7.12.12

उफ ! ये चुगलखोरियाँ


साभार : गूगल


मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं, जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं। इसके बदले वे जुगाली करते हैं। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये। कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगें, मैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँ, सो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ। अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये। यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिए, जिसमें विलेन नहीं हो, हुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा ? अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं। फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।

ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश है, जो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
               '
चुगली` का बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटिया, शर्मा आंटी के घर गई थी``?
 ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
अब 'अंकल और शर्मा आंटी` के रिलेशन्स को फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहास, उनकी नागरिकता, उनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ। इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये  एक अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए।
शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलें, जो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।  मित्रों! साहित्य, संस्कृति, कला, व्यापार, रोजिया चैनल, आदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए। जैसे  मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया गले में एक गमछा डाले था रंग न बताऊंगा वरना पार्टी वाले समझ जाएंगे तो मित्रो  वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद है, जो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था। स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि उस चुगलखोर के अलावा   सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही जनविश्वास  उसकी चुगली का मूल कारण था । कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है। यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे  उस  अवश्य देनी होगी।

कैसे पिलाएँ एंटी चुगली ड्राप की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानें, उसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ। बेहतर ढंग से सुने। जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ। फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलना, सर झुका लेना, माथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
                  मित्रों, दफ्तरों में, बैठकों में, फोरमस् में, इस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन ग्रुप का रोगाणु है, जिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठा, आकर्षक, प्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया जाता है. खासकर तब जब प्रमोशन वगैरा का प्रोसेस चल रहा हो. ताक़ि प्रतिस्पर्धी सफ़ल न हो पाए. 
        सियासत का तो मूलाधार है चुगलखोरी  जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को ही इससे बच सकने का मौका मिलता है। क़मोबेस सभी इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं। रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारी, सफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
यशभारत : 09/12/2012

सुधिजनों, अगर एक बार हिम्मत दिखा दी जावे तो सैकड़ों चुगली से प्रभावित ''जीव`` सुरक्षित हो जाऐगें।

3.12.12

अछोर विस्तार पाने की ललक ने मुझे इंटरनेट का एडिक्ट बना दिया.

                       जितना  विस्तार पा रहा हूं उतना कमज़ोर और अकेला  होता जा रहा हूं. लोग समझ रहे हैं विश्व से बात कर रहा हूं मेरे दोस्त शिखर पर बैठे लोग हैं. अभिनेता, नेता, क्रेता, विक्रेता, उनके बीच मेरा स्थान है. देश में... न भाई मुझे पढ़ने देखने जानने वाले विश्व के कोने कोने में हैं. अपना फ़ेस हर साइट पर बुक करवा रहा हूं.. इस छोर से उस छोर तक यानी अछोर विस्तार पाने की ललक ने मुझे इंटरनेट का एडिक्ट बना दिया.
     ये आत्म-कथ्य है सोशल साइट्स से चिपके हर व्यक्ति की. जो इधर का माल उधर करने में लगा हैं. सोचिये कि इस तरह हम अपनी स्वयम की और कृत्रिम उर्ज़ा का इस तरह क्यों खर्च कर रहें हैं.
क्यों हम सामान्य जीवन से कट रहें हैं.?
     इस बात का पुख्ता ज़वाब मिलेगा   किशोर बेटे बेटी से जो रात दिन    नेट पर चैट का खेल खेला करते हैं. वास्तव में मनुष्य प्रजाति में    आभासी दुनिया के पीछे भागने का एक दुर्गुण हैं. अंतरजाल से उसका जुड़ाव  इसी का परिणाम है. मानवी दिमाग  कपोल कल्पनाओं गल्पों का अभूतपूर्व भंडार होता है. जिसमें वह स्वयम ही इन्वाल्व होता है. किसी अन्य का इन्वाल्वमेंट  वास्तविक रूप से उसे स्वीकार्य क़तई नहीं इन्हीं कपोल कल्पनाओं को आकार देता है अंतरजाल.
    आपको अपना बचपन याद है न .. आप परिकथाएं कितनी लुभातीं थीं तब और उसी व्योम में घूमता फ़िरता बचपन आज़ भी किसी चमत्कार के प्रति आपको आकृष्ट करता रहता है. यही आकर्षण खींचता है हमको अक्सर एक ऐसे व्योम की ओर जहां सब कुछ आभासी होता है.
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    आभासी व्योम के लोग केवल आभासी आकर्षण की वज़ह से एक दूसरे से जुड़ते हैं पर ज़ल्द ही विगत भी हो जाते हैं. मेरा नेट की सोशल साइटस पर दस हज़ार लोगों से संपर्क है. आपका और अधिक होगा. हम मित्र हैं पर वास्तव में जुड़ाव की बात करें तो कुछ ही लोगों से वास्तविक संबंध बन पाया है.(यहां उन लोगों को शामिल नहीं किया जा रहा जो भौतिक रूप से मित्र हैं या परिवार के सदस्य हैं.) पर अभी मेरी तलाश खत्म नहीं हुई. मुझ जैसे हज़ारों लोग यही सब कुछ कर रहे हैं. जिसका कोई अर्थ नहीं निकल रहा. अन्ना का आंदोलन भी इसी तरह का एक  प्रयोग था.  उसकी सफ़लता-असफ़लता पर यहां टिप्पणी ज़ायज़ नहीं बस एक बात कहना है कि-"हम जितना फ़ौरी तौर पर जुड़ते हैं उतना ही ज़ल्द दूरी भी बनाते हैं"
               यह कहना बेजा नहीं कि   हम फ़िज़ूल वक़्त जाया कर रहें हैं सोशल-साइट से जुड़ कर..!!
तो फ़िर क्या करें...?
                                               हमें नेट पर जो करता है वो है नेट का सही प्रयोग . बिना किसी फ़ैंटेसी से जुड़े हम अपना मौलिक चिंतन डालें किसी भी भाषा में, आकार में, यानी कुल मिला कर कूढ़ा-करकट न डाला जाए. नेट पर हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के कंटैंट्स  की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. गर आप रचना धर्मीं हैं तो कौशल दिखाएं यहां.

