9.1.16

महिला सशक्तिकरण गीत "लाडो पलकें झुकाना नहीं " लोकार्पित

मानस भवन जबलपुर में आज दिनांक 8 जनवरी 2015 को मानस भवन जबलपुर में  श्रीमति मायासिंह माननीया मंत्री महिला बाल विकास एवं सांसद श्री राकेश सिंह जी के करकमलों से "लाडो पलकें झुकाना नहीं " गीत का लोकार्पण हुआ . इस अवसर पर डा स्वाति सदानंद गोडबोले महापौर जबलपुर, श्रीमती एल बी लोबो (माननीया मनो. विधायक ) श्रीमती प्रतिभा सिंह, माननीया विधायक बरगी श्रीमती नंदनी मरावी माननीया विधायक सिहोरा, प्रमुख सचिव महिला बाल विकास, श्री जे एन कंसोटिया, आयुक्त आई सी डी एस श्रीमती पुष्पलता सिंह , श्रीमति राजपाल
कौर दीक्षित, एडीशनल डायरेक्टर, सुश्री सीमा शर्मा संयुक्त संचालक, आई सी डी एस, श्रीमती उपस्थित थी आयुक्त महोदया महिला सशक्तिकरण श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव की प्रेरणा से मेरे अभिन्न मित्र के साथ पूर्वी फड़नीस यह  गीत जो महिला सशक्तिकरण संचालनालय मध्यप्रदेश की योजनाओं पर केन्द्रित है. इस गीत को लिखने ईश्वर ने मुझे अवसर दिया . गीत को संगीतबद्ध किया श्री हरप्रीत खुराना ने . मित्र श्री के जी त्रिवेदी  (जवाहर बाल भवन भोपाल ) के निर्देशन में वीडियो निर्माण बालभवन भोपाल के कलाकारों ने किया .
       माननीय मंत्री महिला बाल विकास श्रीमती मायासिंह जी ने  8 जनवरी 2016 को रिलीज़ हुए “लाडो पलकें झुकाना नहीं ..!” गीत यूट्यूब 04 चैनल्स पर अपलोड हो चुका है . आप भी देखिये और पसंद आने पर इसे मित्रों के लिए शेयर कीजिये                  
                         सादर आभार
    गीतकार : गिरीश बिल्लोरे “मुकुल” गायक- सत्शुभ्र मिश्र , एवं पूर्वी फडनीस  
एवं के जी त्रिवेदी वीडियो




5.1.16

ये बात सुनो मस्ताने की, बेबाक़ सुनो मस्ताने की !

जब भी रीता तब करता हूँ, कोशिश फिर से भर जाने की
तुम  रीत गए तो रोना क्या बेबाक़ सुनो मस्ताने की  !
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जबजब  मैं दीवाना होकर, मस्ती में झूमा करता हूँ .
जो पागल कहते हैं मुझको, मैं उनको चूमा करता हूँ ..!
मैं प्रेम बांटने निकला हूँ .. छोडो आदत ठुकराने की !!
ये बात सुनो मस्ताने की, बेबाक़ सुनो मस्ताने की  !
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मैं सावन भीगा भीगा हूँ , तुम सब आओ इक संग भीगो
समरता की मधुशाला में , इक साथ बैठ प्याले पीलो  
जब माटी में ही मिलना  हो तो क्यों आदत हो सकुचाने की,
ये बात सुनो मस्ताने की, बेबाक़ सुनो मस्ताने की  !
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जग ज़ाहिर है तुम छिप छिप के मदिरालय जाया करते हो
तुम क्या जानो कैसे कैसे , वापस फिर  आया करते हो..?
निकलोगे भेस  बदल के जो , दुनिया कैसे पहचानेगी ?  
ये बात सुनो मस्ताने की, बेबाक़ सुनो मस्ताने की  !
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2.1.16

जिस घर आँगन विदुषी बिटिया वो घर ही धनवान

छवि: शालिनी अहिरवार 






















“सबला-गीत”
दृढ़ निश्चय करके हमने,  किया आज ऐलान
हर बिटिया को देना होगा, जीवन का हर ज्ञान !
जिस घर आँगन विदुषी बिटिया वो घर ही धनवान
जिस घर की बेटी हो सबला वो घर ही बलवान !!
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माँ सोई तो अभिमन्यु ने विजय द्वार न पाया
जागी मात जसोदाने, तिरलोक का दर्शन पाया !
अर्थ यही है बेटी को भी होने दो हर ज्ञान –
तब सच में पाएगा भारत विश्व गुरु का मान ..!!  
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“निर्णय-क्षमता” के विकास का, देना है अधिकार
स्वस्थ्य रहे सबल हो बेटी, पक्का हो आधार !
कल की माएं होंगी सक्षम, तबकरना अभिमान –
नए दौर में नए क्षितिज का करना है निर्माण !!
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30.12.15

