30.6.19

भारतीय ज्ञान का खजाना (भाग 01) : प्रशांत पोळ


पंचमहाभूतों के मंदिरों का रहस्य..!
-  प्रशांत पोळ

इस लेखमाला, अर्थात ‘भारतीय ज्ञान का खजाना’ का उद्देश्य है कि हमारे प्राचीनतम देश में छिपे हुए अनेक अदभुत एवं ज्ञानपूर्ण बातों को जनता के सामने लाना. इस पुस्तक का प्रत्येक लेख प्रिंट मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से अक्षरशः लाखों लोगों तक पहुँचता है. संभवतः इसीलिए पत्र, फोन एवं सोशल मीडिया के माध्यम से प्रतिक्रियाओं की मानो वर्षा ही हो रही है.

परन्तु ऐसी अनेक बातें हैं, जो हमें पता चलने पर हम भौचक्के रह जाते हैं, सुन्न हो जाते हैं. आज जो बातें हमें असंभव की श्रेणी में लगती हैं, वह आज से ढाई-तीन हजार वर्षों पहले भारतीयों ने कैसे निर्माण की होंगी, कैसे बनाई होंगी... यह एक प्रश्नचिन्ह हमारे सामने निरंतर बड़ा होता जाता है.

हिन्दू दर्शन में पंचमहाभूतों का विशेष महत्त्व है. पश्चिमी जगत ने भी इस संकल्पना को मान्य किया है. डेन ब्राउन जैसे प्रसिद्ध लेखक ने भी इस संकल्पना का उल्लेख किया है और इस विषय पर ‘इन्फर्नो’ जैसा उपन्यास भी लिखा. यह पंचमहाभूत हैं, जल, वायु, आकाश, पृथ्वी एवं अग्नि. ऐसी मान्यता है कि हम सभी का जीवनचक्र इन पाँचों महाभूतों के आधार पर ही आकार ग्रहण करता है.

यह बात कितने लोगों की जानकारी में है कि हमारे देश में इन पंचमहाभूतों के भव्य एवं विशिष्टताओं से भरे मंदिर हैं? बहुत ही कम लोगों को इसकी जानकारी है. जो लोग भगवान शंकर के उपासक हैं, उन लोगों को इन मंदिरों की जानकारी होने की थोड़ी बहुत संभावना है. क्योंकि इन पंचमहाभूतों के मंदिर अर्थात शिव मंदिर, भगवान शंकर के मंदिर है. लेकिन इसमें कोई बड़ी विशेषता अथवा रहस्य तो नहीं है... फिर इनकी विशेषता किस बात में है??

पंचमहाभूतों के इन पाँच मंदिरों की विशेषता अथवा रहस्य यह है कि इनमें से तीन मंदिर, जो एक-दूसरे से कई सौ किमी दूरी पर स्थित हैं, यह तीनों एक ही रेखा पर स्थित हैं. जी हाँ..! बिलकुल एक सीधी रेखा में हैं... यह तीन मंदिर हैं –

• श्री कालहस्ती मंदिर
• श्री एकम्बरेश्वर मंदिर, कांचीपुरम
• श्री तिलई नटराज मंदिर, त्रिचनापल्ली.

पृथ्वी पर किसी स्थान को चिन्हित या तय करने के लिए हम जिन कॉर्डिनेट्स का उपयोग करते हैं, एवं जिसे हम अक्षांश व रेखांश कहते हैं. इनमें से अक्षांश (Latitude) अर्थात पृथ्वी के नक़्शे पर खींची गई (काल्पनिक) आड़ी रेखाएं. जैसे कि विषुवत, कर्क रेखा इत्यादि... जबकि रेखांश इसी नक़्शे पर खींची गई लम्बवत रेखाएं. इन तीनों मंदिरों के अक्षांश और रेखांश इस प्रकार से हैं –

क्र.    मंदिर                           अक्षांश    रेखांश     पंचमहाभूत तत्त्व
१.  श्री कालहस्ती मंदिर    13.76 N    79.41 E वायु
२.  श्री एकम्बरेश्वर मन्दिर    12.50 N    79.41 E पृथ्वी
३.  श्री तिलई नटराज मन्दिर   11.23 N    79.41 E आकाश

यह तीनों मंदिर एक ही रेखांश बिंदु 79.41E पर स्थित हैं, अर्थात एक ही सीधी रेखा पर हैं. कालहस्ती और एकाम्बरेश्वर मंदिर के बीच लगभग सवा सौ किमी की दूरी है और एकाम्बरेश्वर तथा नटराज मंदिर के बीच लगभग पौने दो सौ किमी का अंतर है. यह तीनों मंदिर कब निर्माण किए गए, यह बताना कठिन है. इस क्षेत्र में जिन्होंने शासन किया है वे पल्लव, चोल इत्यादि राजाओं द्वारा इन मंदिरों का नवीनीकरण किए जाने का उल्लेख अवश्य मिलता है. परन्तु लगभग तीन - साढ़े तीन हजार वर्ष पुराने तो हैं ही, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है.

अब इसमें वास्तविक आश्चर्य यही है कि लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व आपस में इतनी दूरी पर स्थित ये तीनों मंदिर एक ही सीधी रेखा यानी रेखांश पर कैसे निर्मित किए गए होंगे?

इसका अर्थ यह है कि उस कालखंड में भी भारत में नक्शाशास्त्र इतना उन्नत था कि, उन्हें अक्षांश-रेखांश इत्यादि का ठोस ज्ञान था?? परन्तु यदि किसी को अक्षांश-रेखांश का परिपूर्ण ज्ञान हो, तब भी एक सीधी रेखा में मंदिर निर्माण करने के लिए नक्शा शास्त्र के अलावा “कंटूर मैप” का ज्ञान भी आवश्यक है. तो इन मंदिरों के निर्माण में कौन सी प्रक्रिया, सूत्र एवं समीकरण उपयोग किए गए, यह अब समय की गर्त में खो गया है…

सब कुछ अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है. और आश्चर्य यहीं पर समाप्त नहीं होता है. बल्कि जब अन्य दो मंदिरों को इस सीधी रेखा में स्थित मंदिरों से जोड़ा जाता है, तब उसमें एक विशिष्ट कोण निर्माण होता है.

इसका दूसरा अर्थ भी है. उस कालखंड में हमारे वास्तुविदों के ज्ञान की गहराई कितनी होगी यह दिखाई देता हैं. भूमि के कुछ हजार किमी में फैले हुए भूभाग पर ये वास्तुविद, पंचमहाभूतों के पाँच शैव मंदिरों का बड़ा सा बड़ा सा आकार बनाते हैं और उस रचना के माध्यम से हमें कोई विशेष संकेत देने का प्रयास करते हैं. यह हमारा ही दुर्भाग्य है कि हम उस प्राचीन ज्ञान की कूट भाषा को समझ नहीं पाते हैं.

