5.4.17

हममें राम नहीं है.. क्यों ?


हममें राम नहीं है.. क्यों ?
इस मुद्दे पर फिर  कभी विस्तार से बात होगी ,,,,,, अभी फिलहाल   मान लिया  राम का जन्म  ही नहीं हुआ था. अयोध्या में तो बिलकुल नहीं हुआ. पर एक बात तो तय है कि...  राम का जन्म नित होता है... हर जगह जहां आस्था है .... विश्वास है... उस अयोध्या में जहां मर्यादा का वातावरण हो ........ क्या हमने ऐसा वातावरण बना लिया है कि राम जन्म लें ..? 
शायद नहीं .. ! 
यानी हममें राम नहीं है.. पर  क्यों ? 
अगर राम हैं तो वो बालराम  हमारे मन मंदिर में तो क्या वो राम वहीं ठुमुक ठुमुक चल रहे हैं क्या किशोर युवा और फिर राजा राम के रूप में 
 क्या  रामराज्य लाएंगें..? 
जहां मर्यादित सांस्कृतिक वैभव होगा. आम नागरिक बिना ताला लगाए शान्ति से रह सकेंगें ..? 
 क्या हो  कि राम हममें अन्तर्निहित हों. राम हममें तब वास करेंगे जब हममें राम के अनुकूल वातावरण निर्माण की क्षमता आ जावेगी.
वास्तव में राम क्या है उस तत्व को समझने और समझाने की ज़रूरत है. 
आज हमारे  के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हैं जो  कि  राम का लेशमात्र आभास भी कर पाए. हम आत्ममुग्ध हैं. त्रेता में ये न था जब राम का विशाल साम्राज्य भूखंड पर ही नहीं आत्माओं पर भी था. आज राम पर भी  संदेह है कि राम एक माईथ है . यानी कवियों की कल्पना में बसा एक चरित्र ...... लोग इसी तर्क के सहारे राम के जन्मस्थल को भी काल्पनिक स्थान मानतें हैं.
ये सब आयातित विचार धारा जनित एक सांस्कृतिक हमला है जो कई बरसों से जारी है. 
एक  आयातित विचारधारा ने न केवल राम के होने पर सवाल खड़े किये हैं वरन समूची आस्थाओं को सिरे से खारिज किया और बौद्धिक विलासी लोगों को ये पक्ष पसंद आया
        राम कृष्ण ताओ, आदि आदि सबको नकारने लगे.. ऐसे लोगों की संख्या आज भी दिन दूनी बढ़ रही है. राम की आराधना मात्र से साम्प्रदायिक हो जाने की पर्चियां चस्पा कर दी जातीं हैं हम पर हम राम विहीन हैं . क्योंकि हम मर्यादित नहीं हमने आयातित विचारों को स्वीकारा क्योंकि वो अधिक सुविधा जनक पाए गए . राम के जीवन दर्शन में क्या मिलता न विलासिता न भौतिकवादी सम्पन्नता . क्योंकि हमें जो भी करना है राम की तरह मर्यादित होकर यानी सदाचारी होकर तो हम विलासिता भरे जीवन से मोहताज़ होना होगा .
आयातित विचारधारा का उद्देश्य भारतीय सनातन की समाप्ति के खिलाफ वातावरण का निर्माण करना है ताकि हम छद्मयुद्ध का हिस्सा बने रहें. 
हे राम हममें राम भी नहीं है तो हम विजयी होंगे या विजित ये राम जान सकते हैं हम तो अब ये जान गए हैं कि हममें राम नहीं और जिनमें राम नहीं उनमें कुछ भी नहीं होगा.
तत्वबोध मोरे मन नाहीं 
तर्क युक्त बुधि समझ न पाहीं ।
किसी बिधि राम अइहैं मन द्वारा
कस प्रवाहमय चिन्तनधारा ।
कलजुग देह दूषित मन कुण्ठा 
प्रभू पर भी हम करें असंका ।।

23.3.17

पांच साल तक उलटे लटके रहो फिर विक्रम आएगा..


