28.8.12

भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है..!!

कला साधना के लिये मशहूर शहर में अपने कलासाधक मित्र से पूछ बैठा- भई, क्या चल रहा है..?
सिगरेट का कश खींचते बोले- बस यूं ही फ़ाकाकशी में हूं. 
और ज़ीने का ज़रिया ..?
बस, अब मिल गया, 
क्या..? ज़रिया.. !
न, गिरीश भाई नज़रिया,
     "नज़रिया" शब्द का अर्थ लगाए हम उनसे विनत भाव से विदा लेकर कामकाज़ निपटाने चल पड़े. मुलाकात वाली बात भी आई गई हो गई कि एक दिन वही हमारे मित्र दरवाज़े ज़िंदगी के दर्द भरे गीतों का पोटला लेके पधारे. संग साथ ले आए आए अपनी बीवी को बोले भैया -कलाकारों का भारी शोषण है. अब तो हमारी ज़िंदगी दूभर हो गई..अब बताइये क्या खाएं 
अपन भी कृष्ण बन गये लगा साक्षात सुदामा पधारे हमारे द्वारे बस हमारे हुक़्म पर चाय पेश हुई.. हम भी करुणामय हो गये.उनकी बातें सुनकर  हमारी अदद शरीक़-ए-हयात ने कहा - कुछ मदद कीजिये इनकी  !
बस बीवी के आदेश को राजाज्ञा मान हम ने तय कर लिया इस मित्र की मदद तो करनी ही है. सो हमने कहा -भई पब्लिसिटी खाते से आपको हम अपनी सामर्थ्य अनुसार काम देते रहेंगें. आपसे बड़ा वादा तो नहीं पर हां थोड़े थोड़े काम आपके खाते में ज़रूर आएंगें.
          मित्र को काम दिया कुछ हजार भी दिये काम ठीक ठाक था सबको पसंद आया भाई की डिमांड हुई. एक दिन अचानक श्रीमान ने मुझसे कुछ कविताएं पोस्टर बनाने मांग उपकृत करने का नुस्खा आज़माया. हमने खूब टाला वो टस से मस न हुआ. दे दीं कुछ कविताएं.
  भाई ने आकाश में मछलियां उड़ाईं.. कुछ आड़ी तिरछी लक़ीरें खींची.. गनीमत है कि भाई ने समंदर में घुड़दौड़ का आयोजन चित्रित नहीं किया.
 एक दिन हुज़ूर हमाए घर पधारे आते ही चीखे ..गिरीश भाई   गिरीश भाई !
’चंद स्कैच लाया हूं....!’
..दिखाएं.. भाई
ये रहे.. और फ़िर मित्र ने बेतरतीब लम्बे बालों को जो बिना रिबन के आंखों के सामने आकर हिज़ाब बनने की की कोशिश कर रहे थे को मुंडी उचका के पीछे ढकेलते हुए बड़ी अदा से पेंटिंग्स का पिटारा खोला आर्ट क्या आकाश में मछलियां उड़ रहीं थीं, पानी में घोड़े चर रहे थे, एक औरत की तस्वीर जानते ही होंगे आप तथा कथित आर्टिस्ट जैसी बनाया करते है ठीक वैसी ही. एक सेब का चित्र बीच से काटा गया उसे एक पुरुष बड़े ध्यान से देखे जा रहा था.. यानी उनकी चित्रकला का अर्थ केवल यौनिक अंगों का चित्रण साबित कर रही थी पेंटिंग्स जी में आया कि उनको बता दें कि चित्र कारी क्या चीज़ है पर सोचा कि कौन किस्से को खींचे टालने की गरज़ से हमने  वाह वाह कर दी.  हम  उनके  उत्साह को ठण्डा नहीं करना चाहते थे और न ही  मक़बूलिया कल्ट जो उनने पहन रखी थी  उसे भी क्षति पहुंचाना चाह रहे थे इस लिये हमने कहा भई ये मछलियां उड़ने वाला कांसेप्ट बेहद नया है आपके कई स्कैच में इसे देखा है सो वे तपाक से बोले - "गिरीश भाई.. सच आप तो गद्य,पद्य,कविता, अकविता, आलेख यानी हर क्षेत्र में दखल रखते हैं आज़ जाना कि पैंटिंग्स के मामले में भी क्रिटिक्स वाला नज़रिया रखते है वाह ..! .. ये बाद कहकर बड़ी उदारता से हमारी कुछ मिनिट पहले दी दाद वापस की और बोले आपके यहां कोई पेंटिंग करता है क्या..?
                                         हम अचकचा गये हमने कहा-भाई, हमारी सात पुश्तों में कोई ऐसा नहीं हुआ पर आप ये कयास कैसे लगा रहें हैं..?
वे बोले - ये , (बालकनी  बाएं तरफ़ की दीवार की ओर इशारा कर बोले) वाह क्या चित्र है.. ज़रूर कोई न कोई पेंटिंग वाला है..आपके यहां.
हमें हंसी छूट पड़ी हमने कहा- भैये,ये कोई पेंटिग वेंटिग नहीं है.  कई दोस्त हमारे रगड़ा ( घिसी हुई तम्बाखू ) खाऊ कमेटी के मेम्बर हैं मेरी तरह उनमें से एक हैं जिनने पिच्च से यहीं.. हा हा हा                               भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है.
        यह सुन कर उनकी मक़बूलिया कल्ट ठीक वैसे उतरने लगी गोया घरों की दीवारों पर जमीं पुताई वाली परतें गिरतीं है या ये भी मान लीजिये कि बजरंग बली की प्रतिमा से सिंदूरी चोला छूटता है .
             आपके इर्द-गिर्द ऐसे कल्टधारी आर्टिस्ट और उनके उतरते कल्ट की तस्वीर आप महसूस करेंगे.. !आप यह भी महसूस करएंगे  कि  हम मनुष्यों के सबसे बड़ी खराबी है कि हम जितना प्रतिभावान होते नहीं उससे अधिक प्रतिभावान होने का दावा करतें हैं.हम कितने भी जतन से अपने हुलिये को सजाएं संवांरे पर जब पानी बरसता है तो हमारे शरीर का रोगन बह निकलता है. पता नहीं लोग दिखावे की दौड़ में क्यों दौड़ रहें हैं किसी भी चेहरे पर मौलिकता एवम सामान्य छवि क्यों नज़र नहीं आती ..?

