28.8.20

एक हथे पूरन दद्दा जू...

      आसौं बून्देली दिवस पै कछू होय नै होय हमौरे उनखौं भूलबे को पाप या नैं करबी ..! 
  जबलपुर सै बुंदेली की अलख जगाबे वारे कक्का जी के लानें विवेक भैया का लिख रय हैं तन्नक ध्यान से पढ़ियो ...
 बुंदेली और स्व डॉ पूरनचंद श्रीवास्तव जी जैसे बुंदेली विद्वानो की सुप्रतिष्ठा जरूरी  
 .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं ,उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है। उनकी ख्‍याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है,  उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है।
बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में  बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ  है। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है .  सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी। पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है।  बुंदेली की अपनी चाल,  प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है। भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी। आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन , संपन्न , बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है . आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है . क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं .
ऐसी लोकभाषा के उत्थान , संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों ,संस्थाओ , पढ़े लिखे विद्वानो के  द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे . बुंदेली में कार्यक्रम हों . जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे , वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध , अपनापन ली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो . प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद , गुंजन कला सदन , वर्तिका जैसी संस्थाओ ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है . प्रति वर्ष १ सितम्बर को स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सु अवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं .
आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक , कवि , शिक्षाविद स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व , विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाते रहे . जमाना इंटरनेट का है . इस कोरोना काल में सास्कृतिक  आयोजन तक यू ट्यूब , व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं , किंतु बुंदेली के विषय में , उसके लेकको , कवियों , साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है .
स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी का जन्म १ सितम्बर १९१६ को ग्राम रिपटहा , तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था . कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है , उन्होने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी , और पी एच डी की उपाधि अर्जित की .वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्रापत करते हुये प्राचार्य पद से १९७६ में सेवानिवृत हुये . यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था . पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे . बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था . उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा . रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं . वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं . रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है . भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है . भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तके लिखि , जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं . इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण , शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख , साक्षात्कार , अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं . मिलन , गुंजन कला सदन , बुंदेली साहित्य परिषद , आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं . वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नही माना जाता था , एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे .
उनके कुछ चर्चित बुंदेली  गीत उधृत कर रहा हूं ...

कारी बदरिया उनआई....... ️
 कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।
सोंधी सोंधी धरती हो गई,  हरियारी मन भाई,खितहारे के रोम रोम में,  हरख-हिलोर समाई ।ऊम झूम सर सर-सर बरसै,  झिम्मर झिमक झिमकियाँ ।लपक-झपक बीजुरिया मारै,  चिहुकन भरी मिलकियां ।रेला-मेला निरख छबीली-  टटिया टार दुवार,कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार ।
औंटा बैठ बजावै बनसी,  लहरी सुरमत छोरा ।  अटक-मटक गौनहरी झूलैं,  अमुवा परो हिंडोरा ।खुटलैया बारिन पै लहकी,  त्योरैया गन्नाई ।खोल किवरियाँ ओ महाराजा  सावन की झर आई  ऊँचे सुर गा अरी बुझाले,  प्रानन लगी दमार,कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।
मेंहदी रुचनियाँ केसरिया,  देवैं गोरी हाँतन ।हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं  भादों कारी रातन ।माती फुहार झिंझरी सें झमकै  लूमै लेय बलैयाँ-घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें,  प्यारी लाल मुनैयाँ ।हुलक-मलक नैनूँ होले री,  चटको परत कुँवार,कारी बदरिया उनआई,  हाँ काजर की झलकार ।
इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है .
इसी तरह उनकी  एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उनहोंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है .
बिसराम घरी भर कर लो जू...-------------
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,ढील ढाल हर धरौ धरी पर,  पोंछौ माथ पसीना ।तपी दुफरिया देह झांवरी,  कर्रो क्वांर महीना ।भैंसें परीं डबरियन लोरें,   नदी तीर गई गैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
सतगजरा की सोंधी रोटीं,  मिरच हरीरी मेवा ।खटुवा के पातन की चटनी,  रुच को बनों कलेवा ।करहा नारे को नीर डाभको,  औगुन पेट पचैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें,  एजू डीम-डिगलियां ।हफरा चलत प्यास के मारें,  बात बड़ी अलभलियां ।दया करो निज पै बैलों पै,  मोरे राम गुसैंयां ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
 वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे . सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे .
अकल-विकल हैं प्रान राम के----------------
अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,  करें झाँवरी मुइयाँ ।
पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें,  बरसज साज बहेरा ।धवा सिहारू महुआ-कहुआ,  पाकर बाँस लमेरा ।
वन तुलसी वनहास माबरी,  देखी री कहुँ सीता ।दूब छिछलनूं बरियारी ओ,  हिन्नी-मिरगी भीता ।
खाई खंदक टुंघ टौरियाँ,   नादिया नारे बोलौ ।घिरनपरेई पंडुक गलगल,  कंठ - पिटक तौ खोलौ  ।ओ बिरछन की छापक छंइयाँ,  कित है जनक-मुनइयाँ ?अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।
उपटा खांय टिहुनिया जावें,  चलत कमर कर धारें ।थके-बिदाने बैठ सिला पै,  अपलक नजर पसारें ।
मनी उतारें लखनलाल जू,  डूबे घुन्न-घुनीता ।रचिये कौन उपाय पाइये,  कैसें म्यारुल सीता ।
आसमान फट परो थीगरा,  कैसे कौन लगावै ।संभु त्रिलोचन बसी भवानी,  का विध कौन जगावै ।कौन काप-पसगैयत हेरें,  हे धरनी महि भुंइयाँ ।अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।

बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है , अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं , समय की मांग है कि स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानो को उनका समुचित श्रेय व स्थान , प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे .
     लेेेखक : विवेक रंजन श्रीवास्तव  

26.8.20

*धर्मयुद्ध : क्रूसेड्स, ज़ेहाद, महाभारत एवम लंका-विजय..!*

बाबूजी ने बताया था कि उनकी टेक्स्ट बुक में *एथेंस के सत्यार्थी* शीर्षक से एक पाठ था । उनके अनुसार एथेंस के सत्यार्थी तिमिर से प्रकाश की कल्पना करते हुए ज्योतिर्मय होना चाहते थे । जबकि सनातनी दर्शन में हम प्रकाश से महाप्रकाश में विलीन हो जाना चाहते हैं ! 
अब्राहम धर्मों के लोग कहते हैं - अल्लाह सबका है हर चीज पर उसका अधिकार है ! 
हम कहतें हैं - सबमें ब्रह्म है । परस्पर विरोधी विचार होने के बावज़ूद दौनों ही विचार युद्ध से विमुख करते हैं । 
ईसा मसीह कभी हिंसा पर भरोसा नहीं करते थे । तो फिर 
फिर क्रूसेट क्यों हुए थे ?
अथवा फिर ज़ेहाद क्यों होते हैं ?
इसके अलावा सनातन आर्यावर्त्य के धर्मयुद्ध लंका-विजय एवम महाभारत हैं आइये सबसे पहले जानते हैं कि- 
*धर्मयुद्ध क्या है ?* 
क्रुसेड्स एवम ज़ेहाद से भिन्न हैं आर्यावर्त्य के धर्मयुद्ध । 
रामायण और महाभारत पढ़कर भी अगर हम यह नहीं जान सके की सनातन में धर्म युद्ध क्यों हुए थे अथवा धर्मयुद्ध क्या हैं ? तो इस परिभाषा को जानिए ....
*"धर्मयुद्ध का अर्थ न्याय के समर्थन में किये गए युद्ध । जो भूमि सत्ता एवम कमज़ोर लोगों को धमकाने के लिए न किए गए हों ।*
💐💐💐💐
ईसा ने युध्द का समर्थन नहीं किया, क्योंकि ऐसा नहीं चाहते थे कि हिंसा के आधार पर ईसाई विचारधारा चले ! परन्तु सन 1000 के बाद एक फ्रांसीसी नागरिक स्टेफा के मन में ऐसे विचार ने जन्म लिया जो यरूशलम पर हक़ साबित करने से संबंधित था । उसने लोगों को प्रेरित किया । 
यहूदियों और मुस्लिमों के विरुद्ध उनके (करुनानिधान ईसा ) के अनुयाईयों ने युद्ध में सक्रियता दिखाई । क्योंकि वे चाहते थे, कि -"युद्ध के जरिए यरूशलम पर से इस्लामिक मतावलंबियों से कब्जा वापस प्राप्त किया जाए"
उन्होंने नौ बार यह कोशिश की, कि वह यरूशलम की पवित्र धरती को अपने अधिकार में प्राप्त कर लें । पहला धर्म युद्ध अर्थात क्रुसेड 1095 के लगभग शुरू होकर 4-5 साल तक चला और येरुशलम पर ईसाइयों ने भौतिक कब्जा भी हासिल कर लिया । शेष क्रुसेड्स लगभग 250 साल से 300 अर्थात 12वीं सदी के अंत तक चले ।
दूसरा युद्ध पवित्र येरुशलम पर कब्ज़ा पाने ज़ेहाद के रूप में हुआ । साफ है कि जब मुस्लिम आक्रमण करते थे तो ज़ेहाद होता था जब ईसाई लोग आक्रमण करते थे तो उसे क्रूसेड कहते थे । मुद्दा केवल येरुशलम की पवित्र भूमि पर अधिकार लेना मात्र था । 
यरूशलम को लेकर तीनों अब्राहिम धर्मों की स्थिति आज भी यथावत है । पर सभ्यता के विकास के साथ साथ युद्ध बहुत दिनों से सुनाई नहीं दे रहे हैं परंतु वैमनस्यता कहीं ना कहीं लोगों के हृदय में पल जरूर रही है और नज़र भी आ जाती है। क्रूसेड-ज़िहाद के दौर में कहा जाता है कि लाखों लोग मारे गए । यहूदी ईसाई मुस्लिम इनकी संख्या इतनी थी के आज तक कोरोनावायरस की वजह से इतनी अप्रत्याशित मौत नहीं हुई है । मरने वालों आम जनता की संख्या अधिक थी । 
यह दोनों प्रकार के धर्मयुद्ध यानी ज़ेहाद और क्रूसेड एक साथ हुए अर्थात आपसी वार-प्रतिवार थे । 
*सनातन व्यवस्था के अंतर्गत भी दो धर्मयुद्ध हुए हैं*
सनातन व्यवस्था में भी दो धर्मयुद्धों का स्मारक विवरण दर्ज है । 
*एक - लंका विजय*
*दो - महाभारत*
एक:- लंका विजय पर मैंने पूर्व में अपने एक लेख में स्पष्ट कर दिया है कि एक ब्राह्मण राजा को भगवान राम ने क्यों मारा ? 
