30.9.18

सोशल फ़ोर्स क्या है ...?



किसी ने मुझसे सवाल किया कि क्या सामाजिक बदलाव की भूमिका में न्यायपालिका व्यवस्थापिका कार्यपालिका प्रेस की भूमिका होती है क्या यदि हाँ तो कैसी ?
श्रीमान मुझे बताएं कि आप कैसे बदलाव की बात कर रहे हैं ?
मेरे प्रतिप्रश्न को अपनी ओर आया प्रहार समझ कर भाई साहब जरा सा तनावग्रस्त दिखे । मित्र को यह समझाना पड़ा कि भाई बदलाव बदलाव दो तरह के होते हैं.. सृजनात्मक  एवं विध्वंसक . मित्र जरा शीतल हुए.. उनने सृजनात्मक बदलाव को चुना .
जो कुछ बात हुई  उसे अपनी शैली में आप सबसे बाँट रहा हूँ.
सकारात्मक बदलाव  में प्रमुख भूमिका होती है सामाजिक-बल अर्थात Social Force की. जिसका प्रवाह एक खास तरह का वर्ग करता है...  जिसमें एक या दो अथवा अधिकतम पांच फीसदी लोग संलंग होते हैं. यही समूह निर्माणकर्ता  है सोशल फ़ोर्स का . जिसमें विचारक चिंतक आध्यात्मिक विश्लेषक कलाकार साहित्यकार चित्रकार किस्सा बाज़ी करने वाले  लोग शामिल  हैं . इनके सतत सृजन से वैचारिक बदलाव आता है. जो प्रसारित होकर सामान्य दिनचर्या वाले लोगों की सोच में बदलाव लातें हैं.  वैचारिक बदलाव से ही एक प्रभावी  सामाजिक-बलबनता है जिसे हम सोशल फोर्स कह सकते हैं । 
 प्रजातांत्रिक राष्ट्र भारत के संदर्भ में देखा जाए तो  सामाजिक बल अर्थात सोशल फोर्स समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की सफल-कोशिश की है । ऐसे सकारात्मक बदलाव के लिए ज़िम्मेदार हज़ारों उदाहरण मिलते हैं. कुछ  उदाहरण हैं सभी तीर्थंकर, बुद्ध, चाणक्य,  संत-कबीरनानक मीरा तुलसी और आज़ादी के लिए क्रांतिकारी तथा अहिंसावादी दौनों प्रकार के लोग, इनके प्रयास ही समाज में बदलाव सकारात्मक बदलाव लाते हैं.
मेरा मानना है कि हर सम्राट या राजा प्रमुखरूप से केवल क्षेत्ररक्षण का कार्य करना . उसके    उसकी जिम्मेदारी लोगों के लिए कुएं बावड़ी बनवाना उन्हें निर्भीक जीवन जीने की गारंटी देना साथ ही साथ न्याय देने की गारंटी देना राजा का धर्म है यही धर्म राष्ट्रधर्म है जिसका पालन करना राजा के पद पर  बने रहने की लिए प्राथमिक शर्त भी थी.
 भारतीय इतिहास को देखें तो राजा के कुल-गुरु की भूमिका राजा के लिए नियमों को बनाने में  प्रमुख हुआ करती थी. अब प्रजातांत्रिक स्थितियां इतर हैं क्योंकि अब संचार, डाटा, आदि प्रासंगिक हैं. फिर भी बौद्धिक समूह का उपयोग सत्ता द्वारा किया जाता है.
समाज के कारण ही विकृति आ रही हैं सत्य है  वास्तव में अब समाज में सोशल फोर्स निर्माण  होने की अनुकूलता नहीं है.  बल्कि उसे नकारात्मक दिशा में ले जाने के कई उदाहरण हैं. कुछेक बुद्धिजीवी तो लिजलिजे नक्सली आन्दोलन के समर्थन में आ खड़े हुए हैं. साथ ही कुछ व्यवस्था को ब्लैकमेल करने तक को उतारू रहते हैं. बेहतरीन उदाहरण है गुजरात का पटेल आंदोलन जो समाज को विपरीत दिशा में ले जा रहा है ऐसे और भी कई आंदोलन है जिनके जरिए सामाजिक कुंठा बहुत तेजी से उभरी है. कई बार सियासी व्यक्तियों के कहे  एक वाक्य का इतना सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव होता है जिसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता . जैसे सुभाष बाबू ने कह दिया था- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा..!या गांधी बाबा बोले-करो या मरो !ये वाक्य सोशल-फ़ोर्स पैदा करने के लिए कहे गये थे.. असरदार थे. असरदार वाक्य तो माई के लालजैसा शब्दांश भी बना किसी ने ताली बजाई तो कोई एकजुट हुआ. [यह केवल उदाहरण के रूप में देखा जाए ]  