कम बोलते हैं शुभम बोलती हैं उनकी पेंटिंग्स



  20 अगस्त 1997 को जन्मे शुभम के पिता श्री जगदीश राज अहिरवार पेशे से सब्जी व्यापारी हैं

. 2007 में  बाल भवन में बेटे को उसकी रूचि देखते हुए  संभागीय बाल भवन में प्रवेश दिलाया । रोज़ कमाने वाले जगदीश बच्चों के भविष्य को लेकर बेहद संवेदित हैं .बच्चों को घरेलू आर्थिक परेशानियों से अप्रभावित रखने वाली शुभमराज माताजी श्रीमती कोमल का सपना है –“बच्चे के  सारे सपने पूरे हों.... !
          तीन भाईयों में शुभम सबसे बड़े बेटे शुभम जिसका रुझान बचपन से ही  चित्रकारी में है जबकि अन्य छोटे भाई खेल और पढ़ाई में रुचि रखते हैं ।

 शुभम का   चित्रकला के प्रशिक्षण का सपना बाल-भवन ने  पूरा किया । उसका मानना है हमें  खुद के विकास के  लिए  अच्छे अवसर एवं अच्छे स्थान की तलाश  करनी चाहिए मुझे बालभवन जबलपुर में आकर अपने सपने पूरा करने का मौका मिला  मैं रोमांचित हूँ । अपनी सफलता का श्रेय माता पिता एवं बालभवन को देते हुए शुभमराज ने कहा की- बाल-भवन  की अनुदेशिका श्रीमती रेणु पाण्डे के प्रभावी प्रशिक्षण एवं अनुशासन से ही  मुझे राष्ट्रीय स्तर के इस पुरस्कार प्राप्त हुआ है ।” 
बालभवन अनुदेशिका श्रीमती रेणु पाण्डे कहतीं हैं
-
बालभवन आने से कला के साथ साथ शुभम के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आएँ है । कला-साधना से जहां एक ओर  शैक्षिक उपलब्धियां श्रेष्ठ रहीं वहीं उसके संवाद-कौशल एवं व्यक्तित्व में भी निखार देखा गया । शुभमराज अहिरवार पंडित लज्जा
शंकर झा उत्कृष्टता विद्यालय में 12 वीं कक्षा (गणित-विज्ञान) में अध्ययनरत हैं ।
इस उपलब्धि पर संभागीय उप संचालक
  श्रीमती मनीषा लुम्बा
, जो पूर्व में बालभवन की संचालक रह चुकीं हैं का मानना है कि- "कला को कोई अभाव रोक पाने में कभी भी सफल नहीं हो सकता " 
शुभमराज़ अहिरवार 2013 के बालश्री अलंकरण लिए  नामांकित हैं देवताल
जबलपुर का सजीव चित्र जिसे
 
मास्टरपीस कहना गलत न होगा . इस चित्र
का विश्लेषण किया मशहूर आर्टिस्ट
 
धुव गुप्ता जी ने ... मुझसे आज
कर रहे थे वे.. शुभमराज देश का मशहूर चित्रकार बनेगा ... इसमें कोई दो राय नहीं .
शुभम राज के स्कूल के शिक्षक श्री शिवेन्द्र परिहार साइंस व्याख्याता  जो स्वयं एक
अच्छे शिक्षक हैं ने शुभम की रियलिस्टिक पेंटिंग्स को अद्वितीय बताते हैं . 
यूं तो शुभम कम बोलते हैं पर उनकी पेंटिंग्स मुक्तकंठ बोलती हैं ...  