इसका कारण यह है कि रावण एक ऐसा राजा था जिसने- आर्यावर्त्य की भूमि के लिए तो कभी युद्ध बिल्कुल कभी नहीं किया । ऐसा कोई भी प्रसंग हम-आपको देखने सुनने में नहीं मिला होगा जब रावण ने भारत में आकर किसी राजधानी या बड़े नगर को खत्म किया हो और उधर अपना ध्वज फहराया हो !
राम ने रावण को इसलिए मारा क्योंकि वह- जंगलों में साधनारत लोगों अर्थात ऋषियों मुनियों को अपहरण कर अपने देश में ले जाता था । और उनसे सिर्फ अपने देश के लिए कार्य कराता था । अर्थात वह बौद्धिक सम्पदाओं का अपहर्ता एवं विनाशक था । 
राम ने रावण के साथ युद्ध किया और उसे पराजित कर उचित उत्तराधिकारी को राज्य सौंप दिया । राज्य सौंप कर वे लंका से वापस आ गए । यह वास्तविक धर्म युद्ध था । इस युद्ध के ज़रिए राम ने विश्व को अवगत कराया कि- *"किसी राज्य की बौद्धिक संपदा पर बलात कब्ज़ा कर लेना बड़ा अपराध है ।"*
रक्ष-संस्कृति का समूल विनाश कर राम ने न केवल सीता को मुक्त कराया वरन उन समस्त ऋषियों मुनियों एवम विद्वानों को मुक्त कराया जो रावण के गुलाम थे । 
*(नोट- कोई विद्वान पाठक अगर यह मानते हैं कि रावण ने आर्यावर्त पर एक इंच भी भूमि अधिकार में ली हो तो कृपया संदर्भ सहित बताने की कृपा कीजिए । )*
दो:- पांडवों ने कौरवों के साथ जो कि धर्मयुद्ध था । जिसमें कृष्ण ही नायक थे पर परोक्ष रूप से । यह युद्ध 5 गांवों के लिए था । कौरवों की अंतिम मांग यही थी न । अगर दुर्योधन और उसके पिता धृतराष्ट्र इस बिंदु पर न्याय पूर्ण निर्णय ले लेते तो महाभारत नहीं होता । यह धर्मयुद्ध एक सबक भी है उन बलिष्ठ लोगों के लिए जो पैतृक संपत्ति के अधिकार से अपने अन्य कमज़ोर भाईयों (अब बहनों को भी) को वंचित रखते हैं । सिविल अदालतों में ये युद्ध आज भी जीवित नज़र आ जाते हैं । कभी भी जानते या अनजाने में किसी कमज़ोर सहोदरों के साथ अन्याय करते ही धर्मयुद्ध की संभावना बलवती रहती है । यदि कमज़ोर सहोदर या सहोदरी प्रतिकार न भी करे तो जान लीजिए वह व्यक्ति जो शोषण करता है कृष्ण के शाप का शिकार अवश्य ही होता है । ऐसे प्रकरण हम-आप अक्सर भौतिक जीवन में देखा करते हैं । 
महाभारत के बाद कृष्ण भी द्वारका वासी हुए। वे युद्ध नहीं चाहते थे । चाहते तो वे हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठ जाते पर वे एक ग़लत नीति के विरोध के लिए पांडवों के साथ थे । वे जानते थे कि उनकी भूमिका कहां तक सीमित है । वे अपनी भूमिका निभा कर मुक्त हो गए । 
सनातन व्यवस्था में आर्यावर्त्य में सम्पन्न युद्ध ही धर्मयुद्ध कहे जा सकते हैं । 
शेष अर्थात वर्तमान कलयुग के क्रुसेड्स एवम ज़ेहाद को लेखक के रूप में निर्भीक होकर धर्मयुद्ध नहीं. मानता . ऐसे युद्ध केवल भूमि अतिक्रमण की वजह से उत्प्रेरित विस्तार वादी युद्ध मात्र हैं । 
युद्ध मत करो.. युद्ध को धर्मयुद्ध का मुलम्मा मत चढ़ाओ । युद्ध मानवता का दुश्मन है । युद्ध के लिए उकसाया न जावे । 
इन दिनों मीडिया युद्ध के लिए तुरही वादक के रूप में तैनात रहता है । रोज़ शाम को टेलीविजन पर युद्धोन्माद भरी बहस चलतीं हैं । अब तो टीवी चैनलों को देखना बन्द कर दिया । आप अनचाहे ही योद्धाओं सरीखे बन जाते हैं । विश्व में केवल यही सब चल रहा है । रोको इस अभियान को ।
एक विचाधारा भोले भाले लोगों के खिलाफ षड्यंत्र कर उनको भड़काती है नक्सलवादी बनाती है । अक्सर देखा कि कुछ लोग एक समूह में विद्वेष पैदा करते हैं उसे दो भागों में बांटते हैं फिर उनमें वैमनस्यता के बीज बोते हैं। यही कारण है कि भारत में कई आयातित विचारक सफल हो रहे हैं । जैसे ही यह विचारधारा सत्ता के शीर्ष पर बैठाती है तो जनाधिकार समाप्त होने लगते हैं । चीन इसका सर्व सुलभ उदाहरण है । 