27.8.12

अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर मीट लखनऊ में

खबरिया चैनल आज़तक के संस्थापक एस.पी.सिंह का भावपूर्ण स्मरण किया गया



मुंबई । दिल्ली हो या मुंबई आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के महानायक और हिंदी न्यूज़ चैनल 'आजतक' के संस्थापक संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी सिंह को चाहने वाले और मानने वाले हर जगह है. एस.पी.सिंह स्मृति  समारोह मुंबई में आयोजित किया गया तो यहाँ भी उनके चाहने वाले और साथ काम कर चुके पत्रकार पहुंचें. उनसे जुडी यादों को बांटा. उन्हें याद किया और भावुक भी हुए. 
वरिष्ठ पत्रकार विश्वनाथ सचदेव ने एस.पी सिंह को याद करते हुए कहा कि उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे आने वाले कल को पहचानने की कोशिश करते थे और उसी हिसाब से नए - नए प्रयोग करते थे. उनके टेलीविजन के सफ़र पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि आजतक ने एस.पी को जो पहचान दी वह अद्वितीय है. बुलेटिन के अंत में एस.पी कहते थे, यह थी खबरें आजतक, इंतज़ार कीजिये कल तक और लोग इंतज़ार करते थे. 
एस.पी. सिंह के ज़माने में आजतक के मुंबई ब्यूरो में कार्यरत नीता  कोल्हटकर ने एस.पी को याद करते हुए कहा कि अंग्रेजी माध्यम से होते हुए भी वे मुझे आजतक में लेकर आये. लेकिन उन्होंने कहा कि पंडिताना हिंदी को भूल जाओ. सरल, सहज और आम लोगों की भाषा का इस्तेमाल करो. एस.पी की खासियत के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि आने वाले दिनों में लोगों को क्या पसंद आनेवाला है, इसकी उन्हें बहुत अधिक समझ थी. वे व्यक्तिगत चीजों को परे रखकर पत्रकारिता करते थे और बहुत दिल से बुलेटिन की एंकरिंग करते थे. 
सीएनबीसी-आवाज़ में कार्यरत आलोक जोशी ने एस.पी.सिंह के साथ आजतक में बिताये लम्हों को याद करते हुए कहा कि एस.पी की पारखी नज़र थी. उन्हें सब पता होता था कि क्या होने वाला है. लेकिन एक संपादक की तरह वे डराते नहीं थे. समाज और पत्रकारिता के अलावा बिजनेस भी समझते थे. लेकिन मैनेजमेंट का किसी तरह का दबाव पत्रकारों पर नहीं पड़ने देते थे. अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से वे इतने बड़े आयकॉन बने कि पत्रकारिता में बहुत सारे लोग खींचे चले आये.
आजतक के मुंबई ब्यूरो के प्रमुख साहिल जोशी ने कहा कि एस.पी.सिंह के बुलेटिन को देखकर ही हम जैसे लोगों के अंदर यह ज़ज्बा पैदा हुआ कि हम भी हिंदी के पत्रकार बन सकते हैं. एस.पी सिंह के बुलेटिन को देखकर ही हम जैसे लोगों ने हिंदी सीखी. साहिल जोशी ने एक दिलचस्प किस्सा बताते हुए कहा कि, ' मुझसे एक बार किसी दर्शक ने पूछा कि आप भी उसी चैनल में काम करते हैं न , जिसमें दाढ़ी वाले पत्रकार खबरें पढ़ते हैं. यह 2004 की बात है.  मुझे लगा कि शायद ये दीपक चौरसिया के बारे में बात कर रहे हैं. लेकिन उस दर्शक ने कहा की नहीं, वो दूसरे दाढ़ी वाले, एस.पी सिंह.'
पूरा आलेख यहां उपलब्ध है "मीडियामोरचा