 एक चैनल  ने कहा चीलों को बूचड़खानों में खाने का इंतज़ार रहा. बूचड़खानों को बरसों से लायसेंस का इंतज़ार था. मिल जाते तो ? चील भूखे न रहते अवैध बूचड़खाने बंद न होते  ... 
बूचड़खानों को वैध करने की ज़िम्मेदारी और गलती  किसकी थी. शायद कुरैशी साहब की जो बेचारे सरकारी दफ्तर में बूचड़खाने को लायसेंस दिलाने चक्कर काट रहे थे...और सरफिरी व्यवस्था ने उनको तब पराजित कर दिया होगा..?
काम कराने के लिए हम क्यों आज भी नियमों से जकड़ दिए जातें हैं . कुछ दिनों से एक इंटरनेट के लल्लनटॉप चैनल के ज़रिये  न्यूज़ मिल रही है कि गरीबों के लिए  राशनकार्ड बनवा लेना उत्तर-प्रदेश में आसान नहीं है..! ......... दुःख होता है.. दोष इसे दें हम सब कितने खुद परस्त हैं कि अकिंचन के भी काम न आ पाते हैं ... दोष देते हैं.. सरकारों पर जो अफसर, क्लर्क, चपरासी के लिबास में हम ही चलातें हैं. क्यों हम इतने गैर ज़िम्मेदार हैं.    
आप सब  तो जानतें ही हैं कि रागदरबारी समकालीन सिस्टम का अहम सबूती दस्तावेज है.. स्व. श्रीलाल शुक्ल जी ने खुद अफसर होने के बावजूद सिस्टम की विद्रूपता को सामने लाकर आत्मचिंतन को बाध्य किया... !  
कल कविता दिवस पर बच्चों  से वार्ता के दौरान हमने बताया था कि- जिस तरह लोग साहित्य को पढ़ रहे हैं वो तरीका ठीक नहीं. आज एक और एहसास हुआ जिस तरह लोग सथियों को पढ़ रहे हैं आजकल वो भी तरीका ठीक नहीं ?”
तो फिर ठीक क्या है.. ठीक जो है वो ये कि हम अपनी अध्ययनशीलता को तमीज़दार बनाएं. चाहे वो किताब पढ़ने का मुद्दा हो या दुनिया के कारोबार का. दौनों  को पढ़ने का सलीका आना चाहिए.
दुनिया भर के खुशहाल देशों की आज एक लिस्ट जारी हुई जिसमें भारत को शोधकर्ताओं नें 117वें स्थान पर रखा है. रखना लाजिमी है... जब आम और  ख़ासवर्ग दोनों की समझदारी तेल लेने बाज़ार गई हो नौ मन तेल ज़रूरी है खुशियाली की राधा जी तभी न नाचेंगी...अब खरीददार ही कन्फ्यूज़ है तो तेल खरीदा भी न जाएगा न राधा जी नाचेंगी ये तय है.
“...........ऐसा क्यों..?
भाई ऐसा इस लिए क्योंकि न तो हमको  दुनिया को पढ़ने की तमीज है और न ही टेक्स्ट को..!
आप यह दावा कैसे कर सकतें हैं ...?”
 “भाई हम ठहरे दो कौड़ी के लेखक .. हम तो कुछ भी कह सकतें हैं. अरे जब नेता जी की जुबां पर लगाम नहीं टीवी पर चिकल्लस करने वालों में तहजीब नहीं तो हम और क्या लिखें अच्छा लिखेंगे तो आप हमको बैकवर्ड कहोगे अच्छा आपको पढ़ना नहीं अब बताओ भैया कल एक मोहतरमा ने फेसबुक पर बलात्कार के के खिलाफ ऐसी पोस्ट लिखी जैसे वे किसी विजय वृत्तांत का विश्लेषण कर रहीं हों..उनके लिखने का मकसद अधिकतम पाठक जुटाना था न कि समाज को सुधार लाने के लिए उनकी कलम चली.
           अब बताओ एनडीटीवी वालों ने अवैध  बूचड़खाने को चीलों की भूख से जोड़ा तो कौन सा गलत किया. प्रजातंत्र है सीधे को उलटा साबित करो फिर जब दुनिया दूसरे मुद्दों पर विचार करने लगे तो उस उलटे को सीधा साबित कर दो. यानी विक्रम का मुंह खुलवाओ और फुर्र से वैताल सरीखे आकाश मार्ग से जा लटको किसी पेड़ पर.
पांच साल तक उलटे लटके रहो फिर विक्रम आएगा..  तब तुम उसका मुंह खुलवाना वो बोला कि तुमको उलटे लटकने का शौक पूरा करने का मौका मिल जाएगा.. 
      मुद्दा ये नहीं कि हम किसी डेमोक्रेटिक सिस्टम में कोई समस्या है मुद्दा तो ये है कि हम सिस्टम को खुद पढ़ रहे हैं या कोई हमको पढ़वा रहा है. डेमोक्रेटिक सिस्टम को अगर हम पढ़ ही रहें हैं तो हमारे अध्ययन का तरीका क्या है..?
टी वी पर चैनल्स पर  रोज बहुत तीखी बहसें हमें पढ़ा रहीं हैं.. हम असहाय से उसे ही पढ़ रहे हैं . हमारे पास न तो आर्थिक चिंतन हैं न ही सामाजिक सोच....... चंद  जुमले याद हैं जो वाट्सएप से फेसबुक से मिले हैं फिर शाम को टीवी चैनल्स का शास्त्रार्थ ............! 

