21.2.20

शक्ति आराधना के बिना शिव आराधना स्वीकारते नहीं

स्वर :- इशिता विश्वकर्मा

जीवन सृजन का कारण शिव है संरक्षक भी वही है संहार कर्ता तो है ही । इतना महान क्यों है...? सृजन का कारण शक्ति का सहयोग है इसलिए शिव बिना शक्ति की आराधना के अपनी आराध्या को स्वीकार नहीं करते। इसका आप मनन चिंतन कर सकते हैं फिलहाल मेरी यही अवधारणा है
जीवन में सब कुछ वेद उपनिषद पुराणों के अनुकूल घटता है । सनातन यही कहता है कि *एकsस्मिन ब्रह्मो :द्वितीयोनास्ति* शिवरात्रि इसी चिंतन का पर्व है । शिव शून्य है अगर शक्ति नहीं है साथ तो उनका कोई अस्तित्व नहीं । शिव अपनी पूर्णता अर्धनारीश्वर स्वरूप में रेखित करते हैं ।
*My friend asked me Tar bhai I dont know how to discover Lard Shiva*
मित्र से पूछा....
*आज घर जाकर पत्नि से पूछना तुम दिनभर में घर के कितने चक्कर लगाती हो लगभग 300 से अधिक की जानकारी मिलेगी । फिर अनुमान लगाना पता चलेगा वो 15 से 20 किलोमीटर वो चली 30 दिन में वो....450 से 600 किलोमीटर चलती है*
Yes
*तुम 2 किलोमीटर से अधिक नहीं चलते यानी महीने में केवल 60 या 65 किलोमीटर बस न ।*
सच है ऐसा ही है !
तब असाधारण कौन तुम या पत्नि ?
बेशक पत्नी ही है ।
जब वह जन्म देती है तो उसे कितना कष्ट होता है इसका अनुमान है आपको बच्चे तो होंगे तुम्हारे..?
अनुमान तो नहीं लगा सकता क्योंकि उसको हम महसूस नहीं कर पाते हैं पुरुष है ना पर सुना जरूर है...!

तो सुनो ये सब वही सह सकता है जिसमें धैर्य क्षमता और प्रबंधन के गुण हों ।
सच है पर इसका लार्ड शिवा से क्या रिश्ता ? उसने पूछा ।
उत्तर ये था हमारा-..रिश्ता है तुमको ऊर्जा कौन देता है और फिर उस ऊर्जा का स्तर मेंटेन कौन रखता है ?
    जन्मते ही मां फिर बहन और माँ फिर पत्नी ।
उसने कहा... हाँ सच है !
तो लार्ड शिवा की शक्ति का स्रोत नारी ही है ।
पर वो तो अदृश्य हैं ?
न बिल्कुल नहीं हम हैं उनका स्वरूप हर प्राणी में होता है । हम शिवांश हैं ।
    हम व्यवस्थापक हैं उपार्जन के उत्तरदायी भी हैं । तो भारतीय सन्दर्भ में नारी हमारी शक्ति है....यानि हमारा युग्म सरल शब्दों में स्त्री पुरूष संयुक्त स्वरूप का अस्तित्व भौतिक रूप में लार्ड शिवा है । अब इसमें शिव को डिस्कवर करने की ज़रूरत क्या ?
बायोलॉजिकल वो अलग है भावात्मक रूप से एक अंतर है कि *नारी आल टाइम केयरिंग है यानि सबकी चिंता करती है ।
    तुम्हारी पत्नी तुम्हारी मां भी है । सदा करुणा भाव से तुम्हारे बारे में चिंतन करती है ।
अगर कोई नारी आपकी बायोलॉजीकल मदर न भी हो तो वो सबकी केयर करती है । उसे एक खास नज़रिए से मत देखो।
     इंडस वैली सिविलाइजेशन की खुदाई में कुछ देवियों की मूर्तियां मिलीं और एक शिव लिंग जो शिव का प्रतिमान है । के वैदिक काल में भी यही था यज्ञादि कर्म वामा के बग़ैर महत्वहीन थे ।
    गार्गी मैत्रेयी जैसी हज़ारों देवीयों को रेखांकित किया गया है सनातन शास्त्रों में ।
कुल मिला कर अगर शिव को डिस्कवर करना है आत्म अनुशीलन करो और  शक्ति-स्रोत को डिस्कवर करो माँ के अस्तित्व को प्रधान स्वीकृति दो । फिर देखना शिव स्वयम तुम्हारे चिंतन में आ बैठेंगे ।
          मित्र के साथ हुए इस संवाद में उसका एक सवाल आया -"तुम कहते हो हमेशा नारी को ईश्वर ने वो दिया जो पुरुष को कभी नहीं मिलता ?
*शिव ने जो नारी को सहज दिया वो पुरुषों को घोर तपस्या के बाद भी न मिल पाएगा... यह सत्य है नारी को सार्वकालिक मातृत्व भाव दिया है ब्रह्म ने । जो उसके साथ हर पल रहता है... और तुमको भी एक अति पावन भाव दिया है शमशान वैराग्य वह भी अधिकतम 10 मिनिट का वो भी केवल तब तक जब तक तुम चिता के सामने होते हो .. है न..?*
समय अवधि की तुलना में सर्वाधिक किसे दिया ब्रह्म ने सिर्फ नारी को न ?
हाँ सच है ...!
💐💐💐💐💐💐
*सुधि पाठको आज केवल इतना ही पर ध्यान रहे यह शिव पूजन ही नहीं शक्ति के साथ शिव पूजन का पर्व है इसे प्रतिदिन दोहराना होगा*
【आज का आलेख का स्रोत मित्रों से कुछ दिन पूर्व हुए संवाद का प्रतिफल है ।】

5.2.20

ये क्या कहा तुमने

Yah kya kaha Tumne
यह क्या कहा तुमने यह मंजर वह नहीं है सोचते हो जैसा तुम।
कोई हुक्मरान
हवाओं से नहीं कुछ पूछता है....!
ना कोई जंजीरें लिए घूमता है...!!
ना रंगों पे कोई बंदिश
ना लहरें गिनता है कोई?
वह अकबर था जिसका...हुक्म था लहर गिन लो !
किसी ने कहा था
जा रहे हो दर्शन को
जरा सा धन भी गिन दो।
इस गुलशन के जितने रंग है
सब हमारे और तुम्हारे हैं।
हमारे बुजुर्गो ने
खून देकर
ये सब रंग संवारे हैं।
इशारों में जो तुमने कह दिया...!
तुम्हारी सोच को क्या हो गया है?
बता दोस्त क्या कुछ खो गया है?
तुमसे उम्मीद ना थी। नज़्म तुम ऐसी लिखोगे ?
ज़हीनों की बस्ती में अलहदा दिखोगे ?
गोया विज्ञान तुमने रंगों का पढ़ लिया होता
सात रंगों के मिलने का मतलब गढ़ लिया होता ।
हवा और लहरें
रुक कि जो सैलाब होती हैं
तो जानो
बदलाव की हर कोशिशें आफताब होती हैं।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