23.12.15

निर्भया आखिर पत्थर को पिघला दिया तुमने पर देर हो गई



निर्भया तुम ज्योति बनी परन्तु बहुत देर हो जब तक तुम्हारे-ताप से पत्थर पिघले तब तक तुम्हारा क्रूर अपराधी सिलाई मशीन लेकर तार तार हुए  दिलों के पर सुइयां चुभाने की कोशिश में लग जाएगा . फिर भी तुम्हारी वज़ह से पत्थर पिघले .... चली गईं पर तुम्हारे बलिदान ने देश को अप्रतिम उपहार दिया है ..... क्या कहूं नि:शब्द हूँ ..... अब एक भी अक्षर लिखना मेरे लिए भारी है ....... नमन बेटी ............   
( जुविलाइन जस्टिस अधिनियम संशोधन पर त्वरित टिप्पणी )

22.12.15

टनों पिघले हुए मोम पर सुलगता सवाल "ज्योतिसिंह यानी निर्भया "



डा राम मनोहर लोहिया जी ने कहा था- "ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं" अगर लोहिया ने सही कहा है तो हमें अपने ज़िंदा होने पर संदेह है. निर्भया यानी ज्योति सिंह के जीने मरने से किसी को क्या फर्क पडेगा. पड़े भी क्यों भारत में जो जब ज़रूरी तौर पर होना चाहिए वो तब हो ही कैसे सकता है . जब सब जानते हैं कि निर्भया यानी ज्योति के बलिदान के बाद टनों से मोमबत्तियां पिघला तो दीं आम जनता ने... सुनो निर्भया की माँ....! और हाँ  पिता तुम भी सुन लो...!!  हमने भी अगुआई की थी ... उस दिन मोमबत्ती जला कर ये अलग बात है उसी पिघले मोम पर आप सवाल सुलगा रहे हो ..!
क्या रखा है इस सबमें जाओ जब संभव होगा तब हम बदलेंगे  ..... क़ानून अभी हमको फुरसत नहीं हमको विरोध करना है ... ताकत दिखानी है तब तक आप इंतज़ार करो .. 
ऐसा इस लिए कहा जा रहा है क्योंकि  शोकमग्न हूँ रो रहा हूँ ..  देश उस हकीम के सामने है जो पर्ची पर दवा लिखने के लिए कलम तलाश रहा है . कितने असहिष्णु हैं वे लोग जो सहिष्णुता के लिए दोहरे मानदंड रखते हैं . पूरे विश्व को समझ आ गया है . यह भी समझ चुका है देश कितना भुल्लकड़ है . जो डा. लोहिया जी के शब्द भुला बैठा मुझे तो संदेह है कि हम ज़िंदा हैं भी कि नहीं . बार बार साँसों से पूछने को जी चाहता है कि- तीन साल तक क्यों नहीं हम भारतीय केवल एक ही बात समझाने में कामयाब नहीं हुए कि जो बलात्कारी है वो सर्वदा वयस्क ही है . हो सकता था कि जड़मतियाँ सुजान हो जातीं ..?
हम भी कमजोर साबित हुए ... यद्यपि सब सोच रहे थे कि निर्भया के बाद और निर्भया न होंगी इस निर्भया को भी न्याय मिलेगा पर हमारे दिवा-स्वप्न थे .. अब टनों पिघली मोम पर एक सवाल सुलग रहा है ... दोष किसका है ......... शायद ज्योति यानी निर्भया का ही है जो उस बस में जा बैठी .
अलविदा बेटी अलविदा अब हम खुद ठगे गए हैं तेरे लिए कहाँ से लाएं न्याय ?  

   

17.12.15

“क्या सच कमजोरों को दुनियाँ में जीने हक़ है भी कि नहीं..!”