आज समाज सिन्मेंट्स में बंटा हुआ है. समाज के वर्गीकृत हिस्सों की अपनी अपनी आकांक्षाएं हैं कोई भी राष्ट्र हर वर्गीकृत हिस्से को संतुष्ट नहीं कर सकता . सबके अपने अपने हिस्से के सच के बारे में  सोचा सोचता है.  
नकारात्मक सामाजिक फोर्स से सभी भयभीत भी है . पर भय उस कबूतर से सीखा हुआ है जिसे बिल्ली नजर आते ही आँख बंद करने का अभ्यास है.
आप रोज चैनल्स पर बहस देखते हैं बहस करने वाले बदलाव पसंद नहीं करते विशेष अपने हिस्से का यश बटोरने चैनल्स पर जाते हैं टीवी चैनल्स भी अपने हिस्से की पापुलैरिटी हासिल करते हैं समाज में कोई बदलाव नहीं आता ना ही टीवी चैनल से निकल कर आई रिकमंडेशन का कोई महत्व ही है । अगर हम आज के दौर का सबसे मजबूत स्तंभ प्रेस को मानते हैं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसमें न्यू मीडिया भी शामिल है संयमित हुआ जा रहा है इसका प्रभाव इसलिए भी अधिक है क्योंकि दृश्य और श्रव्य का सम मिश्रित प्रभाव बेहद उच्च स्तर का होता है और मस्तिष्क पर वह सारे तर्क जो बहुधा कुतर्क ही होते हैं हावी हो जाते हैं और समाज में जो सकारात्मक बदलाव का आकांक्षी वातावरण बनाना चाहते हैं वे उसे अनदेखा कर देते हैं अनदेखा करना उनकी मजबूरी है उन्हें मालूम है कि नकार खाने में तूती की आवाज कब सुनी जा सकती है । तो मैंने अपने वक्तव्य में अब तक यह कहा कि समाज में किस तरह का बदलाव अगर आप चाहते हैं सकारात्मक बदलाव के लिए क्रिएटिविटी को बढ़ावा दीजिए नकारात्मक बदलाव के लिए कोई जगह शेष ना रहे मस्तिष्क में कुछ ऐसे प्रयास कीजिए पर क्या यह प्रयास व्यवस्थापिका कार्यपालिका न्यायपालिका और प्रेस कर सकता है ? नहीं कदापि नहीं यह चारों स्तंभ समाज में सकारात्मक बदलाव के महत्वपूर्ण घटक हो सकते हैं लेकिन पृथक पृथक रूप से देखा जाए तो बदलाव लाने का दायित्व इन का नहीं है बदलाव लाने के लिए सोशल फोर्स की जरूरत है सोशल फोर्स इस बात को रेखांकित करता है कि अमुक व्यवस्था ठीक है अथवा नहीं ।
बेटियों की सुरक्षा और जन्म की सुरक्षा के लिए सामाजिक वातावरण अनुकूल हुआ  तो समाज में एक बदलाव सा दिखाई देने लगा अब तो जबलपुर जैसे छोटे कस्बा नुमाँ  शहर में  भी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में पदक आने लगे हैं यह बदलाव ऐसे हुआ कि पिछले 20 वर्षों में सामाजिक चिंतन में खासा बदलाव आया कि केवल डाक्टर इंजीनियर नहीं अन्य विषयों पर भी ध्यान देना चाहिए. अभिभावकों ने बच्चों को प्रोत्साहित किया. पहले इस बात की कल्पना की ही नहीं जाती थी परंतु अब ऐसा लगता है कि एक वातावरण बन गया है वातावरण निर्माण में सोशल फोर्स अति महत्वपूर्ण है । इसकी सुरक्षा संरक्षा व्यवस्थापन और इसके लोक व्यापीकरण की जिम्मेदारी व्यवस्थापिका कार्यपालिका न्यायपालिका और मीडिया की है । आप समझ रहे हैं ना स्पष्ट है किए चारों स्तंभ सोशल चेंजिंग के लिए एक टूल है ना की बदलाव ला सकते ।

