30.4.15

काबुल की फर्खुन्दा

काबुल की फर्खुन्दा 
मरने के बाद जी उठती है
आती है मेरे
ज़ेहन में अक्सर
जब किसी बेटी के हाथों में किताब देखता हूँ
डर जाता हूँ घबराता हूँ
अकेले रो भी लेता हूँ
अनजानी फर्खुन्दा के लिए
तब आती है हौले से सिहाने मेरे माथे पे
सव्यसाची की तरह हाथ फेरती है
यकीन दिलाती है
कि उसने किताब नहीं जलाई ............ सच वो बेगुनाह है ..........
किताबें जो सेल्फ में सजी होती हैं
किताबें जो पूजा घर में रखी होतीं हैं
किसी ज़लज़ले में
पुर्जा पुर्जा होती हैं
किताबें जो दीमकें खा जातीं हैं
किताबें जो रिसते हुए पानी में गल जातीं हैं
किताबें जो बच्चे फाड़ देतें हैं
उन का हिसाब रखते हो तुम ?
न कभी नहीं ......... तो फिर फर्खुन्दा की जान लेना किस किताब के हिसाब से जायज़ था ...
किताबें बनातीं हैं
इंसान को इंसान बनातीं हैं
फर्खुन्दा पर  पत्थर पटक कर
उसे ज़लाकर तुमको क्या मिला ..........
क्यों जलाते हो ज़ेहनों में
कभी न बुझाने वाली आग ..........
मरी फर्खुन्दा पर  बड़े बड़े पत्थर बरसा कर
फिर सरे आम जलाकर
उस किताब में ये तो लिक्खा ही न था
Farkhunda was killed in Kabul on 19th of March 2015 in a really bad way, , 

25.4.15

मुहावरे से गायब होता घड़ियाल अब लोग बोलेंगे "आशुतोषी आंसू"

           हमारी बुजुर्ग मौसी जी   बेहद भावुक हैं ज़रा सी बात हुई नहीं कि नगर पालिक निगम के बे टोंटीदार नालों के मानिंद   उनकी आँखों से टप्प टप्प टपा टप अश्रुधार निकल पड़ती है . आपके आंसू उनके आंसुओं में बहुत फर्क है . आपके आंसू निहायत  सियासी अभिनय का एक हिस्सा है जबकि उनके आंसुओं में स्नेह, भावात्मकता की तरलता है .
            आप क्या जानें भावनाओं की तरलता को ........... आपकी सोच में कुंठा और दिखावे का अतिरेक साफ़ तौर पर झलकता है . हम सब मूर्ख नहीं हैं सबने उस सभा को देखा है  सब जानते हैं कि आपकी असहिष्णुता को कुमार के "लटक-गया" की गूँज दिलो दिमाग से हटाए नहीं हट पाएगी . आप मीडिया कर्मी थे उम्मीद थी कि आप में संवेदना होगी ही . किन्तु मंच से आप सभी  उस व्यक्ति को  मौत के पास जाता देख उतरे तक नहीं .............   न जाते तो कम से कम सभा को रोका जा सकता था . जहां तक कुमार का सवाल है वे तो वैचारिक हिंसक होने के प्रमाण अक्सर मंचों पर तब से देते आए हैं जब वे केवल निजी  कालेजों के बच्चों को ये बताते फिरते थे कि - भारत ही एक ऐसा देश है जहां ........... खैर छोडिये उस बेटी की आह का असर आप पर कतई नज़र नहीं आ रहा था क्योंकि आप जानते हैं - "आह को चाहिए एक उम्र असर होने ...... " आप उस उम्र को छू भी नहीं पाए हैं . यहाँ आप आप का अर्थ केवल आप न समझें ... "आप" भी समझें मेरा अनुग्रह है . एक कवि के रूप में मुझे जितनी  पीढ़ा हो रही है उसको आप नाप नहीं पाएंगे . 
      रहा गजेन्द्र की मौत का सवाल उसे भाषण से कम आंकना आपकी सियासी मज़बूरी हो सकती है पर आप सब के निगेटिव चिंतन का पिटारा इस बहाने खुल ही गया . मेरा आलेख सियासी कतई नहीं है . मेरा  साहित्यकार मन  मुझे बार बार लताड़ रहा है . कि ऐसी घटनाओं को देख सुन कर चुप क्यों हो चुप नहीं हूँ आशुतोष मैं  मुखर हूँ पर आप जैसों को देख कर मुझे पल भर को यकीन ही नहीं हुआ था कि आप लोग इतने भी निष्ठुर हो सकते हो . स्तब्ध था गालियाँ देना आता नहीं कठोर हो नहीं सकता शब्द जम गए थे बर्फ की तरह कुछ न लिखा गया.... पर मेरी भी मानवता के प्रति कोई जवाबदेही है . आप सब अभिनेता हो नाटक का हिस्सा हो ना समझ हो अतिउत्साही हो आपको अच्छे बुरे की समझ तो कदापि नहीं अभी जाओ मित्र एक बार फिर किसी स्कूल में दाखिला लेकर ज़िंदगी और सियासत के बीच की बारीकियों को समझो ......... समझदार बनों ........ भीड़ का कोई सिद्धांत नहीं होता ......... अर्रा कर सफलताएं रेत के ढेर में कब बदल जाए किसे पता ....... प्रभू आप सबको सदबुद्धि दे और उसे जो मर गया .......... सदगति दे .. "ॐ शान्ति शान्ति "     

