8.5.12

"फ़िज़ूल का रोना धोना छोड़ो.. पहले देश के हालात सुधारो फ़िर रोकना हमें..!!"


         हज़ूर की शान में कमी आते ही हज़ूर मातहओं को कौआ बना  देने में भी कोई हर्ज़ महसूस नहीं करते.  मार भी देते हैं लटका भी देते हैं .. सच कितनी बौनी सोच लेकर जीते हैं तंत्र के तांत्रिक .जब भी जवाव देही आती है सामने तो झट अपने आप को आक्रामक स्वरूप देते तंत्र के तांत्रिक बहुधा अपने से नीचे वाले के खिलाफ़ दमन चक्र चला देते हैं. कल ही की बात है एक अफ़सर अपने मातहतों से खफ़ा हो गया उसके खफ़ा होने की मूल वज़ह ये न थी कि मातहत क्लर्कों ने काम नहीं किया वज़ह ये थी कि वह खुद पत्र लिखने में नाक़ामयाब रहा. और नाकामी की खीज़ उसने अपने मातहतों को गरिया  के निकाली.                    
                       नया नया तो न था पर खेला खाया कम था पत्रकारों ने घेर लिया खूब खरी खोटी सुनाई उसे . शाम खराब हो गई होगी उसकी ..अगली-सुबह क्लर्क को बुलाया आर्डर टाइप कराया एक मातहत निलम्बित. दोपहर फ़ोन लगा लगा के पत्रकारों को सूचित करने लगा-”भाई साहब एक कौआ मार दिया है.. कल से व्यवस्था सुधर जाएगी..!” फ़ोन सुन कर  एक पत्रकार बुदबुदाया  -”"स्साला कल से स्वर्ग बन जाएगा शहर लगता है..!”
Image             ”Lick Upper & Cick Below” तंत्र में आपकी सफ़लता का राज़ हो सकता है अंग्रेज़ शायद यही तो सिखा गये हैं. न भी सिखाते तो हमारे संस्कार भी कमोबेश वैसे ही तो हैं.जिस “तंत्र के तांत्रिक” ने इस मंत्र सिद्ध कर लिया तो भाई उसका कोई कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता. आपकी सफ़लता का एक मात्र रहस्य यही तो है. कभी एकांत में अपनी आत्मा से पूछना क्या हम इसी के लिये जन्मे हैं. अधिकांश युवा प्रतिभाएं भारत से केवल यहां की वर्किंग-कंडीशन की वज़ह से पलायन कर रहीं है भले ही यह  कारण पलायन के अन्य  कारणों में से एक हो पर कम विचारणीय नहीं. मेरे भतीजे को बार बार आई.ए.एस.  की तैयारी की सलाह देने पर वह मुझसे कटने लगा फ़िर एक दिन उसने कहा-”चाचा, भारत महान तो है पर यहां की वर्किंग कंडीशन्स उसकी महानता पर एक धब्बा है..आप तो विचारक हो न ? बताओ क्या मैं झूठ बोल रहा हूं..”
       झूठा न था वो युवा उसने परख ली थी देसी-व्यवस्था.. विदेशी नौकरी उसे आज जो स्तर दे रही है वो हमको कभी मय्यस्सर हो ही नहीं सकती. ये अलग बात है कि हम अब आदि हो गये हैं सतत अपमान सहने के. करें तो करें भी क्या समझौते तो करना ही है. बच्चे जो पालने है.उसे अच्छा लगा होगा जब सुना होगा उसने कि उसका एक कार्यक्रम सरकार ने स्वीकार लिया पूरे प्रदेश में लागू किया.फ़िर एक दिन अचानक जब उस व्यक्ति ने देखा कि सारा का सारा श्रेय एक चोर को दे दिया गया है वो भौंचक रहा बेबस उदास और हताश लगभग रो दिया. ऐसी स्थिति को क्या आज़ की नौज़वान पीढ़ी स्वीकारेगी न कदापि नहीं उसके पास सपने है युक्तियां हैं.. विचार हैं.. वो स्वतंत्र भी तो है उड़ जाता है परिंदा बन कर नहीं बनना उसे तंत्र का तांत्रिक..! क्यों वो बिना एथिक्स के सिर्फ़ एक पुर्ज़ा बन के काम करेगा .?.उसकी उड़ान को गौर से देखिये- मुड़ मुड़ के रोकने वालों को कहता है-”फ़िज़ूल का रोना धोना छोड़ो.. पहले देश के हालात सुधारो फ़िर रोकना हमें हम रुक जाएंगे सच यहीं जहां अपनी ज़मीन है अपना आकाश भी.. “ 
       

