25.9.12

मेरा डाक टिकट

                   
इस स्टैम्प के रचयिता हैं
 ब्ला० गिरीश के अभिन्न मित्र
राजीव तनेजा
वो दिन आ ही गया जब मैं हवा में उड़ते हुए
अपना जीवन-वृत देख रहा था..
               मुद्दतों से मन में इस बात की ख्वाहिश रही कि अपने को जानने वालों की तादात कल्लू को जानने वालों से ज़्यादा हो और जब मैं उस दुनियां में जाऊं तब लोग मेरा पोर्ट्फ़ोलिओ देख देख के आहें भरें मेरी स्मृति में विशेष दिवस का आयोजन हो. यानी कुल मिला कर जो भी हो मेरे लिये हो सब लोग मेरे कर्मों कुकर्मों को सुकर्मों की ज़िल्द में सज़ा कर बढ़ा चढ़ा कर,मेरी तारीफ़ करें मेरी याद में लोग आंखें सुजा सुजा कर रोयें.. सरकार मेरे नाम से गली,कुलिया,चबूतरा, आदी जो भी चाहे बनवाए. 
जैसे....?
जैसे ! क्या जैसे..! अरे भैये ऐसे "सैकड़ों" उदाहरण हैं दुनियां में , सच्ची में .बस भाइये तुम इत्ता ध्यान रखना कि.. किसी नाले-नाली को मेरा नाम न दिया जाये. 
       और वो शुभ घड़ी आ ही गई.उधर जैसे ही किराने-परचून की दूकानों का ठेका मल्टी नेशन को मिला और   गैस सिलेंडर के दाम बढ़े इधर अपना बी.पी. और अपन न चाह के भी चटक गए. घर में कुहराम, बाहर लोगों की भीड़,कोई मुझे बाडी तो कोई लाश, तो साहित्यकार मित्र पार्थिव-देह कह रहे थे. बाहर आफ़िस वाला एक बाबू बार बार फ़ोन पे नहीं हां, तीन-बजे के बाद मट्टी उठेगी की सूचनाएं दे रहा था. हम हवा में लटके सब कार्रवाई देख रए थे.जात्रा निकली  जला-ताप के लोग अपने धाम में पहुंचे. शोक-सभाओं में किसी ने प्रस्ताव दिया 
"गिरीश जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक हम सरकार से उनकी स्मृति में गेट नम्बर चार की रास्ता को उनका नाम दे दे"
दूसरे ने कहा न डाक टिकट जारी करे,
तीसरे ने हां में हां मिलाई फ़िर सब ने हां में हां ऐसी मिलाई जैसे पीने वाले सोडे में वाइन मिलाते हैं..और एक प्रस्ताव कलेक्टर के ज़रिये सरकार को भेजना तय हुआ.
              कलैक्टर साब को जो समूह ग्यापन सौंपने गया उसने जब हमारे गुणों का बखान किया तो "आल-माइटी सा’ब" को भी मज़बूरन हां में हां मिलानी पड़ी. वैसे वो हमारे बारे में ज़रूरत से ज़्यादा जानते थे बेचारे क्या करें ज़रूरत से ज़्यादा जानना उनकी मज़बूरी थी कान से देखने का नतीज़ा था कि जीते जी वे हमको नटोरियस वाली सूची में रक्खे हुये थे पर कहते हैं न कि  मरने के बाद सबकी भावनाएं बदल जाती हैं.. डी एम साब की भी बदली 
                  पेपर बाज़ी हुई मांग की गई आंदोलन की धमकियों के ऐलान किये गये. महीना  सवा महीना बीतते बीतते सी एम साब ने गली का नाम धरवा दिया "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" खुद आये नाम धरने 
                                       केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी किया. हम बहुत खुश हुए.हमारी आत्मा मुक्ति की ओर भाग रही थी कि उसने मुड़ के देखा .. "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" पर हमने पडोसी गोलू भैया के कुत्ते पीज़ो को "शंका निवारते" देखा तो सन्न रह गये. सोचा डाकघर और देख आवें सो पोस्ट आफ़िस में ससुरे डाक-कर्मी गांधी जी वाले ख़तों पे तो  तो सही साट ठप्पा लगाय रहे थे .  जिंदगी भर सादा जीवन उच्च विचार वाले हम (एकाध दोस्त ही जानता होगा  हमारी चारित्रिक विशेषताएं) पर इन  डाक कर्मी जी को नहीं जो  लैटर पे चिपकाई डाक-टिकट पे  बेतहाशा काली स्याही वाला ठप्पा लगा रहे थे.. पूरा मुंह काला कर दिया हमारा . अब बताओ हज़ूर तुम्हारे मन में ऐसी इच्छा तो नईं है.. होय तो कान पकड़ लो.. मूर्ती-वूर्ती तो क़तई न लगवाना.. वरना
       आकाश का कौआ तो दीवाना है क्या जाने
         किस सर को छोड़ना है, किस सर पे छोड़ना है..?   
रुकिये ये गीत तो सुन ही लीजिये 

16.9.12

बंगला सांप और मैं..!!