*आज के दौर में क्षद्मयुद्ध से कैसे बचें...?*
हम घर में बच्चों के सामने बैठकर रिश्तेदारों अडोस पड़ोस के वाशिंदों की निंदा करते हैं । क्योंकि हम युद्धोन्मादी हैं । वैचारिक मतभेद को भी शत्रुता का पर्याय बना देते हैं । 
*अपनी बात स्वीकार्य न होने पर निर्लज्ज, धूर्त, कायर, जैसे अपशब्दों का प्रयोग तक कर देतें हैं । सत्ता कभी किसी के पाशबन्धन में नहीं रहती । सत्ता केवल ईश्वर की ही होती है उसके यशगान में समय लगाना ही आज के दौर में विसंगतियों से धर्मयुद्ध करो अर्थात तपस्यारत हो जाओ ।*
*तपस्या* ऊर्जा (एनर्जी ) एवम प्रकाश का सात्विक स्वरूप है । तपस्यारत योगी केवल सन्यासी हो ऐसा नहीं है । वो गृहस्थ भी होता है । सनातन परंपरा का यही उदघोष है । सनातन दर्शन भी यही कहता है कि आत्म मंथन करो खुद में व्याप्त अहंकार से लड़ो दूसरे से लड़ने में क्या मिलेगा ? जब मुझमें ईर्ष्या, रागद्वेष, उपेक्षा, वासना, हिंसा, अहंकार, पद लालसा , जैसे शत्रु मौज़ूद हैं तो तपस्या नामक धर्मयुद्ध का सहारा लेना चाहिए । मेरे तपते ही ये सभी शत्रु सब सहज रूप खत्म हो सकते हैं । 
*सुप्रभात नर्मदे हर*