1.12.12

सा'ब चौअन्नी मैको हम निकाल हैं...!!

 संगमरमर की चट्टानों, को शिल्पी मूर्ती में बदल देता , सोचता शायद यही बदलाव उसकी जिन्दगी में बदलाव लाएगा. किन्तु रात दारू की दूकान उसे खींच लेती बिना किसी भूमिका के क़दम बढ जाते उसी दूकान की ओर  जिसे आम तौर पर कलारी कहा जाता है. कुछ हो न हो सुरूर राजा सा एहसास दिला ही देता है. ये वो जगह है जहाँ उन दिनों स्कूल कम ही जाते थे यहाँ के बच्चे . अब जाते हैं तो केवल मिड-डे-मील पाकर आपस आ जाते हैं . मास्टर जो पहले गुरु पदधारी होते थे जैसे माडल स्कूल वाले  बी०के0 बाजपेई, श्रीयुत ईश्वरी प्रसाद तिवारी,  मेरे निर्मल चंद जैन, मन्नू सिंह चौहान, आदि-आदि, अब गुरुपद किसी को भी नहीं मिलता बेचारे कर्मी हो गये हैं. शहपुरा स्कूल वाले  फतेचंद जैन  मास्साब , सुमन बहन जी रजक मास्साब,  सब ने खूब दुलारा , फटकारा और मारा भी पर सच कहूं इनमें गुरु पद का गांभीर्य था  अब जब में किसी स्कूल में जाता हूँ जीप देखकर वे बेचारे शिक्षा कर्मी टाइप के मास्साब  बेवज़ह अपनी गलती छिपाने की कवायद मी जुट जाते. जी हाँ वे ही अब रोटी दाल का हिसाब बनाने और सरपंच सचिव की गुलामी करते सहज ही नज़र आएँगे आपको ,गाँव की सियासत यानी "मदारी" उनको बन्दर जैसा ही तो नचाती है. जी हाँ इन्ही कर्मियों के स्कूलों में दोपहर का भोजन खाकर पास धुआंधार में कूदा करतें हैं ये बच्चे, आज से २०-२५ बरस पहले इनकी आवाज़ होती थी :-"सा'ब चौअन्नी मैको हम निकाल हैं...!!" {साहब, चार आने फैंकिए हम निकालेंगें } और सैलानी वैसा ही करते थे , बच्चे धुआंधार में छलाँग लगाते और १० मिनट से भी कम समय में वो सिक्का निकाल के ले आते थे , अब उनकी संतानें यही कर रही है....!! फ़र्क़ बस इतना है कि पांच रुपए वाले सिक्के की उम्मीद में धुंआधार में छलांग लगाते हैं .
  इन्हीं में से  एक बच्चे ने मुझे बताया-"पापा दारू पियत हैं,अम्मा मजूरी करत हैं, मैने उससे सवाल किया था - तुम क्या स्कूल नहीं जाते ....?
उत्तर मिला- जात हैं सा'ब नदी में कूद के ५/- सिक्का कमाते हैं....?
शाम को अम्मा कौं दे देत हैं.
कित्ता कमाते हो...?
२५-५० रुपैया और का...?
        तभी पास खडा शिल्पी का दूसरा बेटा बोल पडा-"झूठ बोल रओ है दिप्पू जे पइसे कमा कै तलब [गुठका] खात है.पिच्चर सुई जात है..?
 मेरी मुस्कुराहट को देख सित्तू बोला- साब, हम स्कूल जात हैं खाना उतई खात हैं.
Yashbharat jabalpur 02/12/12
 मैं - फ़िर क्या करते हो..
सित्तू : फ़िन का इतई आखैं (आकर) नरबदा नद्दी पढ़त हैं और का !
        दिप्पू, सित्तू, गुल्लू सब नदी पढते हैं. नदी तो युगयुगांतर से पढ़ी जा रही है. बेगड़ जी तो निरंतर बांच रहे हैं नर्मदा .. पर ये नौनिहाल जिस तरह से बांच रहे हैं एकदम अलग है तरीक़ा.
        मित्रो, बेफ़िक्र न रहें दूर से आता दिखाई देने वाला कल इन अल्प-शिक्षितों से भरी भीड़ वाला कल है. ध्यान से सुनो इनके हाथों में सुविधा भोगियों के खिलाफ़ सुलगती मसालें होंगी ये इंकलाब बुलंद करेंगें. कल तब आप किसी भी सूरत उनको रोक पाने में असफ़ल रहेंगे. धुंआधार में कूदते बच्चों को रोकिये. स्कूल भिजवा दीजिये न.. अभी भी समय है.
   

