29.4.13

दास्ताने-दफ़्तर : भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो ....!!

 
 हो सकता है कि किसी के दिल में चोट लगे शायद कोई नाराज़ भी हो जाए इसे पढ़कर ये भी सम्भव है कि एकाध समझेगा मेरी बात को.वैसे मुझे मालूम है अधिसंख्यक लोग मुझसे असहमत हैं रहें आएं मुझे अब इस बात की परवाह कदाचित नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का सही वक्त पर सटीक स्तेमाल  कर रहा हूं. 
                     बड़े उत्साह और उमंग से किसी एक महकमें या संस्थान में तैनात हुआ युवा  जब वहां ऊलज़लूल वातावरण देखता है तो सन्न रह जाता है सहकर्मियों के कांईंयापन को देख कर .. नया नया कर्मी बेशक एक साफ़ पन्ने की तरह होता है जब वो संगठन में आता है लेकिन मौज़ूदा हालात उसे व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बना देते हैं. 
एक स्थिति जो अक्सर देखी जा सकती है नव प्रवेशी पर कुछ सहकर्मी अनाधिकृत रूप उस पर डोरे डालते हैं अपनापे  का  नकली शहद चटाते हुए उसे अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश भी करते हैं. वहीं "बास-द्रोही" तत्व उसे अपने घेरे में शामिल करने की भरसक कोशिश में लगा होता है. मै ऐसे लोगों को संस्थान/आफ़िस/संगठन दीमक कहना पसंद करूंगा.. जो ऐसा कर सबसे पहले "संगठन" के विरुद्ध कार्यावरोध पैदा करते हैं. विकास की गति को रोकते हैं. 
            कुछ तत्वों का और परिचय देता हूं जो निरे "पप्पू" नज़र आएंगे पर भीतर से वे शातिर होते हैं अक्सर ऐसे तत्व केवल अपने आप के बारे में ही चिंतन करते रहते हैं. पर कहते हैं न पास तो केवल पप्पू ही होता है..  वे किसी के हरे में शामिल होते और न ही सूखे में. पर शातिर तो इतने कि अपने स्वार्थ के पीछे किस षड़यंत्र में शामिल हो जाएं आप जान भी न पाओगे. 
           संगठन में कार्यरत कर्मियों में कुछ ऐसे होते हैं जो बेचारे बड़ी तन्मयता से काम करते रहते हैं वे ही सदा  अत्यधिक दायित्वों  से लादे गये होते हैं. इनका प्रतिशत कमोबेश पांच-दस से ज़्यादा कभी नहीं होता. पर नब्बे फ़ीसदी मक्कारों का बोझा इन जैसों ने ही उठाया है. सच मानिये  अगर संगठनात्मक दायित्व निर्वहन पर शोध हो तो  आप इसकी पुष्टि करता हुआ रिज़ल्ट ही पाएंगे. 
           सहकर्मियों  की एक महत्वपूर्ण नस्ल को  अनदेखा करना बेहद नुकसान देह होगा जो बड़ी ही सादगी से आपकी किसी भी बात को "चुगली के रूप में कहीं भी पेश कर सकतें हैं  लोगों को यहां खुले तौर पर गाली देने से उम्दा परिभाषित करना उचित समझता हूं.ये जीव मैं उन नरों-मादाओं की औलाद होते हैं  जो मधुर यामिनी में अपने अपने  पसंदीदा आईकान्स के खयालों में खोये होते हैं और दैहिक परिस्थिवश ऐसा भ्रूण कंसीव हो जाता है जो आगे चलकर चुगलखोर-व्यक्तित्व के रूप में निखार पाता है. 
            आप सोच रहें होंगे बड़ा दिलाज़ला आदमी हूँ जो गालियां ....  हकीकत में ऐसा करना इस वज़ह से भी ज़रूरी है ताकि आइना देख लें वे  जो  मक्कारियों  से बाज़ नहीं आते . साथ ही वे जान लें कि एक लेखक  उनके बारे क्या सोचता है.. इनके नाम तो लिखूंगा नहीं  नाम लिख दूं तो बाप रे बाप... इनकी दुनिया ही उजड़ जावेगी.. किन्तु खुद परीशाँ था कभी इसी लिए सोचा सबको आगाह कर दूं .   
       लोगों में एक विचार तेज़ी से पनपता दिखाई देता है जो उत्पादन संस्थानों /संगठनों के लिए घातक है वो प्रांतीय जातीय,क्षेत्रीय एवं अब शैक्षणिक तथा काडरगत समीकरण . प्रांतीय,जातीय,क्षेत्रीय समीकरण तो सामाजिक एवं  राजनैतिक कारणों से उपजाते हैं किन्तु शैक्षणिक एवं काडर के बिन्दु नए दौर का संकट है जो बेहद खतरनाक है। एक अजीब सी सांप्रदायिकता का आभास होता है. जहां न धर्म इन्वाल्व है न ही भगवान नामक कोई तत्व !  
            .कोई डायरेक्ट तो कोई प्रमोटी, कोई इस भारत का तो कोई उस भारत का.. कोई ये तो कोई वो.. यानी खुली सम्प्रदायिकता . लोग अपने अपने सिगमेंट में जीने लगे हैं.. जीने क्या लगे हैं जीने के आदी हैं.. भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो अपने दबदबे को कायम रखेंगे.. 
कवि श्री हरे प्रकाश की कविता में खुलासा देखिये
नींद में मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ 
सपने में दफ़्तर के सहकर्मियों के षड्यंत्र सूंघता हूँ
जिससे बहुत तेज़ बदबू आती है
इस बदबू में मुझे धीरे-धीरे बहुत मज़ा आता है 
मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ 
पूरी कविता पढ़िये "कविताकोष"पर क्लिक कर के 