 मौलिकता हम से दूर है शायद जुमलों ट्वीटस - के सहारे हम राय बनाते हैं. हम सोचते हैं हम सही है पर आत्म चिंतन के लिए न तो हम तैयार हैं न ही हम अब उस लायक रह गए हैं. इसकी एक वज़ह है की हममें ज्ञान अर्जन की तमीज नहीं न तो हम टेक्स पढ़ पाते हैं.... और न ही स्थिति पढने की तमीज है.. मुझे भय है कि कहीं ऐसा न हो हम चेहरा बांचना भूल जाएं . 

14.3.17

या जोगी पहचाने फ़ागुन, हर गोपी संग दिखते कान्हा

फ़ागुन के गुन प्रेमी जाने, बेसुध तन अरु मन बौराना
या जोगी पहचाने फ़ागुन, हर गोपी संग दिखते कान्हा
रात गये नज़दीक जुनहैया,दूर प्रिया इत मन अकुलाना
सोचे जोगीरा शशिधर आए ,भक्ति भांग पिये मस्ताना
प्रेम रसीला, भक्ति अमिय सी,लख टेसू न फ़ूला समाना
डाल झुकीं तरुणी के तन सी, आम का बाग गया बौराना 
जीवन के दो पंथ निराले,कृष्ण की भक्ति अरु प्रिय को पाना 
दौनों ही मस्ती के  पथ हैं  , नित होवे है आना जाना--..!!
चैत की लम्बी दोपहरिया में– जीवन भी पलपल अनुमाना
छोर मिले न ओर मिले, चिंतित मन किस पथ पे जाना ?

8.3.17

*अनकही* 🦋women's day special


🦋 *अनकही* 🦋
*वह कहता था*
*वह सुनती थी* 
*जारी था एक खेल* 
*कहने सुनने का*
 
*खेल में थी दो पर्चियाँ*
*एक में लिखा था ‘कहो’*
*एक में लिखा था ‘सुनो’*
 
*अब यह नियति थी*
शरद कोकास 
*या महज़ संयोग*
*उसके हाथ लगती रही* 
*वही पर्ची*
*जिस पर लिखा था ‘सुनो’*
*वह सुनती रही*
 
*उसने  सुने आदेश*
*उसने सुने उपदेश*
*बन्दिशें उसके लिए थीं*
*उसके लिए थीं वर्जनाए*
*वह जानती थी* 
*कहना सुनना नहीं हैं*
*केवल हिंदी की क्रियाएं*
 
*राजा ने कहा ज़हर पियो*
*वह मीरा हो गई*
*ऋषि ने कहा पत्थर बनो*
*वह अहिल्या हो गई*
*प्रभु ने कहा घर से निकल जाओ*
*वह सीता हो गई*

*चिता से निकली चीख*
*किन्हीं कानों ने नहीं सुनी*
*वह सती हो गई*
 
*घुटती रही उसकी फरियाद*
*अटके रहे उसके शब्द* 
*सिले रहे उसके होंठ*
*रुन्धा रहा उसका गला*
 
*उसके हाथ कभी नहीं लगी*
*वह पर्ची*
*जिस पर लिखा था - ‘ कहो* ’

◆◆◆◆◆◆◆
 

27.2.17

*" कन्यादान नहीं करूंगा "*

श्री शैलेंद्र अत्रे की कविता*
*" कन्यादान नहीं करूंगा "*
जाओ , मैं नहीं मानता इसे ,
क्योंकि मेरी बेटी कोई चीज़ नहीं ,
जिसको दान में दे दूँ ;
मैं बांधता हूँ बेटी तुम्हें एक पवित्र बंधन में ,
पति के साथ मिलकर निभाना तुम ,
मैं तुम्हें अलविदा नहीं कह रहा ,
आज से तुम्हारे दो घर ,
जब जी चाहे आना तुम ,
जहाँ जा रही हो ,
खूब प्यार बरसाना तुम ,
सब को अपना बनाना तुम ,
पर कभी भी ,
न मर मर के जीना ,
न जी जी के मरना तुम ,
तुम अन्नपूर्णा , शक्ति , रति सब तुम ,
ज़िंदगी को भरपूर जीना तुम ,
न तुम बेचारी , न अबला ,
खुद को असहाय कभी न समझना तुम ,

मैं दान नहीं कर रहा तुम्हें ,
मोहब्बत के एक और बंधन में बाँध रहा हूँ ,
उसे बखूबी निभाना तुम .................
*- एक नयी सोच एक नयी पहल*