  आज एक बार फिर मेरी नज़र में एक मूर्ख सरकारी अधिकारी के बयान से अपना आलेख शुरू करूंगा जिसने एक बार कहा था-“कमजोर को स्थाईत्व का हक़ कदापि नहीं ! ”
उस नामुराद असहिष्णु अफसर का यह कथन हम जैसे लोगों के लिए असहिष्णु हो सकता हैं किन्तु ज्ञान का हर विस्तार उसे संपुष्ट यानी कन्फर्म करता है  अर्थ-शास्त्र राजनीति-शास्त्र, कायिक-विज्ञान या कहें हर जगह कमजोर के स्थायित्व के अंत की निकटता का विस्तार से उल्लेख है . इस  पुष्टि  के बावजूद इस विषय पर लिखने की जोखिम इस लिए भी उठाया जा रहा है क्योंकि यह सिद्धांत मानवीय सन्दर्भों में यह विषय सर्वथा अग्राह्य होना चाहिए पर समाज में इस बात को इस तरह घुट्टी में पिलाया गया है कि-"कमजोर को अनदेखा करो..!"
यह विचार इतना परिपक्व हो चुका है कि सामाजिक ढाँचे में रच बस सा गया है . और फिर यहीं से आरम्भ होती है असमानता की यात्रा “कमजोर यानी शीघ्र समाप्त होने वाला” जब ये विचार और विस्तार पाता है तो बेशक सामाजिक संरचना इसे आत्म-सात कर लेती है . अरब देशों में नारी के अधिकारों का ज़िक्र करें तो बायोलोजिकल कारणों से पुरुषोचित साम्य न होने के कारण उसे अलग बंदिशों से जूझना  पड़ता है तो मनु-स्मृति अपाहिजों को संगत में पंगत तक में बैठाए जाने की अनुमति नहीं देता . पुरुष-नारी, सबल-दुर्बल, वरिष्ठ-कनिष्ठ, धनाड्य-अकिंचन, ज्ञानी-अज्ञानी, बुद्धिहीन-बुद्धिमान जैसी स्थितियों में जब जीवन के अधिकार अतिक्रमित होते हैं तब लगता है अगर आपमें कोई कमी है जो समाज की बहुसंख्यक आबादी में अपेक्षाकृत अधिक है .... तो नि:संदेह आपके अधिकारों में कटौतियां लादी जा सकतीं हैं . फिर वह मानवाधिकार को अतिक्रमित क्यों न करे सामाजिक पुष्टिकरण प्राप्त होना कठिन नहीं .
किन्नरों के लिए सामाजिक सोच तो इतनी विपरीत है कि उनको अत्यधिक उपेक्षा का शिकार होना होता है ये सब जानते हैं .
भारत जैसे देश में विधवा को सामाजिक-संस्कारों से दूर रखा जाना  दूसरा अहम् सवाल है अन्य धर्मों में भी अब आवाजें उठने लगीं हैं कि दबाव न हो अब कुछ बदलाव हो पर उस आवाज़ को कब सुना जावेगा ये सब उस वर्ग की क्षमता के विकास पर निर्भर करता है शायद ? उधर अपाहिजों को संवेदनाएं अवश्य हासिल हैं किन्तु समानता देने में हिचकिचाना सामाजिक दस्तूर है . ये भारतीय सामाजिक स्थिति नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में यही दृश्य आप सहज देख सकते हैं . भारत के सन्दर्भों में सरकारी कानूनी कारणों से सोच में कुछ हद तक बदलाव आया है खासकर महिलाओं एवं बच्चों की स्थिति में पर निर्भया काण्ड जैसी स्थितियां अचानक संकेत दे देतीं हैं कि - "हम अभी आदिम जंगली सभ्यता से मुक्त नहीं हुए .  कभी ओमप्रकाश बाल्मीकी की किताब "जूठन" याद आती है तो सिहरन हो ही जाती है .   आप   खुद को सबल समझने वाले पुरुषों की नज़रें देखिये तो आप पाएंगे - वे नारी के सौन्दर्य का दर्शन करते समय कितनी हिंसक एवं लालची हो जातीं हैं . अगर आप अचानक किसी असामान्य वस्त्र पहनी लड़की या महिला को हिंसक एवं लोभी नज़रों से  देखने वाले से सवाल करें - "भाई, इन देवी में आपको माँ, बहन अथवा बेटी की छवि कहीं नज़र आई ?" - विश्वास कीजिये ज़वाब मिलेगा - "मेरी बेटी ऐसी नहीं मेरी माँ का पहनावा वैसा है , मेरी बहन तो ऐसी है आदि आदि .." यानी कुल मिला कर नारीदेह पर कपड़े वैसे हों जो कथित रूप सबल होने के दम्भी पुरुष उत्तेजित अथवा लोभी न हों . सार यह कि औरत वो पहने जो पुरुष चाहे . नारी के स्तन देख कर हमें अपनी माँ याद क्यों नहीं पातीं जिस से झरे अमृत ने जीवन दिया ...?
क्यों हैं  हमारी नज़र एक आक्रमणकारी की नज़र शायद हम एक ऐसे आचरण को ओढ़कर बैठे हैं जिसे सिर्फ "कमज़ोर" की तलाश है ..!
           कमजोर को तलाशिये ज़रूर तलाशिये पर उसे सक्षम बनाने के लिए वरना यह खाई बेशक बेहद गहरी होती चली जावेगी फिर उभरेंगें ऐसे चित्र जो भयावह होंगें जिसे आप न देख पाएंगे .. 
अब सोच में बदलाव का अब समय है जीने और अधिकारों में साम्य की ज़रुरत को विकसित हो रही सभ्यता का दुर्भाग्य ही कहा जावेगा. उस मूर्ख अफसर आभारी होना ही है जिसने “कमजोर को स्थाईत्व का हक़ कदापि नहीं ! ” देने वाले विचार से रूबरू कराया वरना ये संक्षिप्त चिंतन संभव न था .

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