24.4.15

मध्यप्रदेश के बाल विवाह विरोधी लाडो अभियान को पी एम के हाथों मिला सम्मान

         मध्यप्रदेश शासन के महिला सशक्तिकरण विभाग ने 2013 से  लाडो अभियान चलाकर बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006
को प्रभावी बनाने जो कदम उठाए उससे इस दिशा में
अभियान के द्वितीय चरण अर्थात
 लाडो अभियान 2015 के प्रभावी असर दिखाई डे रहे हैं . लाडो-अभियान
एक मिशन मोड में चलाया जाने वाला कार्यक्रम है . इस कार्यक्रम की प्रणेता महिला
सशक्तिकरण संचालनालय की आयुक्त  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव का स्वप्न है
 कि महिलाओं एवं बच्चों सशक्तिकरण के लिए सर्वांगीण पहल होनी चाहिए . आम जनता
को यह महसूस हो कि  सामाजिक बदलाव लाने के लिए
 सरकार के साथ साथ आम नागरिक की ज़िम्मेदारी भी
है . इस हेतु योजनाएं अथवा कार्यक्रमों का जनजन तक पहुँचना आवश्यक होता है .. इसी
क्रम में  महिला सशक्तिकरण संचालनालय की आयुक्त  श्रीमती कल्पना
श्रीवास्तव  की सोच लीक से हटकर नज़र आ रही है . उनकी सोच से  स्वागतम
लक्ष्मी
, लाडो-अभियान , शौर्यादल  जैसे  कार्यक्रम
 समाज के सामने आए हैं जो महिलाओं एवं बच्चों के समग्र कल्याण  के लिए
सामाजिक पहल की  दूरगामी आइडियोलोजी सूत्रपात करने में सक्षम हैं .
 मध्य-प्रदेश का लाडो अभियान
2015   एक ऐसा बहुआयामी कांसेप्ट बन गया है जो भविष्य
के  लिया एक दिशा सूचक का कार्य करेगा.
 
2009 में जारी  यूनिसेफ की
रिपोर्ट से पता चलता है कि -
भारत में दुनिया के सापेक्ष  40
 प्रतिशत बाल  विवाह होते है तथा
 49  प्रतिशत लड़कियों का विवाह 18  वर्ष से कम
आयु में ही हो जाता है।
लिंगभेद और
अशिक्षा का ये सबसे बड़ा कारण है .
 राजस्थानबिहारमध्य
प्रदेश
उत्तर प्रदेश और पश्चिम    
बंगाल में सबसे ख़राब स्थिति है
 यूनिसेफ के अनुसार
राजस्थान में 82 प्रतिशत विवाह 18 साल से पहले ही हो जाते है .
    ऐसा नहीं है कि
भारत सरकार इस सामाजिक कुरीति को रोकने प्रभावी उपाय एवं ऐतियाती कदम नहीं उठा सकी
.  सरकार नें विवाह की आयु का निर्धारण कर कुरीती पर अंकुश लगाने के समुचित
प्रयत्न कर लिए हैं किन्तु सम्पूर्ण रूप से बाल-विवाह रोकने के लिए सामाजिक सोच
में सकारात्मक बदलाव लाने की सर्वाधिक ज़रुरत सदा ही  है .   भले ही
 
 1978  में संसद द्बारा बाल विवाह निवारण कानून
पारित किया गया .  इसमे विवाह की आयु लड़कियों के लिए  
18  साल और लड़कों के लिए 21  साल का निर्धारण  किया गया साथ ही भारत सरकार ने नेशनल प्लान फॉर चिल्ड्रेन 2005  में 2010  तक बाल विवाह को 100
प्रतिशत ख़त्म करने का लक्ष्य रखा था .
 