7.5.12

यशभारत जबलपुर में गिरीश और फ़िरदौस के आलेख

यशभारत जबलपुर के ताज़ा यानि रविवार 6.5.12 के अंक में 
http://yashbharat.com/city_page/56_06%20Page%2007.pdf

मिसफ़िट के पिछले अंक पर यशभारत
की नज़र
Stories written by firdauskhan

फ़िरदौस खान (अतिथि संपादक) 
फ़िरदौस ख़ान पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. आपने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों दैनिक भास्कर, अमर उजाला और हरिभूमि में कई वर्षों तक सेवाएं दीं हैं. अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया है. ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहता है. आपने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के लिए लेखन भी जारी है. आपकी ' गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक एक किताब प्रकाशित हो चुकी है, जिसे काफ़ी सराहा गया है. इसके अलावा डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन भी कर रही हैं. उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए आपको कई पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है. इसके अलावा कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी शिरकत करती रही हैं. कई बरसों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली है. आप कई भाषों में लिखती हैं. उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में ख़ास दिलचस्पी रखती हैं. फ़िलहाल एक न्यूज़ और फ़ीचर्स एजेंसी में समूह संपादक हैं...

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                                                                          मेरी डायरी

1.5.12

सर्वदा उदार प्रेयसी है वो..!!

छवि: साभार-बीबीएन
 मृत्यु तुमसे भेंट तय है. तुम से  इनकी उनकी सबकी   भेंट भी तय है. काल के अंधेरे वाले भाग में छिप कर बैठी है अनवरत लावण्या  तुम्हारी प्रतीक्षा है मुझे. अवशेष जीवन के निर्जन प्रदेश में अकेला पथचारी यायावर मन सहज किसी पर विश्वास नहीं कर पाता. सब कुछ उबाऊ जूना सा पुराना सा लगता है. 
                मदालस-अभिसारिका यानी मृत्यु सामने होती हो तो सब के सब सही सही  और बेबाक़ी से बयां हो जाता है. कुछ तो तुम्हारे सौंदर्य से घबरा जाते हैं.. हतप्रभ से अवाक अनचेते हो जाते हैं. उसके आलिंगन से बचने बलात कोशिशों में व्यस्त बेचारे क्या जाने कि जब मृत्यु आसक्त हो तब स्वयं विधाता भी असहाय होता है..कुछ न कर सकने की स्थिति में होता है  सुन नहीं पाता रिरियाती-याचना भरी आवाज़ों को . सच्चा प्रेमी कभी भी मृत्यु से भयातुर नहीं होता न ही बचाव के लिये विधाता को पुकारता है. बस  नि:शब्द बैठा अपलक  पास आते तुम्हारे मदिर लावण्य को निहारता है.और जब क़रीब आती है तो बस कुछ खो कर बहुत कुछ पाने का एहसास करता हो जाता है बेसुध.. अभिसाररत.. 
       कोई भी बात अधूरी नहीं रहती उस के मन में.. न ही वो किसी  का विरही होता है न ही  किसी के लिये अनुराग बस वो तुम्हारे मादक-औदार्य-सौंदर्य का रसास्वादन करने बेसुध हो जाने को बेताब होता है.
          प्रेयसियां सहचरियां उतनी उदार नहीं होतीं जितना कि तुम सब के लिये सहज सरल कभी भी स्वगत... न कभी भी नहीं.
          मुझे ऐसी ही सर्वदा उदार प्रेयसी की प्रतीक्षा है.. जो बिना किसी दुराव के मुझे अपने में समाहित कर ले. अवश्य आएगी तब तुम न रोना हां तुम भी न सुबकना.. अरे ये क्या तुम अभी से सुबकने लगे .. न ऐसा न करना.. मेरी अनंत-यात्रा में तुम दु:खी हो .. ? कभी तो मेरे बिना जीवन को स्वीकारो.  वीतरागी भाव का वरण करोगे न जन मेरी चिता की लपटें आकाश छूने की असफ़ल कोशिश करेंगी. अवश्य ऐसा ही होगा तुम्हारे मन में एक बैरागी उभरेगा तत्क्षण.. तो फ़िर नाहक रोना धोना मत. मैं  उस नायिका के साथ रहूंगा जो  सर्वदा उदार प्रेयसी है वो..!!