लाल फ़ीतों में बांध के लपेट के चलो या कि टोपी के नीचे समेटते चलो....


लाल फ़ीतों में बांध के लपेट के चलो या कि टोपी के नीचे समेटते चलो....
देश मज़बूर है आपके सामने.. जैसे भी चाहो जीभर रगेदते चलो...!!
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आपकी बेबसी आपकी बेरुखी देश का हाल क्या आप जानोगे कब...!
कुर्सियों के लिये उफ़्फ़ ये ज़द्दो-ज़हद - घर है दुश्मन का घर में मानोगे कब ?
पांव के नीचे बोलो कहां है ज़मी.. ! उड़ने वालो ज़मीनों को देखते चलो !!
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बोलने की इज़ाज़त जो मिली आपको , बोलते बोलते बीते पांचों बरस ,
जाने किसके मुसाहिब हैं शोहदे यहां..! नन्हे बच्चों पे भी न जो खाते तरस !
कुछ ने आके जलाई है बस्ती मेरी,आके तुम भी  यहां रोटी  सेकते चलो !!
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24.4.13

आज पोर्न स्टार हमारे स्टार हैं ....आईकान हैं ? : श्रीमति नीतूसिंह (वाराणसी.)

             
   
वाराणसी की श्रीमति नीतू वर्तमान परिस्थितियों पर  प्रकाश डालते हुए सेक्स-अपराधों को सीधे सीधे पिछले दशकों में हुए बेतरतीब बदलावों से जोड़तीं हैं. वर्तमान में तो महेश भट्ट जैसे विवादित निर्माता निर्देशक ने हदें पार करते हुए पोर्न-स्टार को जो हाइप दी है उससे साबित हो गया है कि यौन-विकृतियों एवम उससे जनित अपराधों के उत्प्रेरण का रास्ता सिल्वर-स्क्रीन की ओर से जाता है.
 अंतरजाल, सेलफ़ोन, समाचारों को पेश करने का तरीक़ा, उन्मुक्तता की भीषण चाह, ये सब बीमारी की जड़ हैं.. लगाम लगे तो कहां नीतू सिंह ने अपने आलेख में साफ़ कर दिया है .. यौन अपराधों के खिलाफ़ वाक़ई सरकार और पुलिसिया रवैये के लिये मोमबत्ती जलूसों के साथ साथ समाज के आंतरिक पर्यावरण की शुचिता ज़रूरी है. सीता के आदर्श कैरेक्टर को प्रतिस्थापित करता है युवा वर्ग कुछ इस तरह- “हा हा, अरे वो न वो तो बस पूरी सीता मैया बनी रहती है” ये संवाद लड़कियां अपनी उस सखी के लिये स्तेमाल करतीं हैं जो सदाचारी हो. कभी आपने गौर किया कि आपके बच्चों के आदर्श कौन हैं.. कहीं...?
* गिरीश “मुकुल”