25.8.20

disability : only a matter of perception.” by Humans of Bombay

“As long as I remember, I’ve always been on a wheelchair but the disability never bothered me. I loved going to school; I was great at academics! I'd have doctor appointments but after, my parents would take me to the beach and we’d make a day out of it. I’d tell my friends that I’m going out on a picnic; I didn’t want anyone to pity me.
In my 10th, I prepared extra hard for my exams– I wanted to get admission based on merit and not through the disability quota; I was on cloud nine when I scored 95%. But during the felicitation ceremony, people said– ‘You’ve scored so well despite your wheelchair’, news reporters bombarded me about my disability. I didn’t like the fact that people were treating me specially.
So, I continued focusing on my academics and got into a reputed engineering college. In fact, I was the first wheelchair student there! The next few months were great, until I fell ill– I had to be put on a ventilator. My exams were coming up so my relatives asked me to skip the semester– ‘Koi light course kar lo.’ 
But I was adamant; I appeared for my exams with an oxygen cylinder and to everyone’s surprise, got a distinction. When I graduated, my principal said, ‘Because of you, I’m confident about admitting more disabled students in our college.’ 
After engineering, I was looking forward to getting a job but in the final round, the HR said, ‘Sorry, we wouldn’t be able to offer you a job.’ They didn’t have provisions for disabled people! I was shattered. Once again, in spite of my achievements, I was made to feel different. 
But instead of expecting others to change things for me, I decided to do something about it and started my own company to provide training and job opportunities to differently-abled people. Papa discouraged me because he felt that I was too young, but mom said, ‘If you can change even a single person’s life,do it!’ 
People praised me, but none of them were willing to invest. So, I did everything single-handedly and convinced my father to invest. I was scared– ‘What if it doesn’t work? What if I lose the money?’
But 3 years later, I’m so happy I took the risk– my firm has successfully given jobs to over 30 differently abled. When we placed a paralysed single mother with a multinational company, I’ll never forget what she said to me– ‘I'm so lucky I met you; you’ve changed my life.’ 
Today I’m also pursuing my Masters. My team has grown and my hustle has just begun. I won’t stop until I incubate the next Stephen Hawking; that’s my dream.
It feels amazing when youngsters from all over the country reach out to me; The only thing we want are equal opportunities. None of us see our disability as a setback– it’s only a matter of perception.” 
With Thanks 
#WorldEntrepreneursDay

24.8.20

बिटक्वाइन के कारण मुझे हुआ ₹ 872,871.30..?

राम धई.. बिस्वास न करहौ हमें ₹ 872,871.30 को घाटाया लग  गओ बड्डे
2009 में इसके बिटक्वाइन के विज्ञापनों को सिर्फ इस लिए ब्लॉक कर दिया कि वे एक क्वाइन के बदले ₹100  मांग रहे थे । जान न पहचान विज्ञापन के ज़रिए मेलबॉक्स में खड़े मेहमान ... एक दिन स्पैमर किया फिर ब्लाक कर दिया । भारतीय गृहस्थ बेहतरीन अर्थशास्त्री होता है ठीक हम भी सबके जैसेईच्च ठहरे । 
 100 रुपए भी क्यों वेस्ट करूं ? एक एक पैसा कीमती है मानकर और आभासी दुनिया पर घोर अविश्वास के चलते हमने इसे प्रमोट करने वालों की आई डी ब्लॉक कर रखीं थीं । 2017 एवम 18 में पता चला कि वर्चुअल करेंसी भारत में क़ानूनी खांचे में हैं सुनकर मन ही मन खुशी हुई । वास्तविकता क्या थी हमें तब नहीं मालूम था । 
अक्सर अत्यधिक भय और क्रिएटेड एनवायरमेंट के कारण हम सभी ऐसे पचड़ों में नहीं फंसते । फंसना भी नहीं चाहिए । तब किसी को भी पता न था कि क्रिप्टो करेंसी क्या बला है । अपने अमिताबच्चन अरे बड्डे अमिताभ बच्चन ने खरीदे थे बिटक्वाइन अरबपति की सीमा रेखा (वो वाली नईं..!) लांघने वाले हैं । 
  देखो भैया अब एक बिटक्वाइन की कीमत मालूम है तो एक बिटक्वाइन का मूल्य है ₹ 872971.30 
अर्थात हम 872,871.3 का घाटा खाए बैठे हैं । बड्डे बताओ हमसे ज़्यादा दुःखी को को सकता है...? नहीं न फिर भी हम मज़ेदार ज़िंदगी जी रहे हैं ...! 
कोई शक...?