इन पंचमहाभूतों के मंदिरों में से एक मंदिर आंध्रप्रदेश में स्थित है, जबकि चार मंदिर तमिलनाडु में निर्मित हैं. इनमें से वायु तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला मंदिर है कालहस्ती मंदिर. यह आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में, तिरुपति से लगभग ३५ किमी दूरी पर स्थित है. स्वर्णमुखी नामक छोटी सी नदी के किनारे पर यह मंदिर स्थापित किया गया है. हजारों वर्षों से इस मंदिर को ‘दक्षिण का कैलास’ अथवा ‘दक्षिण काशी’ कहा जाता है.

भले ही यह मंदिर अत्यंत प्राचीन हो तब भी मंदिर का अंदरूनी गर्भगृह वाला भाग पाँचवीं शताब्दी में, जबकि बाहरी गोपुर वाला भाग ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया है. पल्लव, चोल और उसके पश्चात विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस मंदिर की मरम्मत और निर्माण किए जाने के उल्लेख मिलते है. इस मंदिर में आदि शंकराचार्य भी आ चुके हैं, ऐसा साहित्य में उल्लेख है. स्वयं शंकराचार्य ने ‘शिवानंद लहरी’ में इस मंदिर एवं यहाँ के परम भक्त कणप्पा का उल्लेख किया है.

यह मंदिर पंचमहाभूतों में से ‘वायु’ का प्रतिनिधित्व करता है. इस बात के भी आश्चर्यजनक संदर्भ हमें प्राप्त हो जाते हैं. जैसे कि इस मंदिर में शिवलिंग सफ़ेद रंग का है एवं इसे स्वयंभू शिवलिंग माना जाता है. इस शिवलिंग में वायुतत्व होने के कारण इसे कभी भी स्पर्श नहीं किया जाता है. मंदिर के मुख्य पुजारी भी इस शिवलिंग को स्पर्श नहीं करते हैं. अभिषेक एवं पूजा करने के लिए एक ‘उत्सव शिवलिंग’ पास में स्थापित किया गया है. विशेष बात यह है कि इस मंदिर के गर्भगृह में एक दीपक अखंड रूप से जलता रहता है एवं उस गर्भगृह में कहीं से भी हवा आने का साधन नहीं होने के बावजूद वह दीपक सदैव फड़फड़ाते रहता है. यहाँ तक कि पुजारियों द्वारा मंदिर का मुख्य द्वारा बन्द करने के बाद भी इस दीपक की ज्योति फडफडाती ही रहती है...! आज तक किसी भी वैज्ञानिक को इस का कारण समझ नहीं आया है. परन्तु स्थानीय लोगों का यही कहना है कि चूँकि शिवलिंग में वायु तत्त्व है, इसी कारण गर्भगृह के उस दीपक की ज्योति सदैव फडकती रहती है.

इसी मंदिर से लगभग १२५ किमी दूरी पर दक्षिण में एकदम सीधी रेखांश बिंदु पर स्थित दूसरा मंदिर है ‘एकाम्बरेश्वर मंदिर’. यह तमिलनाडु के प्रसिद्ध कांचीपुरम स्थित, पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला मंदिर है.

पृथ्वी तत्त्व होने के कारण ही इस मंदिर का शिवलिंग मिट्टी का बना हुआ है. ऐसा माना जाता है कि भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए आम के वृक्ष के नीचे माता पार्वती ने मिट्टी के शिवलिंग की तप-आराधना की थी, यही वह शिवलिंग है. इसीलिए इसे एकाम्बरेश्वर मंदिर कहा जाता है. तमिल भाषा में एकाम्बरेश्वर’ अर्थात आम के वृक्ष वाले देवता. आज भी मंदिर के परिसर में एक बहुत प्राचीन आम का वृक्ष लगा हुआ है. कार्बन डेटिंग जाँच के अनुसार इस वृक्ष की आयु भी लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी ही निकली है. इस आम के वृक्ष को चार वेदों का प्रतीक समझा जाता है. ऐसा कहा जाता है कि इस एक ही पेड से चार भिन्न-भिन्न स्वादों के आम निकलते हैं.

यह मंदिर ‘कांचीपुरम’ नामक मंदिरों की नगरी में है. कांचीपुरम शहर ‘कांजीवरम’ साड़ियों के लिए विश्वप्रसिद्ध है. इस मंदिर में तमिल, तेलुगु, अंग्रेजी एवं हिन्दी में एक फलक (बोर्ड) लगा हुआ है कि यह मंदिर ३५०० वर्ष प्राचीन है. हालाँकि ठोस रूप से यह कहना कठिन है कि वास्तव में मंदिर कितना पुराना है. आगे चलकर पाँचवीं शताब्दी में पल्लव, चोल एवं विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने इस मंदिर की मरम्मत एवं देखरेख किए जाने के उल्लेख ग्रंथों में मिलते हैं.

इन दोनों मंदिरों की ही सीधी रेखा में दक्षिण दिशा में, एकाम्बरेश्वर मंदिर से लगभग पौने दो सौ किमी दूरी पर स्थित है पंचमहाभूतों का तीसरा मंदिर अर्थात तिलई नटराज मंदिर. आकाश तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला यह मंदिर तमिलनाडु के चिदम्बरम शहर में स्थित है.

ऐसा माना जाता है कि स्वयं पतंजलि ऋषि ने इस मंदिर की स्थापना की थी. इसलिए ठीक-ठीक कहना कठिन है कि इस मंदिर का निर्माण कब हुआ. परन्तु इसकी भी देखभाल एवं मरम्मत पल्लव, चोल एवं विजयनगर साम्राज्य के राजाओं द्वारा पाँचवी शताब्दी में की गई, इसका उल्लेख ग्रंथों में मिलता है. इस मंदिर के अंदर ‘भरतनाट्यम’ नृत्य की विभिन्न १०८ मुद्राओं को पत्थर के स्तंभों पर उकेरा गया है. इसका अर्थ यही है कि भरतनाट्यम नामक नृत्य शास्त्र भारत में कुछ हजार वर्षों से पहले से ही काफी विकसित था. मंदिर में पत्थर के अनेक स्तंभों पर भगवान शंकर की अनेक मुद्राएं भले ही खुदी हुई हों, परन्तु नटराज की मूर्ति एक भी नहीं बनाई गई है... यह मूर्ति केवल गर्भगृह में ही विराजमान है.

इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान शंकर, नटराज के रूप में हैं, और साथ में शिवकामी अर्थात पार्वती की मूर्ती भी है. अलबत्ता नटराज रूपी शिव प्रतिमा के दाँयी तरफ थोडा सा रिक्त स्थान है, जिसे ‘चिदंबरा रहस्यम’ कहा जाता है. इस खाली स्थान को स्वर्ण की गिन्नियों वाले हार से सजाया जाता है. यहाँ की मान्यता के अनुसार यह रिक्त स्थान, खाली नहीं है, बल्कि वह आकारहीन आकाश तत्त्व है.