   सेक्स और मानसिकता समझना थोड़ा कठिन है । यदि सेक्स शरीर से निकल कर हमारे दिमाग में समां जाये तो समझ लेना चाहिए कि एक बड़ी बीमारी ने दिमाग मैं जगह बना लिया है। सेक्स शरीर तक ठीक है  शरीर की संतुष्टी संभव है, लेकिन मन को संतुष्ट असंभव है फिर तो हर समय और सपने में भी हमे यही दिखाई देगा। हमें आकाश के बादलों और धरती में भी सेक्स प्रतिमाएँ ही दिखाई पड़ेंगी
                     भारतीय संस्कृति हमें संयम से जीना सिखाती है, लेकिन हमारी नयी जनरेशन संयम का मजाक उड़ाती है और पश्चिमी रंग को अपनाती है हमारे अन्दर यौन-स्वछंदता के सपने आने शुरू हो जाते हैं, हमें फ़िल्मों के नंगापन और बलात्कार-दृश्य, बोल्ड और आकर्षक लगने लगते हैं । कब हम इन्ही सब के बस मैं हो जातें है , पता ही नहीं चलता। मोबाइल, इंटरनेट और गंदे साहित्य ने हमे नंगे पन और मानसिक विकृतियों और कुंठाओं के गर्त में पहुँचा दिया।
          हमने शराब को सम्मान दिया, कहा यह तो आज का फैशन है , अपना लिया। अब हमे सेक्स के अलावा कुछ नहीं दीखता। हमने सीताओं का सम्मान करना एकदम छोड़ दिया और हीरोईनों के नाम याद रखने लगे। हमने स्त्रियों का सम्मान छोड़ उनको सेक्स ऑब्जेक्ट बना लिया। स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु है । आज पोर्न स्टार हमारे स्टार हैं ,,,आदर्श हैं  
                                         यदि हमारे समाज में मानसिक रोगी बढ़ रहे हैं तो इसमें इतनी परेशानी और हैरानी की क्या बात है ? सेक्स को हमने इस कदर अपने में समां लिया है कि यह हमारे शरीर से निकल कर दिमाग में घुस गया और ऐसे मानसिक रोगी बलात्कारी बन गए। अब ये इनके शरीर की आग न होकर मन की आग है, और मन की आग को बुझना और बुझाना दोनों कठिन है। अतः समाज दूषित हो गया है

    

23.4.13

तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ? अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

छायाकार वत्सल चावजी
तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ?
अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

समन्दर सी अतल गहराई वाली नीली आंखों ने
निमंत्रित किया है मुझको सदा ही डूब जाने को,
डूबता जा रहा हूं कोई तिनका भी नहीं मिलता ....
अगर मन चाहे जो  साहिल पे लौट आने को !
     तुम ही ने तो बुलाया है कहो क्या दोष है मेरा
     समंदर में प्रिये मैं खुद-ब़-खुद उतरा नहीं हूं..!!

तुम्हारे रूप का संदल महकता मेरे सपनों में
हुआ रुसवा बहुत,जब भी बैठा जाके अपनों में
किसी नेयेकहा और कोई कहकेवोमुस्काया
 मैं पागल हो गया हूं कहते सुना नुक्कड़ के मज़मों में .
     यूं अनदेखा कर कि जी पाऊंगा अब आगे-
      नज़र मत फ़ेर मुझसे गया गुज़रानहीं हूं मैं !!