          कोई भी क़ानून तब प्रभावशाली हो जाता है जब उस देश के लोग उस क़ानून के
महत्व को जानें एवं समझें . इस हेतु वातावरण निर्माण भारतीय प्रजातांत्रिक संरचना
के लिए बेहद आवश्यक है
 
         लाडो-अभियान इसी सोच का परिणाम है . 
                 लाडो
अभियान क्या है ....
?
समाज में प्रचलित बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति से बच्चों का मानसिक शारीरिक, बौद्धिक एवं
आर्थिक सशक्तिकरण पर गहरा एवं नकारात्मक प्रभाव पडता है । बालक एवं बालिकाओं को
उनके अधिकारों से वंचित होना पडता है । मिलेनियम डेवलपमेन्ट गोल जैसे गरीबी
उन्मूलन
, प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण लैंगिक
समानता को बढावा देना
, बच्चों के जीवन की सुरक्षा, महिला स्वास्थ्य में सुधार आदि को प्राप्त करने के लिए बाल विवाह को
 ख़त्म करने  की ज़रुरत  महसूस की जाती रही है .
   पर्याप्त ज्ञान और व्यापक
जागरूकता के अभाव में बाल विवाह की कुरीति बालिकाओं की शिक्षा
, स्वास्थ्य और विकास में बाधक बन रही है । बाल विवाह को केवल कानूनी प्रावधानों
के माध्यम से नहीं रोका जा सकता है
,वरण  इसे
जनजागरूकता और सकारात्मक वातावरण निर्माण कर ही बदला जा सकता है । इसी उददेष्य से
वर्ष
 2013 से बाल विवाह को रोकने के
कार्य को एक अभियान का रूप दिया गया
 ''लाडो अभियान" . 
अभियान के अंतर्गत ग्राम तथा वार्ड स्तर पर  कोर ग्रुप के गठन का प्रावधान भी  है . जो जिला/ विकासखंड / ग्राम / वार्ड  स्तर पर दायित्व बोध कराने का अवसर देता है .
कोरग्रुप एक निगरानी यूनिट की तरह कार्य करता है .    
प्रदेश में बाल विवाह पर अंकुश के लिए वर्ष 2013 में ये अभियान शुरू किया गया।


-श्रीमती श्रीवास्तव ने इसमें जनता व सरकार की
समान भागीदारी सुनिश्चित करने मुहिम चलाई।
-जागरूकता के लिए बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006
के प्रावधानों का प्रचार-प्रसार किया गया। 
-बाल विवाह रोकने के लिए इससे बच्चों को मानसिक
व शारीरिक रूप से होने वाले दुष्परिणामों की जानकारी दी गई।
-बाल विवाह रोकथाम विशेष अवसरों पर चिन्हित
क्षेत्रों में ही होता था
, लेकिन इस अभियान को पूरे प्रदेश में साल भर
चलाया गया।
 
-जिले से ले कर ग्राम स्तर तक कोर सदस्य बनाए गए,
जिन्होंने लोगों को जागरूक किया।
-मात्र 1 वर्ष (अप्रैल 2014 से फरवरी 15) में लगभग 52,000 तय बाल विवाह सम्पन्न् होने के पूर्व परामर्श
से रोके गए।
-1511 बाल विवाह
स्थल पर रोके गए व
41 प्रकरण पुलिस में दर्ज कराए गए।


- अभियान के तहत लगभग 1
लाख बच्चों का दाखिला स्कूल में कराया गया।
-22000 स्कूलों में
बाल विवाह कानून की जानकारी दी गई ।
 अभियान
ने अपने पहले ही चरण में ऐसा वातावरण निर्माण किया कि समुदाय में बाल-विवाह के
प्रति सकारात्मकता की सोच रखने वाले समुदायों एवं व्यक्तियों में भी आमूल-चूल
परिवर्तन के लक्षण परिलक्षित होने लगे हैं .
 सिविल
सर्विस डे पर मंगलवार को नई दिल्ली में आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने जे एन कांसोटिया प्रमुख सचिव
, मबावि,  संचालनालय महिला सशक्तिकरण की आयुक्त श्रीमती
कल्पना श्रीवास्तव व । श्रीमती टिनी पाण्डेय सहायक संचालक महिला सशक्तिकरण एवं
अरविन्द सिंह भाल प्रबंधक महिला वित्त विकास निगम को मेडल व प्रमाण पत्र प्रदान कर
सम्मानित किया


कैसे हुआ लाडो अभियान असरकारी....?
 लाडो-अभियान एवं अन्य कार्यक्रमों के लिए सतत निगरानी मार्गदर्शन एवं उत्साहवर्धन में महिला सशक्तिकरण संचालनालय की आयुक्त  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव  कभी चूक नहीं करतीं . अपने मैदानी अधिकारियों एवं  अमले से   सीधे, अथवा वाट्सएप , फेसबुक, ट्विटर के ज़रिये जुड़े रहना उनको सलाह देना, सपोर्ट करना, श्रीमती श्रीवास्तव का मानो कार्यदायित्व सा हो गया है . वे हर कार्यकारी अधिकारी से व्यक्तिगत रूप से जुड़ जातीं हैं .  