फ़ोटो : उदंति.काम ब्लाग से साभार
                  सरकारी जीव को तबादले से डरना किसी की नज़र में भले ही कायरता हो अदद सरकारी मुलाज़िम होने के नाते अपन को असलियत की जानकारी है. तबादला सरकारी जीव की नियति है होता है होना भी चाहिये न होगा तो जीव कुएं का दादुर होवेगा अपना भी हुआ कई बार उनका नहीं हुआ तो हो जाएगा कब तक किसे पटा के रखेंगें बताओ भला.. आज़ पटी तो इधर न पटी तो उधर झट बोरिया बिस्तरा बंध जाएगा ..इधर. अपने राम को बदली का आर्डर मिला उधर सा’ब जी ने रवानगी का रम्मन्ना पकड़ाया अपन तुरत फ़ुर्र. लोग गणित-गुंताड़ा लगाएं उसके पहले हमारी रवानगी ने साबित कर दिया कि "ये दुनियां ये महफ़िल मेरे काम की... "हा हा हा 
        कुछ मित्र मरहम लगाने की अदा से आए हमें मालूम था कि पादरी फ़ूट फ़ूट के रोएगा हरिया झूठा टसुए बहाएगा, जूली मैम बिदाई के वक़्त जो बोल रही होगी ठीक उससे उलट सोच रही होगी .. अच्छा टला खूब डांटता था. अरे हां अपन ने मरहम न लगवाया तो उनको बुरा अवश्य लगा जो बड़े जतन से मरहम में नमक मिला के लाए थे.  नसीरुद्दीन पालिशड बातें करता हुआ अपनी क़मीनगी का इज़हार कर रहा था कुल मिला के फ़ुल नौटंकी पर अपन ढीठ बिना न नुकुर के चल पड़े. डेरा-डंगर लिये. उनका धंधा वो जानें अपने राम की अपनी डगर . 
   नये दफ़्तर में पहुंचते ही कुछ हमको पहचाने की कोशिश में थे कुछ पहले से ही जानते पहचानते थे. कुछ बस सुनी सुनाई बातों के ज़रिये हमारे बारे में अनुमान लगाते नज़र आए. 
   कई लोग मिलने आए एक आदमी एकाक्षी शुकदेव काला चश्मा लगाए दफ़्तर में तशरीफ़ लाया अपना कार्ड वार्ड लेकर . खुद की औक़ात नपवाने लगा. अमुक जी मेरे ये हैं तमुक जी मेरे वो हैं. 
     बाद में कई और भी आए कोई कलक्टर साब का दोस्त था तो कोई कमिश्नर सा’ब का क़रीबी. तभी एक ने बताया कि कैसे उसने पुरानी अधिकारी का तबादला करवाया . बीस बरस से लगातार हम ऐसी मक्क़ारियों से दो-चार होते आए हैं सो इसे पार्ट आफ़ द जाब मान के एंज्वाय करते रहे. 
  अगर आप सरकारी जीव हैं तो एक सूत्र याद रखिये जो सबसे पहले आपसे मिलकर अपनापा अभिव्यक्त करने की कोशिश करो तो जानिये सलीब पर लटकाने वाला वही होगा. 
               ब्लैकमेलर,चुगलखोर, मक़सदपरस्तों की लिस्ट  हमने बाक़ायदा तैयार कर ली है.पंद्रह बीस दिनों तक  ऐसे नामाकूलों  की आवाजाही से परेशान हमने आनेवालों के सामने बिजी होने की नौटंकी शुरु कर दी एक दो बार उन्हीं के सामने मातहतों को डपटना शुरु कर दिया बस फ़ुरसतिया लोगों की आवाज़ाही अचानक कम होने लगी. अरे हां वो एक जनसेवक मुझसे एक प्रकरण के बारे में खूब-पूछताछ कर रहे थे . फ़ाइल के मुआइने के लिये दस दिन का वक़्त मांग के हमने फ़ाइल का मुआइना किया तो बता चला श्रीमान येन केन प्रकारेण मेरी एक मातहत की शिकायत का बहाना खोज शिकायत दागा करते थे. उनके बीसीयों आवेदन फ़ाइल में लगे हैं . हर अर्जी में नई शिकायत 
foto By Dr. Awadh Tiwari 
    मातहत की पेशी की गई.. बेचारी महिला ने जो बताया वो सुन मन को लगा कि इंसान कितना गिर सकता है अपने स्वार्थ को सिद्ध करने . हमने उन महाशय को बुलावा भेज पूछा-"आप, को दुनियां में इस महिला के अलावा किसी और से शिक़ायत हो तो वो भी बता दीजिये ताक़ी मेरे हिस्से की जांच मैं कर लूं बाक़ी सरकार को भेज दूं ताक़ि आप बेफ़िक्री से जीवन के बचे-खुचे दिन काट लें..?"
        मेरे प्रस्ताव से तिलमिलाया शिक़ायत कर्ता काम का बहाना करते हुए बोला-साब, मैं जा रहा हूं पर आप.. 
मैने कहा-" जी पर मैं क्या..? श्रीमान अब आप मुझसे ऊपर वालों तक जाएं मेरी शिकायत करें ताक़ि मेरा यहां से तबादला आसानी से हो जाये. यहां तो अच्छा सा  सरकारी मक़ान तक एलाट नहीं हो पाया हुआ उसमें आपका एक भाई रहता पाया गया  " 
  मेरा भाई..?
हां, एक सांप का रहवास है उधर बताओ.. दादा अब एक बांबी में एक ही प्रजाति वाला रहेगा न..!
    शिकायत करने वाला अब तो तिलमिला उठा बोल न सका पर फ़ुंफ़कारता दफ़्तर से बाहर निकल गया. 
दोस्तो वाक़ई में मुझे जो बंगला अलाट हुआ उसमें एक सांप मैने हर-बार देखा. सो बस तय कर लिया कि अपने खास मित्र के साथ नहीं रहना है. 
अब बताएं सरकार ने अफ़सर को जो सुविधा दी उसे  सांप भोग रहा हो इसका अर्थ तो एक ही न हुआ.. सो अपने खास दोस्त के हक़ पर डाका क्यों डालूं.. ?