15.8.20

महाकौशल की वीरांगना अवन्तिबाई का स्वतन्त्रता आंदोलन में योगदान

आईये गर्व और नमन् करें..नई दुनिया समाचार पत्र के साथ.. भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 की संपूर्ण भारत में किसी भी रियासत परिवार से प्रथम महिला शहादत(20 मार्च 1858) वीरांगना क्षत्राणी..रानी अवंतीबाई लोधी की रही है..(क्योंकि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की शहादत 18 जून 1858 को और बेगम हजरत महल 7 अप्रैल 1879 - यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि कित्तूर रियासत (कर्नाटक) की रानी चेन्नमा पहली वीरांगना थीं जिन्होंने 1829 में शहादत दी थी, परंतु यहाँ बात प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 की हो रही है ) उनके  अवतरण दिवस के 2 दिन पूर्व  सभी आत्मीय जनों को हार्दिक बधाईयाँ (16 अगस्त सन् 1831)(कमिश्नरी जबलपुर, जिला मंडला, रियासत रामगढ़.. संस्थापक गोंड साम्राज्य के वीर सेनापति मोहन सिंह लोधी.. 681 गाँव, सीमायें अमरकंटक सुहागपुर कबीर चौंतरा , घुघरी, बिछिया, रामनगर तक ) .. ब्रिटिश काल में तहसील रामगढ़, सदर मुकाम रामगढ़ ) ..प्रस्तुत शोध आलेख के लिए के लिए सर्वप्रथम नई दुनिया समाचार पत्र के यशस्वी संपादक श्री कमलेश पांडे जी का आभार व्यक्त करता हूँ कि उनके मार्गदर्शन में - वरिष्ठ और उम्दा पत्रकार महोदया अनुकृति श्रीवास्तव जी ने बड़ी लगन और सूक्ष्म विश्लेषण के साथ तैयार किया है..इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत की ओर से इतिहास के विद्यार्थी के रुप में मैंने अपना योगदान दिया 🙏 वीरांगना का गौरवमयी इतिहास प्रस्तुत करने के पूर्व मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि जिस तरह इतिहास लेखन के दौरान महारथी शंकरशाह और उनके सुपुत्र रघुनाथशाह के साथ अन्याय हुआ है.. उससे भी बड़ा अन्याय वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी के साथ हुआ है.. इस षड्यंत्र में तथाकथित परजीवी और अंग्रेज़ों से भयाक्रांत बुद्धिजीवी इतिहासकार +अंग्रेजी पैटर्न और उनके स्रोतों को ब्रह्म वाक्य मानकर कैम्ब्रिज विचारधारा के इतिहासकार +मार्क्सवादी इतिहासकार और एक दल विशेष के इतिहासकार शामिल रहे हैं..जबकि रानी अवंतीबाई लोधी का कद और बलिदान किसी भी तरह से.. झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई और अवध की बेगम हजरत महल की तुलना उन्नीस नहीं रहा है.. फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर लिखे गए इतिहास में तथाकथित महान् इतिहासकारों ने उनके बारे एक पृष्ठ तो छोड़िये.. एक पंक्ति नहीं लिखी है.. और तो और एक उद्भट विद्वान और जाने-माने इतिहासकार राय बहादुर हीरालाल जी ने अपने गजेटियर "मंडला मयूख" में रानी अवंतीबाई लोधी के पलायन कर जाने का उल्लेख किया है क्योंकि वे अंग्रेजों के प्रभाव में थे.. Now what is reality? रानी अवंतीबाई लोधी ने अंग्रेजों से लगातार 9 माह संघर्ष किया है.. जिसमें 6 प्रमुख युद्ध लड़े(देवहारगढ़ के जंगलों 🌲🌲में छापामार युद्धों के अतिरिक्त) .. जिसमें 5 युद्धों में अंग्रेजों के धूल चटाई.. छठवें युद्ध में अपनी अंगरक्षिका गिरधाबाई के साथ स्वत:प्राणोत्सर्ग कर स्वतंत्रता संग्राम में पूर्णाहुति दी... इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 💐 💐 💐
विशेष आभार : श्री आनंद राणा जी

11.8.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 03

 