22.4.15

अम्बेडकरनगर का संगीता दहेज हत्या प्रकरण: पुलिस ने मामले को ठण्डे बस्ते मे डाला : भूपेन्द्र सिंह

डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
हम बहुत बड़े और काबिल लेखक/ समीक्षक/ टिप्पणीकार/ स्तम्भकार/ पत्रकार हैं- होते रहें। किसी की बला से। भला बताइए यह सब कुछ होते हुए भी मैं एक गरीब पीड़ित को पुलिस महकमें में न्याय न दिला सकूँ, तब मेरी उपयोगिता और कथित रूप से बड़ा होना उस पीड़ित के लिए क्या मायने रखेगा। कुछ दिनों पहले जी नहीं फरवरी 2015 के अन्तिम दिनों में हमारे गाँव का एक सीधा-सादा और गरीब 65 वर्षीय कहाँर जाति का टेकईराम मुझसे मिला था। उसको बड़ी आशा और अपेक्षाएँ थीं कि मैं उसकी 32 वर्षीया बेटी संगीता की दहेज हत्या में नाम जद आरोपियों को पुलिस में पैरवी करके सलाखों के पीछे करवा दूँगा। यहाँ बताना चाहूँगा कि संगीता की मौत का संवाद प्रमुखता से वेब/प्रिण्ट मीडिया में प्रकाशित भी हुआ, जिसकी रिपोर्टिंग रीता विश्वकर्मा जैसी धाकड़/ईमानदार और स्पष्टवादी पत्रकार ने की थी, लेकिन-23 फरवरी 2015 से इस आलेख के प्रकाशन तक संगीता दहेज हत्याकाण्ड का पूरा प्रकरण ही पुलिस द्वारा ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। अब आप ही बताइए कि मेरा पत्रकारिता जगत में वरिष्ठ और बड़ा होना उन गरीब माँ-बाप और मृतक संगीता के अन्य परिजनों के लिए क्या मायने रखता है। जब भी खबरें पढ़ता हूँ कि अमुक थाना क्षेत्र के अमुक स्थान पर दहेज हत्यारोपियों को पुलिस ने जेल भेजा, तब मेरा कथित रूप से बड़ा पत्रकार होना खुद मुझे ही सालने लगता है। कई सक्रिय और पुलिस से अच्छे सम्बन्ध रखने वाले युवा रिपोर्टर्स से कहा कि वह लोग संगीता देवी दहेज हत्या प्रकरण में हुई प्रगति के बारे में पता करें तो वह लोग भी मेरी अपेक्षा के अनुरूप खरे नहीं उतरे- अब तो मिलके व मोबाइल पर वार्ता करने से भी परहेज करने लगे। साहस करके एक दिन शहर कोतवाली फोन मिलाया। दीवान जी को फोन करने का प्रयोजन बताया। उत्तर मिला कि उक्त मामले में सी.ओ. सिटी दफ्तर से पता करने पर ही कोई जानकारी मिल सकती है। सॉरीमामला दहेज हत्या का है, इसलिए उसकी जाँच सी.ओ. स्तर पर होने के उपरान्त पर्चा सी.ओ. दफ्तर से ही कटेगा।बेहतर होगा कि उक्त दफ्तर से पता करे। फोन रख दिया जाता है। 