28.9.18

Standing against the Taboos: Thoughts and Body

फ़रवरी 22, 2012 को ही अपने ब्लॉग मिसफिट  पर एक आलेख लिखा था कि हम वर्ज़नाओं के खिलाफ सोचऔर शरीर के साथ एक जुट हो गए थे लेख देखिये जिसे देख आप  आप यकीन अवश्य ही करेंगे लगभग 6 साल पूर्व लिखा गया आलेख आज की सच्चाई बयान कर  गया था जिसका अंदाजा मुझे भी न था कि आज जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही   आर्काइव में पड़ा ये आलेख अचानक सम-सामयिक हो जावेगा  उक्त आलेख का अंग्रेज़ी तर्जुमा करने में मेरी मदद की श्री हेमंत बवानकर जी, पुणे एवं श्री विकास खंडेलवाल जी ने उनका हार्दिक आभार 

Some changes in the lifestyle are being heard due to which a radical change in social order is inevitable. I thought that it would not be easy to change the traditional form of social setup. But due to the rapidly changing social thinking in the last ten years, it seems that the changes are very close, probably in the next five years ... maybe even before that. The main thought behind this is “how to live the life?” is not a question at this juncture. Now the question is" how to manage the life?". The question of how to solve the problem was looked after by taking into consideration the social barriers. But, now-a-days, the care of the taboos for the management of the life is kept in a category not necessary from a logical perspective. The first effect of the change in the lifestyle or the way of living is seen in the social status and management of the family especially on sexual relations. No doubt, the marriage is a matter of individual rights of male and female, but now it is not a big issue to say that it has been the right to manage the emerging physical (unauthorized) aspirations due to the busy life of a man or a woman. In reality, such a situation is being named as helplessness. For the moment, love-story is not going to change in the detached hate story, but now, as far as the future of tomorrow is concerned, it will be a time that is "physical (unauthorized?) management of aspirations" as an authority. The other party will adopt a positive attitude towards the demand for such rights. Its root cause is “distances and busy engagement which will cause due to economic reasons".
Today's period has become more amazed when the Supreme Court passes an order in favoring Adultery beyond the category of crime.
This is not futuristic nor I am a predictor ... but the situation reflected by the rapidly coming change gives us a vision of the situation in the future. None can stop someone forcefully. Now the doors have been opened for the social system to be influenced by thewestern society.
Today, when the Supreme Court's verdict has come, the article in the archive has suddenly become contemporary.
Thoughts and standing against the traditional taboos created by the social system can affect the lives of the villages and cities after the metros, in the Indian environment.
We will be surprised to see this development. Sex is a biological need, in the same way, our" family living in the group" is a social need. The pressure of the economic work will at first affect these things. Then the couples will adopt a compromise policy to retain the family structure fulfilling biological needs. Our society may become failure to protect the culture forcibly. It is not as if its examples are not present. People just try to avoid.
* Osho had a strange argument in this regard - that one should first ensure mental and physical bond or coordination before the marriage. I have a total disagreement over this issue. The society is not a commune of Osho. Neither the society nor I am ruled by them*
* Just like Osho, the western system seems to dominate the society so much that it is not possible for anyone to escape from this impending black hole. Maybe my whole article will prove to be false, yes, but of course, it is possible only if stability in the life is entered. People will be able to deny Freud only if they live a traveler’s life of truck drivers (male and female) while their self-power is matured with spiritual contemplation, but this is not the case. While teaching the ethics of curbing the consumption of multiple sex opportunities under the spiritual and social system.The lessons of abstinence are taught in order to maintain another social morality, on the other hand, the crisis of sexually transmitted diseases are also avoided from life, whereas science is used only for the condom use to stop STD (Sexually-Transmitted-Disease). *
The social system reveals the situations of sinfulness and gives a glimpse of fear and orders restraint. On the other hand, living life on the basis of excessive superstitious arguments may deny this order as a symbol of backwardness. Let us see what happens, maybe all the thinkers will be agree with my experience, at least, partly.