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 03
जन्म से आगे के 3 साल में भी जन्म से 12 माह की अवधि सबसे महत्वपूर्ण होतीं हैं ।
यही शैशवावस्था सम्पूर्ण विकास
का आधार है । किन्तु दक्षिण एशिया में इसे सबसे उपेक्षित रखा गया था आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के 20 साल बाद तक । जन्म से लेकर 3 वर्ष की उम्र में शिशु को जिस श्रेणी की देखभाल की ज़रूरत होती है, उन मुद्दों पर किसी का ध्यान ही न था।
1 किशोरावस्था में बालिकाओं की उपेक्षा
2 अपरिपक्व आयु में विवाह
3 प्रसव पूर्व उचित देखभाल न होना
4 प्रसव की घटना को गम्भीरता से न लेना
5 जन्म के घण्टे भर में माँ का दूध न पिलाना
ये सब उस देश में होना जारी था जहां शेर के दांत बालक ने गिने थे, जी हाँ जहाँ का बालक नाग नाथ देता है और न जाने कितनी कथाएं बाल साहस की उपलब्धियों से भरी
पड़ीं हों.... मित्रों एवम सुधिजन आज से जन्माष्टमी का पर्व मनाए जाने की शुरुआत हो जावेगी ऐसा माहौल तत्कालीन भारत में भी था पर जन्मे अजन्मे बच्चों पर कोई नज़र न थी । इसे प्राकृतिक घटना और भगवान के भरोसे होने वाली घटना मानके होने दिया जाता रहा है । पर यहाँ एक बात बहुत आवश्यक है बताना कि भारत में बच्चों के जन्म के लिए ऐसा न था । मध्यकालीन युग में जब हिंसक परिस्थितियों ने भारत को विचलित किया तब से भारतीय परंपरागत व्यवस्थाएं बुरी तरह ध्वस्त हो गईं । वरना भारतीय संस्कृति में जन्म को एक महान घटना ही माना जाता रहा था । गर्भवती स्त्रीयों के प्रति सम्मान के भाव थे । इसका प्रमाण गर्भवती महिलाओं को प्रसव के पूर्व से ही शिशु के जन्म तक विशेष ध्यान देते हुए पुंसवन संस्कार से लेकर प्रसव तक बेहद प्रभावी नियम बने थे । जैसे पौराणिक कथाओं में गर्भवती स्त्रियों के लिए भोजन उसको आध्यात्मिक विषयो से जोड़े रखना तथा उसको मायके भेज कर उन्मुक्तता युक्त वातावरण देना । पर कालांतर में यह सब जैसे रुक सा गया । आर्थिक सामाजिक परिवर्तन के कारणों से गृहस्थ मुखिया ऐसा नहीं कर सकते थे । लोगों को सौ साल पहले जीवन को बचाने की संघर्ष करने होते थे । जिसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर तेज़ी से पड़ा ।
इसका जिक्र इस आत्मकथा में क्यों कर रहा हूँ सोच रहे हैं न आप ?
तो जानिए मेरे जैसे स्वतंत्रता के बाद जन्में लोगों के लिए न तो सफलता पूर्वक जन्म लेने की अनुकूलता थी और न ही संसाधन । मेरा एक ममेरा भाई है । उसका जन्म के समय दाई ने जिस प्रकार नाड़ा काटा उससे उसके शरीर से अत्यधिक मात्रा में रक्त स्राव हुआ । और उससे उसका जीवन बहुत प्रभावित रहा है । इसे उसका दुर्भाग्य नहीं मानता हूँ वरन सामयिक परिस्थितियों को दोष देकर मुझे कोई शर्म महसूस नहीं हो रही है ।
मेरे जन्म के पूर्व के 50 साल तो और अधिक भयावह थे जब स्त्रियां बच्चे के रोने पर उसे अफीम दे दिया करतीं थीं ! ताकि बच्चा सोता रहे और वह घरेलू दायित्व का निर्वहन करती रहे । ये सत्य है क्योंकि यह माँ ने बताया था । और माँ झूठ नहीं बोलती ।
खैर छोड़िए यह सब आप तो जानिए कि आगे क्या हुआ । मेरे खयाल से मेरे जीवन में इससे आगे क्या हुआ इस बात को भाग 04 में बताना ही उचित होगा । तब तक आप अपने बच्चों के जन्म से उसके शैशव काल, बाल्यकाल में आपके अपने दायित्वों का निर्वहन की समीक्षा कर लीजिए । कुछ ग़लत लिखा हो तो बताइए अवश्य ।
( शेष जारी भाग 4 में.....)  

10.8.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 02

 