25.8.12

" दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन


लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग जन्य हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती .  किंतु आने वाला कल ऐसा न होगा.. जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. यह ऐसा बदलाव होगा जिसे न तो हमारी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था रोकेगी और न ही खाप पंचायत जैसी कोई व्यवस्था इसे दमित कर पाएगी. कुल मिला कर इसे  बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का एक साथ खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक गहरा असर डाल सकता है.
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक व्यवस्था है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है . ऐसे कई उदाहरण समाज में व्याप्त हैं..बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.

आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे.......

17.8.12

विद्रूप विचारधाराएं और दिशा हीन क्रांतियों का दौर

देश के अंदर भाषाई, क्षेत्रीयता, जाति,धर्माधारित वर्गीकरण करना भारत की अखण्डता एवम संप्रभुता पर सीधा और घातक हमला है . देश आज एक ऐसे ही संकट के करीब जाता नज़र आ रहा है जाने क्या हो गया है कि हम कहीं भी कुछ भी सहज महसूस नहीं कर पा हैं . अचानक नहीं सुलगा असम अक्सर पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में सोचता हूं रोंगटे खड़े हो जाते हैं वहां तीसेक साल से घुट्टी में पिलाई जा रही है कि इंडियन उनसे अलग हैं.साल भर पहले दिल्ली प्रवास के समय मित्रों की आपसी चर्चा के दौरान जब इस  तथ्य का खुलासा हुआ तो हम सब की रगों में विषाद भर गया मेरे मित्र ललित शर्मा और पाबला जी सहित हम सब घण्टों इस बात को लेकर तनाव में रहे थे. बस इतना ही हम कर सकते थे सो कर दिया पर जिनके पास ऐसी सूचना बरसों से है वे इस विषय में शांत क्यों हैं.. क्या हुआ हमारी स्वप्नजीवी सरकार को कि भारत को तोड़ने की कोशिशों का शमन करने कोई सख्त कदम नहीं उठा पा रही. उनकी क्या मज़बूरियां हैं इसका ज़वाब मांगना अब ज़रूरी हो गया है. 
                   विद्रूप-विचारधाराएं भाषाई आधार पर गठित राज्य की सड़ांध है. अब देखिये यू.पी. बिहार के लोगों को हिराकत से  भैया कहकर भाषाई आधार पर भेदभाव बरतने वाले कथित मुम्बईया लोग क्या देश की एकता पर प्रहार नहीं करते नज़र आ रहे. वहीं दक्षिण में हिंदी भाषियों को हिराक़त की नज़र से  देखा जाना अनदेखा करना उचित है.. कदापि नहीं. ऐसा नहीं है कि भारत में विद्रूप विचारोत्तेज़ना फ़ैलाकर भारत को तोड़ने की साज़िशों से गुप्तचर संस्थाओं ने आगाह न किया होगा. पर एक मज़बूत इच्छा शक्ति का अभाव देश को अंगारों पर रखकर जला देगा इस तथ्य से बेखबर हैं हम. हम अन्ना ब्राण्ड के आंदोलन जिसका अंत सियासत है में उलझ के रह गये हैं. हमारी मौलिक सोच जैसे तुषाराच्छादित हो गई. 