26.9.18

माओ के मवाद को साफ़ करना ही होगा

आतंकवादी 
वृथा कल्पनाओ से डरे सहमे
       बेतरतीब बेढंगे
नकारात्मक विचारो का सैलाब
   शुष्क पथरीली संवेदना
कटीले विचारो से लहू-लुहान
सूखी-बंज़र भावनाओ का निर्मम 
            "प्रहार "
कोरी भावुकता रिश्ते रेत सामान
हरियाली असमय वीरान
उजड़ता घरोंदा बिखरते अरमान
  टूटती-उखड़ती साँसे जीवन
             " बेज़ान  "
स्वयं से डरी सहमी अंतरात्मा
        औरो को डराती
शुष्क पथरीली पिशाची आत्मा का
          " अठ्ठाहास  "
वृथा कल्पनाओ से डरे सहमे बेतरतीब
       बेढंगे आतंकवादी
    सब के सब एक सामान
         आतंकवादी.......
  भगवानदास गुहा, रायपुर छत्तीसगढ़   

मैं खामोश बस्तर हूँ,लेकिन आज बोल रहा हूँ।
अपना एक-एक जख्म खोल रहा हूँ।
मैं उड़ीसा,आंध्र,महाराष्ट्र की सीमा से टकराता हूँ।
लेकिन कभी नहीं घबराता हूँ
दरिन्दे सीमा पार करके मेरी छाती में आते हैं।
लेकिन महुआ नहीं लहू पीकर जाते हैं।
मैं अपनी खूबसूरत वादियों को टटोल रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब
लेकिन आज बोल रहा  हूँ।
गुंडाधूर को आजादी के लिए मैने ही जन्म दिया था।
इंद्रावती का पानी तो भगवान राम ने पीया था।
भोले आदिवासी तो भाला और धनुष बाण
चलाना जानते थे।
विदेशी हथियार तो उनकी समझ में भी नहीं आते थे।
ये विकास की कैसी रेखा खींची गयी,
मेरी छाती पे लैंड माईन्स बीछ गयी।
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब 
लेकिन बोल रहा हूँ
मेरी संताने एक कपड़े से तन ढकती थी।
हंसती थी,गाती थी,मुस्कुराती थी।
बस्तर दशहरा में रावण नहीं मरता है।
मुझे तो पता ही नहीं था
रावण मेरे चप्पे चप्पे में पलता है।
भाई साहब अब तो मेरी संताने भी
मुखौटे लगाने लगी हैं।
लेकिन ये नहीं जानती हैं कि
बहेलियों ने जाल फ़ेंका है।
मैने कल मां दंतेश्वरी को भी
रोते हुए देखा है।
मैं लाशों के टुकड़ों को जोड़ रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब
लेकिन आज बोल रहा हूँ..
नक्सलवाद मेरी आत्मा का एक छाला था
फ़िर धीरे-धीर नासूर हुआ,
और इतना बढा-इतना बढा कि
बढकर इतना क्रूर हुआ
चित्रकूट कराह रहा है,कुटुमसर चुप है
बारसूर में अंधेरा घुप्प है,क्योंकि हर पेड़ के पीछे एक बंदुक है।
और बंदुक नहीं है तो उन्होने कोई रक्खी है।
अरे उन्होने तो अंगुलियों को भी
पिस्तौल की शक्ल में मोड़ रखी है।
सन 1703 में मैथिल पंडित भगवान मिश्र ने जिस दंतेश्वरी का यशगान लिखा,
उसका शब्द शब्द मौन है।
अरे कांगेरघाटी,दंतेवाड़ा,
बीजापूर,ओरछा,सूकमा कोंटा में
छुपे हुए लोग कौन हैं?
मेरी संताने क्यों उनके झांसे में आती हैं।
ये इतनी बात इनकी समझ में क्युं नहीं आती है।
सड़क और बिजली काट देने से तरक्की कभी गांव में नहीं आती है।
मैं अपने पुत्रों की आंखे खोल रहा हूँ,
*मैं खामोश बस्तर हूं भाई साहब लेकिन आज बोल रहा हूँ।*
6 अप्रेल को 76 जवान दंतेवाड़ा में शहीद होते हैं,
8 मई को 8 लोग शहादत से नाता जोड़ते हैं।
23 जून को 29 जवान शहीद होते हैं,
27 जून को 21 जवान शहीद होते हैं।
11 मार्च को 16 जवान शहीद होते है..  
अप्रैल 16 जवान शहीद होते है ....
कल फिर सुकमा में 26 जवान शहीद हो गये ......
*मैं शहीदों की माताओं के आगे  हाथ जोड़ रहा हूँ..*
*मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब लेकिन बोल रहा हूँ...*
इंजीनियर सुनील पारे , विजय नगर जबलपुर    