11.9.12

सत्य




ओह सत्य
जब जब तुम 
बन जाते लकीर 
तब बेड़ियों से जकड़ लेते हैं
तुमको...
जकड़ने वाले...!!
हां सच.. जब तुम गीत बन के 
गूंजते हो तब
हां.. तब भी 
लोग 
कानों में फ़ाहे 
ठूंसकर
खुर्द-बुर्द होने के गुंताड़े में 
लग जाते हैं.
हां सत्य 
जब भी तुमने मुखर होना चाहा
तब तब 
ये 
बिखरने से भयातुर 
दैत्याकार 
नाक़ाम कोशिशें करतें 
जब जब तुम प्रखर होते तब तब ये 
अपने अपने आकाशों से 
से आ रही तेजस्वी धूप को 
टेंट-कनातों से रोकते 
कितने मूर्ख लगते है न ..
सत्य ..!!  


8.9.12

गुरप्रीत पाबला नहीं रहे


श्री बी.एस.पाबला जी के सुपुत्र चिंरंजीव गुरप्रीत सिंह पाबला का आकस्मिक नि:धन के समाचार से जबलपुर के ब्लागर्स बेहद दुखी है .........स्तब्ध हैं ..................
              दिवंगत आत्मा की शांति के लिये ईश्वर से विनत प्रार्थना के साथ पाबला परिवार को इस अपूरणीय क्षति से व्युत्पन्न पीढ़ा को सहने की शक्ति प्रार्थना है.  