19.11.12

खन्नात की नरबदिया आर्मो


नरबदिया आर्मो
मां दुर्गा की तस्वीर
बनाते हुए 
4 दिसम्बर 2012 को ब्रिसडन आस्ट्रेलिया में जन्में निक वुजिसिस  का जीवन सबसे सम्पन्न जीवन कहा जाए तो ग़लत नहीं है. निक वुजिसिस  विश्व का वो बेहतरीन हीरा है जिसे तराशने का काम ईश्वर ने खुद निक में आक़र किया. इस तथ्य की पुष्टि आप life without limbs http://www.lifewithoutlimbs.org पर जाकर कर सकते हैं. करंजिया जनपद के ग्राम खन्नात की नरबदिया आर्मो का शरीर भी निक की तरह ही भगवान ने बनाया है. बाइस साल की नरबदिया को भी ईश्वर ने खुद ब खुद तिल खिसकने के क़ाबिल नहीं बनाया  जैसे के निक को न तो हाथ ही दिये हैं और न ही ऐसे पैर जो शरीरी-मशीन के लिये ज़रूरी हुआ करते हैं. 
  दौनों का जीवन प्रेरणाओं से अटा पड़ा है. सर्वांगयुक्त अच्छी कद-काठी, रंग-रूप, वाले किसी भी व्यक्ति को यदि उसका चाहा हुआ हासिल नहीं हो पाता फ़ौरन वो भगवान के सामने यही सवाल करता-"भगवान ये क्या किया तुमने ."
पर ये दौनों अभाव के बाबज़ूद आत्मिक रूप से आस्था वान हैं ईश्वर के प्रति कृतग्यता व्यक्त करतें हैं. निक क्रिश्चियनीटी के प्रचारक एवम  प्रेरक वक्ता हैं. जब बोलतें हैं तो देवदूत से नज़र आते हैं. भावुक तो बरस पड़ते हैं.  जबकि करंजिया जनपद के ग्राम खन्नात की नरबदिया आर्मो मुंह में पेन की रिफ़िल फ़ंसा कर चित्रकारी करती है. बेटी बचाओ अभियान के तहत जब डिंडोरी जिले में "डिंडोरी-की बेटी" सम्मान देने के लिये बेटियों को तलाशा जा रहा था  तब कलेक्टर श्री मदन कुमार जी को  नरबदिया आर्मो के बारे में जानकारी हासिल हुई. महिला बाल विकास विभाग के अधिकारियों को सौंपी गई इस बिटिया को "डिंडोरी की बेटी" अलंकरण से अलंकृत करने की. 


     18.11.2012 को पशुपालन एवम अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री श्री अजय बिश्नोई जी, प्रभारी मंत्री श्री देवसिंह सैयाम, पूर्व केंद्रीय मंत्री एवम राज्य सभा सदस्य श्री सांसद श्री फ़ग्गन सिंह कुलस्ते, विधायक श्री ओमकार सिंह मरकाम, जिला पंचायत अध्यक्ष श्री ओम प्रकाश धुर्वे, एड. विवेक तनखा,आफ़िसर कमांड लखनऊ अनिल चैत एवम मध्य-भारत के आफ़िसर  कमांड के साथ   कलेक्टर श्री मदन कुमार, एस पी आर के अरूसिया, सी.ई. ओ. श्री सोनी की उपस्थिति में अलंकृत किया गया.
  महिला बाल विकास विभाग नरबदिया आर्मो की रुचि के अनुरूप चित्रकारी के लिये ज़रूरी सहयोग बेटी बचाओ अभियान के तहत उपलब्ध कराता रहेगा."अगर नरबदिया को उनके परिवेश में रखकर ही चित्रकारी के लिये संसाधन उपलब्ध होते रहेंगे तो तय है कि वे कीर्तीमान स्थापित करेंगी."

     
यशभारत जबलपुर

14.11.12

मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे ..!!