19.1.20

बिना विवेकानंद जी को समझे विश्व गुरु बनने की कल्पना मूर्खता है


100 से ज्यादा वर्ष बीत गए , विवेकानंद को समझने में भारतीय समाज और राजनीति दोनों को ही बेहद परिश्रम करना पड़ रहा है मुझे तो लगता है कि अभी हम समझ ही नहीं पाए कि विवेकानंद  किस मार्ग के पथिक रहे और इस मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने भारत सहित विश्व को प्रेरणा दी । अगर ऐसा होता तो विवेकानंद के बताए मार्ग पर हम स्वतंत्रता के पहले से ही चलने लगते और अब तक हम उस शिखर पर होते जिस का आव्हान आज भारत कर रहा है.... विश्व गुरु की धरती पर विश्व गुरु का टैग लगाना बहुत मुश्किल नजर आ रहा है तब 19वीं शताब्दी में स्वामी ने साफ कर दिया था कि कैसा सोचो यह सनातन में साफ तौर पर लिखा है उसके अभ्यास में लिखा है कैसा जिओ इस बारे में स्वामी ने साफ कर दिया था यूरोप की यात्रा से लौटकर जब उन्होंने लोक सेवा का संकल्प लिया और पूरे भारत में एक अलख सी जगा दी थी । भारत में स्वामी के उस सानिध्य को भी अनदेखा किया जिसका परिणाम आप देख रहे हैं । अगर विवेकानंद को समझने की कोशिश अब तक नहीं हुई है तो करना ही होगा बच्चों को इस तरह के पाठ पढ़ाने ही होंगे अब जब यह एलानिया तौर पर कहा जा रहा है कि भारत विश्व गुरु बनने की ओर अग्रसरित है जैसा आप कह रहे हो नेता कह रहे हैं मुझे लगता है कि बुद्ध कृष्ण महावीर और विवेकानंद को अपने साथ रखें बिना ऐसा कहना भी मूर्खता है । खुले तौर पर यह कह देना चाहता हूं कि हमें सनातन के सार को जो इन महापुरुषों ने हमें दिया है समझ लेना चाहिए खासतौर से विवेकानंद जी को तो समझना बेहद जरूरी है मुझे उम्मीद है कि बिना इन महान हस्तियों को समझे आप एक ही बिंदु पर खड़े होकर व्यायाम शाला में ट्रेडमिलिंग करते हुए नजर आते हैं । भारतीय समाज जिसमें हिंदू मुसलमान सिख ईसाई पारसी आदि आदि मतों को मानने वाले रहते हैं.... सबको स्वामी के बारे में समझना चाहिए नानक भी इसी श्रेणी में आते हैं खालसा पंथ अध्यात्म की वह महत्वपूर्ण वाटिका है जहां बलपूर्वक मानसिकता और व्यवस्था को बदलने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को रोकने का संदेश दिया गया है लेकिन ब्रह्म के सार्वभौम होने का ऐलान भी किया है खालसा सैनिक नहीं समाज का धर्म है अक्सर देखता हूं कि अगर कोई दुखी अगर किसी सिख के सामने होता है तो वह सरदार चैन से नहीं रहता जब तक उसका दर्द अपने हाथों से खत्म ना कर दे सरदार व्याकुल रहता है । लेकिन औसत समाज ऐसा नहीं सड़क पर कोई घायल है मदद के हाथ बहुत कम होते हैं और सवाल पूछने वाली जीभों की संख्या असीमित होती है एक ऐसा ही दृश्य 1989 से अब तक हमने देखा कश्मीरी पंडितों और डोगरा लोगों के प्रति हम कितने संवेदित रही हैं । मामला वर्ग संघर्ष का नहीं है मामला मानवता की रक्षा का है अगर आपका पंथ संप्रदाय समूह विश्व के लिए मानवतावादी अप्रोच से काम नहीं करता तो तय है कि भारत विश्व गुरु तो क्या अपने उपमहाद्वीप के लिए आइकॉन भी नहीं बन सकता । उन संकल्पों का क्या हुआ जो सामाजिक न्याय की दिशा में दिए जा रहे थे बस्तों में बांध दी गई हैं ऐसी कोशिशें यहां आप सोच रहे होगे की ओशो की धरती से ओशो को मैंने इस बात में शामिल नहीं किया हां बिल्कुल नहीं किया मैंने तो गांधी को भी शामिल नहीं किया है उसके कारण है गांधी प्रयोग धर्मी  थे । ओशो भी ऐसा ही कुछ करने के गुंताड़े में थे। गांधी के प्रयोग भी समाज को लेकर हुआ करते थे उसने भी वही किया परंतु ना तो अहिंसा का संदेश बेहद प्रभाव से रह पाया और ना ही समाज सुधार की तह में ओशो जा पाए। ऐसा नहीं है कि मैं इनसे सहमत हूं अथवा इन का विरोधी हूं हो सकता है कि आप में से कोई मेरी इस बात का बतंगड़ बना दे क्योंकि सवाल तो आपके जेहन में बहुत हैं आप आरोप भी लगा सकते हैं शाम 5:00 बजे के बाद घर का टेलीविजन लगाओ तो बच्चे लड़ना ही सीखते हैं चीख चीख कर अपने आप को ब्रह्म वाक्यों को प्रतिपादित करने वाला साबित करने वाला साबित कर देते हैं । मित्रों भारतीय दर्शन यह नहीं है । भारतीय दर्शन उत्कृष्टता के लिए श्रेष्ठतम प्रयासों की पहचान करना सिखाता है भारतीय सनातन भारतीय दर्शन है सनातन को धर्म कहने की गलती मत करो सनातन श्रेष्ठतम अध्यात्म है शुरू की पंक्तियों में ही विवेकानंद ने खुले तौर पर अभिव्यक्त कर दिया था भारतीय दर्शन धर्मों की जननी है । विश्वास नहीं हो तू विवेकानंद की अभिव्यक्ति को देख लीजिए यहां क्लिक कर  क्लिक कीजिए  और समझने की कोशिश कीजिए शायद आपकी मदद से भारत विश्व गुरु बन जाए परंतु मुझे मालूम है ऐसा होगा नहीं होगा तो तब जबकि आप दर्शन के मूलभूत तत्व को पहचानेंगे ।
*ॐ राम कृष्ण हरि:*
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

14.1.20

कल्लू का सोशियो-पॉलिटिकल चिंतन : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

हमारे कल्लू भाई दिन भर काम धंधे में मशरूफ रहते हैं . सुबह उठते गर्म पानी रखते अपने लिए और दो कप चाय एक खुदके और एक अपनी पत्नी परमेसरी के लिए  बना देते हैं । 
      तब जाकर परमेसरी बिस्तर से बाहर निकलती वह भी ऐसी अंगड़ाई लेते हुए जैसे सपेरे की टोकरी से वह निकलती है  जिसका नाम आमतौर पर हमारे यहां रात में नहीं लेते ।  कल्लू भाई की सुबह  तो यूं ही होती है  । 
      बड़ी मुश्किल परमेसरी रोते झीकते  कलेवा बनाती कल्लू  कलेउ के तौर पर रोटी और अथाना प्याज के साथ निपटा के निकलते और सीधे थोक सब्जी मंडी में जाकर सब्जियां खरीदते फिर.... गली-गली चलाना पड़ता आलू ले लो प्याज ले लो टमाटर ले लो की टेर के साथ  । 
लगभग तीन चार  बजे तक सब्जी बेच के कल्लू भाई ₹500/ -₹600/ तक कमा लेते हैं । 
       उन्हें पेट भरने के लिए इतना पर्याप्त समझ में आता पर हालात तब मुश्किल में आ जाते जब कभी परमेसरी बीमार हो जाती ।  यूं तो वह अक्सर बीमार रहती बीमारी क्या आराम करने की इच्छा हो तो बीमार होने का ऐलान करना परमेसरी की मूल प्रवृत्ति में शामिल है । 
    और इसी के सहारे परमेसरी को  आराम मिल जाता और कल्लू को ओवरटाइम  ।        
कल्लू एक प्रतीक हैं उस निम्न मध्यवर्ग के जिनको सम्पूर्ण विकास का अर्थ नहीं मालूम । अर्थ तो बहुतेरों को भी नहीं मालूम जिनके कांधे पे आज-कल-परसों की ज़वाबदेही है जैसे नेता, मंत्री, संत्री, हीरो हीरोइन, बालक,  किशोर, युवा,  जेएनयू जाधवपुर आदि के छात्र छात्राएं ।
  किसी ने बताया है कि इस साल कल्लू सोच रिया है कि 15 अगस्त नहीं मनाएगा ! उसने टीवी पे देखा लौंडे जिन्ना वाली आज़ादी मांग रए हैं ? गांधी वाली कल्लू के बाप के ज़माने की है वो समझ गया इस बार नई वाली आज़ादी मिलेगी । अरे बच्चे मांग कर रहे हैं तो मिलेगी है न पाठकों ?  
    कोई रैली को विकास मानता है तो कोई आज़ादी को जिन्ना वाली  भी मानने लगे हैं  कल्लू क्या जाने यह दौर भीषण बेवकूफी भरा दौर बस जलाओ पुलिस को गरियाओ सवाल उठाओ ट्रेन फूंको, 
  कल्लू ऐसा नहीं करता वो आंदोलित नहीं वो आदर्श भारतीय है बच्चे के निजी स्कूल की फीस टाइम पर देता है । डाक्टर को फीस देता है भले कर्ज़ा काढ़ के दे देता है । भले ही लोग उसे बेवकूफ समझें 

कल्लू और उसकी बचत
कल्लू 400 से 500 रुपए बचा पाता है । बचत के नाम पर 2500 भी बचाना चाहता है... वो ताक़ि उसका राशिफल सही हो जाए पर न तो बचत होती न ही राशिफ़ल सही निकलता ! 
कल्लू के कुछ दोस्तों ने छपाक कुछ ने देखी तानाजी भी पर उसने नहीं । उसकी यही आदत फ़िज़ूल खर्ची से बचाती है और कमीने मित्र उसे बेवकूफ समझतें हैं । 
       अब बताइए फ़िल्म देखेगा तो उसका पैसा फ़िल्म दिखाने वाले थियेटर मालिक से लेकर प्रोड्यूसर यूनिट में बंट जाएगा । उससे छपाक वाली लक्ष्मी जैसी बेचारियों को क्या लाभ होगा ? कोई चैरिटी थोड़े न कर देगी फिलम कम्पनी बताओ भला ? 
हालांकि कल्लू ने ये सोचके फ़िल्म न देखी हो ऐसा नहीं उसे तो फिल्मी के अर्थशास्त्र अल्फा-बेट भी नहीं मालूम । हमने तो यूं ही लिख दिया ताकि आपको समझ आ जाये 😊 ?
कुल मिलाकर कल्लू की बचत करने की कोशिश की तारीफ करने की कोशिश कर रहा हूँ हमारे मोदी जी बोले थे न मेडिसन-स्कैवर पर हम पर्सनल सैक्टर को विकसित करेंगे ? 
अरे पर्सन अगर बचत करे पाया तो  पूंजी बनेगी, पूंजी बनेगी तो पर्सनल सैक्टर नज़र आएगा पर ये सब भाषण की बातें हैं इन पर अधिक मत सोचो बुद्धू बने रहो कल्लू जैसे । 
और हां आज तो बस इतनी बात जान लो कल्लू फिल्म नहीं देखता है केवल प्रमेसरी और उसका लड़का फ़िल्म देखता है । 