7.9.12

स्वतंत्रता और हिंदी : आयुषि असंगे

                      स्वतंत्रता और हिंदी विषय स्वयमेव एक सवाल सा बन गया है.  15 अगस्त 1947 के बाद हिंदी का विकास तो हुआ है किंतु हिंदी उच्च स्तरीय रोजगारीय भाषा की श्रेणी में आज तक स्थापित नहीं हो सकी. जबकि तेज गति से अन्य अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं का विकास हुआ है उतनी ही तेजी से  स्वतंत्रता के पश्चात  हिंदी भाषा की उपेक्षा की स्थिति सामने आई है. जिसका मूल कारण है हिंदी को रोजगार की भाषा के रूप में आम स्वीकृति न मिलना. विकाशशील राष्ट्रों में उनके सर्वागीण विकास के लिये  भाषा के विकास को प्राथमिकता न देना एक समस्या है. हिन्दी ने आज जितनी भी तरक्की की है उसमें सरकारी प्रयासों विशेष रूप से आज़ादी के बाद की सभी भारत की केन्द्रीय सरकारों का योगदान नगण्य है. आज जहाँ विश्व की सभी बड़ी भाषायें अपनी सरकारों और लोगों के प्यार के चलते तरक्की कर रहीं है वहीं विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिन्दी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. 26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया. पहले 15 साल तक हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया, यह तय किया गया कि 26 जनवरी 1965 से सिर्फ हिन्दी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी. 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों के विरोध के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हे यह आश्वासन दिया कि जब तक सभी राज्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे अंग्रेजी भी हिन्दी के साथ साथ राजभाषा बनी रहेगी. इसका अर्थ यह था कि अब अनंतकाल तक अंग्रेजी ही इस संघ की असली राजभाषा बनी रहेगी जबकि इसकी अनुवाद की भाषा हिन्दी उसी पिछली कुर्सी पर बैठी रहेगी.
आज आज़ादी के 62 वर्ष बीत जाने के बाद भी वही स्थिति बनी हुई है और हिन्दी को सच्चे अर्थों मे राजभाषा बनाने का कोई ठोस प्रयास सरकार की ओर से नहीं किया गया है. भारत सरकार ने हिन्दी के अनुसार भारत को तीन क्षेत्रों मे बाँटा है क क्षेत्र,ख क्षेत्र और ग क्षेत्र.
क क्षेत्र में - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह आते है, संविधान के अनुसार केन्द्र सरकार को इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम सिर्फ हिन्दी में ही करना होगा पर 1% मूल काम (अनुवाद नहीं) भी हिन्दी मे नहीं किया जाता.
हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह जैसे राज्य तो अपना सारा काम ही अंग्रेजी मे करते हैं, जबकि यहाँ हिन्दी का ना तो कोई विरोध है न ही हिन्दी जानने वाले लोगों की कमी. सबसे अजीब स्थिति तो हिमाचल प्रदेश और हरियाणा की है जो राज्य सिर्फ भाषाई आधार पर पंजाब से अलग हुये थे, आज जहाँ पंजाब का सारा काम पंजाबी मे किया जा रहा है वहीं उस से अलग हुये यह प्रदेश अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं.