राजेश दुबे जी से साभार
फ़ेसबुक पर ये देख शायद आप भी न सो सकेंगे मित्र Rajesh Dubey जी ने अपनी पोस्ट में किसका खौफ़ शीर्षक से नक्सली करतूत उज़ागर की है....
किसका खौफ :: छत्‍तीसगढ में नक्‍सलियों का खौफ सिर चढ़कर बोल रहा है। पिछले दिनों नक्‍सलियों ने मुखबारी के संदेह में एक शिक्षक कर्मी ध्रुव की हत्‍या कर दी। उस शिक्षक की लाश को कोई हाथ लगाने को आगे नहीं बढ़ा तब उसके भाई ने स्‍वयं मोटर साइकिल पर लेकर लाश रवाना हुआ।इस खौफ का क्‍या अर्थ माने, क्‍या इंसान इस कदर इंसानियत भूलता जा रहा है कि दो हाथ भी अंतिम  यात्रा में नहीं मिल रहे हैं।
जिस सर्वहारा की के नाम पर नक्सलियों द्वारा कथित रूप से   समांतर सत्ता चलाई जा उसी का शोषण करने वालों में  नक्सलियों का स्थान ही सर्वोपरि है. 

न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका- जिसे तपा के जांचा जाए.



जितनी बार बिलख बिलख के रोते रहने को मन कहता
उतनी बार मीत तुम्हारा भोला मुख सन्मुख है रहता....!
*************************
सच तो है अखबार नहीं तुम,
जिसको को कुछ पल बांचा जाये.
न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका-
जिसे तपा के जांचा जाए.
मनपथ की तुम दीप शिखा हो
यही बात हर गीत है कहता
जितनी बार बिलख बिलख के ...............
*************************
सुनो प्रिया मन के सागर का
जब जब मंथन मैं करता हूं
तब तब हैं नवरत्न उभरते
और मैं अवलोकन करता हूँ
हरेक रतन तुम्हारे जैसा..?
तुम ही हो ये मन  है कहता.
जितनी बार बिलख बिलख के ...............
 *************************








13.8.12

वाह मनीष सेठ वाह बाबा हमें गर्व है आप पर ..!!