पूजा के समय को छोड़कर बाकी के पूरे समय पर यह रिक्त स्थान लाल परदे से आच्छादित रहता है. पूजा करते समय लाल परदा सरका कर उस आकारहीन शिव तत्त्व अर्थात आकाश तत्त्व की भी पूजा की जाती है. ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर शिव एवं कालीमाता के रूप में पार्वती, दोनों ने नृत्य किया था.

चिदम्बरम से लगभग चालीस किमी दूरी पर कावेरी नदी समुद्र में जाकर मिलती है. इस क्षेत्र में आठवीं / नौवीं शताब्दी में चोल राजाओं ने जहाज़ों के लिए बंदरगाह का निर्माण किया था. इस स्थान का नाम है पुम्पुहार. एक समय पर यह पूर्वी तट का बहुत बड़ा बंदरगाह था, परन्तु आजकल अब वह एक छोटा सा गाँव मात्र रह गया है.

इस पुम्पुहार में कुछ वर्ष पहले पुरातत्व विभाग ने उत्खनन किया था, और तब समझिए कि उन्हें अक्षरशः विशाल खजाना ही मिला था. पुराविदों को यहाँ लगभग ढाई हजार वर्ष प्राचीन एक अत्यंत समृद्ध एवं विकसित शहर का पता चला. इस विशाल नगर का नियोजन, इस नगर के मार्ग, घर, नालियाँ, जल निकासी की व्यवस्था देखकर हम आज भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं.

कुल मिलाकर यह कहना उचित ही होगा कि आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले इस परिसर में एक अत्यंत समृद्ध एवं विकसित संस्कृति मौजूद थी. जिस संस्कृति द्वारा पंचमहाभूतों के पाँचों मंदिरों हेतु एक भव्य प्रांगण, इस विशाल स्थान पर निर्माण किया था.

इन तीनों ही मंदिरों द्वारा एक ही रेखांश पर तैयार की गई सीधी रेखा से एक विशेष कोण बनाते हुए इन पंचमहाभूतों में से चौथा मंदिर है - जम्बुकेश्वर मंदिर.

त्रिचनापल्ली के पास, तिरुवनैकवल गाँव में यह मंदिर स्थित है. पंच महाभूतों में से एक अर्थात ‘जल’ का प्रतिनिधित्व करने वाला, कावेरी नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ पर शिवलिंग के नीचे पानी का एक छोटा सा झरना है, जिस कारण यह शिवलिंग निरंतर पानी में डूबा हुआ रहता है.

ब्रिटिश काल में फर्ग्युसन नामक पुरातत्वविद ने इस मंदिर के बारे में काफी शोधकार्य किया, जिसे अनेक लोगों ने ठोस प्रमाण माना. उसके मतानुसार चोल वंश के प्रारंभिक काल में इस मंदिर का निर्माण हुआ. परन्तु उसका यह निरीक्षण गलत था, यह बात अब सामने आ रही है. क्योंकि मंदिर में प्राप्त एक शिलालेख के आधार पर यह अब सिद्ध किया जा चुका है कि ईसा पूर्व कुछ सौ वर्ष पहले ही यह मंदिर अस्तित्त्व में था.

उस सीधी रेखांश पंक्ति के तीन मंदिरों के साथ विशिष्ट कोण पर बनाए गए पंच महाभूतों  के मंदिरों में से अंतिम मंदिर है – अरुणाचलेश्वर मंदिर. तमिलनाडु में ही तिरुअन्नामलाई में यह मंदिर स्थित है. पंचमहाभूतों में से अग्नि तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाला यह मंदिर भारत के बड़े मंदिरों में से एक है. यह मंदिर एक पहाड़ी पर एक विशाल परिसर में निर्मित किया गया है. सात सौ फुट से अधिक ऊँचाई वाली दीवारों के अंदर निर्माण किए गए इस मंदिर के प्रमुख गोपुर की ऊँचाई १४ मंजिली इमारत के बराबर है.

यह पाँचों शिव मंदिर एवं जमीन पर उनकी संरचना अक्षरशः चमत्कृत करने वाली है. इन पाँच में से तीन मंदिर एक सीधी रेखा में होना कोई साधारण संयोग नहीं हो सकता. तमिलनाडु के विशाल भूभाग पर इन मंदिरों का ऐसा सटीक निर्माण एक अदभुत घटना ही है. इन मंदिरों की रचना के माध्यम से निर्मित होने वाली कूट भाषा यदि हम आधुनिक काल में समझ पाते तो प्राचीन काल के अनेक रहस्य हमारे समक्ष खुल सकते थे...!!
- प्रशांत पोळ

27.6.19

धरोहर को ना संजोने वाले हम दुर्भाग्यशाली..! - प्रशांत पोळ


अभी कुछ दिनों से यूरोप में हूँ. पिछले बीस वर्षों में जर्मनी में बहुत घुमा हूँ. लेकिन न्यूरेनबर्ग छूट गया था. इसलिए इस बार वहां जाने का कार्यक्रम बनाया. न्यूरेनबर्ग प्रसिध्द हैं, ‘न्यूरेनबर्ग ट्रायल्स’ के लिए. दूसरे विश्वयुध्द में जिन नाझी अफसरों ने कहर बरपाया था, यहूदियों का सर्वनाश किया था, उन सभी पर मित्र देशों की सेनाओं द्वारा (अर्थात अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस आदि) मुकदमा चलाया गया. उनमेसे अधिकतर लोगों को मृत्युदंड दिया गया. सन १९४६ में दुनिया के समाचार पत्रों के शीर्षकों में यही ‘न्यूरेनबर्ग मुकदमा’ छाया हुआ था.

हिटलर की नाझी पार्टी अर्थात NSDAP के उदय में न्यूरेनबर्ग का बड़ा स्थान हैं. हिटलर ने अपना प्रभाव दिखाने के लिए यही पर बड़ी बड़ी रैलियां की थी. दस, दस लाख सैनिकों की अनुशासनबध्द रैलियां. इन सब के लिए न्यूरेनबर्ग में विशाल मैदान और उसमे सारी व्यवस्थाएं की गई. न्यूरेनबर्ग, हिटलर की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा था. और इसीलिए विश्वयुध्द के पश्चात नाझियों पर किये जाने वाले मुकदमों के लिए न्यूरेनबर्ग को चुना गया.
  • ( प्रशांत पोल )

जर्मनी, हिटलर के बारे में बात करना नहीं चाहता. अधिकतर जर्मन्स, हिटलर को इतिहास का एक काला धब्बा मानते हैं. इसलिए जर्मनी में हिटलर के बारे में बातचीत नही होती. हिटलर का साहित्य, या हिटलर से संबंधित साहित्य भी वहां सहजता से नहीं मिलता. जर्मन्स, हिटलर का वह काला कालखंड भूल जाना चाहते हैं.

लेकिन इतिहास को संजो कर रखना उनका स्वभाव हैं, उनकी प्रकृति हैं.