ख क्षेत्र में - महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, जैसे क्षेत्र हैं, जहाँ हिन्दी का कोई विरोध नहीं है, संविधान के अनुसार इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम केन्द्र सरकार को हिन्दी में ही करना होगा पर मूल पत्रों के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी राज्य विशेष के माँगने पर उपलब्ध करवाया जायेगा पर स्थिति कमोबेश क क्षेत्र जैसी ही है.ग क्षेत्र मे बाकी सारे राज्य आते हैं और इनके संबंध मे तो केन्द्र सरकार हिन्दी के बारे में सोचती तक नहीं
                                       आज़ादी के बाद हिंदी को व्यापार की भाषा का दर्ज़ा न देना भी उसके विकास के प्रयासों पर विराम लगाता है. पर इससे उलट लेखक एवम पत्रकार श्री प्रमोद भार्गव का मानना उत्साहित कर रहा है वे अपने एक लेख में ओबामा के हिंदी के विकास में सहयोग को उल्लेखित करते हुए लिखतें हैं कि-
                               “    आम और खास आदमी की बोलचाल से लेकर जरुरत की भाषा हिन्दी है। जरुरत की इसी ताकत के बूते हिन्दी हाट - मण्डी, बाजार और हाइवे की भाषा बनी हुई है। यही आधार उसे विश्व में बोलचाल के स्तर पर दूसरी श्रेणी की भाषा बनाता है। इसी वजह से पूरी दुनिया में फैले हर तीसरा आदमी हिन्दी बोल व समझ सकता है। इन्हीं खूबियों के चलते अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने हिन्दी की वास्तविक ताकत को समझा और अपने देश की शालाओं में हिन्दी के पठन-पाठन के लिए जरुरी धनराशि उपलब्ध कराई। बहुसंख्यक आबादी की भाषा की यह बाहरी ताकत है। हिन्दी की अंदरुनी ताकत में अमेरिका के अतंराष्टीय स्तर पर व्यापारिक हित और आतंकवादी खतरों के बीच आंतरिक सुरक्षा के हित भी अंतनिर्हित हैं। बावजूद इसके फिलहाल हिन्दी इस शक्ति के साथ नहीं उबर रही की उसमें ‘ज्ञान का माद्दा’ है ? जब तक हिन्दी इस माद्दे से परिभाषित नहीं होगी देश-दुनिया में वह बगलें ही झांकती रहेगी।
         ओबामा सरकार अमेरिकी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाये जाने के लिए जरुरी धन मुहैया करा रही है। अमेरिका को लग रहा है कि हिन्दी देश को आर्थिक मंदी से उबारने और राष्टीय सुरक्षा के लिए कवच साबित हो सकती है। इसके पूर्व इस दृष्टि से केवल चीनी और अरबी भाषाओं का ही बोलबाला था। अमेरिका में आतंकवादी हमले के बाद भय पैदा करने वाले इंटरनेट संदेशों की आमद बड़ी है। बड़ी संख्या में ये संदेश हिन्दी और उर्दु में होते हैं। स्वाभाविक है दोनों ही भाषाएं आम अमेरिकी नागरिक नहीं जानता। इसीलिए अमेरिका की सेना में इस समय सबसे ज्यादा हिन्दी व उर्दु के अनुवादकों की मांग है। जिससे यह साफ हो सके की जो संदेश आ रहे हैं उनमें अमेरिका की आतंरिक सुरक्षा से जुड़ा खतरा तो नहीं हैं। इस भय से अमेरिका इतना भयभीत है कि भाषा के अनुवादकों  को उनने छह माह के भीतर अमेरिकी नागरिकता दे देने का भी प्रलोभन दिया हुआ है। इस कारण यह राय भी बनती है की हिन्दी की महत्ता जरुरत की भाषा के साथ भय की भाषा बनने के कारण भी बढ़ रही है।
     कुल मिलाकर जो भाषा अपने देश में न तो पूरी तरह व्यापार की भाषा बन सकी न ही कानून अथवा रोजगार की भाषा न बन सकी उसके विकास के लिये दुनियां के दादा अमेरिका की तत्परता एक महत्वपूर्ण एवम चिंतनीय संदेश है.
 ( हिंदी पखवाडे के अवसर पर स्नातक विद्यार्थी आयुषि असंगे का आलेख इस  आलेख में हिंदी विक्कीपीडिया सामग्री प्राप्त की गई है. )

