाए तो पहले ब्राम्हण को मारना चाहिए।
यूट्यूब धड़ल्ले से ऐसे वक्तव्य को जारी रखता है जो न केवल हिंसा बल्कि सामाजिक समरसता की धज्जियां उड़ाते हैं। हाल के दिनों में सत्य सनातन के एक चैनल को यूट्यूब में प्रतिबंधित कर दिया । इस चैनल पर कभी भी हमने हिंसा को प्रमोट करते हुए किसी को भी नहीं देखा सुना । जबकि बामसेफ जैसी संस्थाओं के चैनल निर्भीकता के साथ के अप्रासंगिक एवं दुर्दांत कंटेंट प्रस्तुत करते हैं। विश्व गुरु बनने की राह में अगर यही जरूरी है तो फिर सपना देखते रहिए । 

https://youtu.be/NagyW0YArZY

     

21.11.20

आसान नहीं है ज्ञानरंजन होना..!

"आसान नहीं है ज्ञानरंजन होना...!"
     2008-2009 का कोई  दिन या उस दिन की कोई शाम होगी । एक स्लिम ट्रिम पर्सनालिटी से सामना हुआ । ऐसा नहीं कि उनसे पहली बार मिला मिलना तो कई बार हुआ.... पर इस बार सोचा कि इतना चुम्बकीय आकर्षण कैसे हासिल होता है । बहुत धीरे से पर घनेरी तपिश की पीढा सहकर ये बने हैं गोया । 
  जी सत्य यही है ज्ञानरंजन आसानी से हर कोई ऐरागैरा बन ही नहीं सकता । 
   101 रामनगर जबलपुर के दरवाजे पर कोई 144 नहीं लगी थी जब उनके घर गया था । बहुत खुल के बात हुई थी तब । अब कोविड के बाद कभी गया तो फिर से होगी एक मुलाक़ात उनसे । उनसे असहमत/सहमत होना मेरा अपना अधिकार है, इसे लेकर बहुतेरे नकली साहित्यिक जीवगण खासे चिंतित रहते हैं । सो सुनिए-ज्ञान जी क्या कहते हैं बकौल यशोवर्धन पाठक-"गिरीश की अपनी मौलिक चिंतनधारा तो है ।" उनके इस वक्तव्य से अभिभूत हूँ वैसे भी उनके चरणों की रज माथे पर लगाना मेरे संस्कार का हिस्सा हैं । 
अक्सर लोग ज्ञानजी की सहजता को समझने में भूल कर देते हैं । निलोसे जी मेरी बेटियों के मामाजी हैं.. वे अक्सर ज्ञान जी के व्यक्तित्व से मुझे परिचित कराने में कोई कमी नहीं छोड़ते। तो मनोहर भैया के ज़रिए भी दादा के साथ जुड़ जाता हूँ। 
ज्ञानरंजन के नाम को मानद उपाधि के लिए राजभवन से स्वीकृति न मिल सकी पहल के संपादक ज्ञानरंजन जी इस बात से न तो भौंचक हैं ओर न ही उत्तेजित जितना स्नेही साहित्यकार.इस घटना को बेहद सहजता से लिया.रानी दुर्गावती विश्व विद्यालय की प्रस्तावित मानद उपाधि सूची का हू-ब-हू अनुमोदित होकर वापस न आना कम से कम ज्ञानजी के लिए अहमियत की बात नहीं है. किसी मानद उपाधि के बिना स्टेट्समैन का दर्जा हासिल है उनको । 
   एक सुबह सवेरे ज्ञान जी से फोन पर संपर्क साधा तो वे सहजता से कहने लगे :-गिरीश अब तुम लोग ब्लागिंग की तरफ चले गए हो  बेशक ब्लागिंग एक बेहतरीन माध्यम है किन्तु तुम को पढ़ना सुनना कई दिनों से नहीं हुआ. यह एक बक़ाया है मुझपर । जो ज़रूर पूरा करूंगा । 
 वास्तव में अखबारों के पास हम जैसों को छापने के लिए जगह नहीं है और हमारा भी मोहभंग हो गया है. ज्ञान जी आज भी चाहते हैं कि वे हमें सुनें समझें उनने कहा था -"तो तुम लोगों को सुनूँ पढूं तो कैसे ?  कम से कम एक बार महीने में गोष्ठी तो हो "
ज्ञान जी की इस पीढा के कारण से सब लोग वाकिफ हैं .... साहित्यिक-संगोष्ठीयों का अवसान, अखबारों में  साहित्यकारों की [खासकर नए नए लिक्खाड़ों ] उपेक्षा करते लोग शुद्ध व्यवसाई हैं । मुझे तो समीर भाई ने रास्ता दिखा दिया ।  वैकल्पिक संसाधन जैसे ब्लागिंग ।सो लिख रहा हूँ। पाठक भी खासी तादात में मौजूद हैं ।  
ज्ञान जी की इस पीढा को परख कर जबलपुर के रचनाकार एकजुट तो हैं आप भी देखिए शायद आप के शहर का कोई बुजुर्ग बरगद अपनी छांह बांटने लालायित तो हैं पर हम आप हैं कि ए.सी. वाली कृत्रिमता पर आसक्त हो चुके हैं ।  संदेश साफ़ है ... मित्रों गोष्ठियां जारी रखिए कहते रहिए कहते हो तो लगता है कि ज़िंदा हो ।    
अजय यादव आज ही ले आए हैं पहल का ताज़ा अंक इस वादे के साथ कि वे अबाध किताबें देते रहेंगे । मुझे क़बीर समग्र, परसाई समग्र, वोल्गा से गंगा तक, संस्कृति के चार अध्याय, और बहुत कुछ चाहिए । कथादेश तो ज़रूरी है ही । युवा साथियों तुम सब पढ़ो टेक्स्ट तुम्हारी प्राथमिक पसन्द होनी चाहिए । अरुण पांडे भाई जी एवम आशुतोष जी भी यही सोचते हैं हम को भी यही चिंता है... बच्चे अब केवल गूगल पर आश्रित हैं टेक्स्ट जो बकौल ज्ञानरंजन पहली पसंद होनी चाहिए अब नहीं है ।
   एक बार फिर ज्ञान जी को जन्मपर्व पर हार्दिक बधाई नमन

चीन ने साम्यवाद की परिभाषा बदल दी...?