मैंने सुन रखा था कि सी.ओ. सिटी की कुर्सी पर एक तेज-तर्रार/ईमानदार युवा महिला विराजमान है। उम्मीद बढ़ी थी, यह भी विश्वास हो चला था कि महिला के मामले में पुलिस अवश्य ही ईमादारी से सख्त कदम उठाएगी। धीरे-धीरे दो माह का समय बीत गया। नतीजा सिफर ही दिख रहा है। यहाँ बता दें कि संगीता देवी (32) की लाश ऊँचे गाँव गौसपुर के करीब मखदूमपुर गाँव के निकट रेलवे ट्रैक पर क्षत-विक्षत अवस्था में 23 फरवरी 2015 की प्रातः पाई गई थी। 23 फरवरी 2015 को थाना कोतवाली अकबरपुर, जनपद- अम्बेडकरनगर (उत्तर प्रदेश) के रोजनामचे पर मु.अ.सं.071/2015 धारा 498, 304बी, 201 आई.पी.सी. के तहत वादी टेकईराम कहांर पुत्र राम सुमेर कहांर निवासी ग्राम अहलादे, थाना बेवाना, जनपद अम्बेडकरनगर (उ.प्र.) द्वारा दी गई तहरीर पर मृतका संगीता देवी (32) के पति संतोष कुमार धुरिया पुत्र छोटेलाल, ससुर छोटेलाल, सास नाम अज्ञात, ननद पुष्पा देवी 4 लोगों को उक्त प्रकरण में नामजद किया गया था। आरोपी खुले आम घूम रहे हैं साथ ही टेकईराम मृतका के पिता एवं परिवार को तरह-तरह से धमकियाँ भी दे रहे हैं। यही नहीं टेकई राम जो पहले सुलह-समझौता चाहता था अब आरोपियों की हरकतों से तंग आकर उनको जेल की राह दिखाना चाहता है। इसीलिए उसने लोवर कोर्ट जिला सत्र न्यायालय में वाद दायर कर दिया है, जिसकी पैरवी फौजादारी के एक जाने-माने एवं महंगे वकील द्वारा की जा रही है। 
मैंने पत्रकार रीता से कहा कि वह ही सी.ओ. स्तर पर जानकारी हासिल करे, तब उसने भी मुँह बिचका दिया और अफसोस जताया कि महिला पुलिस उपाधीक्षक से बात करना व्यर्थ है। कहने मात्र के लिए महिला (नारी) है। उसके बारे में सुना है कि वह लेडी पुलिस ऑफिसर घमण्डी स्वभाव की है। शायद उसको अपने ओहदे और आधुनिक नारीत्व पर घमण्ड है, सीधे मुँह किसी से बात नहीं करती। रीता ने कहा कि पहले जब उसके बारे में सुना नही था तब इच्छा हुई थी कि मैं भी महिला होने की वजह से सम्पर्क बनाऊँ बाद में उसके ओवर पुलिसिया हरकत से मन खिन्न हो गया। संगीता मरे या कोई अन्य नारी उस पर कोई असर नहीं होने वाला। मैं खामोश हो गया, फिर सोचने लगा कि जब एक नारी पुलिस अफसर का रवैय्या ऐसा है तब भला किसी महिला को न्याय कैसे मिल सकता है। 
मुझे याद आने लगी ऐसी कुछ नारियाँ जो महिलाओं ही नहीं समाज के हर पीड़ितों के लिए फ्रण्ट बना लेती हैं, और संघर्ष करके न्याय दिलाने का हर सम्भव प्रयास करती हैं। उत्तर प्रदेश काडर के वरिष्ठ आई.पी.एस. अमिताभ ठाकुर जो वर्तमान में आई.जी. सिविल डिफेन्स हैं उनका परिवार तो इस तरह के मामले में जानकारी मिलने पर संघर्ष शुरू कर देता है। उनकी संहधर्मिणी डॉ. नूतन ठाकुर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। एन.जी.ओ. संचालित करने वाली इस सुशिक्षित महिला के कार्यों की प्रशंसा की जाती है। अब संगीता देवी दहेज हत्या के मामले में डॉ. नूतन ठाकुर और उनके पति अमिताभ ठाकुर से अपेक्षा करता हूँ कि यदि उन तक यह आलेख पहुँचे तो वह लोग कुछ सकारात्मक करेंगे। 
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
प्रबन्ध सम्पादक 
            रेनबोन्यूज डॉट इन

17.4.15

वॉट्सएप में भी ज्ञान का अक्षय भण्डार है भाई

🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆🔆 ईश्वर का कार्य ................

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा....

अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।

जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।

किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।

ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।

ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।

ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराण घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।

किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।

ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।

अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।

सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताश हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।

अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।

तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?

यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।

रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?

ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।

ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।

यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।

तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।

ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!

तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।

उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।

इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।

यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।

अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।

श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।
अंत में एक और
एक ट्रक के पीछे एक
बड़ी अच्छी बात लिखी देखी....
"ज़िन्दगी एक सफ़र है,आराम से चलते रहो
उतार-चढ़ाव तो आते रहेंगें, बस गियर बदलते रहो"
 "सफर का मजा लेना हो तो साथ में सामान कम रखिए
और
जिंदगी का मजा लेना हैं तो दिल में अरमान कम रखिए !!
तज़ुर्बा है मेरा.... मिट्टी की पकड़ मजबुत होती है,
संगमरमर पर तो हमने .....पाँव फिसलते देखे हैं...!