22.4.13

आई.ए.एस. मनोज श्रीवास्तव : संवेदित हस्ताक्षर

 प्रवासी-भारतीय वेब पत्रिका पर मनोज श्रीवास्तव जी पर एक आलेख देखा अच्छे कार्य की सदा सराहना और अच्छे व्यक्तित्व की सदा चर्चा आवश्यक है.. ऐसा मेरा मानना है. अस्तु मिसफ़िट पर सामग्री प्रकाशित करते हुए अच्छा लग रहा है...... आभार प्रवासी-भारतीय का  
                                    एक कुशल प्रशासक की बुद्धि तथा एक दक्ष साहित्यकार जैसे ह्दय के संयुक्त रूप का नाम है मनोज कुमार श्रीवास्तव। इन्होंने एम.ए हिन्दी साहित्य में उपाधि प्राप्तकर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) में 1987 में आए। इससे पूर्व सहायक प्राध्यापक एवं सहायक आयुक्त, आयकर विभाग, मुंबई के रूप में अपना अवदान शिक्षा और राष्ट्र को देते रहे। आई.ए.एस बनने के बाद में एस.डी.ओ. अतिरिक्त कलेक्टर, प्रशासक, कलेक्टर, आई. जी. पंजीयन एवं मुद्रांक, चेयरमैन प्रबंध निदेशक, विद्युत वितरण कंपनी, पूर्वी क्षेत्र, मध्यप्रदेश, आयुक्त, भू-अभिलेख, आयुक्त, आबकारी, सदस्य, राजस्व  मंडल, सचिव, संस्कृति, न्यासी सचिव, भारत भवन, आयुक्त एवं सचिव जनसंपर्क, आयुक्त, भोपाल एवं नर्मदापुरम संभाग जैसे दायित्वों को सफलता एवं समर्पण के साथ निभाते हुए संप्रति प्रमुख सचिव (राजस्व) म.प्र.शासन, मंत्रालय, भोपाल के पद पर आसीन हैं।
इनके रचना संसार में मेरी डायरी से’, ‘यादों के संदर्भ’, ‘पशुपतिजैसे पाँच कविता संग्रह हैं तो शिक्षा में सन्दर्भ और मूल्य’, ‘वंदेमातरम, ‘सुन्दरकांड (पांच खंड)जैसे विवेचनात्मक एवं व्याख्यात्मक सात कृतियाँ हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की अद्भूत शोभाएँ है।
अक्षरम्द्वारा इनकी प्रतिभा और समर्पण के प्रति सम्मान करते हुए इन्हे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव 2012 में अक्षरम् संस्कृति सम्मानसे अलंकृत किया गया है।
प्रवासी दुनिया.कॉम पर प्रकाशित मनोज कुमार श्रीवास्तव  जी के प्रकाशन -


21.4.13

कुछ समझ नहीं आता, शहर है कि सहरा है.. कहने वाला गूंगा है, सुनने वाला बहरा है..!!