                                           
                                 किश्तें कुतरतीं हैं हमारी जेबें लेकिन कभी भी हम ये सोच नहीं पाते कि काश कि हमारे पांव के बराबर हमारी चादर हो जाये जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल जिसका ये शेर सबकी अपनी कहानी है.... 
और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे ..!!
साभार : रानीवाड़ा न्यूज़
     पर क्या लुभावने इश्तहारों पर आश्रित बेतहाशा दिखा्वों के पीछे भागती दौड़ती हमारी ज़िंदगियां खुदा से इतनी सी दरकार कर पातीं हैं........ न शायद इससे उलट. जब भी खु़दा हमारी चादर हमारे पैरों के बराबर करता है फ़ौरन हमारा क़द बढ़ जाता है. यानी कि बस हम ये सिद्ध करने के गुंताड़े में लगे रहते हैं कि हम किसी से कमतर नहीं .
    बया बा-मशक्कत जब अपना घौंसला पूरा कर लेती है तो सुक़ून से निहारती है.. मुझे याद है उनकी हलचल घर के पीछे जब वो खुश होकर चहचहाती थी.  तेज़ हवाएं  भी उसके घौंसले को ज़ुदा न कर पाते थे आधार से... ! 
वो सुक़ून तलाशता हूं घर बनाने वालों में........ दिखाई नहीं देता. अपने चेहरों पर अपने मक़ान को घर बनाने वाला भाव आना चाहिये जो बया के चेहरे पर नज़र आता है हां वो भाव  जो दिखता नहीं हमारे चेहरों पर जो भी कुछ है सब आर्टिफ़ीशियल .. जैसे बलात कोई मुस्कुराहट हमारे लबों पे चस्पा किये जाता हो.. या मुस्कुराहटें हमारी मज़बूरियां हों. 
    तिनका तिनका तलाशती बया खूबसूरत घर बनाती तब से मुझे (आपको भी) लुभाती होगी  किया कभी आपने. पर एक नातेदार के घर पर बुलाया हमको गृह-प्रवेश जो था.. चेहरे पर उनके  बया वाले भाव की तलाश अचानक तब थमी जब गृह स्वामी ने कहा -"बीस बरस चलेंगी किश्तें.."
यानी बीस बरस तक वो आभासी मालिक-ए-मक़ान होगा.. किश्तों के साथ हौले हौले स्वामित्व का  एहसास पैकर (मूर्त होगा) होगा. तब तक एक तनाव होगा उसके मानस पर जो देगा बीमारियां.. शुगर.. हार्ट.. हां कभी कभार  हंसेगा ज़रूर भवन स्वामी परंतु  कृत्रिम तौर पर.
           कर्ज़ के मक़ान, कर्ज़ का सामान, कर्ज़ की ज़िंदगी   जो किश्तों में मुस्कुराती है..आज़ाद भारत के हम भारतीय अमेरिकियों की मानिंद खोखले धनवान होने की क़गार पर हैं..!
क्रेडिट के विस्तार ने अमेरिका को ज़मीन दिखा दी लेकिन हमारे देश में आने वाले दस वर्षों में क्रेडिट का यह  भयावह खेल पाताल दिखाएगा. काश हम इस लापरवाह अर्थ व्यवस्था और अपनी बेलगाम लालच पर लग़ाम न कस सके तो तय है कि कल बहुत भयावह होगा....................
ताज़ा ताज़ा 18.11.2012
 यशभारत में यह आलेख


     
              

11.11.12

मिसेज़ गुप्ता मुहल्लेवालों के साथ दीपावली मनाती हैं या..?


बात पिछली दीपावली की है। भूल गया था,  पर इस बार दीपावली की धूमधाम शुरू होते ही याद आ गई।
त्योहार की धूमधाम भरी तैयारियों में पिछले साल श्रीमती गुप्ता ने ढेरों पकवान बनाए सोचा मोहल्ले में गज़ब का प्रभाव जमा देंगी।  बात ही बात में गुप्ता जी को ऐसा पटाया की यंत्रवत श्री गुप्ता ने हर वो सुविधा मुहैय्या कराई जो एक वैभवशाली दंपत्ति को को आत्म प्रदर्शन के लिए ज़रूरी थी। “माडल” जैसी दिखने के लिए श्रीमती गुप्ता ने साड़ी ख़रीदी और गुप्ता जी को कोई तकलीफ न हुई। 
घर को सजाया सँवारा गया,  बच्चों के लिए नए कपड़े बने। कुल मिलाकर यह कि दीपावली की रात पूरी सोसायटी में गुप्ता परिवार की रात होनी तय थी। चमकेंगी तो गुप्ता मैडम, घर सजेगा तो हमारे गुप्ता जी का, सलोने लगेंगे तो गुप्ता जी के बच्चे, यानी ये दीवाली केवल गुप्ता जी की होगी ये तय था।
             समय घड़ी के काँटों पे सवार दिवाली की रात तक पहुँचा,  सभी ने तयशुदा मुहूर्त पर ही पूजा की गई। उधर सारे घरों में गुप्ता जी के बच्चे प्रसाद (आत्मप्रदर्शन)  पैकेट बांटने निकल पड़े । जहाँ भी वे गए सब जगह वाह वाह के सुर सुन कर बच्चे अभिभूत थे किंतु भोले बच्चे इन परिवारों के अंतर्मन में धधकती ज्वाला को न देख सके। ईर्ष्यावश सुनीति ने सोचा बहुत उड़ रही है प्रोतिमा गुप्ता, क्यों न मैं उसके भेजे प्रसाद-बॉक्स दूसरे बॉक्स में पैक कर उसे वापस भेज दूँ, यही सोचा मुहल्ले क़ी बाकी सभी महिलाओं ने और नई पैकिंग में पकवान-मिठाइयां वापस रवाना कर दिए गये श्रीमती गुप्ता के घर। यह कोई संगठित कोशिश न थी.  केवल बदले की भावना बल्कि एक स्वाभाविक आंतरिक प्रतिक्रया थी, जो सार्व-भौमिक सी होती है। आज़कल आम है। कोई माने या न माने सच यही है जितनी नकारात्मक कुंठा इस युग में है उतनी किसी युग में न तो थी और न ही होगी । इस युग का यही सत्य है।
               दूसरे दिन श्रीमती गुप्ता ने जब डब्बे खोले तो उनके आँसू निकल पड़े जी में आया कि सभी से जाकर झगड़ आऐं किंतु पति से कहने लगीं, ”अजी सुनो चलो ग्वारीघाट गरीबों के साथ दिवाली मना आएँ।
     बात बीते बरस की है पता नहीं इस बरस क्या होगा.  मिसेज़ गुप्ता मुहल्लेवालों के साथ दीपावली मनाती हैं या ग्वारीघाट के गरीबों की उन्हें दुबारा याद आती है।

4.11.12

शब्दों के हरकारे ने जिस जबलपुर को पढ़ाया उसी जबलपुर ने बिसराया : संदर्भ स्व. तिरलोक सिंह