न्यूरेनबर्ग में यही दिखता हैं. जहां हिटलर अपने नाझी सेना की बड़ी बड़ी और भव्य रैलियां करता था, परेड करता था, वह स्थान जर्मन सरकार ने सहजकर रखा हैं. विश्वयुध्द की बमबारी में ध्वस्त हुए स्ट्रक्चर को, उसी , पहले के रुप में फिर से खड़ा किया हैं. इस विशाल भूमि पर अब खड़ा हैं, ‘डोकू झेंत्रुंम’ अर्थात ‘डॉक्यूमेंटेशन सेंटर’. इस सेंटर में अत्याधुनिक तकनिकी से १९२६ से १९४५ तक का कालखंड जिवंत किया गया हैं. किस प्रकार से जर्मनी में सोशलिस्ट पार्टी का उदय हुआ, किस प्रकार हिटलर का पार्टी में प्रवेश हुआ, कैसे हिटलर ने अपनी NSDAP पार्टी को सत्ता में पहुंचाया. इस सारे प्रवास में, हिटलर ने न्यूरेनबर्ग में कैसे विशाल रैलियां की, इन सब के ओरिजिनल फूटेज वहा दिखाए गए हैं. उन दिनों के समाचार पत्र, उन सैनिकों की वस्तुएं, उनका गणवेश, उनकी टोपी, उनके बिल्ले, उनका कॉफी का कप, उन्होंने लिखे हुए पत्र, नाझी अधिकारीयों की आदेश, उन दिनों नाझी सरकार ने जारी किये हुए नोट…. ये सब कुछ वहां अत्यंत व्यवस्थित ढंग से प्रदर्शित किये गए हैं.

ये पूरी प्रदर्शनी, नाझी सरकार के उसी भवन में हैं, जिसमे हिटलर बैठता था. उसी भवन में, अंदर के कमरों में, चित्र, नक़्शे, पुरानी वीडियो क्लिप्स, समाचार पत्र और अन्य कागजात आदि माध्यम से सजाई गई हैं. अंदर प्रवेश करते समय टिकट के साथ एक ऑडियो गाइड दिया जाता हैं, जिसमे, प्रत्येक चित्र के सामने का क्रमांक डाला, तो उस चित्र से संबंधित पूरी जानकारी, अंग्रेजी भाषा में, ऑडियो स्वरुप में मिल जाती हैं.

प्रमाणिकता से कहु, तो यह सारा देखकर मेरे मन में एक गहरी टीस उठी. जिस बात को लेकर जर्मन्स इतनी नफरत करते हैं, उसे भी इतिहास सहज कर रखने के लिए वे संजो कर रखते हैं. और हम..? मैंने मेरी पुस्तक, ‘वे पंद्रह दिन’ की प्रस्तावना में लिखा था -

“वैसे देखा जाए तो जर्मनी के लोग भी हिटलर और उसके भयानक अत्याचारों की याद करना नहीं चाहते. परन्तु फिर भी उन्होंने उस कालखंड एवं इतिहास को सहेजकर रखा है. जर्मनी में अनेक स्थानों पर स्थित हिटलर के यातना कैम्पों को जस-का-तस सुरक्षित रखा गया है. जर्मनी में अनेक संग्रहालयों में हिटलर के समय की वस्तुएं, चित्र, हथियार, यातना देने के औजार, कपड़े, कागज़ात, अखबार जैसी अनेक वस्तुएं स्मरण के रूप में सुरक्षित रखी हैं.
परन्तु हम भारतीयों ने हमारे इस विभाजन के कालखंड के बारे में क्या किया..? कुछ भी नहीं. धीरे-धीरे यह कटु स्मृतियां लोगों के मस्तिष्क से विरल होती जाएंगी, और अगले कुछ वर्षों में यह कालखंड सबूतों के अभाव में इतिहास से मिट जाएगा.”

१९४७ का विभाजन यह हमारे देश की, इतिहास और भूगोल को बदल देने वाली घटना हैं. लेकिन, इस विषय पर हमने कोई स्थाई स्मारक बनाया, कोई प्रदर्शनी बनाई, उस कालखंड को जीवित करने वाले कागजातों को, छायाचित्रों को, विडिओ क्लिप्स को, समाचार पत्रों को संभाल कर रखा..? उत्तर नकारार्थी हैं.

यह सब बदलना होगा. हमारा इतिहास, हमारी धरोहर हैं. उसको संजो कर रखना, संभाल कर रखना यह हमारा कर्तव्य हैं.
- प्रशांत पोळ