कल्लू का डेमोक्रेसी में योगदान 

           कल्लू मुन्ना चाचा जिसको बोलते उसे वोट दे देता है,उसका एक कारण है ।  हुआ यूँ कि जब से वोट दे रहा है उसका कैंडिडेट हार जाता था । उसे बड़ा दुःख होता , इस दुःख का ज़िक्र उसने मुन्ना चाचा से किया । मुन्ना चाचा ने कहा अबसे हम जिसको कहें उसका ईवी एम बटन दबाना । बस तब से अब तक कल्लू का घोर भरोसा है मुन्नाचाचा पर ।  कल्लू आदर्श निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय है ।  जिसे भाषण सुनाई तो देता है पर समझ में नहीं आता ..हाँ उसे पता है जब भी आंदोलन होते हैं तब उसका टैक्स का कुछ रोकड़ जलता है जैसा मुन्ना चाचा बतातें हैं । पर कैसे और क्यों जलता है कल्लू के लिए विचारणीय नहीं । कुल मिला कर कल्लू मस्त लाइफ जी रहा है । उसका बेटा भी सब्जी का ठेला लगाएगा बस और क्या ? कल्लू के बहाने किसको हमने किसको और कितना निपटाया आप खुद समझो मीज़ान लगालो भई ....!

5.1.20

कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा



हम देखेंगे...!!
अमन ज़वां फिर से होगा, वो वक़्त  कहो कब आयेगा जब
बाज़ीचा-ए-अत्फालों में जब, बम न गिराया जाएगा
कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन, वो दिन जरूर फिर आयेगा .
पेशावर जैसा मंज़र भी , फिर न दोहराया जाएगा
ननकाना जैसा गुरुद्वारों  पर फिर संग न फैंका जाएगा
वादा कर दो तुम हो ज़हीन, शब्दों के जाल न बुनना अब
हाथों में बन्दूक लिए कोई कसाब न आयेगा ..!
आवाम ने जो भी सोचा है,उस पे अंगुली मत अब तू उठा
जब आग लगी हो बस्ती में, तो सिर्फ तू अपना घर न बचा
ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का राज यहाँ जहां मैं भी हूँ और तुम भी हो
ये घर जो तेरा अपना है, हमसाये का तारान यहाँ तू न गा ।
गुस्ताख़ परिंदे आते हैं, खेपें बारूदी ले लेकर -
बेपर्दा होतें हैं जब भी तब- बरसाते
अक़्सर पत्थर ।
न ख़ल्क़ वहां, न स्वर्ग वहां, सब बे अक्ली की बातें हैं-
कोशिश तो कर आगे तो बढ़, हर घर ख़ल्क़ हो जाएगा ।।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल





31.12.19

मुकदमा : पीयूष बाजपेयी की तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणी

पीयूष बाजपेयी
तेंदुए ने बोला थैंक्स जज साहब
आपने मेरे बाप दादा की प्रॉपर्टी को मेरे और मेरी आने वाली पीढ़ी के लिए वापस कराया। जिस मदन महल, नया गांव, ठाकुर ताल की पहाड़ी पर आज से 40 से 50 साल पहले मेरे दादा दादी, काका काकी, नाना नानी रहा करते थे, जज साहब आपने उसी प्रोपर्टी को वापस दिलाया। अभी तक में यहाँ से वहाँ भटक रहा था। मेरा मालिकाना हक आपने वापस दिलाया, इसके लिए जितना भी धन्यवाद दू आपको कम है। आज में अपनी जगह पर घूम रहा हूं, खेल रहा हु, और सुबह मॉर्निग वाक भी कर लेता हूँ। लोग मुझे देखते है दूरबीन से कि मै पहाड़ पे बैठा हूँ। बड़ा अच्छा लगता है जब ये लोग देखते है मुझे। क्योंकि मैंने भी इनको देखा है मेरी जमीन पे घर बनाते हुए। मेरे दादा दादी ने ये जगह इसलिए नही छोड़ी थी कि वो डर गए थे। बल्कि इसलिए यहाँ से गये कि उनको रहने खाने के लिए इन्ही लोगो ने मोहताज कर दिया। आज समझ मे आया कि मुझमे और नजूल आबादी भूमि में रहने वाले परिवार और मै एक जैसे ही है। हम दोनों के लिए जज साहब आपने ही मालिकाना हक दिलाने के आदेश दिए। लेकिन पता नही क्यों ये भू माफिया के जैसे कुछ लोग अभी भी लगे है पीछे कि इस तेंदुए को भगाओ तो यहाँ से, पता नही क्यों इन लोगो का क्या बुरा किया है। मेरे बच्चे भी है साथ में और पत्नी भी है।। पत्नी तो कई हफ़्तों से कह रही है चलो यहाँ से ये लोग जीने नही देंगे हमकों , पर मै बोला कुछ दिन तो बिताओ पहाड़ में, जैसे वो अमिताभ बच्चन कहते है की कुछ दिन तो बिताओ गुजरात में। खेर ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगे। क्योंकि आपने हमारे लिए कोई ऐसा प्रबंध नही किया अपने आदेश में कि हम परिवार के साथ यहाँ रह सके। वैसे जो लोग मुझे जानते है उनको पता है कि 15 से 20 दिन में उनको कोई परेशानी नही होने दी, अच्छे पड़ोसी की तरह ही हम उनके साथ रहे। तो जज साहब एक काम और कर दे ये जमीन हमारी है तो हमारा खसरे में नाम जरूर चढ़ा दिया जाए। वरना कुछ लोग हमारे आस पास बड़े बड़े घर बना लेंगे और ये एसडीएम और तहसीलदार से लेकर नगर निगम वाले नेताओं के कहने पर फिर से पहाड़ को बेच देंगे। आने वाली पीढ़ियों को पता ही नही चलेगा कि कोई तेंदुआ भी यहाँ रहता था। जज साहब आपके एक आदेश ने जीवन बदल दिया है हमारा। कई दशक बाद आया हूं अपने गांव में इसे मेरा गांव मेरा घर ही बना दो।
आपका प्यारा और बेचारा तेंदुआ।