                          एक व्यक्तित्व जो अंतस तक छू गया है । उनसे मेरा कोई खून का नाता तो नहीं किंतु नाता ज़रूर था । कमबख्त डिबेटिंग गज़ब चीज है बोलने को मिलते थे पाँच मिनट पढ़ना खूब पड़ता था यही तो कहा करतीं थीं मेरी प्रोफ़ेसर राजमती दिवाकर  । लगातार बक-बकाने के लिए कुछ भी मत पढिए ,1 घंटे बोलने के लिए चार किताबें , चार दिन तक पढिए, 5 मिनट बोलने के लिए सदा ही पढिए, . सो मैं भी कभी जिज्ञासा बुक डिपो तो कभी पीपुल्स बुक सेंटर , जाया करता था। पीपुल्स बुक सेंटर में अक्सर तलाश ख़त्म हों जाती थी, वो दादा जो दूकान चलाते थे मेरी बात समझ झट ही किताब निकाल देते थे। मुझे नहीं पता था कि उन्होंनें जबलपुर को एक सूत्र में बाँध लिया है।आज़ के  नामचीन और गुमनाम  लेखकों को कच्चा माल वही सौंपते है इस बात का पता मुझे तब चला जब पोस्टिंग  वापस जबलपुर हुयी। दादा का अड्डा प्रोफेसर हनुमान वर्मा जी का बंगला था। वहीं से दादा का दिन शुरू होता सायकल,एक दो झोले किताबों से भरे , कैरियर में दबी कुछ पत्रिकाएँ , जेब में डायरी, अतरे दूसरे दिन आने लगे मलय जी के बेटे हिसाब बनवाने,आते या जाते समय मुझ से मिलना न भूलने वाले व्यक्तित्व ..... को मैंने एक बार बड़ी सूक्ष्मता से देखा तो पता चला दादा के दिल में भी उतने ही घाव हें जितने किसी युद्धरत सैनिक के शरीर,पे हुआ करतें हैं।
कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व, मुझे मोहित करने में सदा हे सफल होता.....स्व. ठाकुर दादा,इरफान,मलय जी,अरुण पांडे,जगदीश जटिया,रमेश सैनी,के अलावा,ढेर सारे साहित्यकार के घर जाकर किताबें पढ़वाना तिरलोक जी का पेशा था। पैसे की फिक्र कभी नहीं की जिसने दिया उसे पढ़वाया , जिसके पास पैसा नहीं था या जिसने नही दिया उसे भी पढवाया । कामरेड की मास्को यात्रा , संस्कार धानी के साहित्यिक आरोह अवरोहों , संस्थाओं की जुड़्न-टूटन को खूब करीब से देख कर भी दादा ने इस के उसे नहीं कही। जो दादा के पसीने को पी गए उसे भी कामरेड ने कभी नहीं लताडा कभी मुझे ज़रूर फर्जी उन साहित्यकारों से कोफ्त हुई जिनने दादा का पैसा दबाया ।
कई बार कहा " दादा अमुक जी से बात करूं...?
रहने दो ..क्या ज़रूरत है इस सबकी ...?
यानी गज़ब का धीरज ।

               तिरलोक सिंह पर कम लिखे जाने उनकी चर्चा न होने का दर्द अरुण पांडे के सीने में भी पल रहा है तो ज्ञानरंजन जी का मानना है- "ये सच है कि तिरलोक सिंह के बारे में हमें निरंतर कार्य करने की ज़रूरत है  तिरलोक सिंह के अवदान को न तो शहर का कोई साहित्यकार भूल सकता न ही मेरे बच्चे पाशा और बुलबुल जिनको तिरलोक जी ने अच्छी अच्छी पुस्तकें दीं थी. अब तो न तिरलोक हैं न ही उनका विकल्प जो पूरे शहर के एक सूत्र में जोड़े. कृतज्ञता तो सर्वकालिक होती है भले वह किसी आयोजन के स्वरूप में हो या न हो पर हृदय में  कृतज्ञता भाव सतत होना चाहिये."
                 आज़ के दौर में  कृतज्ञता के भाव रखने वाले लोग कम ही हैं. जो हैं उन पर काम का दबाव अधिक है पर इसके मायने ये नहीं कि तिरलोक सिंह को याद न किया जाए. स्मृति-प्रवाह सतत जारी रहे.सबको याद करते रहना होगा शब्दों के हरकारे को  शहर को उनके बारे में सतत चिंतन करते रहना  चाहिये . 
  उनके जीवन काल में कटनी में हमने एक स्मारिका "शब्दों का हरकारा" प्रकाशित की थी तिरलोक जी को सराहने लगभग पांच सौ से अधिक लोग एकत्र हुए थे. 
          दिनेश अवस्थी ने अपनी टिप्पणी मुझे फ़ोन पर कुछ यूं दर्ज़ कराई-"एक तो दादा हमारे लिये साहित्य लाते थे दूसरा उनकी उपस्थिति पत्नि-बच्चों से संवाद एक विशाल परिवार के भाव की प्रस्तुति हुआ करती  थी . उनका न होना सच एक अपूरणीय नुकसान है "    
यशभारत .11.11.12 
                     सूरज राय "सूरज" ने अपने ग़ज़ल संग्रह के विमोचन के लिए अपनी मान के अलावा मंच पे अगर किसी से आशीष पाया तो वो थे :"तिरलोक सिंह जी "। इधर मेरी सहचरी ने भी कर्मयोगी के पाँव पखार ही लिए। हुआ यूँ कि सुबह सवेरे दादा मुझसे मिलने आए किताब लेकर आंखों में दिखना कम हों गया था,फ़िर भी आए पैदल पैदल और अपने साथ लाए  सड़क को शौचालय बनाकर गंदगी फैलाने वाले का मल जो उनके सेंडिल में..सना था.  मेन गेट से सीढियों तक गंदगी के निशान छपाते ऊपर आ गए दादा. अपने आप को अपराधी ठहरा रहे थे जैसे कोई बच्चा गलती करके सामने खडा हो. इधर मेरा मन रो रहा था कि इतना अपनापन क्यों हो गया कि शरीर को कष्ट देकर आना पड़ा दादा को .संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हुयी की गंदगी से सना बूढा आदमी गंदगी परोस गया गेट से सीढ़ी तक . सुलभा के मन में करूणा ने जोर मारा . उनके पैर धुलाने लगी . मानव धर्म के आधार में करुणा का महत्त्व सुलभा से बेहतर कौन समझ पाया होगा तब. . तिरलोक जी का आशीर्वाद लेकर सुलभा ने जाने कितना कुछ हासिल किया मुझे नहीं मालूम . मेरे और अन्य साहित्यकारों के बीच के सेतु तिरलोक जी फिर एकाध बार ही आए अब तो बस आतीं हैं उनकी यादें दस्तक देने मन के दरवाजे तक ऐसा सभी साथी महसूस करते हैं.