26.6.19

भारत रत्न पंडित बिस्मिल्लाह खान को नमन



        25-26 जून 2019 की रात मैं बिस्मिल्लाह खां के बारे में सोच रहा था....अचानक जाने कहां से मेरे  सामने बिस्मिल्ला खां साहब नमूदार हो गए मेरे ज़ेहन में...? मेरी दृष्टि में हर कलाकार गंधर्व होता है । जो कहीं भी कभी भी आ जा सकता है और इन गंधर्वों के बारे में कुछ भी कहना उस निरंकार सत्ता पर सवाल उठाना मेरे जैसे अदना लेखक के लिए तो ठीक वैसा ही है जैसे सूरज को लालटेन दिखाकर यह बताना कि तुम इस रास्ते से चलो...!
   सुधि पाठक जानिए कि बिहार के किसी गांव में 21 मार्च 1913 को जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह खां साहब के बारे में लिखने के बात मैंने  शीर्षक यानी आलेख टांगने की खूंटी खोजी ।   मैंने पंडित बिस्मिल्लाह खान लिखा है कट्टर पंथी मुझ पर निशाना साधेंगे  पर जानते हो आप हमने ऐसा क्यों किया उस्ताद को पंडित लिखा ? ऐसा इसलिए किया  क्योंकि जब मैं शीर्षक लिखने के बारे में सोच रहा था तो यह सोचा कि नहीं वे मज़हबी एकता यानी असली सेक्युलरिज्म के सबसे बड़े पैरोकार आईकॉन हैं । उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के गुरु उनके नाना अली बख्श साहब हुआ करते थे और भी गंगा के पंच घाट के पास बनी एक कोटरी में रियाज किया करते थे । अली बख्श साहब के बेटे भी उस वक्त शहनाई बजाया करते थे । एक बार मामू ने बिस्मिल्लाह खान साहब से कहा - जब तुम्हें कोई खास नजर आए तो उसका जिक्र किसी से ना करना । 12 साल  के बिस्मिल्लाह खान को यह बात समझ में ना आए और कुछ दिनों के बाद जब वे रियाज कर रहे थे तो उन्होंने बनारस के घाट पर किसी साधु को देखा और मैं साधु बिस्मिल्लाह खान साहब से शहनाई बजाने की जिद कर रहे थे पता नहीं क्यों बिस्मिल्लाह खान शहनाई नहीं बजाई । और यह बात  मामू  से कह दी मामू जो उनके गुरु भी थे ने कहा तुम्हें याद है ना मैंने कहा था कि कुछ खास देखना तुम मुझे ना बताना किसी को ना बताना चलो कान पकड़ो उठक बैठक लगाओ । गंगा घाट के पत्थरों पर बैठकर मंदिरों में बैठकर रियाज करने वाली बिस्मिल्लाह खान फिर और भी चमत्कारिक अनुभव किए परंतु उन्होंने कभी किसी से शेयर नहीं किया यह अवश्य कहा कि हां मुझे कुछ एहसास हुए हैं जो अलौकिक थे । इस्लाम में मौसिकी पर पाबंदी है किंतु बिस्मिल्लाह खान साहब ने ऐसा कुछ महसूस नहीं किया वे इस बात को साबित करने पर लगे रहे कि संगीत ब्रह्म से मिलने का अर्थात ईश्वर या अल्लाह से मिलने का एकमात्र रास्ता  है । खान साहब यह कहा करते थे अगर दुनिया के हर शख्स को संगीत सिखा दिया जाए तो कोई नहीं लड़ेगा सब शांत और बेहतर जिंदगी जी सकेंगे
     बनारस का यह संत पूरी उम्र हिंदुस्तान का सितारा बनने के लिए रियाज नहीं  करते थे  कि उन्हें ईश्वर यानी अल्लाह का आशीर्वाद हासिल ।  एक पत्रकार ने उनसे जब यह पूछा जी आप तो आप भारत रत्न पा चुके हैं क्यों नहीं आप एक अच्छे से घर में रहते हैं वही पुराना कदीम घर वही बहुत सारे लोग जो उस घर में रहते हैं आप तो कोई अच्छी जगह भी रह सकते थे ?
   सादगी पसंद खान साहब ने जवाब दिया कि - हमें अपने पूरे परिवार को साथ में लेकर चलना है जीना है हमें अपने लोगों के साथ रहना अच्छा लगता है हमारे पूर्वज भी यही करते थे और यही हिंदुस्तान की संस्कृति है ।
      बिस्मिल्लाह खान साहब को पाकिस्तान जाने के लिए भी जाने वालों ने ऑफर किया लेकिन उनका जवाब यह था कि अगर पाकिस्तान ने कोई दूसरा अल्लाह है तो मैं जा सकता हूं अल्लाह मुझे हिंदुस्तान मैं भी वही मदद करेगा जो पाकिस्तान में तो फिर मैं क्यों जाऊं ?
     यकीनन वे अपनी जन्मभूमि के प्रति पूरा सम्मान रखते थे ।
     एक और प्रसंग है जब उनकी एक शिष्या ने उनसे कहा- गुरुजी अब यह फटी लुंगी क्यों पहनते हो अच्छा नहीं लगता भारत रत्न हो जो भारत का सबसे बड़ा सम्मान है ।
     पंडित बिस्मिल्लाह खान ने स्पष्ट किया - बेटी मुझे भारत रत्न इस लूंगी की वजह से नहीं मिला बल्कि मौसिकी की वजह से हासिल हुआ है । ऐसी सादगी पसंद मधुर भाषी गंधर्व ने 21 अगस्त 2006 अपनी देह को त्याग दिया था । 84 साल के सफर में पंडित बिस्मिल्लाह खान को लीजेंडरी आर्टिस कहना बहुत छोटा शब्द होगा इसलिए मैं बार-बार उन्हें गंधर्व कहता हूं जो यह मानते थे कि ईश्वर की सत्ता इस कायनात को ऑपरेट करती है ।
     बनारस की भूमि पर बिस्मिल्लाह खान का होना एक महान घटना थी । बिहार से बनारस अपने वालिद के साथ आकर बसे बिस्मिल्लाह खान ने शादियों में बजने वाली शहनाई को उठाया इतना उठाया इतना उठाया की शहनाई उनके नाम का पर्याय बन गई है । आप जानते हैं जानते ही होंगे कि बिस्मिल्लाह खान की शहनाई शास्त्रीय संगीत उप शास्त्रीय संगीत का बेमिसाल उदाहरण है। आकाशवाणी लखनऊ में जब वे शहनाई के ऑडिशन के लिए बुलाए गए उनके भाई उनके साथ थे लोगों ने जो संगीत के बड़े नामी-गिरामी लोग थे उन्होंने फिराक कत की नजरों से दोनों भाइयों को देखा ऑडिशन लेने वाले प्रोग्राम एक्सिक्यूटिव ने उनका शहनाई वादन सुना और भी स्वर लहरियों में डूबते चले गए इतना ही नहीं लखनऊ के स्टेशन डायरेक्टर को जब यह जानकारी मिली तो उन्होंने भी आकर खान साहब को सुनाओ और यह कहा- क्या बजाते हो ?
    खान साहब को लगाओ की उनसे कोई गलती हुई है तब प्रोग्राम एक्सिक्यूटिव ने कहा सर वे भी आपके शहनाई वादन के मुरीद हो गए हैं निशब्द है अभी केवल इतना पूछ पाए कि क्या बजाते हो इसमें कमी नहीं निकाल रहे हैं ऐसे भोले भाले संगीत के मर्मज्ञ महान कलाकार बिस्मिल्लाह खान को भारत सरकार ने भारत रत्न देखकर ना केवल कला की पूजा की है बल्कि उस वाद्य यंत्र को भी सराहा है पूजा है जो अक्सर दरवाजे तक आज भी हम सीमित रखते हैं शादियों के मौकों पर ।
     कई बार भारत सरकार उनसे पुरस्कार देने के लिए पूछा करती थी कि किसी का भी नाम  सम्मान के लिए प्रस्तावित कीजिए ! खान साहब जानते थे कि सरकार उनसे उनके परिवार के किसी व्यक्ति का नामांकन चाहती है उन्होंने कभी भी ना तो खुद का और ना ही अपने परिवार से किसी का नाम रिकमेंड किया । उन्हें भारत रत्न के अलावा पद्मश्री पद्मभूषण पद्म विभूषण जैसे अलंकार से अलंकृत किया गया किंतु उन्होंने कभी भी अपना नामांकन स्वयं नहीं किया यह एक खास बात उनके साथ रही है । 

23.6.19

क्रिकेट स्पोर्ट नहीं इंडस्ट्री है : गिरीश बिल्लोरे ''मुकुल"