19.2.17

Kids always remember 24 September 2014 for MOM


Kids please don’t under estimate India because India always think about you every step of our country only for next generation. I think finding  of “0” was the first Enovation for world of mathematic watch this video uploaded on youtube by Mr. Jignesh Rohit ……  
thanks youtube   


13.2.17

भारत में ब्राह्मणों की स्थिति


विकास हर पल होता है होना भी चाहिए ... पानी और समय को रोकिये तो पाएंगें की पानी और समय दौनों में मलिनता आ ही जावेगी. अस्तु तो सनातन से ही हम “चरैवेती चरैवेती” के उदघोषक हैं... जो न तो यवनों को हासिल है न ही विश्व की  किसी भी सामाजिक व्यवस्था में शामिल रहा है. आप सोच रहे होंगे कि यहाँ यवन आए, ब्रिटिश आए तो क्या चल के न आये होंगे....?
जी हाँ वे सब आए  चलकर ही आए थे... प्रवास के लिए पथसंचलन आवश्यक है . पर याद रखिये  वे जटिल और स्थिर विचारों एवं मान्यताओं के साथ आये थे ...सो उनको हर जगह से लौटना पडा कुछेक बातों को छोड़ दें तो वे सनातनी व्यवस्था को समाज से प्रथक न कर पाए . दूसरी ओर ... जबकि हम सनातनी जब भी बाहर गए तब समृद्ध और मौलिक चिंतन तथा विचारधारा के साथ गए हमारे प्रवास का कभी भी उद्देश्य सत्ता का विस्तार न था. हम सदा मूल्यों की स्थापना के साथ गए . हमने हमारा सनातनी व्यवस्थापन का मार्ग तद्समकालीन   विश्व को सिखाया भी. यही है हमारी सनातनी-शक्ति जो हमें वेदों ने दी निरंतर मिल रही है. यही सनातनी-शक्ति हमारे लिए रक्षाकवच है.  
सुभाष बाबू विप्र थे एमिली से विवाह के संस्कार को सनातनी ही रखा तो अशफाक के साथ विप्र चंद्रशेखर आज़ाद ने धार्मिक सहिष्णुता को सर्वोपरी रख देश के लिए स्वाहुति दी.
उपरोक्त बातों का अर्थ क्या है..? यही न कि राष्ट्रधर्म सर्वोपरी है .. विप्रों ने जब जब राष्ट्रधर्म को प्रथम माना तब तब राष्ट्र ने श्रेष्ठता साबित की पर जब भी विप्र पक्षपाती हुए हैं देश को क्षति हुई है. विप्र को न तो खुद के लिए न ही खुद के परिवार के लिए कार्य करना है बल्कि राष्ट्रहित में वो करना है जो सर्वदा “सर्वजन हिताय” हो.      
यद्यपि ब्राह्मण का जन्म सामंजस्य और समता के लिए होता है. पर जब उसके इस हेतु में बाधा होती है तब किसी न किसी चाणक्य का प्रादुर्भाव होता है. उदाहरण सर्वव्यापी है कि -  जब नन्दराज़ ने चाणक्य को विदेशी  आतंक के विरुद्ध एकजुटता एवं अखंड-भारत के आह्वान पर अपमानित किया तो विप्र ने सही समय पर चन्द्रगुप्त के ज़रिये उस अपमान को महान ऐतिहासिक घटना में बदलने का “हेतु” बना दिया. सनातनी ब्राह्मण सदा “अखंडता का हिमायती होता है” चाहे वो राष्ट्र की अखण्डता हो या राष्ट्र में अखण्डता हो . 
सनातनी व्यवस्था में सब कुछ परिवर्तन शील है. ब्राह्मण कुलों का दायित्व है कि वो राजा को भी आवश्यकता होने पर मुखर होकर  सदाचरण का ज्ञान दे . किन्तु समकालीन परिस्थिति में समाज का हर वर्ण बिखरा बिखरा सिगमेंट में जी रहा है. सबके उद्देश्य भी प्रथक प्रथक हों ... तब जब मन ही खंडित हों तब अखंड-भारत का स्वप्न दिवा स्वप्न लगता है. न ही विप्रों में वो आत्मबल नज़र आ रहा है. 

परन्तु इस विघटन से मुक्ति के मार्ग है कठिन हैं  पर राष्ट्रहित में हैं...... लोक हित में हैं... वो है खुद की जड़ों का सिंचन. खुद को श्रेष्ठ साबित करना नहीं बल्कि जिस वर्ण से हम हैं उसे राष्ट्रोपयोगी बनाना. 
वर्तमान में विप्र वर्ग की स्थिति दिनों दिन दयनीय हो रही है एक अदद चाणक्य की ज़रूरत से इनकार नहीं किया जा सकता . 

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...