समूचे भारत को हालिया खबरों ने एक अजीब सी स्थिति में डाल दिया.कल से दिल-ओ-दिमाग पर एक अज़ीब सी सनसनी तारी है.कलम उठाए नहीं ऊठ रही  नि:शब्द हूं.. ! 
    जब भी लिखने बैठता हूं सोचता हूं क्यों लिखूं मेरे लिखने का असर होगा. मेरे ज़ेहन में बचपन से चस्पा पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी जी बार बार आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं-"गुरु जी, क्यों  लिखूं "
कई दिनों से ये सवाल उनसे पूछता पर वे कभी कुछ  न बताते . हम साहित्यकारों के अपने अपने वर्चुअल-विश्व होते है. बेशक  जब हम लिखते हैं तो टाल्स्टाय से लेकर शहर के किसी भी साहित्यकार से वार्ता कर लेते हैं.. जिनकी किताबें हम पढ़ चुके होते हैं. अथवा आभासी  संसार को देखते हैं तीसरा पक्ष बन कर हां बिलकुल उस तीक्ष्ण-दर्शी चील की तरह उस आभासी संसार  ऊपर उड़ते हुये . रात तो हमारे लिये रोज़िन्ना अनोखे मौके लाती है लिखने लिखाने के . पर बैचेनी थी कि पिछले तीन दिन हो गये एक हर्फ़ न लिखा गया.. न तो दिल्ली पर न सिवनी (मध्य-प्रदेश) पर ही. क्या फ़र्क पड़ेगा मेरे लिखने से  सो पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी  जी आज़ जब हमने पूछ ही लिया :- गुरु जी, क्यों  लिखूं ?
गुरु जी बोले खुद से पूछो - क्यों न लिखूं ? ज़वाब मिल जाएगा. सो लिख ही देता हूं. 
                  देश में महान अभिनेता के रुतबे से नवाज़े अमिताभ अब चिंता में हैं , जया भी फ़ूट पड़ीं  इन पुरोधाऒं से मेरा एक सवाल है कि क्या फ़िल्मों को दोषी न माना जाए यौन-अपराधों के वास्ते.  सेक्स जो बेड रूम का मसला है उसे  सार्वजनिक करने की ज़द्दो-ज़हद सिनेमा ने की है. यह अकाट्य सत्य है. 
   प्रिंट मीडिया ने रसीली-रंगीली तस्वीर छापीं, अंडर-वियर और परफ़्यूम बनाने वाली कम्पनियों ने तो हद ही कर दी पुरुष के जिस्म पर चुंबनों के स्टेम्प, उफ़्फ़ ये सब कुछ जारी है लगभग तीन दशकों से पर सरकार अश्लीलता के खिलाफ़ बने अधिनियम को प्रभावी न कर सकी. लोग विक्टिम को हदों में रहने की सलाह देते हैं मैं पूछता हूं.. क्या  उत्पादन कर्ता कम्पनियां नारी को वस्तु के रूप में पेश नहीं कर रहीं..अथवा फ़िल्म वालों के लिये नारी का जिस्म एक दर्शक जुटाऊ बिंदु नहीं है...?  
         अमिताभ जी  ने किसी फ़िल्म में नायिका को तमीज़दार कपड़े पहने की नसीहत दी थी. शायद उनको याद हो ? 
हो न हो खैर  मुझे तो स्नेहा चौहान के आलेख ने झकजोर ही दिया हर औरत रेप की हकदार है? शीर्षक से http://www.palpalindia.com  पर प्रकाशित आलेख में स्नेहा ने कई सवाल उठाए हैं.. मसलन लोग ये अवश्य कहते हैं
वह हमेशा सलवार-कमीज, साड़ी, दुपट्टे में नहीं रहती
10 लड़कों के साथ, यानी बदनाम!
दारू पी, यानी रेप तो होगा ही
जब मां ही ऐसी हो तो
उसने रेप करवाया होगा
रिपोर्ट झूठी है
    यानी विक्टिम के खिलाफ़ बोलना आम बात है. बलात्कार के मुद्दे पर पुलिस भी संवेदित नहीं . हो भी कैसे उनके ज़ेहन में पिछड़ी मानसिकता अटाटूट भरी जो है.
   फ़ेसबुक पर जितेंद्र चौबे ने मेरे एक सूत्र पर कहा -सुरक्षा और वार दोनों एक साथ होने चाहिए तभी युद्ध जीता जा सकता है.. स्वयं देवी दुर्गा भी एक हाथ में तलवार तो दुसरे हाथ में ढाल रखती थी..यही बुद्धि संगत भी है 
और तर्क संगत भी.
पंडित रवींद्र बाजपेई जी ने कहा-"दिल्ली में मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी करने वाले नराधम को भी वैसी ही पीड़ा देना चाहिए। उसने भले अपना जुर्म कबूल कर लिया हो लेकिन उसकी हड्डी पसली तोडना जरूरी है। देश के सम्मानीय वकीलों से अपेक्षा है कि वे ऐसे राक्षसों की पैरवी न करने की कसम खाएं। ऐसे अपराधी किसे भी प्रकार की सहायता के हक़दार नहीं हैं।"
जबकि पंकज शुक्ल जी पूरे देश में महिलाओं के सम्मान की रक्षा का सवाल उठाते हैं. यानी हर कोई बेचैन है.. चिंतित है.. पर इंसानी दिमाग फ़्रायड के सिद्धांतों को सही साबित करता ही रहेगा.. सामान्यत: औरत के की ओर नज़र होगी तो पुरुष सदा गंदा सोचता है. पिछले शुक्रवार घर आते  वक़्त देखा रांझी मेन रोड पर  कुछ मनचले बाइक से एक स्कूटी वाली लड़की को अभद्र बात बोलते हुए कट मारके  फ़ुर्र हो गये..ये किसी के सहाबज़ादे हो सकते हैं मेरी डिकशनरी में इनके लिये सिर्फ़ एक ही शब्द है- नि:कृष्ट..
       नारी जाति को केवल एक सिगमेंट में रखा जाता है कि वो औरत है किसकी बेटी, कितनी उम्र, क्या-रिश्ता, इस सबसे बेखबर अधिकांश लोग (पुरुष) केवल उसे अपनी भोग्या मानते हैं.   यानी सब कुछ औरत के खिलाफ़ किसी के मन में भी पीड़ा उसके सम्मान की रक्षा के लिये..
   कितना लिख रहे हैं लोग औरत के खिलाफ़ गंदा नज़रिया मत रखो.. पर कुछ असर हो रहा है.. तो बताएं  मैं क्यों  लिखूं  कुछ.. बकौल इरफ़ान झांस्वी 
कुछ समझ नहीं आता, शहर है कि सहरा है..
कहने वाला गूंगा है, सुनने वाला बहरा है..!! 