14.4.15

ओबामा जी भारत विश्व के सापेक्ष अधिक सहिष्णु राष्ट्र है : श्रीमती सुलभा बिल्लोरे

बराक ओबामा के भारत दौरे के बाद बराक ने अमेरिका में भारत में  धार्मिक असहिष्णुता के इजाफे की चिंता सताई . बराक साहेब की ही नहीं वरन हम  सबकी चिंता यही है किन्तु  जो बोलना जानते हैं वो ..! जो लिखना जानते हैं वो .... एक मत होकर  सेक्यूलर विचारधारा के परदे की ओट से सदाचारी आवाजों को पागल तक कहने में नहीं हिचकते . क्या यही सैक्यूलरिज्म है ? हम यदि भारत पर नज़र डालें तो पाते हैं कि विश्व के सापेक्ष भारत अधिक धार्मिक रूप से सहिष्णु देश है . सनातन न तो उपनिवेश के ज़रिये विस्तारित हुआ है न ही बंदूकों और तलवारों के ज़रिये .
इस  बीच यदि हम ये समझाने के लिए  यत्नरत हैं कि भाई हम सदियों से साथ साथ रह सकते हैं ... तो क्या गलत कह रहें हैं . हम न तो आतंक के ज़रिये विचारधारा विस्तारित करते हैं और न ही उपनिवेश के ज़रिये . राम अथवा  कृष्ण को आप ने “मिथकीय पात्र” साबित किया है तो उसके पीछे आपकी यह भावना थी कि इतिहास केवल उतना अंकित हो जितना कि आप चाहें . इतिहास में न तो राम को दर्ज किया जावे न ही कृष्ण को ताकि कभी आप साबित कर सकें कि मिथक-किसी धर्म के प्रणेता नहीं हो सकते .
चलिए मान  भी लिया कि न राम थे न  कृष्ण , तो फिर वेदों को भी मान्यता मत दीजिये जिसके आधार पर आपने विज्ञान को विस्तार दिया . आयुर्वेद अर्थ-शास्त्र, संगीत, खगोल, सब कुछ जो ताड़पत्रों पर लिखे वेदों में  दर्ज हैं उसका अर्थ क्या है .... ?
   हम केवल हिंदुत्व की बात नहीं करते हमें सम्पूर्ण मानवता की चिंता है . हो भी क्यों न ... आज  जब विश्व आतंक के साए में सहमा सहमा सा नज़र आ रहा है तब हमें क्या सोचना चाहिए ...और न केवल सोचना चाहिए वरण  हमें शंखनाद कर ही देना होगा आतंक के खिलाफ .
गांधी सार्वकालिक सत्य है क्योंकि वो अहिंसा के प्रणेता हैं  . किन्तु अहिंसा से हिंसा को किस हद तक रोका जा सकता है जब की आतंकवाद ने सारी हदें पार कर दीं हों . मूर्तियाँ तोड़ कर खुद खुद को चिस्थाई बनाने की कोशिशें , लोगों से बलात आस्था छीन कर मत परिवर्तन की कोशिशें क्या मानव अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है . मेरा मानना है कि ये न केवल अतिक्रमण है वरन सार्वजनिक रूप से किये जाने वाले अपराध का प्रत्यक्ष प्रमाण है .

ऐसे  अपराध जब विश्व के कोने कोने में पनपाए जा रहें हों तब लेखक कैसे हास्य-व्यंग्य मनोरंजक आलेखन या प्रस्तुतीकरण करा सकता है . अगर वो ऐसा कर रहा है तो  बेहद स्वार्थी कहूंगा उनको जो ऐसा कर रहे हैं . आज सोशल-मीडिया के ज़रिये चेतन भगत ने चिंता ज़ाहिर करती टिप्पणी देखने में आई  जिसे दुबारा नहीं लिख पा रही हूँ आप स्वयं देखें सच ही तो कहा है कि जब केवल एक धर्म होगा तो सेक्यूलारिज्म का क्या होगा...? सवाल सही वक्त पर सटीक तरीके से किया गया है . उनका विचार पॉलिटिकल होते हुए मानव-शास्त्रोक्त चिंतन अधिक है इसी वज़ह से आलेख में शामिल कर रहा हूँ .  चेतन की चिंता हम सभी की चिंता है चाहे यजीदी हों, ख्रिस्त हों, सिख हों बौद्ध हों जैन हों, पारसी हों सभी सहमे सहमें हैं . हम अपनी आस्था तो छोडिये बहन-बेटियों को भी न सुरक्षा दे पाएंगे यदि अतिवादियों के समर्थन में "सैक्यूलारिज़म" की झंडा बरदारी की गई. वास्तव में भारत में किसी वर्ग-विशेष को उकसाने के लिए सैक्यूलरिज्म का सहारा लिया जा रहा है . न कि  मानवता की रक्षा के वास्ते . भारत में कई धर्मों को मानने वालों को एक साथ सह-अस्तित्व के साथ रहने का अच्छा अभ्यास है . किन्तु वैचारिक विपन्नों ने जी भर के अपने अपने रोट सकें हैं . ..... पर भारत में ज़फर का जग्गू के साथ जग्गू का जॉन के साथ जॉन का जसबीर के साथ जसबीर का जिनेद्र के साथ पक्के वाला नाता है जो शायद ही टूटेगा        

