कुछ मठों से मठा सींचते वृक्षों में-, कुछ बजाते रहे हैं सदा तालियाँ।।
गीत गीले हुए अबके बरसात में, हाँ! ठिठुरते रहे जाड़ों की रात में।। गीत गीले हुए, ये जो कुंठा भरे। और ठिठुरे वही, जो रहे सिरफिरे। उसका दावा बिखर के, सेमल बना, कोई आगे फरेबी न दावा करे।। राई के भाव बदले हैं इक रात में।। कुछ सुदृढ़, कुछ प्रखर, कुछ मुखर बानियाँ। थी, सदा ही चलाती रहीं घानियाँ। कुछ मठों से मठा सींचते वृक्षों में-, कुछ बजाते रहे हैं सदा तालियाँ।। बिंब देखें सदी का मेरी बात में।। सूत कट न सके भोंथरी धार से, सो गले गस दिए फूलों के हार से। बोलिए किससे जाके शिकायत करें- घूस लेने लगे फूल कचनार के। आँख सावन-सी झरती इसी बात में।