20.4.13

जिसकी बीवी मोटी उसका ही बड़ा नाम हैं...: भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
श्री भूपेंद्र सिंह द्वारा संप्रेषित आलेख प्रकाशित है.. आप अपनी टिप्पणी भेजने भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी पर क्लिक कीजिये अथवा मेल कीजिये
bhupendra.rainbownews@gmail.com
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महिला सशक्तीकरण को लेकर महिलाएँ भले ही न चिन्तित हों, लेकिन पुरूषों का ध्यान इस तरफ कुछ ज्यादा होने लगा है। जिसे मैं अच्छी तरह महसूस करता हूँ। मुझे देश-दुनिया की अधिक जानकारी तो नहीं है, कि ‘वुमेन इम्पावरमेन्ट’ को लेकर कौन-कौन से मुल्क और उसके वासिन्दे ‘कम्पेन’ चला रहे हैं, फिर भी मुझे अपने परिवार की हालत देखकर प्रतीत होने लगा है कि अ बवह दिन कत्तई दूर नहीं जब महिलाएँ सशक्त हो जाएँ। 
मेरे अपने परिवार की महिलाएँ हर मामले में सशक्त हैं। मसलन बुजुर्ग सदस्यों की अनदेखी करना, अपना-पराया का ज्ञान रखना इनके नेचर में शामिल है। साथ ही दिन-रात जब भी जागती हैं पौष्टिक आहार लेते हुए सेहत विकास हेतु मुँह में हमेशा सुखे ‘मावा’ डालकर भैंस की तरह जुगाली करती रहती हैं। नतीजतन इन घरेलू महिलाओं (गृहणियों/हाउस लेडीज) की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बनने लगी है फिर भी इनके पतिदेवों को यह शिकायत रहती है कि मेवा, फल एवं विटामिन्स की गोलियों का अपेक्षानुरूप असर नहीं हो रहा है और इनकी पत्नियों के शरीर पर अपेक्षाकृत कम चर्बी चढ़ रही है। यह तो आदर्श पति की निशानी है, मुझे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि मैंने सुन रखा था कि सिनेमा जगत और समाज की महिलाएँ अपने शरीर के भूगोल का ज्यादा ख्याल रखती हैं, इसीलिए वह जीरो फिगर की बॉडी मेनटेन रखने में विश्वास रखती हैं। यह तो रही फिल्मी और कमाऊ महिलाओं की बात। 
मेरे परिवार/फेमिली/कुनबे की बात ही दीगर है। पतियों की सेहत को तो घुन लगा है और उनकी बीबियाँ हैं कि ‘टुनटुन’ सी नजर आती हैं। परिवार के सदस्य जो पतियों का दर्जा हासिल कर चुके हैं। वह बेचारे प्रख्यात फिल्मी गीतकार मरहूम गुलशन बावरा की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं। और उनके सापेक्ष महिलाओं का शरीर इतना हेल्दी होने लगा है जिसे ‘मोटापा’ (ओबेसिटी) कहते हैं। यानि मियाँ-बीबी दोनों के शरीर का भूगोल देखकर पति-पत्नी नहीं माँ-बेटा जैसा लगता है। यह तो रही मेरे परिवार की बात। सच मानिए मैं काफी चिन्तित होने लगा हूँ। वह इसलिए कि 30-35 वर्ष की ये महिलाएँ बेडौल शरीर की हो रही हैं, और इनके पतिदेवों को उनके मोटे थुलथुल शरीर की परवाह ही नहीं।
मैं चिन्तित हूँ इसलिए इस बात को अपने डियर फ्रेन्ड सुलेमान भाई से शेयर करना चाहता हूँ। यही सब सोच रहा था तभी मियाँ सुलेमान आ ही टपके। मुझे देखते ही वह बोल पड़े मियाँ कलमघसीट आज किस सब्जेक्ट पर डीप थिंकिंग कर रहे हो। कहना पड़ा डियर फ्रेन्ड कीप पेशेंस यानि ठण्ड रख बैठो अभी बताऊँगा। मुझे तेरी ही याद आ रही थी और तुम आ गए। सुलेमान कहते हैं कि चलो अच्छा रहा वरना मैं डर रहा था कि कहीं यह न कह बैठो कि शैतान को याद किया और शैतान हाजिर हो गया। अल्लाह का शुक्र है कि तुम्हारी जिह्वा ने इस मुहावरे का प्रयोग नहीं किया। ठीक है मैं तब तक हलक से पानी उतार लूँ और खैनी खा लूँ तुम अपनी प्रॉब्लम का जिक्र करना। मैंने कहा ओ.के. डियर।