बस्तर  की आज़ादी के नारे लगाता
जे एन यू.. जाधवपुर का हुजूम......
व्यवस्था के खिलाफ
बरसों से पाली जा रही
आयातित विचारधाराओं की विष बेलें
सहिष्णुता के नाम पर
डेमोक्रेसी के धुर्रे उडाती
माओ की विवादी जमात
पूर्वोत्तर में पलती कुंठा
एक असभ्य अभ्यास
सुनी है न
रवीश की बेतरतीब रिपोर्ट   
शहादत पर  
शब्दों का व्यापार करते
बेरहम लोग...
सुना है एवार्ड वापस नहीं हो रहे
माओ के मवाद
को
साफ़ करना ही होगा
कैसे ..........?
यही सोच रहे हैं ....... सब ........
वो भी जड़ से .........
जड़ कहाँ है
तुमको मालूम है न ?
गिरीश बिल्लोरे मुकुल , जबलपुर    


सोशल-मीडिया पर छील देते हैं मित्र सलिल समाधिया


            
 सलिल समाधिया 
  स्वभाव गत बेबाक ,  
 सलिल समाधिया  मेरी मित्रसूची में सर्वोपरी हैं. सोशल मीडिया के जबलपुरिया  लिक्खाड़ इन दिनों स्तब्ध नि:शब्द से जान पडतें हैं. सलिल फ़िज़ूल बातों से दूर अपनी मौज की रौ में बह रहे हैं.  आइये हम देखें एक ज़बरदस्त पोस्ट .. 
कल एक मित्र ने पूछा , "आप, सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर क्यों नहीं लिखते हो ?
अब जवाब सुनिए,
         हाँ, मैं नहीं लिखता ..रेप पर , मॉब लिंचिंग पर, राजनीति पर, गरीबों की व्यथा पर ,
क्योंकिं... मैं नहीं चाहता की मैं अपनी पीड़ा और आक्रोश का लावा शब्दों के जाम में उडेलूं और उसे सोशल मीडिया पर शराब की तरह पिया जाए...
क्योंकि ..बोल लेने से , बक लेने से
बुझ जाती है ..आग
चुक जाता है ..वीर्य
कुंठित हो जाता है ..पुंसत्व !
इसीलिए तॊ ये देश , क्लीवों का देश हो गया है !
..
क्योंकि , चित्रों , नाटकों और कविताओं ने सोख ली है ...ज़ेहन की गर्मियां और कसी मुट्ठियों की आग !
हां , मैं प्रेम बांटता हूं , और आग संजो के रखता हूं ,
इस क़दर कि ,
काट सकूं , अस्मत पे बढ़ते हाथ !
रुदन बना सकूं , राक्षसी अट्टहास को !
प्रेम , श्रंगार, सौंदर्य के मामलों में मैं कवि हूं ,
पाप और अन्याय के मामलों में मैं फ़ौजी हूं !
     ये आत्मश्लाघा नहीं है , किन्तु हमारे मित्र , परिचित , और विशेषकर महिला मित्र इस बात को भली तरह जानते हैं कि ...अन्याय के विरुद्ध , कैसी - कैसी ताक़तों से हम .लोहा लिए हैं !
लेकिन समाजिक विषयों पर लेख लिखना , मुझे बिल्कुल नहीं भाता , .
...
बहुत से कारण हैं , चलिए एक उदाहरण देता हूं कि मैं स्त्री - विमर्श पे क्यों नहीं लिखता ...
बहुत खरा और कड़वा लिखूंगा , टॉलरेट कर लीजिएगा !
कहीं दूर नहीं , अपने ही मित्रों की बात करूंगा , जिनमें प्रोफ़ेसर , क्लास वन ऑफिसर्स , वक़ील , कलाकार सब शमिल हैं !
पहले ये जान लीजिए कि भारत के पुरुषों का ' माइंड सेट ' क्या है ? भारत का पुरूष निहायत ही छिछोरा , लम्पट और घोर पुरुषवादी सोच का है !