अशिक्षित एवं नशेड़ी पुरूषों को महिलाओं की आबरू से कोई सरोकार नहीं :रीता विश्वकर्मा

रीता विश्वकर्मा लेखिका 
शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा की कमी के कारण लोगों  को खुले में शौच जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। निश्चय ही यह देश और समाज के लिए एक बड़ी समस्या है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश भर में 53 प्रतिशत घरों में आज भी शौचालय नही है। ग्रामीण इलाकों के 69.3 प्रतिशत घरों में शौचालय नही है। महात्मा गांधी शैाचालय को सामाजिक बदलाव के रूप में देखते थे। गांधी जी ने हमेशा स्वच्छता पर जोर दिया उनका कहना था कि स्वच्छता स्वतन्त्रता से ज्यादा जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साफ सफाई को लेकर स्वच्छ भारत अभियान पर काफी जोर देते रहे है। सरकार का ऐलान इस दिशा में एक सार्थक कदम माना जा रहा है। 
गांधी जी को एक प्रेरणा मानते हुए गत् 2 अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया। ढलती शाम और घूंघट से मुँह ढके बहू-बेटियाँ गांव से दूर खेतों की तरफ जाती हुई जब दिखती हैं तो हर संवेदनशील व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जाता है। तमाम लड़कियाँ और महिलाएँ शौच जाने के लिए सांझ गहराने का इंतजार करती है, ताकि शौच के लिए जा सके। यही नहीं सुबह होने से पहले और शाम ढलने के बाद ही ये अंधेरे जंगल में शौच के लिए जा सकती हैं। यह स्थिति सिर्फ गावों की ही नही बल्कि शहर की छोटी व गरीब बस्तियों की भी है जहाँ महिलाओं को शौच से निवृत्त होने के लिए सुनसान जगह एवं अंधेरे का इन्तजार करना पड़ता है। पुरूषों को रेल की पटरियो, नदी-नालों, झाडियों तक भटकना पड़ता है। 
आकडों के अनुसार आबादी के तकरीबन 68 साल बाद आज भी भारत में 62 करोड़ लोग यानी लगभग आधी आबादी खुले में शौच के लिए जाती है खासकर महिलाओं बच्चियों द्वारा खुले में शौच करने की मजबूरी हमारे लिए बेहद शर्मदिंगी की बात है। तमाम प्रयासों के बावजुद भारत में आज भी 12 करोड़ शौचालयों की कमी है हालांकि निराशा के इस आलम में एक राहत की बात है कि शौचालय बनाना सरकार की अब सर्वोच्च प्राथमिकता बन गई है।
आँकड़े जो भी दर्शायें, परन्तु शौचालय के बारे मे गाँव-देहात ही नहीं शहरी क्षेत्ऱ भी काफी पीछे है। नगर पंचायतों/पालिकाओं में सर्वेक्षण किया जाये तो यह सुस्पष्ट हो जायेगा कि शौचालयो के निमार्ण को लेकर नब्बे प्रतिशत से अधिक परिवारों के लोगों को कोई फिक्र ही नहीं है। ठीक इसी तरह के हालात ग्रामीण क्षे़त्रों की है। वहां तो सोच ही नहीं है, तब शौचालय किस तरह निर्मित होंगे।
इन परिवारों के लोग डीण्टीण्एचण् पर दूरदर्शन के कार्यक्रम देखेंगे। खास तौर पर विद्याबालन ब्राण्ड अम्बैस्डर वाला विज्ञापन-जहाँ सोच वहाँ शौचालय के डायलाग जुबान पर रहेंगे, लेकिन मजाल क्या कि इस पर अमल करें। एक से पूँछा तो गांव वालों ने कहा कि यह देहात है, अब भी नदी-नालों के किनारे, खेतों की मेड़ की आड़ तथा बाग-बगीचों की खुली हवा मे शौच करना हमारे यहाँ की पुरानी परम्परा है। शौचालय मे घुटन होती है। रही बात सरकारी इमदाद की तो उसका सदुपयोग कर लिया गया है। गाँव के सरपंच और ग्रामीणों ने मिलकर शौचालय निर्माण में मिलने वाले सरकारी अनुदान का लाभ ले लिया है। गाँव शौचालयों से संतृप्त है, जिसे सरकारी अभिलेखों में भी देखा जा सकता है। 