28.10.12

कल्लू दादा स्मृति समारोह : संदर्भ एक सरकारी मेला


इस कहानी में पूरी पूरी सच्चाई है यह एक सत्य कथा पर आधारित किंतु रूपांतरित कहानी है इसके सभी पात्र वास्तविक हैं बस उनका नाम बदल दिया है  
जो भी स्वयम को इस आलेख में खोजना चाहे खोज सकता है..!!                                       
  
         सरकारी महकमों  में अफ़सरों  को काम करने से ज़्यादा कामकाज करते दिखना बहुत ज़रूरी होता है जिसकी बाक़ायदा ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत तो होती नहीं गोया अभिमन्यु की मानिंद गर्भ से इस विषय  की का प्रशिक्षण उनको हासिल हुआ हो.             अब कल्लू को ही लीजिये जिसकी ड्यूटी चतुर सेन सा’ब  ने “वृक्षारोपण-दिवस” पर गड्ढे के वास्ते  खोदने के लिये लगाई थी मुंह लगे हरीराम की पेड़ लगाने में झल्ले को पेड़ लगने के बाद गड्डॆ में मिट्टी डालना था पानी डालने का काम भगवान भरोसे था.. हरीराम किसी की चुगली में व्यस्तता थी सो वे उस सुबह “वृक्षारोपण-स्थल” अवतरित न हो सके जानतें हैं क्या हुआ..? हुआ यूं कि सबने अपना-अपना काम काज किया कल्लू ने (गड्डा खोदा अमूमन यह काम उसके सा’ब चतुर सेन किया करते थे), झल्ले ने मिट्टी डाली, पर पेड़ एकौ न लगा देख चतुर सेन चिल्लाया-”ससुरे  पेड़ एकौ न लगाया कलक्टर सा’ब हमाई खाल खींच लैंगे काहे नहीं लगाया बोल झल्ले ?
चतुरसेन :- औ’ कल्लू तुम बताओ , ? झल्ले बोला:-”सा’ब जी हम गड्डा खोदने की ड्यूटी पे हैं खोद दिया गड्डा बाक़ी बात से हमको का ?”
कल्लू:-”का बोलें हज़ूर, हमाई ड्यूटी मिट्टी पूरने की है सो हम ने किया बताओ जो लिखा आडर में सो किया हरीराम को लगाना था पेड़ आया नही उससे पूछिये “
        सरकारी आदमी हर्फ़-हर्फ़ लिखे काम करने का संकल्प लेकर नौकरी में आते हैं सब की तयशुदा होतीं हैं ज़िम्मेदारियां उससे एक हर्फ़ भी हर्फ़ इधर उधर नहीं होते काम. सरकारी दफ़तरों के काम काज़ पर तो खूब लिक्खा पढ़ा गया है मैं आज़ आपको सरकार के मैदानी काम जिसे अक्सर हम राज़काज़ कहते हैं की एक झलक दिखा रहा हूं.
      “कल्लू दादा स्मृति समारोह” के आयोजन स्थल पर काफ़ी गहमा गहमीं थी सरकारी तौर पर जनाभावनाओं का ख्याल रखते हुए इस आयोजन के सालाना की अनुमति की नस्ती से “सरकारी-सहमति-सूचना” का प्रसव हो ही गया जनता के बीच उस आदेश के सहारे कर्ता-धर्ता फ़ूले नहीं समा रहे थे. समय से बडे़ दफ़्तर वाले साब ने मीटिंग लेकर छोटे-मंझौले साहबों के बीच कार्य-विभाजन कर दिया. कई विभाग जुट गए  “कल्लू दादा स्मृति समारोह” के सफ़ल आयोजन के लिये कई तो इस वज़ह से अपने अपने चैम्बरों और आफ़िसों से कई दिनों तक गायब रहे कि उनको “इस महत्वपूर्ण राजकाज” को सफ़ल करना है. जन प्रतिनिधियों,उनके लग्गू-भग्गूऒं, आला सरकारी अफ़सरों उनके छोटे-मंझौले मातहतों का काफ़िला , दो दिनी आयोजन को आकार देने धूल का गुबार उड़ाता आयोजन स्थल तक जा पहुंचा. पी आर ओ का कैमरा मैन खच-खच फ़ोटू हैं रहा था. बड़े अफ़सर आला हज़ूर के के अनुदेशों को काली रिफ़िलर-स्लिप्स पर ऐसे लिख रहे थे जैसे वेद-व्यास के  कथनों गनेश महाराज़ लिप्यांकित कर रहे हों. छोटे-मंझौले अपने बड़े अफ़सर से ज़्यादा आला हज़ूर को इंप्रेस करने की गुंजाइश तलाशते नज़र आ रहे थे. आल हज़ूर खुश तो मानो दुनियां ..