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बिना विवेकानंद जी को समझे विश्व गुरु बनने की कल्पना मूर्खता है

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100 से ज्यादा वर्ष बीत गए , विवेकानंद को समझने में भारतीय समाज और राजनीति दोनों को ही बेहद परिश्रम करना पड़ रहा है मुझे तो लगता है कि अभी हम समझ ही नहीं पाए कि विवेकानंद  किस मार्ग के पथिक रहे और इस मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने भारत सहित विश्व को प्रेरणा दी । अगर ऐसा होता तो विवेकानंद के बताए मार्ग पर हम स्वतंत्रता के पहले से ही चलने लगते और अब तक हम उस शिखर पर होते जिस का आव्हान आज भारत कर रहा है.... विश्व गुरु की धरती पर विश्व गुरु का टैग लगाना बहुत मुश्किल नजर आ रहा है तब 19वीं शताब्दी में स्वामी ने साफ कर दिया था कि कैसा सोचो यह सनातन में साफ तौर पर लिखा है उसके अभ्यास में लिखा है कैसा जिओ इस बारे में स्वामी ने साफ कर दिया था यूरोप की यात्रा से लौटकर जब उन्होंने लोक सेवा का संकल्प लिया और पूरे भारत में एक अलख सी जगा दी थी । भारत में स्वामी के उस सानिध्य को भी अनदेखा किया जिसका परिणाम आप देख रहे हैं । अगर विवेकानंद को समझने की कोशिश अब तक नहीं हुई है तो करना ही होगा बच्चों को इस तरह के पाठ पढ़ाने ही होंगे अब जब यह एलानिया तौर पर कहा जा रहा है कि भारत विश्व गुरु बनने की ओर अग्रस

कल्लू का सोशियो-पॉलिटिकल चिंतन : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

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हमारे कल्लू भाई दिन भर काम धंधे में मशरूफ रहते हैं . सुबह उठते गर्म पानी रखते अपने लिए और दो कप चाय एक खुदके और एक अपनी पत्नी परमेसरी के लिए  बना देते हैं ।        तब जाकर परमेसरी बिस्तर से बाहर निकलती वह भी ऐसी अंगड़ाई लेते हुए जैसे सपेरे की टोकरी से वह निकलती है  जिसका नाम आमतौर पर हमारे यहां रात में नहीं लेते ।  कल्लू भाई की सुबह  तो यूं ही होती है  ।        बड़ी मुश्किल परमेसरी रोते झीकते  कलेवा बनाती कल्लू  कलेउ के तौर पर रोटी और अथाना प्याज के साथ निपटा के निकलते और सीधे थोक सब्जी मंडी में जाकर सब्जियां खरीदते फिर.... गली-गली चलाना पड़ता आलू ले लो प्याज ले लो टमाटर ले लो की टेर के साथ  ।  लगभग तीन चार  बजे तक सब्जी बेच के कल्लू भाई ₹500/ -₹600/ तक कमा लेते हैं ।         उन्हें पेट भरने के लिए इतना पर्याप्त समझ में आता पर हालात तब मुश्किल में आ जाते जब कभी परमेसरी बीमार हो जाती ।  यूं तो वह अक्सर बीमार रहती बीमारी क्या आराम करने की इच्छा हो तो बीमार होने का ऐलान करना परमेसरी की मूल प्रवृत्ति में शामिल है ।      और इसी के सहारे परमेसरी को  आराम मिल जाता और कल्लू को ओव

कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा

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हम देखेंगे...!! अमन ज़वां फिर से होगा, वो वक़्त  कहो कब आयेगा जब बाज़ीचा-ए-अत्फालों में जब, बम न गिराया जाएगा कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन, वो दिन जरूर फिर आयेगा . पेशावर जैसा मंज़र भी , फिर न दोहराया जाएगा ननकाना जैसा गुरुद्वारों  पर फिर संग न फैंका जाएगा वादा कर दो तुम हो ज़हीन, शब्दों के जाल न बुनना अब हाथों में बन्दूक लिए कोई कसाब न आयेगा ..! आवाम ने जो भी सोचा है,उस पे अंगुली मत अब तू उठा जब आग लगी हो बस्ती में, तो सिर्फ तू अपना घर न बचा ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का राज यहाँ जहां मैं भी हूँ और तुम भी हो ये घर जो तेरा अपना है, हमसाये का तारान यहाँ तू न गा । गुस्ताख़ परिंदे आते हैं, खेपें बारूदी ले लेकर - बेपर्दा होतें हैं जब भी तब- बरसाते अक़्सर पत्थर । न ख़ल्क़ वहां, न स्वर्ग वहां, सब बे अक्ली की बातें हैं- कोशिश तो कर आगे तो बढ़, हर घर ख़ल्क़ हो जाएगा ।। गिरीश बिल्लोरे मुकुल

मुकदमा : पीयूष बाजपेयी की तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणी

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पीयूष बाजपेयी तेंदुए ने बोला थैंक्स जज साहब आपने मेरे बाप दादा की प्रॉपर्टी को मेरे और मेरी आने वाली पीढ़ी के लिए वापस कराया। जिस मदन महल, नया गांव, ठाकुर ताल की पहाड़ी पर आज से 40 से 50 साल पहले मेरे दादा दादी, काका काकी, नाना नानी रहा करते थे, जज साहब आपने उसी प्रोपर्टी को वापस दिलाया। अभी तक में यहाँ से वहाँ भटक रहा था। मेरा मालिकाना हक आपने वापस दिलाया, इसके लिए जितना भी धन्यवाद दू आपको कम है। आज में अपनी जगह पर घूम रहा हूं, खेल रहा हु, और सुबह मॉर्निग वाक भी कर लेता हूँ। लोग मुझे देखते है दूरबीन से कि मै पहाड़ पे बैठा हूँ। बड़ा अच्छा लगता है जब ये लोग देखते है मुझे। क्योंकि मैंने भी इनको देखा है मेरी जमीन पे घर बनाते हुए। मेरे दादा दादी ने ये जगह इसलिए नही छोड़ी थी कि वो डर गए थे। बल्कि इसलिए यहाँ से गये कि उनको रहने खाने के लिए इन्ही लोगो ने मोहताज कर दिया। आज समझ मे आया कि मुझमे और नजूल आबादी भूमि में रहने वाले परिवार और मै एक जैसे ही है। हम दोनों के लिए जज साहब आपने ही मालिकाना हक दिलाने के आदेश दिए। लेकिन पता नही क्यों ये भू माफिया के जैसे कुछ लोग अभी भी लगे है पीछे कि इस त

असहमतियाँ यह सिद्ध नहीं करती कि कोई आपका विरोधी ही है

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असहमतियाँ यह सिद्ध नहीं करती कि कोई आपका विरोधी ही है                 जी हां मैं यही सब को समझाता हूं और समझता भी हूं कि अगर कोई मुझसे सहमत है तो वह मेरा विरोधी है ऐसा सोचना गलत है । सामान्यतः ऐसा नहीं हो रहा है.... वैचारिक विपन्नता बौद्धिक दिवालियापन और आत्ममुग्धता का अतिरेक तीन ऐसे मुद्दे हैं जिनकी वजह से मानव संकीर्ण हो जाता है । इन तीनों कारणों से लोग अनुयायी और किसी के भी पिछलग्गू  बन जाते हैं । सबके पिछलग्गू बनने की जरूरत क्या है क्यों हम किसी के भी झंडे के पीछे दौड़ते हैं वास्तव में हमारे पास विचार पुंज की कमी होती है और हम विचार धारा के प्रवाह में कमजोर होने की वजह से दौड़ने लगते हैं । वैचारिक विपन्नता बौद्धिक दिवालियापन आत्ममुग्धता का अतिरेक किसी भी मनुष्य को पथभ्रष्ट करने वाली त्रिवेणी है ।     जब आप किसी चर्चित लेखक के लेखन में मैं शब्द का प्रयोग देखें तो समझ जाइए कि वह आत्ममुग्ध है आत्ममुग्धता के अतिरेक में संलिप्त है और यह संलिप्तता अधोगामी रास्ते की ओर ले जाती है । क्योंकि जैसे ही आप अपने लेखन और चिंतन में स्वयं को प्रतिष्ठित करने की जुगत भुलाएंगे तो तुरंत एक्सपोज ह

पुराने किले का जालिम सिंह : आलोक पुराणिक

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इस पोस्ट के लेखक व्यंगकार आलोक पौराणिक जी हैं । जिनसे पूछे बिना हमने अपने ब्लॉग पर इसे छाप लिया... जिसे मैटर लिफ्टिंग कहतें है ... आभार आलोक जी ☺️☺️☺️☺️  टीवी चैनल पर खबर थी-पवन जल्लाद आनेवाला है तिहाड़ जेल में फांसी के लिए। टीवी के एक वरिष्ठ मित्र ने आपत्ति व्यक्त की है-बताइये जल्लाद का नाम कुछ ऐसा होना चाहिए जोरावर सिंह जल्लाद आनेवाला है या जुझार सिंह, प्रचंड सिंह जल्लाद आनेवाला है। जल्लाद का नाम पवन प्रदीप जैसा हो तो टीवी न्यूज ना बनती। न्यूज दो तरह की होती है, एक होती है न्यूज और दूसरी होती है टीवी न्यूज। टीवी न्यूज ड्रामा मांगती है, अनुप्रास अलंकार मांगती है। जुझार सिंह जल्दी पहुंचकर जल्दी देगा फांसी-इस शीर्षक में कुछ अनुप्रास अलंकार बनता है। ड्रामा ना हो तो टीवी न्यूज ना बनती। कुछ टीवी चैनलवाले कुछ जल्लादों को पकड़ लाये हैं-जो रस्सी से कुछ कारगुजारी करते दिख रहे हैं। टीवी रिपोर्टर बता रहा है कि ऐसे बनती है रस्सी, जो फांसी के काम में आयेगी। जब कई टीवी चैनल कई जल्लादों को फांसी स्टार बना चुके थे, तो बाकी चैनलों को होश आया कि जल्लाद तो सारे ही पहले ही पकड़े जा चुके हैं  च

गिरीश बिल्लौरे के दोहे

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दोहे...!! ऐसा क्या है लिख दिया, कागज में इस बार बिन दीवाली रंग गई- हर घर की दीवार ।। जब जब हमने प्रेम का, परचम लिया उठाए तब तब तुम थे गांव में, होली रहे जलाए। मैं क्यों धरम बचाऊँगा, धरम कहां कमजोर मुझको तो लगता यही कि- चोर मचाते शोर ।। मरा कबीरा चीख के- जग को था समझाय पर मूढन की नसल को, बात समझ न आए ।। सरग नरक सब झूठ है, लावण्या न हूर । खाक़-राख कित जात ह्वै, सोच ज़रा लँगूर ।। *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*