29.12.19

असहमतियाँ यह सिद्ध नहीं करती कि कोई आपका विरोधी ही है

असहमतियाँ यह सिद्ध नहीं करती कि कोई आपका विरोधी ही है
               
जी हां मैं यही सब को समझाता हूं और समझता भी हूं कि अगर कोई मुझसे सहमत है तो वह मेरा विरोधी है ऐसा सोचना गलत है । सामान्यतः ऐसा नहीं हो रहा है.... वैचारिक विपन्नता बौद्धिक दिवालियापन और आत्ममुग्धता का अतिरेक तीन ऐसे मुद्दे हैं जिनकी वजह से मानव संकीर्ण हो जाता है । इन तीनों कारणों से लोग अनुयायी और किसी के भी पिछलग्गू  बन जाते हैं । सबके पिछलग्गू बनने की जरूरत क्या है क्यों हम किसी के भी झंडे के पीछे दौड़ते हैं वास्तव में हमारे पास विचार पुंज की कमी होती है और हम विचार धारा के प्रवाह में कमजोर होने की वजह से दौड़ने लगते हैं । वैचारिक विपन्नता बौद्धिक दिवालियापन आत्ममुग्धता का अतिरेक किसी भी मनुष्य को पथभ्रष्ट करने वाली त्रिवेणी है ।
    जब आप किसी चर्चित लेखक के लेखन में मैं शब्द का प्रयोग देखें तो समझ जाइए कि वह आत्ममुग्ध है आत्ममुग्धता के अतिरेक में संलिप्त है और यह संलिप्तता अधोगामी रास्ते की ओर ले जाती है । क्योंकि जैसे ही आप अपने लेखन और चिंतन में स्वयं को प्रतिष्ठित करने की जुगत भुलाएंगे तो तुरंत एक्सपोज हो जाते हैं । लघु चिंतन की परिणीति स्वरूप जब बड़े-बड़े लेख लिखे जाते हैं तो कुछ लोग उसमें अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाते हैं और जो मौजूद नहीं होता वह लोग कल्याण का भाव । वैचारिक विद्रूप चाहे आत्ममुग्धता से प्रारंभ होती है और मनुष्य को अधोपतन की ओर ले जाती है.... !
    एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को यह कन्वेंस कराने की कोशिश करता है कि उसका मार्ग श्रेष्ठ है...! ऐसा लगता है वह सेल्फ एडवोकेसी के सारे हथकंडे अपना रहा है । यह जरूरी नहीं है कि मैं गांधीजी से शत-प्रतिशत सहमत रहूं यह भी जरूरी नहीं है कि नेशनल मंडेला के प्रति मेरी अंधभक्ति हो तो यह भी जरूरी नहीं है कि लियो टॉलस्टॉय को हूबहू स्वीकार लिया जाए रजनीश यानी आज का ओशो कैसे स्वीकार्य होगा स्वीकार्य तो जग्गी भी नहीं होंगे । जब कोई कार्ल मार्क्स को अपने अंदाज में कोई पोट्रेट करता है .... तो जरूरी नहीं कि आप सभी सहमत हो जाएं !
     क्योंकि देश काल परिस्थिति के अनुसार ही कोई व्यक्ति अनुकूल होता है अतः कालांतर में अस्वीकृति भी संभव है असहमति भी संभव है... इसका यह मतलब नहीं की कार्ल मार्क्स को सिरे से खारिज कर दिया जाए टॉलस्टॉय भी सिरे से खारिज करने योग्य नहीं है नाही महात्मा जी परंतु सदियों से एक व्यवस्था रही है जो हमने स्वयं स्वीकार्य की है कि अगर हम बहुसंख्यक समर्थकों के विरुद्ध जाते हैं तो लोग हमें दुश्मन समझने लगते हैं अब देखिए ना आयातित विचारधारा में बह रहे लोगों ने कितने हथकंडे नहीं अपना लिए पर क्या संभव है कि पूरा विश्व साम्य में में शामिल रहे या मूर्ति पूजा का विरोध मूर्ति पूजक को क्षति पहुंचा कर या मूर्ति को तोड़कर किया जाए आपका अधिकार केवल असहमति तक हो सकता है मूर्ति तोड़कर आप ना तो उसकी आस्था को खत्म कर सकते और ना ही अमूर्त ईस्ट को स्थापित ही कर सकते हैं । दुश्मन यही करता है लेकिन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में असहमति को दुश्मनी का पर्याय नहीं माना गया है यहां तक कि अगर हम हजारों साल पुराना सोशल सिस्टम ध्यान से देखें तो हमें लगता है कि हर काल में असहमतियों को अभिव्यक्त किया  गया । परंतु अभिव्यक्ति करने वाले को शत्रु नहीं माना ऐसे हजारों उदाहरण है परंतु समकालीन परिस्थितियों में अधोपतित होती मानसिकता के कारण असहमति को गंभीरता से लिया जा रहा है और असहमति की अभिव्यक्ति करने वाले को शत्रु की संज्ञा दी जा रही है ऐसा नहीं है हमारी आपकी वैचारिक असहमति हमारी शत्रुता की वजह नहीं हो सकती.... फिर हम शत्रुता को मूर्त स्वरूप क्यों देते फिर रहे हैं ?
    इस प्रश्न की जब पतासाज़ी की तो पता चला- " मनुष्य संकीर्णता का शिकार है क्योंकि वह अत्यधिक आत्ममुग्ध है...! भयभीत भी है कि कहीं उसकी पहचान ना खो जाए....!
    और यह सब होता है  वैचारिक विपन्नता के कारण जिसका सीधा रिश्ता है अध्ययन और चिंतन में पारस्परिक सिंक्रोनाइजेशन का अभाव...!
     यह बहुत रहस्यवादी बात नहीं है यह मानसिक स्थिति है अगर स्वयं को पतन से बचाना है तो असहमति को एक तथ्य के रूप में स्वीकार थे चाहिए अहंकार के भाव को नर्मदा की तेज धारा में प्रवाहित कर आइए । असहमति यों को फेस करने की क्षमता को विकसित करना ही होगा ।
        आयातित विचारधारा में वर्ग और वर्ग संघर्ष दो महत्वपूर्ण तथ्य उभर कर आते हैं जो वर्तमान में नैसर्गिक नहीं है वर्तमान में वर्ग निर्मित किए जा रहे हैं ताकि वर्ग संघर्ष कराया जा सके । वर्ग संघर्ष होते ही आप नेतृत्व के शीर्ष पर होंगे । जिसके लिए आपको हल्के और संकीर्ण विचारधारा दे अनुयायियों की जरूरत होगी जैसा हाल में नजर आता है अब जबकि जाति वर्ग संप्रदाय यहां तक कि धर्म भी गौड़ हो चुके हैं तब लोग अपने हित के लिए इतिहास को पुनर्जीवित करते हैं और किसी को विक्टिम बताकर किसी दूसरे से उलझा देते हैं जिसका किसी से कोई लेना देना नहीं । आए दिन हम ब्राह्मणों के खिलाफ वक्तव्य देते हैं एक विचारक ने को भीड़ को इतना उकसाया है कि वह मनुस्मृति की प्रतियां खरीदते हैं और जला देते हैं मनुस्मृति मुद्रक को इससे बहुत लाभ होता है लेकिन देश को देश को वर्ग संघर्ष हासिल होता है परंतु उस कथित विद्वान को नेतृत्व चमकाने का मौका मिल जाता है । यह एक ऐसा उदाहरण है जोकि सर्वदा अशोभनीय और चिंताजनक है । अगर आप ऐसा करेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया होगी बहुत दिनों तक इग्नोर नहीं किया जा सकता आखिर दूसरा पक्ष भी बावजूद इसके कि वह संवैधानिक व्यवस्था का अनुयाई है अपने ऊपर लगे आरोप और अनाधिकृत अपमानजनक उल्लेख के खिलाफ कभी ना कभी तो संघर्ष के लिए उतारू होगा । यहां बौद्धिक होने का दावा करने वाले लोगों को चाहिए कि वे कैसे भी हो सामाजिक समरसता को ध्यान में रखें और वर्तमान परिस्थितियों को जितनी सरल है उससे भी सरल सहज और सर्वप्रिय बनाएं परंतु ऐसा नहीं होगा क्योंकि वर्गीकरण कर वर्ग बना देना और युद्ध कराना वैमनस्यता पैदा करना सामान्य जीवन क्रम में शामिल हो गया है । सतर्क रहें वे लोग जो किसी के अंधानुकरण में पागल हुए जा रहे हैं साफ तौर पर बताना जरूरी है कि वे पतन की ओर जा रहे हैं । जीवन का उद्देश्य यह नहीं है कि आप अपनी बात मनवाने के लिए देश को समाज को विश्व को होली में दहन करने की कोशिश करें एक कोशिश की थी मोहम्मद अली जिन्ना ने असहमत हूं कि वे कायदे आजम कहलाए यह खिताब महात्मा ने दिया था इसका अर्थ यह नहीं कि मैं महात्मा को प्रेम नहीं करता महात्मा मेरे लिए उतने ही पूज्य हैं बावजूद इसके कि मैं उनके कुछ प्रयोगों को असफल मानता हूं तो कुछ प्रयोगों को मैं श्रेष्ठ कहता हूं जो महात्मा के हर प्रयोग को श्रेष्ठ मानते हैं वह मुझे अपना दुश्मन समझेंगे लेकिन ऐसा नहीं है अहिंसा का सर्वोत्तम पाठ उनसे ही सीखा है तो जाति धर्म और आर्थिक विषमता के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन करने की कोशिश को रोकने का आधार भी महात्मा गांधी के चिंतन ने मुझे दिया है । गांधीजी कुटीर उद्योगों को श्रेष्ठ मानते थे ओशो ने गांधी जी के इस विचार पर असहमति व्यक्त की तो अब आप तय कर लीजिए कि क्या गांधीजी के विरोध में थे ओशो ऐसा नहीं है जो जब अंकुर होता है वह तब स्थापित करने योग्य होता है ओशो ने यही किया उन्होंने गांधीजी को खारिज नहीं किया परिस्थिति बदलते ही कुछ परिवर्तन आने चाहिए और आए भी भारत ने ओशो के सुविचार को स्वीकारा । यानी हमें कुल मिलाकर मतों विचारों विचारधाराओं धर्मों संस्कारों का यथारूप सम्मान करना चाहिए और उसके अनुपालन को के खिलाफ वर्गीकरण नहीं करना चाहिए वर्गीकरण से वर्ग पैदा होते हैं और वर्ग संघर्ष का कारण बनते हैं क्योंकि बौद्धिक रूप से सब सक्षम है ऐसा संभव कहां ? अस्तु अपना विचार लेख यहीं समाप्त करने की अनुमति दीजिए मुझे मालूम है इतना बड़ा लेख बहुत कम लोग पढ़ेंगे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि लिखा उनके लिए गया है जो इसे विस्तारित कर सकते हैं ।
सर्वे जना सुखिनो भवंतु
 ॐ राम कृष्ण हरी

25.12.19

पुराने किले का जालिम सिंह : आलोक पुराणिक

इस पोस्ट के लेखक व्यंगकार आलोक पौराणिक जी हैं । जिनसे पूछे बिना हमने अपने ब्लॉग पर इसे छाप लिया... जिसे मैटर लिफ्टिंग कहतें है ... आभार आलोक जी ☺️☺️☺️☺️ 