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 02

जब बीते क्षण याद आएं तब
चेहरे तैरा करते हैं ज़ेहन में ।
कुछ ध्वनियाँ भी गूंजा करतीं -
बन गीत मेरे आकुल मन में ।।
माँ, मौसी ने माना कान्हा मुझको
जब चंचल हो कर मुस्काता हूँ ।।
सालीचौका में मुझे एक रेलवे वाला गैंगमेन बहुत स्नेह करता था तब मेरी उम्र कोई एक बरस की होगी नाम था - हरि ।
माँ ने बताया हरि कुछ दिनों के लिए अपने गांव गया तो मैं बीमार पड़ गया । कौन था हरि ? ज़रूर उससे कोई सम्बंध होगा पूर्व जन्म का ऐसा सब कहते थे । पर बाद में आदि गुरु के बारे में सुना घर में सत्संग से कुछ समझा तो पता लगा कि- हरि सबके होते हैं सबमें होते हैं । यही है अद्वैत..! हरि कोई निर्देशक नहीं उससे डरो मत वो भयावह नहीं न वो किसी को दण्ड देता है न किसी को मारता है न ही ऐसा कोई फैसला करेगा या करता है कि तुम स्वर्ग जाओगे वो नर्क जाएगा । क्योंकि न स्वर्ग है न नर्क । न अप्सराएँ हैं न देवता न गन्धर्व ये प्रतीक-संज्ञा हैं जैसे कुबेर धन का देवता न कुबेर तो इकोनामी है । गन्धर्व वे हैं जो कला के संवाहक हैं । अप्सराएँ वो मनोदशा है जो लोक रंजन के लिए प्रफुल्लित कर देतीं हैं अपनी थिरकन से । नवरस सात स्वर भाव चिंतन दर्शन लेखन पठन-पाठन सब स्वर्ग के संसाधन हैं । हम इनको संग्रहीत कर सकते हैं.. हाँ हम घर, मोहल्ले, गांव, नगर, देश और इस धरती को स्वर्ग बना सकते हैं । यही है हरि का परमादेश । वो कोई आज्ञा नहीं देता । तुम जैसा करोगे वैसा ही प्रतिफल पाओगे ये तय है है न SSSSS ?
ये बचपन में नहीं बाद में समझ सका बचपन तो बचपन था ।
क्षमा कीजिए कथा लिखते लिखते दार्शनिक आलेखन करने लगा था ...! क्या करूँ विचार प्रवाह कभी कभी भटका देता है ।
आगे क्या हुआ ?
अक्सर रेलवे वालों के आपसी सम्बन्ध चाचा चाची , दादा जी , मामाजी मामी जी वाले बन जाते थे । वो दौर प्रेम विश्वास और स्नेह का सागर इधर उधर विस्तारित करने का दौर है । घरों के आपसी रिश्ते आज तक जिंदा हैं । कितना मारोगे अमर हैं मरते ही नहीं । बाबूजी ने सालीचौका के एक रईस को बिना टिकिट पकड़ा और फिर कहा था -'साले तुम अगली बार से बिना टिकट नहीं आओगे वरना हम तुम्हारा चार्ज कर देंगे ।
पता नहीं बाबूजी ने किस तरह आत्मीयता से डांटा कि उसने बाबूजी को चैलेंज कर दिया - 'सुनो, बाबूजी साला कहा है न तो पीछे मत हटना रिश्ता आप भी निभाना समझे ! पैर छूकर चौकसे जी निकल गए और पूरे चौकसे जायसवाल हमारे मामा जी बन गए । हमारे घर की हर शादी में सिवनी मालवा, सालीचौका, से ममेरा (निमाड़ी/भुवाणी) अर्थात चीकट (बुंदेली) लेकर हमारे मामा आया करते थे । उधर गुरुदेव के जितने भी साधक परिवार थे सबसे चाचा चाची ताऊ ताई वाले रिश्ते बनें । हम सबको ननिहाल, ददिहाल वाले के खून के रिश्तों का और इन रिश्तों के फ़र्क़ बहुत देर से यानी किशोरावस्था में पता लग पाए ।
माँ मुझे काजल लगा के डिठौना लगाना नहीं भूलती । शायद माँ की गोद वाला कोई ऐसा फोटो मुम्बई वाले काकाजी (श्री आर एन जी बिल्लोरे ) के पास देखा था । इस फोटो में मेरा चेहरा बहुत खूबसूरत है । माँ की गोद वाला फोटो एकदम मरफ़ी मुन्ने की तरह लगता था ऐसा कभी मौसी जी ने बताया था कि जब तुम ढेड़ साल के थे तब पोलियो का शिकार हो गए वरना तुमसे सुंदर कोई बच्चा न था घर में । पोलियो के कारण शरीर का दायां भाग प्रभावित हुआ और दवाओं के कारण तुम वैसे न रह गए जो इस बीमारी के बाद हुए ।
मुझे अक्सर लगता था कि मैं सामान्य हूँ क्योंकि मेरे सामने कोई ऐसी बातें नहीं होतीं थी जिससे मुझे यह महसूस हो कि अन्य बच्चों से अलग हूँ । अगर बालसुलभ गलतियां हुईं तो समान रुप से दण्ड का भागीदार होता था । यानी परिवार ने मुझे एक्स्ट्रा आर्डिनरी नहीं वरन एक सामान्य बच्चे की तरह पाला पोसा ।
हाल के वर्षों में जब बालभवन में किसी दिव्यांग बच्चे की माँ उसके एडमिशन के लिए आईं बहुत उदास थीं । आखिर माँ जो थीं ।
उनको समझाता हूँ .. माँ तुम नहीं जानती कि ये सन्तान ईश्वर है जो तुम्हासे अपनी सेवा कराना चाहते हैं । तुम उसको बोझ तो नहीं
हो !
न बोझ नहीं समझती ।
तब ठीक है उसकी सेवा करो , यही ईश्वर की पूजा है । और एक बात पूछूं सही सही बताना ?
जी , पूछिए सर..!
जब ईश्वर की पूजा करती हो तो रोती हो क्या ?
नहीं कभी नहीं !
तो इस बच्चे की सेवा एक पूजा है । और न तो पूजा बोझ होती है जो आप रोएं .... रोते हुए की गई पूजा ईश्वर को भी स्वीकार्य नहीं होती ।
ऐसे शब्द केवल वोही बोल सकता है जिसने उसे महसूस किया हो !माँ ने ये सब मुझे पहले ही महसूस करता दिया था । तभी तो किसी को दौड़ता देख खुद में हीनभावना महसूस नहीं की ।
क्रमशः जारी 

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