Dainik Bhaskar की कवरस्टोरी पढ़कर कुछ असहज सा महसूस कर रहा हूं. 5 साल में 77% बढ़ी स्पोर्ट्स इंडस्ट्री विज्ञापनों से 66% की कमाई कोहली और धोनी को यह है शीर्षक इस कवरस्टोरी का.
      इसका अर्थ यह नहीं है कि विकास के इस अनोखे से पहलू का मैं विरोध करूंगा या उससे असहमत हूं । मामला यह है कि मल्टीनेशनल कंपनी के विज्ञापनदाता तथा स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने वाली खास सोसायटी ने जिन खेलों को बढ़ावा दिया है उनमें कबड्डी और क्रिकेट की चर्चा की गई है क्रिकेट को सर्वाधिक स्पॉन्सरशिप का लाभ मिला करता है । बड़े उद्योगपतियों व्यक्तियों एवं मल्टी नेशंस और देसी कंपनियों द्वारा केवल और केवल उन खेलों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो ऑलरेडी लोकप्रिय हैं यहां तीरंदाजी शूटिंग कुश्ती जैसे उन खेलों को 0 अथवा कुछ प्रतिशत ही स्पॉन्सरशिप और सपोर्ट मिलता है यह ग्राउंड रियलिटी ।
         बेशक रिपोर्ट बहुत ही उपयोगी एवं सूचना पर है प्रस्तुतकर्ता नहीं भले ही कुछ मुद्दे स्पष्ट ना किया हो तथापि रिसर्च तो की है और विषय भी बेहद समसामयिक है । अखबार लिखता है कि स्पोर्ट्स इंडस्ट्री में किस पर कितना खर्च किया जाता है यहां 11% 3 की स्पॉन्सरशिप में 6% विज्ञापन पर 20.6% ग्राउंड स्पॉन्सरशिप तथा 4.6% फ्रेंचाइजी के जरिए भुगतान होता है मीडिया का लगभग 57.1% रिपोर्टेड  है ।
यहां मैं आर्टिकल प्रस्तुतकर्ता अखबार को बताना चाहूंगा कि क्रिकेट शुरू से खेल को मैं खेल के तौर पर स्वीकार नहीं करता यह एक अपने आप में उद्योग है जिस तरह फिल्म उद्योग वस्त्र उद्योग ठीक उसी तरह क्रिकेट उद्योग । अतः इसकी आंकड़ों को शामिल न करने के बाद प्रो कबड्डी तथा अन्य खेलों के लिए उद्योगपति एवं मल्टी नेशन कंपनी साथ ही साथ देसी कंपनियां कुछ भी खास करते नजर नहीं आ रही हैं ।
              जिसके परिणाम स्वरूप केवल क्रिकेट थी सर्वोपरि समझ में आता है और हम अपने चिंतन में क्रिकेट को खेल के रूप में स्थान दे रहे हैं ।
            बैडमिंटन तीरंदाजी गोल्फ बिलियर्ड स्नूकर शूटिंग रेसलिंग वॉलीबॉल फुटबॉल पर कंपनियों की नजर कम है इतना ही नहीं कंपनियां या विज्ञापनदाता व्यक्ति या  कोई भी राष्ट्रहित में बहुत अधिक नहीं सोचते हैं वे केवल अपने प्रोडक्ट के  ग्राहक तक पहुंचने के लिए बहुत ज्यादा समझदार नहीं हुए ।
     यहां तक कि प्रो कबड्डी के विज्ञापन में धोनी को तरजीह दी जा रही है भारत का अपना खेल विदेशी खेल के कांधे को पकड़कर आगे बढ़ रहा है इस बात की समीक्षा भी आलेख में विस्तारपूर्वक की जा सकती थी बहरहाल आलेख एक चिंतन की दिशा अवश्य दे गया वह यह कि हमारे विज्ञापनदाता खेलों के प्रति बहुत ज्यादा पॉजिटिव एटीट्यूड नहीं रखते हैं बल्कि उनका ध्यान उनके कस्टमर्स पर है यहां आपको बता दूं कि अगर 11 ग्राम पंचायत में छोटे-छोटे स्थानों पर बैंक के बीमा कंपनियां मल्टी नेशन कंपनीज तथा देसी कंपनियां व्यक्ति अथवा कोई भी स्पॉन्सरशिप ट्रेनिंग के मामले में शुरू कर दें तो हम विश्व कप के साथ साथ अमेरिका और चीन से अधिक गोल्ड जीत कर ला सकते हैं एशियन एवं ओलंपिक गेम्स में वास्तव में केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों को ऐसी कंपनिओं विज्ञापन दाताओं की जरूरत है जो अन्य स्पोर्ट्स में स्पॉन्सरशिप करें खासतौर पर ट्रेनिंग में । जरूरत है छोटे नगरों जबलपुर इंदौर ग्वालियर भुवनेश्वर पटना सहित अन्य प्रदेशों के महत्वपूर्ण किंतु छोटे नगरों में चलाए जा रहे कैंप्स को वित्तीय सहायता मुहैया कराने की किंतु यह सोच कंपनियों में आज तक विकसित नहीं हुई जो इस देश का भी दुर्भाग्य है । बीसीसीआई भारत का सबसे शक्तिशाली संगठन है लेकिन उसके सापेक्ष राज्य आश्रित प्रशिक्षण संस्थानों कि अपनी समस्याएं हैं जिसका निराकरण वित्तीय सहायता की उपलब्धता से सहज संभव है मैं जानता हूं कि यह आलेख इसी मल्टीनैशनल किसी एक जिक्र तक नहीं पहुंच पाएगा नहीं ऐसा कोई सोच पाएगा वह इसलिए भी कि एक तो हिंदी मैं लिखा गया आलेख है साथ ही सोशल मीडिया पर एक सामान्य से व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत चिंतन है जिसकी मोटे तौर पर बहुत अधिक वैल्यू नहीं होगी परंतु में साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि अगर कंपनियां अर्थात विज्ञापनदाता इस और ध्यान दें और सरकारें ऐसी कोई पॉलिसी बनाएं जिससे कि स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने के लिए कंपनियां स्पॉन्सरशिप के तरीकों पर पुनर्विचार करके मदद करें बेहद सराहनीय कदम होगा