खैर छोड़िये शाम होते ही कार्यक्रम के लिये तैयारीयों जोरों पर थीं. मंच की व्यवस्था में  फ़तेहचंद्र, जोजफ़, और मनी जी, प्रदर्शनी में चतुर सेन साब,बदाम सिंग, आदि, पार्किंग में पुलिस वाले साब लोग, अथिति-ढुलाई में खां साब, गिल साब, जैसे अफ़सर तैनात थे. यानी आला-हज़ूर के दफ़्तर से जारी हर हुक़्म की तामीली के लिये खास तौर पर तैनात फ़ौज़. यहां ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इतने महान कर्म-निष्ठ, अधिकारियों की फ़ौज तैनात है कि इंद्र का तख्ता भी डोल जाएगा वाक़ई. इन महान “सरकारीयों” की “सरकारियत” को विनत प्रणाम करता हूं .
               मुझे मंच के पास वाले साहब लोग काफ़ी प्रभावित कर रहे थे. अब फ़तेहचन्द जी को लीजिये बार बार दाएं-बाएं निहारने के बाद आला हज़ूर के ऐन कान के पास आके कुछ बोले. आला हज़ूर ने सहमति से मुण्डी हिलाई फ़िर तेज़ी से टेण्ट वाले के पास गये .. उसे कुछ समझाया वाह साहब वाह गज़ब आदमी हैं आप और आला-हज़ूर के बीच अपनत्व भरी बातें वाह मान गए हज़ूर के “मुसाहिब” हैं आप की क्वालिटी बेशक 99% खरा सोना भी शर्मा जाए.  आपने कहा क्या होगा ? बाक़ी अफ़सरान इस बात को समझने के गुंताड़े में हैं पर आप जानते हैं आपने कहा था आला-हज़ूर के ऐन कान के पास आकर “सर, दस कुर्सियां टीक रहेंगी. मैं कुर्सी की मज़बूती चैक कर लूंगा..? आला-हज़ूर ने सहमति दे ही दी होगी. और हम बस "यस-सर" बोलके आ गये 
               जोज़फ़  भी दिव्य-ज्ञानी हैं. उनसे सरोकार  पड़ा वे खूब जानतें हैं रक्षा-कवच कैसे ओढ़ते हैं उनसे सीखिये मंच के इर्दगिर्द मंडराते मनी जी को भी कोई हल्की फ़ुल्की सख्शियत कदाचित न माना जावे. अपनी पर्सनालटी से कितनों को भ्रमित कर चुकें हैं . 
               आला-हज़ूर के मंच से दूर जाते ही इन तीनों की आवाज़ें गूंज रही थी ऐसा करो वैसा करो, ए भाई ए टेंट ए कनात सुनो भाई का लोग आ जाएंगे तब काम चालू करोगे ? ए दरी   भाई जल्दी कर ससुरे जमीन पे बिठाएगा का .. ए गद्दा ..
  जोजफ़ चीखा:-”अर्र, ए साउंड, इधर आओ जे का लगा दिया, मुन्नी-शीला बजाओगे..? अरे देशभक्ति के लगाओ. और हां साउण्ड ज़रा धीमा.. हां थोड़ा और अरे ज़रा और फ़िर   मनी जी की ओर  मुड़ के बोला “इतना भी सिखाना पड़ेगा ससुरों को “ 
यशभारत
 तीनों अफ़सर बारी-बारी चीखते चिल्लाते निर्देश देते  रहे टैंट मालिक रज्जू भी बिलकुल इत्मीनान से था सोच रहा था कि चलो आज़ आराम मिला गले को . टॆंट वाले मज़दूर अपने नाम करण को लेकर आश्चर्य चकित थे  जो दरी ला रहा वो दरी जो गद्दे बिछा रहा था वो गद्दा .. वाह क्या नाम मिले . 
        कुल मिला कर आला हज़ूर को इत्मीनान दिलाने में कामयाब ये लोग “जैक आफ़ आल मास्टर आफ़ नन”वाला व्यक्तित्व लिये  इधर से उधर डोलते  रहे इधर उधर जब भी किसी बड़े अफ़सर नेता को देखते सक्रीय हो जाते थोड़ा फ़ां-फ़ूं करके पीठ फ़िरते ही निंदा रस में डूब जाते . 
 फ़तेहचंद ने मनी जी से पूछा :यार बताओ हमने किया क्या है..?
जवाब दिया जोजफ़ और मनी जी ने समवेत स्वरों में ;”राजकाज “
फ़तेहचंद – यानी  राज का काज हा हा 