     भारत में 10 में से 7 पुरुष आपको ऐसे मिलेंगे जो अपनी प्रेमिका को 'सेटिंग ' और मिलन को 'काम लगा दिया ' जैसे शब्दों से सुशोभित करते हैं ! अपनी पत्नियों के बारे में भी बाहर बहुत भौंडे शब्दों का प्रयोग करते हैं
वो स्त्री , जो प्रेम में अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर देती है , उसके लिए सेटिंग और सामान जैसे शब्द ..? बेशक ये शब्द भारत के पुरुष के अवचेतन (..sub - conscious ) में छिपे भावों का पता देते हैं ! जहां प्रेम.... है ही नहीं , बस गंदी , लिजलिजी वासना का राक्षस खड़ा है !
अब ऐसे छिछोरे वीर्य कणों से जो संतानें पैदा होंगी , वे निहायत ही पुरुषवादी , स्त्री को भोग और दासी समझने वाली न होंगी , ऐसा सोचना , आँख पे पट्टी बांध लेना ही है !
ये सामूहिक मनसिकता सब ओर संचारित है ! और यही प्रकट होती है बच्चों , स्त्रियों पे गिद्धों की तरह !
           अब आप लाख सोशल मीडिया पे निर्भया कठुआ ,मंदसौर करते रहिए , मगर जब तक आपके घर के पुरुषों के रक्त में ये कुंठित पुरुषवाद दौड़ रहा है आपके लेख , कविताओं , चित्रों से कुछ नहीं उखड़ने वाला !
           आपमें साहस है तॊ स्पॉट पे प्रहार करें ! लेकिन वो तॊ तब होगा न , जब नसों में लावा बह रहा होगा ,
आप तॊ कविताएं , लेख , टिप्पणी लिखकर नदारत हो जाने वालों में से हैं न ! !
               इन छिछोरों से आप प्रेम की , रोमांस की , भावनाओं की गहराई की अपेक्षा करते रहिए , मैं नहीं कर सकता !
.....
जी हाँ , मैं इसीलिए नहीं लिखता इन विषयों पर ! !
साइकोलोजिस्ट कहते हैं कि अगर आत्महत्या करने वाला व्यक्ति , एक पेज़ से लम्बा सुसाइड नोट लिख ले , तॊ फिर उसके सुसाइड करने कि संभावना ख़त्म हो जाती हैं ! ...क्योंकि उसका अवचेतन सब उगलकर शान्त हो जाता है !
             भारत में कोई क्रांति नहीं हो सकती , क्योंकि सोशल मीडिया पे सामाजिक सरोकारों के लेख , चित्र , कविताएं ..सब गर्मी और आक्रोश को सोख लेते हैं !
छिनाल पन से भरे चित्त , रेप के विरोध में लिख रहे हैं !
आकंठ भ्रष्टाचारी , ईमानदारी और परिवर्तन की बातें करते हैं !
स्वयं क्रूरता से भरे तमाशबीन लोग , .. स्त्री अत्याचार , मॉब लिन्चिन्ग , दलित उत्पीड़न पर लिख रहे हैं !
नहीं , मैं कभी भी इस .नकली जमात में खड़ा नहीं हो सकता ! मैं नहीं चाहता कि मेरा वीर्य , सोशल मीडिआ के अक्षर सोख लें !
...
मैं इस दिव्य असंतोष के लावे के तेज से दैदीप्यमान हूं ,
...इसीलिए, ' स्पॉट ' पे जूझता हूं , ' पोस्ट , पे नहीं !


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Brain and Universe on YouTube Namaskar Jai Hind Jai Bharat, Today I am present with a podcast.    The universe is the most relia...