15.6.19

प्राचीन इतिहास पर नयी रौशनी : स्वराज करुण


      दक्षिण कोशल में दो हज़ार साल से भी ज्यादा पुरानी  एक  बसाहट का पता चला : मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप के लिए उत्खनन जारी
        स्वराज करुण
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से सिर्फ़ 25 किलोमीटर की दूरी पर दो हजार साल से भी ज्यादा पुरानी मौर्यकालीन बौद्ध संस्कृति की एक नयी बसाहट का पता चला है । रायपुर जिले  के  तहसील मुख्यालय आरंग के पास ग्राम रींवा में एक टीले पर राज्य शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा  उत्खनन जोर -शोर से किया जा रहा है । माना जा रहा है इस उत्खनन में  दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर नयी रौशनी पड़ सकती है ।
         यह स्थान मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 53 के बिल्कुल किनारे पर है । विभागीय अधिकारियों ने बताया कि इस टीले से एक बौद्ध स्तूप निकलने की प्रबल संभावना है । यह भी माना जा रहा है कि सुदूर अतीत में वहाँ एक विकसित बसाहट भी रही होगी ।उत्खनन के दौरान वहां स्तूप की दीवारों की बुनियाद और ईंटें  भी नज़र आने लगी है । पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार यह  मौर्यकालीन स्तूप  ईसा  पूर्व तीसरी  शताब्दी का हो सकता  हैं । याने आज से कोई तेईस सौ साल पुराना । जिस आकार -प्रकार की ईंटें वहां मिल रही हैं ,उन्हें देखकर यह अनुमानित काल निर्धारण किया गया है ।  इस आलेख के लेखक ने उस दिन देश के मशहूर पर्यटन ब्लॉगर ललित शर्मा के साथ वहाँ  धरती के गर्भ से निकलते इतिहास को देखा ।
    वैसे तो पुरातत्व की दृष्टि से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ ही अत्यंत समृद्ध है । आरंग तहसील भी इस मामले में कम नहीं है। पौराणिक इतिहासकारों के अनुसार आरंग शहर को  राजा मोरध्वज की राजधानी माना जाता है । वहां का भांड देवल मन्दिर प्रसिद्ध है ,जो  भारत सरकार द्वारा  संरक्षित ऐतिहासिक  स्मारक है । छत्तीसगढ़ और ओड़िशा की जीवन रेखा महानदी आरंग के नजदीक से बहती है । पुराणों में चित्रोत्पला गंगा के नाम से वर्णित इस नदी का उदगम भी छत्तीसगढ़ में है. ।यहाँ के सिहावा पर्वत से निकलकर करीब आठ सौ किलोमीटर का लम्बा सफ़र तय करते हुए यह बंगाल की खाड़ी के विशाल समुद्र में समाहित हो जाती है ।  महानदी के किनारे छत्तीसगढ़ से ओड़िशा तक अनेक प्रसिद्ध तीर्थ और ऐतिहासिक स्थान हैं ।
         दक्षिण कोशल (प्राचीन छत्तीसगढ़ )में शैव ,वैष्णव और बौद्ध संस्कृतियों के त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध सिरपुर भी महानदी के किनारे स्थित है ।  सिरपुर को हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास में  'श्रीपुर' के नाम से भी जाना जाता है । इतिहासकार बताते हैं कि यहाँ प्राप्त स्मारक सातवीं -आठवीं शताब्दी के हैं ।  सिरपुर में गन्धरेश्वर महादेव और लक्ष्मण मन्दिर के अलावा प्राचीन बौद्ध विहार भी हैं ,जिन्हें केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा  संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है ।
   ब्लॉगर ललित शर्मा कहते हैं कि ग्राम रींवा ,जहां अभी टीले का उत्खनन हो रहा है ,महानदी पहले वहाँ से होकर भी  बहती रही होगी । हजारों साल के समय प्रवाह में नदियाँ अपना रास्ता बदलती रहती हैं । रींवा के तालाब की मेड़ों को देखकर उन्होंने कहा कि इस जगह पर किसी राजा का मृदा भित्ती दुर्ग (मड फोर्ट ) रहा होगा ।बहरहाल ,पुरातत्व विभाग के अधिकारी स्थानीय श्रमिकों के साथ पूरी गंभीरता और तत्परता से वहाँ उत्खनन में  लगे हुए हैं और  भूमिगत हो चुके भारतीय इतिहास के धुंधले पन्नों की धूल झाड़कर उन्हें पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं ।
        - स्वराज करुण

7.4.19

“18 हज़ार रेल कर्मियों एवं उनके परिवारों को मतदान के लिए प्रोत्साहित किया जावेगा : मनोज सिंह”




लोकसभा निर्वाचन 2019 में शत-प्रतिशत मतदान सुनिश्चित कराने ज़िला निर्वाचन कार्यालय द्वारा अनेक नवाचार किये जा रहे हैं, भारत निर्वाचन आयोग के निर्देश और राज्य निर्वाचन आयोग के दिशा निर्देशों के चलते ज़िला निर्वाचन अधिकारी कलेक्टर छवि भारद्वाज के मार्गदर्शन में मतदाता जागरूकता का सतत अभियान चलाया जा रहा है, इसी कड़ी में स्वीप की प्रभारी व ज़िला पंचायत सीईओ रजनी सिंह के संयोजन में शनिवार शाम 6 बजे से स्वीप के तहत सिविल लाइन स्थित सतपुडा क्लब में मतदाता जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया । जिसमें बाल भवन के कलाकारो द्वारा मतदाताओं  को अभिप्रेरित करने बाल भवन के कलाकारों ने डाक्टर रेनू पांडे, डाक्टर शिप्रा सुल्लेरे, एवं श्री अखिलेश पटेल  के निर्देशन में बहु-आयामी  सांस्कृतिक प्रस्तुतियों स्किट्स , एक्सटेंपोर टॉक  व मतदान गीतों की प्रस्तुति देकर मनमोहा बाल कलाकारों के स्पाट पेंटिंग और क्ले आर्ट तथा नृत्य  के ज़रिये भी मजबूती के प्रभावी सन्देश दिए.  रंगारंग मंचीय कार्यक्रम रोचक तरीके से प्रस्तुत करने वाले कलाकारों में बालश्री सम्मान विजेता  फिल्म अभिनेत्री एवं नाट्य कलाकार  श्रेया खंडेलवाल , मत्तोबाई के रूप में  पलक गुप्ता, अंकुर विश्वकर्मा (बालश्री सम्मान विजेता ), नृत्य कलाकार -आर्या, पावनी, यशी, गायक  , रंजना निशाद, उन्नति तिवारी, मानसी सोनी, विशेष शर्मा, प्रगीत शर्मा, अविनाश कश्यप, करन जाम्बुलक्र्र , खुशबू राय, जया मौर्य, सुनीता केवट,  शिखा पटेल,अंजलि गुप्ता, अनघा गायकवाड़,  आदि शामिल थे.  डब्ल्यू सी आर आफिसर्स क्लब के चेयरपर्सन एवं डी आर एम जबलपुर ने  बाल भवन के कलाकारों को 10 हजार रुपये की राशि भी प्रदान की गई.  
इस अवसर पर पश्चिम मध्य रेलवे जबलपुर महाप्रबंधक डॉ मनोज सिंह ने कहा कि मतदान को शत प्रतिशत कराने 18 हजार रेल कर्मियों के पोलिंग हेतु सुनिश्चित प्रयास कराए जायेंगे। उन्होंने कहा कि जबलपुर डिवीजन के अंदर आने वाले स्टेशनो पर मतदान के प्रति जिंगलस व शार्ट फ़िल्म चलाकर लोगो को जागरूक किया जाएगा। साथ ही रेलवे साधनों पर मतदान को बढ़ावा देने निःशुल्क विज्ञापन चलायें जायेंगे। वही जिला पंचायत सीईओ रजनी सिंह ने कहा कि स्वीप का मुख्य उद्देश्य लोगो को मतदान के प्रति जागरूक करना है जो कि हम विभिन्न संस्थाओं के साथ मिलकर जागरूकता कार्यक्रम चला रहें हैं.
कार्यक्रम में मुख्य-अतिथि बक्सर बिहार के  कलेक्टर राघवेंद्र सिंह, डी आर एम  डॉ मनोज सिंह, ए.डी.आर.एम श्री  सुधीर सरवरिया, डब्ल्यू डब्ल्यू ओ की अध्यक्ष डॉ नील रेखा सिंह, सीनियर डी एफ एम.श्री अभिराम खरे के अलावा सम्भागीय बालभवन जबलपुर के  संचालक गिरीश बिल्लोरे, परियोजना अधिकारी जिला पंचायत श्री अरुण सिंह  सहित रेल परिवारों की उपस्थिति उल्लेखनीय रही.
{ कुमारी रूचि तिवारी साकेत सिंह एवं वृष्टि नारद की रिपोर्ट }

26.3.19

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…….?



ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…….?

         वास्तव में ये सवाल ज़ायज़ है आज के दौर के लिए कबीर मिर्ज़ा ग़ालिब यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद भी मिसफिट हैं । 
         मन में खिन्नता है मेरे शाम को घर लौटता हूँ टीवी पर डिबेट के नाम पर अभद्र वार्तालाप ओह क्या हो गया है... इस मीडिया को लोगों को । 
        जब भी सोचता हूं गुरुदत्त के बारे में तो लगता है कि कुआं खुद बेहद प्यासा रहा है अपनी जिंदगी में । कवियों कलाकारों की जिंदगी का सच यही है बेशक मैं इन्हें शापित गंधर्व कहता हूं ।
याद है ना आपको राज कपूर की वह फिल्म जिसमें एक सर्कस का कलाकार अपनी जिंदगी के चारों पन्नों पर कशिश लिख देता है । जरूरी भी है ए भाई इस दुनिया को देख कर चलना । यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
 प्यासा और कागज के फूल मैंने अपनी युवावस्था में देखी फिल्म में है जब भी इन फिल्मों को देखता हूं आंखें डबडबा जाती हैं । बहुतेरे ऐसे कलाकारों को भी जानता हूं जो मिसफिट होते हैं समाज के लिए और एक अंतर्द्वंद लेकर समाज में जीते भी हैं और मरते भी । अंतस की पीर से ऐसी ऐसी रचनाएं उभरती है गोया खुद ईश्वर उतर आते हैं हम में और हम दुनिया को कुछ दे पाते हैं । कभी कभी यह गाते हुए दुनिया को तिलांजलि देने की इच्छा होती है कि मेरा जीवन कोरा कागज कोरा ही रह गया । दुनिया कविता चित्रकारी मूर्ति कला गीत गायन संगीत की स्वर लहरियां बिखेरने वालों को दुनिया के लिए मिसफिट मानने लगती है । एक बार मेरे एक मित्र मुझसे मिले उन्होंने पूछा क्या कर रहे हो उन दिनों मैं बेरोजगार था जॉब की तलाश में था तो स्वाभाविक तौर पर मेरा जवाब था कविता कर रहा हूं !
कविता ने तुम्हें रोटी नहीं देनी है कविता से कपड़ा भी नहीं मिलेगा मकान की तो छोड़ो यार कुछ जॉब करो जॉब के लिए तैयारी करो देखो मैं फला जॉब में हूं ।
मित्र की बात सीने पर हथौड़े की तरह जा लगी लेकिन मैंने धीरे से कहा- मित्र शादी नौकरी बाल बच्चे इसके अलावा दुनिया में और भी बहुत सारी चीज है जिसके लिए हम जमीन पर आए हैं....!
मित्र अजीब सी नजरों से मुझे निहारता गया और किसी जरूरी काम से जाने का हवाला देकर निकल गया । मित्र का जाना मुझे अखर नहीं लेकिन इस तरह जाना तो किसी को भी अखर सकता है । 
धैर्य से सोचता रहा इस निष्कर्ष पर पहुंचा मुझे उसे यह नहीं बताना था कि मैं कविताएं लिख रहा हूं बल्कि यह कि मैं पीएससी की तैयारी कर रहा हूं ! कुल मिलाकर कविता के महत्व को उसी दिन पहचाना पहले तो मैं महा कवियों के नाम काम का यशोगान करता था पर आज उनकी रचनाओं पर भी शोक मनाने लगा था जिसका लेश मात्र भी असर मित्र पर नहीं पड़ा लगता है कविता कारी कलाकारी सब बेकार है लेकिन ऐसा नहीं है हम सृजन इसलिए करते हैं कि ईश्वर हम में आकर हमारे इस सृजक को जगा देता है ।
कालिदास शेक्सपियर मंटो तुलसी मीरा और जाने कौन कौन कितना कितना लिख गई कबीरा ने तो मार मार के लिखा पर आज की यह दुनिया है ना यह हमें मिल भी जाए तो क्या है दोस्तों इस लेख को पढ़कर आपको समझ में जरूर आ गया होगा कि यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
अगर आपके पास बिल्डिंग हैं कार है अच्छा खासा बैंक बैलेंस है तो यह दुनिया ने दिया है पर आपने  दुनिया को क्या दिया यह सूचना जरूरी है ।
ओहदे तख्त ताज जवाहरात सब कुछ लेकर कोई मुझे कबीर बनने को कहेगा और बना देगा सच बताऊं बेशक ऐसा सौदा मंजूर कर लूंगा इस तिजारत में लाभ है.. मुझसा मुफलिस दाता बन जाए वो भी पल भर में  
कबीर देकर गया है अरस्तु ने भी दिया है कौटिल्य ने कम दिया है क्या हो सकता है मैं बहुत थोड़ा सा दे सकूं पर्दे कर जरूर जाऊंगा । इस दुनिया वालो  मेरे मरने का स्यापा मत करना थोड़ा मुस्कुराना जो मन चाहे वैसे मस्ती से विदा करना जानते हो परम यात्रा है मृत्यु.... जरा सा दूर जाने वालों को विदा करने रेलवे स्टेशन आते हो बस स्टैंड जाते हो अरे हां एयरपोर्ट भी जाते हो न...! बहुत छोटी यात्राएं होती है यह सब सच बताऊं महा यात्रा पर निकल लूंगा अच्छे से विदा करना हां याद रखो रास्ते में सब कुछ मिलता है किसी को कुछ खिलाने की जरूरत नहीं कि मेरी तक को पहुंचा देगा किसी को मेरे लिए रोने की जरूरत ही नहीं क्योंकि तुम्हें रोता देख औरों के आंसू पूछना बहुत मुश्किल होगा महायात्रा में इन सब बातों का बड़ा महत्व है ... है ना सलिल भाई Salil Dhruv जी Anjani जी करा लीजिए 
इन सब से पुष्टि जिनके नाम मैंने लिखे हैं . मित्रों सच कहूं दुनिया ने मुझे भी दर्द के अलावा कुछ नहीं दिया और यह जो कहानी है ना कागज के फूल और प्यासा की हम सृजन करने वालों की कहानी है ... है ना अरुण जी Arun Pandey
Mehul Yadav Poojaa Kewat Shubham Pathak सहित सभी को मेरा ढेर सारा प्यार ..

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...