टीवी चैनल पर खबर थी-पवन जल्लाद आनेवाला है तिहाड़ जेल में फांसी के लिए।
टीवी के एक वरिष्ठ मित्र ने आपत्ति व्यक्त की है-बताइये जल्लाद का नाम कुछ ऐसा होना चाहिए जोरावर सिंह जल्लाद आनेवाला है या जुझार सिंह, प्रचंड सिंह जल्लाद आनेवाला है।
जल्लाद का नाम पवन प्रदीप जैसा हो तो टीवी न्यूज ना बनती।
न्यूज दो तरह की होती है, एक होती है न्यूज और दूसरी होती है टीवी न्यूज।
टीवी न्यूज ड्रामा मांगती है, अनुप्रास अलंकार मांगती है। जुझार सिंह जल्दी पहुंचकर जल्दी देगा फांसी-इस शीर्षक में कुछ अनुप्रास अलंकार बनता है। ड्रामा ना हो तो टीवी न्यूज ना बनती।
कुछ टीवी चैनलवाले कुछ जल्लादों को पकड़ लाये हैं-जो रस्सी से कुछ कारगुजारी करते दिख रहे हैं। टीवी रिपोर्टर बता रहा है कि ऐसे बनती है रस्सी, जो फांसी के काम में आयेगी।
जब कई टीवी चैनल कई जल्लादों को फांसी स्टार बना चुके थे, तो बाकी चैनलों को होश आया कि जल्लाद तो सारे ही पहले ही पकड़े जा चुके हैं  चैनलों द्वारा। मैंने निहायत बेवकूफाना सुझाव दिया-तो एक काम करो, नये बच्चों को पकड़ लो और बता दो ये प्रशिक्षु जल्लाद हैं, इंटर्न जल्लाद है, भविष्य के जल्लाद हैं।

एक मासूम रिपोर्टर ने सवाल  पूछ लिया-ये बच्चे बड़े होकर जल्लाद ना बने, तो हम झूठे ना बनेंगे।

सब हंसने लगे। झूठे दिखेंगे, झूठे दिखेंगे-इस  टाइप की चिंताएं अगर टीवी पत्रकार करने लगें, तो फिर हो गया काम। फिर तो किसी भी काम ना रहेंगे टीवी  पत्रकार। पवन जल्लाद का नाम बदलकर टीवी चैनल कर सकते हैं-जुझार सिंह जल्लाद या प्रचंड प्रताप जल्लाद, टीवी न्यूज की पहली जरुरत यह है कि उसे टीवी के हिसाब से फिट होना चाहिए। टीवी न्यूज में भले ही न्यूज बचे या ना बचे, टीवी का ड्रामा जरुरी बचना  चाहिए।

जालिम सिंह जल्लाद कैसा नाम रहेगा-इसमें अनुप्रास अलंकार भी है-एक नया रिपोर्टर पूछ रहा है।

टीवी चैनल के चीफ ने घोषित किया है-इस जालिम सिंह वाले रिपोर्टर में टीवी की समझ है। प्रदीप जल्लाद को जो जालिम सिंह जल्लाद बना दे, वही टीवी जानता है। न्यूज जानना टीवी न्यूज की शर्त नहीं है।

नाग से कटवाकर भी मारा जा सकता है किसी मुजरिम को-इस विषय पर टीवी डिबेट चल रही है किसी टीवी चैनल पर। फांसी संवेदनशील विषय है, इसके कुछ नियम कायदे हैं। नाग या नागिन से कटवा कर मारा जा सकता है या नहीं, यह विषय संसद, अदालत में विमर्श का है। पर नहीं, इस पर नाग विशेषज्ञ, एक तांत्रिक और एक हास्य कवि विमर्श कर रहे हैं। हास्य कवि अब कई गंभीर विमर्शों में रखे जाते हैं, लाइट टच बना रहता है। हास्य कवि बता रहा है कि यूं भी कर  सकते हैं-फांसी की सजा पाये बंदे को प्याज के  भाव पूछने भेज सकते हैं। वो भाव  सुनकर ही मर जायेगा। प्याज के भाव संवेदनशील विषय हैं, फांसी की सजा संवेदनशील विषय है। पर टीवी न्यूज पर सब कुछ ड्रामा होता है।

जालिम सिंह जल्लाद आ रहा है-इतने भर से ड्रामा नहीं बनता है। यूं हेडिंग लगाओ-काली पहाड़ी के पुराने किले से जालिम सिंह  जल्लाद आ रहा है-एक टीवी चैनल चीफ ने सुझाव दिया है।

मैंने कहा कि यूं लगाओ ना –हजार साल  पुराने किले से पांच सौ साल का जल्लाद आ रहा है।

एक नये रिपोर्टर ने कहा-पर हम झूठे नहीं दिखेंगे क्या।

टीवी चैनल चीफ ने अंतिम ज्ञान दिया  है-टीवी न्यूज में हम सच झूठ की इतनी फिक्र करने लगे, फिर तो हम बेरोजगार हो जायेंगे।

23.12.19

गिरीश बिल्लौरे के दोहे

दोहे...!!
ऐसा क्या है लिख दिया, कागज में इस बार
बिन दीवाली रंग गई- हर घर की दीवार ।।
जब जब हमने प्रेम का, परचम लिया उठाए
तब तब तुम थे गांव में, होली रहे जलाए।
मैं क्यों धरम बचाऊँगा, धरम कहां कमजोर
मुझको तो लगता यही कि- चोर मचाते शोर ।।
मरा कबीरा चीख के- जग को था समझाय
पर मूढन की नसल को, बात समझ न आए ।।
सरग नरक सब झूठ है, लावण्या न हूर ।
खाक़-राख कित जात ह्वै, सोच ज़रा लँगूर ।।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

17.12.19

सुभाष घई जी बदलाव चाहते हैं शिक्षा प्रणाली में

Renowned film maker director and producer Subhash Ghai expressed his thought in Jabalpur on the occasion of Osho Mahotsav held in Jabalpur 11 to 13th of December 2019 , Mr Ghai supported the idea of Prashant kouraw who is the owner of Vivekanand wisdom School . Video received from Dr Prashant kouraw

सुभाष घई ने अपने जबलपुर प्रवास के दौरान कहा कि क्रिएटिविटी और स्पिरिचुअलिटी बुनियादी शिक्षा में शामिल की जानी चाहिए . उनका मानना है कि 200 साल पुरानी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है इसे अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ और अगर कुछ हासिल किया जाना है तो पाठ्यक्रम में बेचारे बिंदु सम्मिलित किए जाने चाहिए जो आध्यात्मिकता और रचनात्मकता के नजदीक हैं । यह तो सच है कि इतनी श्री घई ने उन तमाम मुद्दों को शामिल कर लिया है जो हमारी शिक्षा प्रणाली में नकारात्मक रिजल्ट दे रहे हैं । एकांगी सा हो गया है पाठ्यक्रम अभिभावक इसे रिलाइज करते ही होंगे । पर अधिकांश अभिभावक शिक्षाविद विचारक चिंतक यहां तक कि लेखक और कवि भी इसको लेकर बहुत गंभीर नजर नहीं आते । डॉ प्रशांत कौरव के के स्कूल पर चर्चा करते हुए श्री घई पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन की उम्मीद रखते हैं । बेसिक शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिकता और सृजनात्मकता का सम्मिश्रण किया जाना जरूरी है इसे हम सब मानते हैं भारत के नव निर्माण के लिए फिल्मों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए । इस पोस्ट में मैं यह पूछना चाहूंगा सुभाष घई जी से कि वे इस दिशा में अपनी फिल्मों के जरिए क्या दिखा सकते हैं ? अगर यह सिर्फ बातें हैं तो इन बातों का क्या ?
सुभाष घई जी को जाना हमने अमिताभ बच्चन के जरिए अमिताभ जो जंजीर के बाद एक यूथ इंकलाब का आईकॉनिक चेहरा बन गए थे... सुभाष जी ने एंग्री यंग मैन को जन्म दिया पर उसके बाद के निर्माताओं ने 3इडियट माउंटेन मैन आदि आदि कई सारी फिल्में देकर समाज को बहुत से रास्ते बताएं । आज का युवा किसी भी नाम के पीछे नहीं भाग रहा चेतन भगत से संवाद करता है तो इतिहास जानना चाहता है । वह अमीश त्रिपाठी के जरिए भारत की सांस्कृतिक सामाजिक सभ्यता को समझने की कोशिश करता है । वह डेमोक्रेटिक सिस्टम का प्रबल समर्थक इस बात से शायद श्री घई साहब अनभिज्ञ हैं । मध्यमवर्ग भारत के परिदृश्य को एकदम बदल दिया है । विदेशों में जाकर भारत के लिए फॉरेन करेंसी भेजने वाला एक बड़ा तबका मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । भारत का 70% मध्यमवर्ग आध्यात्मिक एवं सृजनात्मक नहीं है ऐसा हो ही नहीं सकता यह मेरे अपने विचार हैं सुभाष जी ने जो देखा होगा जो सुना होगा और जो समझा होगा उससे अलग सोच रहा हूं । गौरव की बात है कि वे जबलपुर आए ओशो महोत्सव में चार चांद लगाए और शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की बात की बधाई देना चाहूंगा इस आह्वान के साथ कि वे भी अपनी फिल्मों में तब्दीलियां जाए शायद यह बात उन तक पहुंच पाती है पता नहीं परंतु मैं कुछ ऐसी शख्सियत को यह तय करना चाहता हूं जिन्होंने इनसे संपर्क किया है या अभी इनके संपर्क में हैं


16.12.19

इश्क और जंग में सब कुछ जायज कैसे...?