कहना पड़ा पुरानी परम्परा, सरकारी अनुदान......आदि का सदुपयोग तो ठीक है लेकिन जरा सोंचो जब सब कुछ पुराने ढर्रे पर ही चलेगा तब 21वीं सदी का नारा स्वच्छता-सफाई आदि को लेकर सरकार का अभियान कितना सफल होगा। इसके अलावा खुले में शौच जाना महिला-पुरूष दोनोें के लिए शर्म की बात तो है, साथ ही इससे होने वाली बीमारियों के प्रति वह लोग क्यों नहीं सोचते। किसी ने कहा शौचालय अनुदान लेने वालों ने उस पैसे की दारू हलक से उतारकर सोचने-समझने की क्षमता खो दिया है। यही नहीं गाँव के सरपंच से मिलकर ये लोग तो मनरेगा का पैसा भी दारू में खर्च कर देते हैं। रही बात सोच की तो इन्हें क्या पड़ी है कि बहू-बेटियाँ खुले में शौच करें या फिर उनके साथ बहुत कुछ ऐसा-वैसा (अप्रिय एवं दुःखद अश्लील) हो जिसका बयान जुबान द्वारा नहीं किया जा सकता। 
कस्बों/शहरों व बस्तियों के भी हालत कुछ इसी तरह के हैं। यहाँ परिवारों के पुरूष मुखिया दारूबाजहोने की वजह से सब पैसा नशा करने में ही खर्च कर देते हैं। घर की बहू-बेटियाँ क्या कर रही हैं और क्या करना चाहिए उन्हें इससे कुछ भी लेना-देना नहीं। शाम होते ही ये पुरूष घर की दिहाड़ी कामकाजी महिलाओं से पैसे मांगकर नशाकरते है। पैसा न दे पाने की स्थिति में ये पुरूष अपनी बहू-बेटियों को गालियों से अलंकृत करने के साथ-साथ उनका दैहिक उत्पीड़न करते हैं। शौचालय की बात तो दूर इन नशेड़ियों को शर्म नहीं आती कि उनके परिवार की महिलाएँ शौच के लिए कस्बाई आबादी के ऐसे स्थानों पर जाती हैं, जहाँ पहले से ही दरिन्दों, वहशियों एवं कामलोलुप की टोलियाँ उनके साथ जबरिया मुँह कालाकरने की फिराक में रहती हैं। और ऐसा होता भी है, जो प्रायः मीडिया की सुर्खियों में रहता है। फिर भी शौचालयनिर्माण के प्रति जागरूक नहीं हो रहे हैं। गाँव, देहात शहर और कस्बों के 90 प्रतिशत इलाकों में हालात एक जैसे हैं। कारण क्या हो सकता है? परिवार के पुरूष/महिला मुखिया में शिक्षा का अभाव, आर्थिक तंगी, नशाखोरी, बेरोजगारी, निठल्ला एवं निकम्मापन.....? हालांकि कई नगर पंचायतों, नगर पालिकाओं में कुछ संगठनों द्वारा सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण कराया गया है, लेकिन इनका उपयोग बाहरी यात्री, स्थानीय दुकानदार, व्यवसाई एवं पैसे वाले लोग ही करते हैं। 

होना क्या चाहिए- खुले में शौच जाने की प्रथा का अन्त यदि जन जागरण से न समाप्त हो, तब कानून बनाकर उल्लघंन करने वालों को दण्डित किया जाए। इस तरह होने से 50 प्रतिशत से अधिक सेक्स क्राइम पर तात्कालिक प्रभाव से अंकुश लग जाएगा। जहाँ बहू-बेटियों की इज्जत सही-सलामत रहेगी वहीं स्वच्छ वातावरण होने की वजह से संक्रामक बीमारियों के फैलने की सम्भावना भी कम हो जाएगी। शौचालयनिर्माण न कराने वालों पर अर्थदण्ड लगाए जाने का प्रावधान हो, साथ ही सरकारी अनुदान राशि बढ़ाए जाने की भी जरूरत है, क्योंकि महँगाई की वजह से भी शौचालय के निर्माण में बाधाएँ आ रही हैं। मेरा अपना मानना है कि बगैर सख्त काननू के देश के अशिक्षित समाज में भय नहीं होगा और न ही सरकार का कोई ऐसा अभियान जिसमें सर्व समाज का हित निहित हो सफल ही हो सकता है। 

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