हमारे मित्र मनीष सेठ इन दिनों कटनी में एकीकृत बाल विकास सेवा विभाग के  जिला अधिकारी हैं. बेहद चंचल हंसमुख हमारे अभिन्न मित्र हैं.हम आपस में  लड़ते झगड़ते भी खूब हैं.. स्वभाविक है इस सबके बिना मज़ा कहां आता है दोस्तों में.. और फ़िर जबलपुरिया नमक पानी ऐसा ही तो है कि बिना लड़े-झगड़े खाना पचता ही नहीं .. आपस में बाबा का संबोधन किया करतें हैं हम बात  1999 की दीवाली की है.. अचानक सड़क पर चलते चलते मुझे जाने क्या हुआ क्रेचेस फ़िसल गई और पोलियो वाले पैर में फ़ीमर बोन का भयानक फ़्रेक्चर फ़ीमर बोन कनेक्टिंग बाल से टूट कर अलग हो गई थी. कुछ मित्र होते हैं जो बुरे वक्त में नज़दीक होते हैं सबसे पहले मित्र मनीष सेठ ही थे जो मेरे सामने दिखे लगभग डपटते हुए उनको बोलते सुना -"बेवकूफ़ हो, मालूम है कि दीवाली के दिन बाज़ार में कार रिक्शे विक्शे जा नहीं पाते पैदल ही जाता पड़ता है तो क्या ज़रूरत थी कि बाज़ार जाओ, " .. इस बात में एक वेदना की प्रतिध्वनि मुझे आज़ भी याद है. आज़ वो घटना ताजी हो गई जब मेरे मेल बाक्स में ये संदेश मिला जो श्री आदित्य शर्मा जी का लिखा हुआ था.. आप ही देखिये आप भी कह उठेंगे 
   वाह मनीष सेठ जी Manish Seth वाह हमें गर्व है आप पर 
                       30 जुलाई सोमवार को प्रात: मुंबई से आये अज्ञात फोन से ज्ञात हुआ कि मेरे अनुज का बेग हावडा-मुंबई मेल में लावारिस मिला है, मेरा अनुज आशुतोष शर्मा रायगढ छत्तीसगढ था, तहकीकात से ज्ञात हुआ कि वह रायगढ से इन्दौर आने के लिये बिलासपुर के लिये शनिवार रात्रि 3.00 बजे निकला था, उसके बाद कोर्इ लोकेशन नही थी, सूचना विचलित करने वाली थी। दोपहर में एक फोन से ज्ञात हुआ कि अनुज को शहडोल रेल द्वारा इन्दौर के लिये रवाना किया गया है, उसी फोन पर संपर्क से ज्ञात हुआ कि बिलासपुर-इन्दौर ट्रेन है, मेरा अनुज अर्घमूर्छित अवस्था में है, और अन्य डिब्बे में बैठा है, मेरी उससे कोई बात नही हो पा रही थी, लेकिन र्इश्वर की कृपा से वह सुरक्षित है, इस बात का संतोष था।उस क्षेत्र मे मेरा कोई रिश्तेदार, मित्र या परिचित भी नही था, ऐसी सिथति में कैसे संपर्क हो उसकी मदद कैसे कर सके, इसी दुविधा में परेशान था। तभी मुझे र्इश्वरीय प्रेरणा मिली और मेने महिला बाल विकास जिला कार्यालय कटनी फोन लगाया जहां मेरी श्री मनीष सेठ (डी.पी.ओ. है मुझे यह भी जानकारी नही थी) से बात हुर्इ, उन्हें पूर्ण सिथति से अवगत करवा कर, मदद की अपेक्षा की गर्इ,ट्रेन सायं 6.20 पर कटनी पहुचनी थी। श्री मनीष सर से हमारा कोई परिचय भी नही था, मन कुछ आशंकित भी था। किन्तु  सर श्री मनीष सेठ ने एक अपरिचित के लिये पूर्ण मानवीय संवेदनाओं का प्रमाण देते हुए, मेरी सहायता की, वह स्वयं अपने स्टाफ को लेकर कटनी स्टेशन पहुचे, स्टाफ के साथ टे्रन की एक-एक बोगी में तलाश कर मेरे अनुज को ढूंढ निकाला मेरी उससे बात करवाई, उसके खाने-पीने की व्यवस्था की, उसकी आर्थिक मदद की, उसके सह यात्री को ध्यान रखने की समझार्इश देकर सहयात्री के मोबाइल नंबर उपलब्ध करवाये, जिस पर में सतत संपर्क में रह सका। आदरणीय सेठ सर एवं उनके सहयोगियों के इस विशिष्ट सहयोग का धन्यवाद ज्ञापित करने एवं आभार प्रदर्शन के लिये मेरे शब्द अत्यन्त बोने है।इस घटनाक्रम से मुझे यह दृढ विश्वास हुआ कि महिला बाल विकास विभाग में कार्यरत रहकर मेंने कितना बडा परिवार पाया है, म.प्र. के 50 जिलों में हमारा परिवार है, जो परिचित हो या अपरिचित किन्तु मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण होकर विपरीत परिसिथतियों में हमारी सहायता के लिये सदैव तत्पर है।इस घटनाक्रम का उल्लेख कर विभाग में सभी को प्रेषित करने का उददेश्य भी यही है कि हम म.प्र. में कही भी अकेले नही है, हर जगह हमारा परिवार मौजूद है, परस्पर सहयोग की भावना को प्रबल करने हेतु संकलिपत रहें। 
एकबार पुन: श्री मनीष सेठ जिला कटनी एवं उनके सहयोगी समस्त स्टाफ का हदय की अंतरंग गहराइयों से बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार ..................................................

भवदीय
आदित्य शर्मा
महिला एवं बाल विकास विभाग
परियोजना- ब्यावरा
जिला राजगढ (म.प्र.)

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