एक दौर था हां वही जब युद्ध करते थे राजा अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए युद्ध जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था । युद्ध के बिना विस्तार की कल्पना मुश्किल थी ।
     रामायण और महाभारत के बाद शायद ही कोई ऐसी स्थिति बनी हो जबकि युद्ध के नियमों का पालन किया गया । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । डेमोक्रेटिक सिस्टम में युद्ध का स्वरूप बदल रहा है तो बदली हुई परिस्थिति में इश्क भी परिवर्तित हो ही गया है स्थाई तो दोनों नहीं हैं आजकल...
   हालिया दौर में लोगों के मस्तिष्क से विचारशीलता गुमशुदा हो गई है । और उसके पीछे लोगों के अपने तर्क हैं बदलते दौर में क्या कुछ होने जा रहा है वैसे मुझे घबराहट नहीं है आप भी ना घबराए क्योंकि वैचारिक व्यवस्था जब अत्यधिक कमजोर हो जाती है बेशक महान किलों की तरह गिर जाती हैं ।
     क्रांति सर्वकालिक साधन अब शेष नहीं है । खास कर ऐसी क्रांति जो जनता की संपत्ति की राख से बदलाव चाहती हो या खून की बूंदों से । कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो कम से कम हिंसक तरीके न अपनाएं । राष्ट्र की संपत्ति इन थे उनके मेरे तुम्हारे यानी हम सबके रक्त से पसीने से बनी हुई है । वांछित बदलाव के लिए आगजनी पत्थरबाजी का तरीका एकदम आदिम सभ्यता का पता देता है । बौद्धिक विलासिता के कारण समाज मैं युवा बेहद विचलन की स्थिति में है..... इसके पीछे आयोजन प्रयोजन सब कुछ हो सकता है बिना इस बात की परवाह किए हम चाहते हैं कि- डेमोक्रेसी आपको अपनी बात कहने का हक देती है यह हक अगर कोई छीने तो बेशक हम सब व्यवस्था के विरुद्ध हो जाएंगे पर अभी वह वक्त नहीं आया । हम चाहते हैं कि ना बसें चलाई जाएं किसी के माथे से खून बहाया जाए और तो और किसी से गुमराह होने की जरूरत नहीं है अपनी बात नहीं बेफिक्री से कहें बेखौफ कहीं । युद्ध के अपने नियम होते हैं मोहब्बत के भी अपने नियम होते हैं इन नियमों का बकायदा ध्यान रखें आप जानवर नहीं और आपको इस कहावत को झूठा साबित करना है । राष्ट्रीय संपदा के साथ इस तरह का बर्ताव करना कहां तक जायज है चाहे वह कोई करें राष्ट्र द्रोही है

14.12.19

ओशो महोत्सव के बाद ....!