 (  

25.10.12

रामायण कालीन भारत और अब का भारत



साभार : ताहिर खान 
       राम को एक ऐसा व्यक्ति मान लिया जाये जो एक राजा थे तो वास्तव में  समग्र भारत के कल्याण के लिये कृतसंकल्पित थे तो अनुचित कथन नहीं होगा.  राम ऐसे राज़ा थे जो सर्वदा कमज़ोर के साथ थे. सीता के पुनर्वन गमन को लेकर आप मेरी इस बात से सहमत न हों पर सही और सत्य यही है. राम की दृढ़्ता और समुदाय के लिये परिवार का त्याग करना राम का नहीं वरन तत्समकालीन  प्रजातांत्रिक कमज़ोरी को उज़ागर करता है. जो वर्तमान प्रजातंत्र की तरह ही एक दोषपूर्ण व्यवस्था का उदाहरण है. आज भी देखिये जननेताओं को भीड़ के सामने कितने ऐसे समझौते करने होते हैं जो  सामाजिक-नैतिक-मूल्यों के विरुद्ध भी होते हैं. अपराधियों के बचाव लिये फ़ोन करना करवाना आम उदाहरण है. आप सभी जानतें हैं कि तत्समकालीन भारतीय सामाजिक राजनैतिक आर्थिक  परिस्थितियां 
आज से भिन्न थीं. किंतु रावण के पास वैज्ञानिक, सामरिक, संचरण के संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे. यानी कुल मिला कर एक शक्ति का केंद्र. जो दुनिया को आपरेट करने की क्षमताओं से लैस था. किंतु प्रजातांत्रिक एवम मूल्यवान सामाजिक व्यवस्था के संपोषक श्री राम का लक्षमण के साथ  "आपरेशन-वनगमन" चला कर  १४ बरस तक धैर्य से अंतत: सफ़ल  परिणाम हासिल करना वर्तमान की राजनैतिक इच्छा शक्ति के एकदम विपरीत है. 
         इसे नज़दीकी सीमावर्ती राष्ट्रों के हमारे प्रति नकारात्मक व्यवहार के विरुद्ध हमारा डगमगाते क़दमों से चलना  चिंतित करता है. व्यवस्था की मज़बूरी है शायद डेमोक्रेट्रिक सिस्टम पर गम्भीर चिंतन के साथ बेहतर बदलाव के लिये संकेत सुस्पष्ट रूप से मिल रहे हैं फ़िर भी हमारा शीर्ष शांत है इस बिंदु पर ? राम ऐसे न थे.
    जब भ्रष्टाचार की बात होती है तब बस हल्ला गुल्ला मचाते नज़र आते है हम सब . सिर्फ़ हंगामा सिर्फ़ व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के अलावा कुछ भी नहीं किसी को बदलाव की ज़रूरत नहीं नज़र आ रही ऐसा प्रतीत होता है. 

                            भारत में सामाजिक भ्रष्टाचार को रोकने के कठोर क़दम उठाने के लिये सबसे पहले सरकार को भारत वासियों को आर्थिक सुनिश्चितता देनी होगी. यहां सवाल यह है कि सम्पूर्ण ज़िंदगी के अर्थतंत्र का लेखा जोखा रखने वाला भारतीय नागरिक सबसे पहले अपने बच्चों के लिये बेहतर शिक्षा, और बेहतर चिकित्सा, सहज आवास की व्यवस्था के लिये चिंतित होता है. इस हेतु उसे अपनी आय में वृद्धि के लिये प्रयास करने होते हैं और वह अव्यवस्थित यानी अस्थिर बाज़ार कीमतों के साथ जूझता भ्रष्टाचार के रास्ते धन अर्जित करता है..
न केवल सरकारी कर्मचारी आम आदमी जो जिस प्रोफ़ेशन में है.. उसमें इस तरह की कोशिश करता है. बिल्डर डाक्टर शिक्षक यहां तक की फ़ुटपाथ पर चाय बेचने वाला भी सामान्य से अधिक लाभ हासिल करने किसी न किसी तरह का शार्ट-कट अपनाता है.  सिर्फ़ सरकारी अधिकारी कर्मचारी भ्रष्ट है या 
नेता भ्रष्ट हैं 
  ऐसा कहना सर्वथा ग़लत है.
भारतीय समाज के गिरते नैतिक मूल्यों" को रोकने की एक भावनात्मक कोशिश  


करके की ज़रूरत है .आज़ वाक़ई राम की ज़रूरत है 
 जो वास्तव में समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना चाहता हो. पर दूर तक नज़र नही आता ऐसा राम ये अलग बात है.. जै श्रीराम का उदघोष सर्वत्र गूंज रहा है. 
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 ( संदर्भ :एक  था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये  जाना था रावण के पराक्रम को. उसकी साम्राज्य व्यवस्था को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक सवाल सदा खुद  पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण को मारा................. राम ने रावण का अंत किया क्योंकि रावण  एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा था  जो विश्व को अपने तरीक़े से संचालित करना चाहती थी. राम को पूरी परियोजना पर काम काम करते हुए चौदह साल लगे. यानी लगभग तीन संसदीय चुनावों के बराबर . 
यह आलेख पूरी तरह  आप मेरी इस पोस्ट पर देखिये "क्यों मारा राम ने रावण को ?)

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...