कुछ क्षणोपरान्त मियाँ सुलेमान मेरे सामने की कुर्सी पर विराजते हुए बोले- हाँ तो कलमघसीट अब बताओ आज कौन सी बात मुझसे शेयर करने के मूड में हो? मैंने कहा डियर सुलेमान वो क्या है कि मेरे घर की महिलाएँ काफी सेहतमन्द होने लगी हैं, जब कि इनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं है और ‘हम दो हमारे दो’ सिद्धान्त पर भी चल रही हैं। यही नहीं ये सेहतमन्द-बेडौल वीमेन बच्चों को लेकर आपस में विवाद उत्पन्न करके वाकयुद्ध से शुरू होकर मल्लयुद्ध करने लगती हैं। तब मुझे कोफ्त होती है कि ऐसी फेमिली का वरिष्ठ पुरूष सदस्य मैं क्यों हूँ। न लाज न लिहाज। शर्म हया ताक पर रखकर चश्माधारी की माता जी जैसी तेज आवाज में शुरू हो जाती हैं। 
डिन्डू को ही देखो खुद तो सींकिया पहलवान बनते जा रहे हैं, और उनकी बीवी जो अभी दो बच्चों की माँ ही है शरीर के भूगोल का नित्य निश-दिन परिसीमम करके क्षेत्रफल ही बढ़ाने पर तुली है। मैंने कहा सिन्धी मिठाई वाले की लुगाई को देखो आधा दर्जन 5 माह से 15 वर्ष तक के बच्चों की माँ है लेकिन बॉडी फिगर जीरो है। एकदम ‘लपचा मछली’ तो उन्होंने यानि डिन्डू ने किसी से बात करते हुए मुझे सुनाया कि उन्होंने अपना आदर्श पुराने पड़ोसी वकील अंकल को माना है। अंकल स्लिम हैं और आन्टी मोटी हैं। भले ही चल फिर पाने में तकलीफ होती हो, लेकिन हमारे लिए यह दम्पत्ति आदर्श है। 
मैं कुछ और बोलता सुलेमान ने जोरदार आवाज में कहा बस करो यार। तुम्हारी यह बात मुझे कत्तई पसन्द नहीं है। आगे कुछ और भी जुबान से निकला तो मेरा भेजा फट जाएगा। मैंने अपनी वाणी पर विराम लगाया तो सुलेमान फिर बोल उठा डियर कलमघसीट बुरा मत मानना। मेरी फेमिली के हालात भी ठीक उसी तरह हैं जैसा कि तुमने अपने बारे में जिक्र किया था। मैं तो आजिज होकर रह गया हूँ। इस उम्र में तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ ‘टाइम पास’ कर रहा हूँ। कहने का मतलब यह कि ‘जवन गति तोहरी, उहै गति हमरी’’ यानि....। 
डियर कलमघसीट अब फिरंगी भाषा में लो सुनो। इतना कहकर सुलेमान भाई ने कहा डियर मिस्टर कलमघसीट डोन्ट थिंक मच मोर बिकाज द कंडीशन ऑफ बोथ आवर फेमिलीज इज सेम। नाव लीव दिस चैप्टर कमऑन एण्ड टेक इट इजी। आँग्ल भाषा प्रयोग उपरान्त वह बोले चलो उठो राम भरोस चाय पिलाने के लिए बेताब है। तुम्हारे यहाँ आते वक्त ही मैंने कहा था कि वह आज सेपरेटा (सेपरेटेड मिल्क) की नहीं बल्कि दूध की चाय वह भी मलाई मार के पिलाए। मैं और मियाँ सुलेमान राम भरोस चाय वाले की दुकान की तरफ चल पड़ते हैं। लावारिस फिल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया गाना दूर कहीं सुनाई पड़ता है कि- ‘‘जिस की बीवी मोटी उसका भी बड़ा नाम है, बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है।’’
भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)

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