जबलपुर वाले ओशो की सामाजिकता पर सवाल खड़ा हुआ . मेरी नज़र  में प्रथम दृष्टया ही  प्रश्न गैरज़रूरी  सा है . ऐसा मुझे इस लिए लगा क्योंकि लोग अधिकतर ऐसे सवाल तब करतें हैं जब उनके द्वारा किसी का समग्र मूल्यांकन किया जा रहा हो तब सामान्यतया लोग ये जानना चाहतें हैं की फलां  व्यक्ति ने कितने कुँए खुदवाए,  कितनी राशि दान में दी, कितनों को आवास दिया कितने मंदिर बनवाए . मुझे लगता है  कि सवालकर्ता ने उनको   व्यापारी अफसर नेता जनता समझ के ये सवाल कर  रहे हैं . जो जनता  के बीच जाकर  और किसी आम आदमी की / किसी ख़ास  की ज़रूरत पूरी  करे ?
मेरे बांये बनारसी मित्र स्वामी रवि प्रकाश,
माँ गीता जी तरंग ऑडिटोरियम परिसर
जबलपुर के आचार्य रजनीश ऐसे धनाड्य तो न थे... जैसे कि वे अमेरिका जाकर वे धनाड्य हुए । जबलपुर के सन्दर्भ में ओरेगान  प्रासंगिक नहीं है. पूना भी नहीं है प्रासंगिक.. प्रासंगिकता प्रोफेसर चंद्रमोहन जैन या आचार्य रजनीश है जबलपुर और मध्यप्रदेश के संदर्भ में
अब जबकि वे सिर्फ ओशो है और अब जबकि वे ओशो हैं ।! सर्वकालिक प्रासंगिक है . 30 वर्ष पहले जब मैं स्वतंत्र पत्रकारिता करता था तब एक बार हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा जी का इंटरव्यू लिया था उन्होंने रजनीश को भारत का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति करार दिया था... 30 वर्ष बाद उनका मानना था कि ओशो इस विश्व का सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व है । ओशो के बारे में सामाजिक सीमाओं से बंधे लोग कुछ भी अर्थ लगाएं कोई फर्क नहीं पड़ता ओशो सहमति असहमति के बीच मेरे लिए महत्वपूर्ण है । इस बीच एक रहस्योद्घाटन करना जरूरी है सवाल उठते हैं ओशो सामाजिक थे और उत्तर आते हैं नहीं ओशो सामाजिक नहीं थे संत सामाजिक हो भी नहीं सकता जो बदलाव लाता है वह सामाजिक नहीं होता सामाजिकता से ऊपर होता है... वे सामाजिक ना थे तभी तो समकालीनों ने उनको टार्च बेचने वाले की उपाधि दे देख रखी थी ।
इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा...?
सामाजिक वो ही होता है जिससे सत्ता को भय हो जावे .. टार्च बेचने वाले की उपाधि सरकारी किताबों के ज़रिये खोपड़ियों  में ठूंस दी गई थी . स्पष्ट है कि समकालीन व्यवस्था कितनी भयभीत थी.  तब खुलेआम ओशो विसंगतियों पर प्रहार करते नजर आते थे ।
     जबलपुर के परिपेक्ष्य में कहूं तो प्रोफ़ेसर से आचार्य रजनीश में बदल जाने की प्रक्रिया ही सामाजिक तो नहीं हो सकती हां सामाजिक सरोकारी प्रक्रिया अवश्य हो सकती है ।
अब आप  विवेकानंद में सामाजिक सरोकार तलाशें तो अजीब बात नहीं लगेगी क्या ।
    कुछ उत्साही किस्म के लोग  . दूध, तेल, नापने के लिए इंचीटेप का प्रयोग करने की कोशिश करतें हैं अलग थलग दिखने के लिए जो  कभी हो ही नहीं सकता .  दूध और तेल नापने के लिए दूसरे यंत्र अब आप तोते से उम्मीद करो कि घर की समस्याओं में वह अपने विचार व्यक्त करें संभव है क्या चलिए तोते से ही उम्मीद करो कि वह आपके लिए खाना परोस दे तो क्या यह भी संभव है कदापि नहीं । अद्भुत लोग अद्भुत होते हैं उन्हें अद्भुत ही रहने दिया जाए उनसे सीखा जाए क्योंकि वह आपको देख रहे होते हैं समाज को देख रहे होते हैं प्रक्रियाओं को घटित होते देख रहे होते हैं और फिर अपनी विशेषज्ञ बुद्धि से सजेस्ट करते हैं कि क्या होना चाहिए और क्या कर रहे हो । ओशो गांधी से असहमत थे चरखे से विकास का मार्ग उन्हें समझ में नहीं आया ऐसा लोग मानते हैं । ओशो का मत था उनकी सोच थी कहीं ना कहीं यह सही भी है विकास का चरखा स्वयं अब सुपर सोनिक स्पीड में बढ़ रहा है अब दूसरा गाल दिखाने पर लोग गर्दन तक हाथ बढ़ा देते हैं । देश काल परिस्थिति के आधार पर परिवर्तन आवश्यक हैं आज ही ओशो सन्यासियों से चर्चा हुई क्योंकि मैं ओशो से संवाद करता रहता हूं आपको अजीब लग रहा होगा पर यही सही है मैंने उनसे कहा- ओशो को समझने के लिए उनसे संवाद करो और समझाने के लिए नए तरीके अपना लो ।
बनारस से आए हुए सन्यासियों मैं मुझे असहमति नजर नहीं आई वे शत प्रतिशत सहमत थे । हमने पुष्टि भी की कि प्रक्रियाएं और परंपराएं कभी भी ना तो धर्म हो सकती ना ही अध्यात्म अतः देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित हो जाओ यह बहुत बेहतरीन मौका है कि आप ओशो महोत्सव के बहाने एक बड़ा अवसर प्राप्त कर चुके हो ओशो ने कुछ सोच समझकर ही कुछ कहा था कुछ नहीं बहुत कुछ कहा था आज के समय को जिसकी जरूरत है । दिन प्रतिदिन सूचनाओं के आधार पर विचारधाराएं बनती बिगड़ती रहती हैं पॉलिटिकली सिचुएशन पर सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित हो रही है जबकि पहले ऐसा ना हुआ करता था समाज पॉलिटिक्स को बदलता था चिंतन पॉलिटिक्स पर गहरा प्रभाव छोड़ता था लोग सच्चाई और साफगोई पर भरोसा रखते थे परंतु ग्लोबलाइजेशन पॉलीटिकल अस्थिरता के दौर में सब कुछ बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है तब जरूरी है कि हम अपनी सोच को मिशन मोड में ले आए और ओशो जैसे विद्वानों को समीचीन बना दें । अब आप ही बताइए मेरे सुझाव पर वे असहमत क्यों होते जबलपुर के लिए ओशो महोत्सव 2019 एक नया प्रयोग ना होकर बहुप्रतीक्षित अवसर था । विश्व भर में विस्तारित ओशो के अनुयायियों ने इसे महत्वपूर्ण माना तो जबलपुर में इस आयोजन की मेजबानी करते हुए स्वयं को गौरवान्वित किया । हां सरकार का सपोर्ट रहा है रहना भी चाहिए अध्यात्मिक विभाग ने अपनी ड्यूटी बखूबी निभाई है अधिकारियों कर्मचारियों ने जैसा कि मुझे सन्यासियों से पता चला पूरे मनोयोग से अपने दायित्वों का निर्वाह किया ओशो सन्यासियों को और ओशो के प्रशंसकों को अच्छा भी लगा । क्या यह पर्याप्त नहीं है एक सफल आयोजन के लिए । चलिए अब मूल मुद्दे पर वापस लौटते हैं... तो यह जान लीजिए के हम सांसारिक लोग बेचारे होते हैं सच मानिए फिर से कहता हूं कि सांसारिक लोग बेचारे होते हैं विद्वानों के प्रयोगों और उनकी अंतर-ध्वनि  को समझ नहीं  पाते हैं बेचारे .
      सम्भोग से समाधि तक पर पाबंदी लगाने की मांग करते सुने जाते थे तब लोग. मैं भी बच्चा था न सम्भोग का अर्थ समझता न समाधि का . घरेलू कपडे सुखाने वाले  तार / रस्सी आदि पर  चिड़िया चिडा के इस मिलन को मेरा बाल मन चिडे द्वारा चिड़िया के प्रति क्रूरता समझता था. और समाधियाँ तो स्थूल रूप में देखीं हीं थी जहां माथा नवाते थे हम लोग . पर अब समझ आ रहा है उसे क्या कहना चाहते थे उन्होंने जो भी कहा उसका पुनर्लेखन आवश्यक और उचित नहीं । इस आलेख में मुझे यह साबित करना है कि समकालीन संतों में 2 लोगों से मैं अत्यधिक प्रभावित हूं एक तो है सद्गुरु दूसरे हैं ओशो ओशो जो शरीर सहित मौजूद नहीं है सद्गुरु जो शरीर सहित मौजूद हैं । यह कभी पुरस्कार के पीछे नहीं दौड़े इन्होंने मलाला से हिस्सा भी नहीं की यह दोनों अलग-अलग किस्म के व्यक्ति हैं आप इन्हें अपनी आस्था वश भगवान कह सकते हैं . .. पर मैं है जीवन का गुरु मानता हूं ध्यान योग इनकी मौलिक अवधारणा है । मेरे गुरु स्वामी शुद्धानंद नाथ का स्पर्श मेरे लिए अति महत्वपूर्ण है उन्होंने प्रपंच अध्यात्म योग की अवधारणा को संपुष्टि दी है । अर्थात जीवन क्रम में अध्यात्म के महत्व को किस तरह से समाविष्ट करना है यह से सीखा है । तीनों संतो को एक साथ देखूं तो तीनों में एक समानता है वह है जीवन के सरोकारों को समझाने की अद्भुत शक्ति । स्वामी शुद्धानंद नाथ नागपुर से संबंधित थे । वर्तमान में वे सिर्फ अभौतिक रूप से मानस में मौजूद हैं । महापुरुष के रहने ना रहने का कोई खास फर्क हमारे जीवन पर नहीं पड़ता है यदि हम उनके मार्गों को पहचानते हैं । अगर नहीं पहचानते तो जरूर हमें इस बात का फर्क पड़ेगा की वास्तव में भी होते तो मुझ में बदलाव आता । ईशा फाउंडेशन स्थापना करने वाले सद्गुरु निरंतर सक्रिय हैं बदलाव एवं घटनाओं के सहारे चरित्र निर्माण करने तो स्वामी शुद्धानंद नाथ परिवारों के चरित्र के निर्माण एवं आध्यात्मिक चरित्रों के निर्माण की प्रक्रिया को समझाते हैं । वही ओशो वाह सामाजिक चैतन्य को परिष्कृत करने की कोशिश करते हैं । यहां तीनों महापुरुषों को मैंने वर्तमान में महसूस किया है ऐसा लगता है कि वे अपनी संपूर्ण काया के साथ मौजूद है मेरे साथ है यही महसूस करके हम स्प्रिचुअल यानी आध्यात्मिक यात्राएं कर सकते हैं ।
यहां केवल 3 महापुरुषों का जिक्र किया जा रहा है । इसका अर्थ यह नहीं है की कुल 3 ही महापुरुष इस धरती पर मौजूद हैं । महापुरुषों की कमी इस भूमि पर तो ना होगी कभी-कभी आप महसूस करेंगे कि अब विकल्प नहीं है कुछ कौन सिखाएगा कौन समझाएगा विप्लवी दौर है... चिंता मत कीजिए महापुरुष मरते नहीं जीवित रहते हैं आप भी हो सकते हैं यह भी हो सकते हैं वह भी हो सकते हैं यानी कोई भी प्रगट हो सकता है महापुरुष के रूप में कहीं भी कभी भी । जीवन के मूल्यों को समझने के लिए महापुरुषों को अपमानित ना करो क्योंकि यह वह सदाव्रत खजाना दे जाते हैं जो कभी खाली ही नहीं होता । ऊंचे ओहदे होते वालों से आप असहमत हों तो आप क्या कर सकेंगे कुछ नहीं ना !
सामाजिक व्यक्तियों से आप असहमत हो या ना हो उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा न ही वह आपकी परवाह करेंगे । पर जो आपके लिए सबसे ज्यादा चिंतित है वह महावीर है बुद्ध है याज्ञवल्क्य है शंकराचार्य है स्वामी शुद्धानंद नाथ है सद्गुरु है या ओशो है.... उससे रिश्ता बनाए रखो जिसे तुम बहुत अधिक पसंद करते हो । समाधान मिल जाएंगे । ओशो के ढेरों वीडियो मौजूद है किताबें है तकनीकी का लाभ उठाइए सद्गुरु को सुनिए, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा ना तो चलिए उठाइए पुस्तकें किसी भी महापुरुष को समझने के लिए उसके विचारों तक पहुंचने के लिए पढ़ लीजिए । विश्व को प्रेम का संदेश देते ये महापुरुष निसंदेह आपको बदल देंगे संवाद तो करिए प्रतिप्रश्न कीजिए उत्तर मिलेगा आपको कहां जाएगा उत्तर इसी ब्रह्मांड में मौजूद है हर सवाल के उत्तर ।
ओशो महोत्सव के बहाने अगर इस आध्यात्मिक चिंतन में कुछ कमी रह गई हो तो संवाद आप भी कर सकते हैं । मैं अपने खास मित्र को इस आलेख के जरिए बता देना चाहता हूं कि जब ईश्वर ने तुम्हें उपेक्षित नहीं रखा तो तुम किसी को उपेक्षित रखने की कोशिश करके कोई बहुत बड़ा कमाल नहीं कर रहे हो । अस्तु शेष फिर कभी अभी तो ओशो महोत्सव की सफलता के लिए इस
पथरीले शहर को बधाई

10.12.19

बलात्कार' जैसा शब्द हमेशा के लिए गायब हो सकता है : शरद कोकास

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*समाज के शब्दकोष से 'बलात्कार'  जैसा शब्द हमेशा के लिए गायब हो सकता है -कुछ व्यवहारिक सुझाव दे रहे हैं शरद कोकास*