साम्यवाद : सामंतवाद एवं पूंजीवाद के जाल में
   साम्यवाद, वर्तमान परिस्थितियों में सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के मकड़जाल में गिरफ्त हो चुका है। अगर दक्षिण एशिया के साम्यवादी राष्ट्र चीन का मूल्यांकन किया जाए ज्ञात होता है कि वहां की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था के कीर्तिमान भी ध्वस्त करती नजर आ रही हैं। अपने आर्टिकल में हम केवल कोविड19 के जनक चीन के ज़रिए समझने की कोशिश करते हैं ।  
चीन का असली चेहरा : पूंजीवादी व्यवस्था और विस्तार वादी संस्कार
यहां चीन में अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है वह विश्व की श्रेष्ठ अर्थव्यवस्थाओं में से एक है । चीन ने विश्व के कुछ सुविधा विहीन देशों को गुलाम बनाने के उद्देश्य से उनकी स्थावर संपत्तियों पर खास स्ट्रैटेजी के तहत कब्ज़ा करने की पूरी तैयारी कर ली है। यह चीन द्वारा उठाया गया वह क़दम है जो कि "साम्यवादी-चिंतन" को नेस्तनाबूद करने का पर्याप्त उदाहरण है । यह एक ऐसा राष्ट्र बन चुका है जिसे फ़िल्म  "रोटी कपड़ा मकान" वाले साहूकार डॉक्टर एस डी दुबे की याद आ जावेगी ।
कौन कौन से देश हैं इस सामंत के गुलाम..?  
          चीन के कर्ज से दबे दक्षिण एशिया के देशों में श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल , अग्रणी हैं ।  जबकि 2010 में अफ्रीकी देशों पर चीन का 10 अरब डॉलर (आज के हिसाब से 75 हजार करोड़ रुपए) का कर्ज था। जो 2016 में बढ़कर 30 अरब डॉलर (2.25 लाख करोड़ रुपए) हो गया अब जबकि कोविड19 विस्तारित है तब ।
ये अफ्रीकी देश की हालत क्या हो सकती है आप खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं ।
अफ्रीकी देश जिबुती, दुनिया का इकलौता कम आय वाला ऐसा देश है, जिस पर चीन का सबसे ज्यादा कर्ज है। जिबुती पर अपनी जीडीपी का 80% से ज्यादा विदेशी कर्ज है। इन ऋण लेने वाले देशों के पास  चीन नामक साहूकार को ऊँची ब्याज दर चुकाने तक का सामर्थ्य तक नहीं है। दक्षिण एशियाई देश मालदीव के वर्तमान राष्ट्रपति ने साफ तौर पर कर्ज वापसी के लिए असमर्थता व्यक्त कर दी है । 
  स्थिति स्पष्ट है कि- चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक साम्यवादी न होकर शुद्ध रूप से पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में शामिल हो चुकी है ।
          जिस व्यवस्था में नागरिक अर्थात व्यक्ति उत्पादन के लिए एक मशीन की तरह प्रयुक्त हो वह व्यवस्था कार्ल मार्क्स के मौलिक सिद्धांतों का अंत करती नज़र आती है।
मार्क्सवाद मानव सभ्यता और समाज को हमेशा से दो वर्गों -शोषक और शोषित- में विभाजित मानता है। नये सिनेरियो में -  शोषक के रूप में चीन की सरकार है और शोषित के रूप में जनता या उसके नागरिक ।
   मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार यह सत्य कि है साधन संपन्न वर्ग ने हमेशा से उत्पादन के संसाधनों पर अपना अधिकार रखने की कोशिश की तथा बुर्जुआ विचारधारा की आड़ में एक वर्ग को लगातार वंचित बनाकर रखा।
अतः चीन को इस बात का एहसास भी हो जाना चाहिए कि  शोषित वर्ग (चीन एवम कर्ज़दार देशों के नागरिक ) को इस षडयंत्र का एहसास हो चुका है । अतः वर्ग संघर्ष की 100% संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि  वर्गहीन समाज (साम्यवाद) की स्थापना के लिए वर्ग संघर्ष एक अनिवार्य और निवारणात्मक प्रक्रिया है।
"सामंतवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं राष्ट्रप्रमुख...?"
चीन में सदा से ही जनगीत केवल जनता को मानसिक रूप से भ्रमित करने के लिए गाये एवम गवाए हैं । नागरिकों की आज़ादी केवल सरकारी किताबों तक सीमित है । उईगर मुस्लिम इसका सबसे उत्तम उदाहरण हैं । सामंत सदा सामन्त बने रहने के गुन्ताड़े में रहता है। शी जिंग पिंग भी उसी जुगाड़ में हैं। जबकि डेमोक्रेटिक सिस्टम सदा सामंती व्यवस्था के विरुद्ध होता है। कारण भी है कि डेमोक्रेटिक सिस्टम में सत्ता का मार्ग नागरिकों के संवेदनशील मस्तिष्क से निकलता है जबकि उनकी मान्यता है कि -"सत्ता का मार्ग बंदूक की नली से निकलता है । 

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...