28.8.12

भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है..!!

कला साधना के लिये मशहूर शहर में अपने कलासाधक मित्र से पूछ बैठा- भई, क्या चल रहा है..?
सिगरेट का कश खींचते बोले- बस यूं ही फ़ाकाकशी में हूं. 
और ज़ीने का ज़रिया ..?
बस, अब मिल गया, 
क्या..? ज़रिया.. !
न, गिरीश भाई नज़रिया,
     "नज़रिया" शब्द का अर्थ लगाए हम उनसे विनत भाव से विदा लेकर कामकाज़ निपटाने चल पड़े. मुलाकात वाली बात भी आई गई हो गई कि एक दिन वही हमारे मित्र दरवाज़े ज़िंदगी के दर्द भरे गीतों का पोटला लेके पधारे. संग साथ ले आए आए अपनी बीवी को बोले भैया -कलाकारों का भारी शोषण है. अब तो हमारी ज़िंदगी दूभर हो गई..अब बताइये क्या खाएं 
अपन भी कृष्ण बन गये लगा साक्षात सुदामा पधारे हमारे द्वारे बस हमारे हुक़्म पर चाय पेश हुई.. हम भी करुणामय हो गये.उनकी बातें सुनकर  हमारी अदद शरीक़-ए-हयात ने कहा - कुछ मदद कीजिये इनकी  !
बस बीवी के आदेश को राजाज्ञा मान हम ने तय कर लिया इस मित्र की मदद तो करनी ही है. सो हमने कहा -भई पब्लिसिटी खाते से आपको हम अपनी सामर्थ्य अनुसार काम देते रहेंगें. आपसे बड़ा वादा तो नहीं पर हां थोड़े थोड़े काम आपके खाते में ज़रूर आएंगें.
          मित्र को काम दिया कुछ हजार भी दिये काम ठीक ठाक था सबको पसंद आया भाई की डिमांड हुई. एक दिन अचानक श्रीमान ने मुझसे कुछ कविताएं पोस्टर बनाने मांग उपकृत करने का नुस्खा आज़माया. हमने खूब टाला वो टस से मस न हुआ. दे दीं कुछ कविताएं.
  भाई ने आकाश में मछलियां उड़ाईं.. कुछ आड़ी तिरछी लक़ीरें खींची.. गनीमत है कि भाई ने समंदर में घुड़दौड़ का आयोजन चित्रित नहीं किया.
 एक दिन हुज़ूर हमाए घर पधारे आते ही चीखे ..गिरीश भाई   गिरीश भाई !
’चंद स्कैच लाया हूं....!’
..दिखाएं.. भाई
ये रहे.. और फ़िर मित्र ने बेतरतीब लम्बे बालों को जो बिना रिबन के आंखों के सामने आकर हिज़ाब बनने की की कोशिश कर रहे थे को मुंडी उचका के पीछे ढकेलते हुए बड़ी अदा से पेंटिंग्स का पिटारा खोला आर्ट क्या आकाश में मछलियां उड़ रहीं थीं, पानी में घोड़े चर रहे थे, एक औरत की तस्वीर जानते ही होंगे आप तथा कथित आर्टिस्ट जैसी बनाया करते है ठीक वैसी ही. एक सेब का चित्र बीच से काटा गया उसे एक पुरुष बड़े ध्यान से देखे जा रहा था.. यानी उनकी चित्रकला का अर्थ केवल यौनिक अंगों का चित्रण साबित कर रही थी पेंटिंग्स जी में आया कि उनको बता दें कि चित्र कारी क्या चीज़ है पर सोचा कि कौन किस्से को खींचे टालने की गरज़ से हमने  वाह वाह कर दी.  हम  उनके  उत्साह को ठण्डा नहीं करना चाहते थे और न ही  मक़बूलिया कल्ट जो उनने पहन रखी थी  उसे भी क्षति पहुंचाना चाह रहे थे इस लिये हमने कहा भई ये मछलियां उड़ने वाला कांसेप्ट बेहद नया है आपके कई स्कैच में इसे देखा है सो वे तपाक से बोले - "गिरीश भाई.. सच आप तो गद्य,पद्य,कविता, अकविता, आलेख यानी हर क्षेत्र में दखल रखते हैं आज़ जाना कि पैंटिंग्स के मामले में भी क्रिटिक्स वाला नज़रिया रखते है वाह ..! .. ये बाद कहकर बड़ी उदारता से हमारी कुछ मिनिट पहले दी दाद वापस की और बोले आपके यहां कोई पेंटिंग करता है क्या..?
                                         हम अचकचा गये हमने कहा-भाई, हमारी सात पुश्तों में कोई ऐसा नहीं हुआ पर आप ये कयास कैसे लगा रहें हैं..?
वे बोले - ये , (बालकनी  बाएं तरफ़ की दीवार की ओर इशारा कर बोले) वाह क्या चित्र है.. ज़रूर कोई न कोई पेंटिंग वाला है..आपके यहां.
हमें हंसी छूट पड़ी हमने कहा- भैये,ये कोई पेंटिग वेंटिग नहीं है.  कई दोस्त हमारे रगड़ा ( घिसी हुई तम्बाखू ) खाऊ कमेटी के मेम्बर हैं मेरी तरह उनमें से एक हैं जिनने पिच्च से यहीं.. हा हा हा                               भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है.
        यह सुन कर उनकी मक़बूलिया कल्ट ठीक वैसे उतरने लगी गोया घरों की दीवारों पर जमीं पुताई वाली परतें गिरतीं है या ये भी मान लीजिये कि बजरंग बली की प्रतिमा से सिंदूरी चोला छूटता है .
             आपके इर्द-गिर्द ऐसे कल्टधारी आर्टिस्ट और उनके उतरते कल्ट की तस्वीर आप महसूस करेंगे.. !आप यह भी महसूस करएंगे  कि  हम मनुष्यों के सबसे बड़ी खराबी है कि हम जितना प्रतिभावान होते नहीं उससे अधिक प्रतिभावान होने का दावा करतें हैं.हम कितने भी जतन से अपने हुलिये को सजाएं संवांरे पर जब पानी बरसता है तो हमारे शरीर का रोगन बह निकलता है. पता नहीं लोग दिखावे की दौड़ में क्यों दौड़ रहें हैं किसी भी चेहरे पर मौलिकता एवम सामान्य छवि क्यों नज़र नहीं आती ..?

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...