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पिछले कुछ दिनों से हैदराबाद की घटना पर सोशल मीडिया में विभिन्न तबके के लोगों के , स्त्री पुरुषों के , बुद्धिजीवियों के विभिन्न तरह के विचार  पढ़ने को मिल रहे हैं । इनमें कुछ आक्रोश से भरे हैं , कुछ भावनात्मक हैं  , कुछ में स्त्रियों के लिए अनेक टिप्स हैं , सुरक्षा और आत्मरक्षा के लिये सुझाव हैं , कानूनी सहायता की बातें हैं , अब तक हो चुकी कार्यवाही की रपट है , तरह तरह के आँकड़े हैं , अरब देशों के कानून की दुहाई है आदि आदि ।

मुझे लगता है ऐसी घटनाएं जब भी घटित होती हैं और उन अनेक घटनाओं में से जो घटनाएं  सुर्खियों में आ जाती हैं उन पर चर्चा शुरू हो जाती है । फिर कुछ समय बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है । ऐसा करते हुए बरस बीत जाते हैं ।  अभी सोलह दिसम्बर की तारीख आनेवाली है । निर्भया को सात साल हो जायेंगे ।

समय ऐसा ही बीतता जायेगा ।  एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी आ जायेगी । हम विभिन्न उपाय करते रहेंगे और उम्मीद करते रहेंगे कि समाज मे अब सकारात्मक परिवर्तन होगा ।

जब भी मैं इस दिशा में सोचता हूँ तो मुझे लगता है क्या हम ऐसा कुछ नहीं कर सकते कि भले ही देर लग जाये लेकिन एक या दो पीढ़ी के बाद स्थायी रूप से ऐसा कुछ परिवर्तन हो ?

कुछ उपाय मेरे मन में आये हैं और मुझे लगता है कि इन समस्याओं और उनके समाधान को लेकर एक पीढ़ी की यदि अच्छी तरह से ब्रेन ट्रेनिंग की जाए तो सम्भव है हम समाज के सामूहिक अवचेतन का परिष्कार कर सके ।

सामान्यतः एक पीढ़ी हम पन्द्रह वर्ष की मानते हैं । यदि हम इस दिशा में अभी से सक्रिय हो जायें तो क्या इस शिक्षा के माध्यम से  पन्द्रह या बीस साल बाद बलात्कार जैसा शब्द समाज के शब्दकोश से गायब हो सकता है ?

इस दिशा में सोचते हुए जो विचार मेरे मन मे आये हैं उन्हें आपके सामने रख रहा हूँ । आपकी इनसे असहमति भी हो सकती है किंतु विचार करने में क्या हर्ज है ।

यह सम्भव हो सकता है अगर हम सिर्फ इतना करें कि...

1.हम अपने बेटों को जन्म से ही *ब्रेन ट्रेनिंग* के माध्यम से यह बताएँ कि उनकी और उनकी बहनों या अन्य लड़कियों की देह में केवल जननांग का अंतर है अन्यथा वे हर बात में बराबर हैं । उन्हें जननांगों के बारे में बचपन से समझायें कि उनका उपयोग क्या है । अन्य प्राणियों की देह और मनुष्य की देह में क्या अंतर है । देह की संरचना बताते हुए बेटों को बतायें कि बेटियों को भी शरीर मे उतना ही कष्ट होता है , उतनी ही बीमारियां होती हैं । जबरन छूने से , च्यूंटी काटने से , ज़ोर से पकड़ने से, मारने से शरीर मे उतना ही दर्द होता है । चोट लगने से वैसा ही घाव होता है। अनुभूति के स्तर पर मस्तिष्क की भूमिका के बारे में उन्हें बतायें ।

2.शरीर में हार्मोन्स की भूमिका  हम बच्चों को विस्तार से नहीं समझा सकते किंतु छुपाए जाने वाले विषयों पर 'सहज होकर' तो बात कर सकते हैं ? हम उन्हें जननांगों के बारे में बताते हुए यह तो बता सकते हैं कि सजीव होने के कारण उनमें कुछ प्राकृतिक क्रियाएं एक सी घटित होती हैं यथा मलमूत्र विसर्जन , पोषण , चयापचय, प्रजनन , जन्म और मृत्यु ।

3.यह भी बतायें कि बेटों की तरह बेटियों का भी हर बात में बराबरी का हक़ है पढ़ने लिखने में, खाने पीने में, खेलने कूदने में , घर मे लाई वस्तुओं का उपभोग करने में , प्यार और दुलार पाने में भी । देह और मस्तिष्क के स्तर पर दोनों बराबर है । बच्चों के हर सवाल का जवाब दें ।

*4.उनसे झूठ नहीं बोलें कि उन्हें अस्पताल से लेकर आये हैं या कोई परी देकर गई है। उन्हें बतायें कि वे मां के पेट से आये  हैं । मां के पेट में कैसे आये यह भी बतायें और किस तरह बाहर आये यह भी । इसमें शर्म न करें यह कोई गंदी बात नहीं है । केवल इतनी सी बात समझाने से उनका जीवन बदल सकता है।*

5.जितने काम लड़कियों को सिखाते हैं उतने ही काम लड़कों को सिखाएं मसलन खाना पकाना , बर्तन कपड़े धोना, झाड़ू पोछा करना, घर साफ करना, कपड़े सीना, गाड़ी चलाना , इत्यादि ।

*6.और सबसे महत्वपूर्ण बात कि समझ आते ही उन्हें यौनिकता के बारे में बतायें। उन्हें बतायें कि स्त्री को मासिक धर्म क्यों होता है । स्वप्नदोष क्या होता है, हस्तमैथुन क्या होता है। यह प्राकृतिक आनन्द यदि उन्हें मिलता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है । लेकिन जबरन बलात्कार में बुराई है ।उन्हें प्रजनन शास्त्र के बारे में बतायें। उन्हें बतायें कि यद्यपि सेक्स मनुष्य के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है लेकिन जबरिया सेक्स बलात्कार कहलाता है चाहे वह पत्नी के साथ क्यों न हो । उन्हें बतायें कि यौन प्रताड़ना किसे कहते हैं । उन्हें बतायें कि यौन सुख की अनुभूति स्त्री पुरुष में अलग अलग होती है और शरीर का मन से क्या सम्बन्ध होता है । यह भी कि अपराध किसे कहते हैं।*

(माफ कीजियेगा अगर आप इन बातों में गंदगी देख रहे हों तो । यह बातें गंदी नहीं है । यदि उचित माध्यम से उन्हें यह बातें नहीं बताई जाएंगी तो बच्चे पोर्न फिल्म और साहित्य का सहारा लेंगे और 'स्वप्न दोष का इलाज' ' लिंग के टेढ़ेपन का इलाज' ' 'सफेद पानी का इलाज ' जैसे ' गुप्त ज्ञान' को दीवारों पर इश्तेहार के रूप में लिखने वाले आपके बच्चों का शोषण करेंगे । वैसे इनके लिये पुस्तकें भी उपलब्ध हैं । जैसे एकलव्य प्रकाशन भोपाल की 'बिटिया करे सवाल' जिसमे प्रजनन व मासिक धर्म सम्बन्धी जानकारी है।)

*ध्यान रहे यह बातें यौन शिक्षा या सेक्स एजुकेशन से बिल्कुल अलग हैं हम उन्हें मानसिक तौर पर तैयार करते हुए उन्हें स्त्री का सम्मान करना सिखा रहे हैं।*

7.मुझे विश्वास है बेहतर ढंग से जब उनके मां बाप , शिक्षक , प्रशिक्षक आदि द्वारा हीउन्हें यह बातें बताई जाएंगी तो वे अपनी पिछली पीढ़ी से अधिक समझदार होंगे । जब वे अच्छी तरह इन बातों को समझ लें उन्हें यह भी बतायें कि वे उनसे पहले की पीढ़ी के लोगों को यानि अपने पिताओं, चाचाओं, मामाओं, फुफ़ाओं और नाना दादाओं को भी यह बात बतायें क्योंकि 15 साल बाद भी पहले की पीढ़ी तो 30 , 45 या 60 साल की रहेगी । हो सकता है यह नई पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से कहे कि *आपने स्त्री का जितना अपमान कर लिया सो कर लिया अब करेंगे तो आपको सरे आम जुतियाया जाएगा ।*

*इस प्रोग्राम की उस वर्ग में सबसे अधिक ज़रूरत होगी जिसे हम निम्न तबका कहते हैं*

8. हो सकता है आपको यह पंद्रह साल का ब्रेन ट्रेनिंग वाला कार्यक्रम पसंद न आये तो ठीक है । इसे भी जारी रखिये  और चाहें तो इन पन्द्रह सालों में बलात्कारियों को सजा देना हो , लम्बे मुकदमे चलाने हो , मोमबत्तियां जलानी हो , धर्म के नाम पर अपराध को उचित ठहराना हो , फेसबुक से लेकर संसद तक जितनी बहस करनी हो , व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन करना हो , स्त्रियों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देना हो , यानि जो करना हो करते रहें । विरोध भी बदस्तूर जारी रहे क्योंकि अंततः हमारा उद्देश्य एक बेहतर समता मूलक समाज की स्थापना ही है ।

*शरद कोकास*

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