28.4.12

वीर तो शर शैया पर आराम की तलब रखतें हैं


बेहद कुण्ठित लोगों के का जमवाड़ा सा नज़र आता है हमारे इर्द-गिर्द हमको.  
हम लोग अकारण आक्रामक होते जा रहे हैं. वास्तव में हमारी धारण शक्ति का क्षय सतत जारी है. उसके मूल में केवल हमारी आत्म-केंद्रित सोच के अलावा और कुछ नहीं है. इस सोच को बदलना चाहें तो भी हम नहीं बदल सकते क्यों कि जो भी हमारे पास है उससे हम असंतुष्ट हैं.एक बात और है कि  हमारी आक्रामकता में बहादुर होने का गुण दिखाई नहीं देता अक्सर हम पीछे से वार करतें हैं या छिप के वार करते हैं.यानी युद्ध के आदर्श स्वरूप हटकर हम छ्द्म रूप से युद्ध में बने रहते हैं. यानी हम सिर्फ़ पीठ पे वार करने को युद्ध मानते हैं. हां रण-कौशल में में "अश्वत्थामा-हतो हत:" की स्थिति कभी कभार ही आनी चाहिये पर हम हैं कि अक्सर "अश्वत्थामा-हतो हत:" का उदघोष करते हैं. वीर ऐसा करते हैं क्या ? न शायद नहीं न कभी भी नहीं. वीर तो शर शैया पर आराम की तलब रखतें हैं .पता नहीं दुनियां में ये क्या चल रहा है..ये क्यों चल रहा है..?  कहीं इस युग की यही नियति तो नहीं..शायद हां ऐसा ही चलेगा लोग युद्ध रत रहेंगे अंतिम क्षण तक पर चोरी छिपे..! क्यों कि वे खुद से युद्ध कर पाने में अक्षम हैं अच्छे-बुरे का निर्णय वे अपने स्वार्थ एवम हित के साधने के आधार पर करते हैं तभी तो कुण्ठा-जन्य युद्ध मुसलसल जारी है..जहां वीर योद्धाओं का अभाव है.  




तीर बरछी और भालों पर बहुत आराम मिलता..
पंखुरी पे चलने वालों को कहां है नाम मिलता.?
मैं खबर हूं छाप दो अंज़ाम देखा जाएगा- 
मैं न होता तो बता क्या तुझको कोई काम मिलता ?
भेड़-बक़रे पाल के वो भीड़ का सरताज़ है -
ये अलग है कि उसे बस भीड़ में कुहराम मिलता.
बेवज़ह  सियासत के तीर-बरछे  छोड़ना-
वार तेरा तिनके सा- गिरके फ़िर बेकाम मिलता .
समझदारों को मुकुल अब और क्या समझाएगा-
उसे वो करने दे जिसे जो करने में आराम मिलता .









   

22.4.12

दोस्ती का हलफ़नामा मांगने वाले सम्हल

जिसे देखो अपने मक़सद का मुसाफ़िर है यहां-

तंग रस्ते से बताएं आप जाते हैं कहां..?

जिसे देखो खुदपरस्ती में बहुत मशरूफ़ है-

कहो क्या तुम उसी बस्ती से आए हो यहां..?

कुछ शरारे तुम्हारे चोगे पे कहीं जा न गिरें-

दृदय के ज्वालामुखी का रास्ता आंखैं यहां.

दोस्ती का हलफ़नामा मांगने वाले सम्हल-

"रेत की बुनियाद पे महल बनते हैं कहां ?"

हरि रैदास की रोटियां....

रोटीयों पर लिखी नजीर अकबराबादी की   नज़्म  तो याद है न आपको  नजीर साहेब  का नज़रिया साहित्य के हिसाब किताब से देखा जाए तो साफ़ तौर पर एक फ़िलासफ़ी है.. 
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों[1] से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
         जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।
रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
         सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।
                                      
                        अदभुत है.. सच मुझ से दूर नहीं हो पातीं वो यादें...  जब रेल की पटरियों  का काम करने वाली गैंग वाले मेहनत मज़दूरों के पास न चकला न बेलन बस हाथ से छोटी सी अल्यूमीनियम की छोटी सी परात में सने आटे के कान मरोड़ कर एक लोई निकाल लेते हाथ गोल-गोल रोटियां बना देते थे.उधर पतले से तवे पर रोटी गिरी और आवाज़ हुई छन्न से पलट देता मज़दूर रोटी को  खुशबू  बिखेरती रोटी ईंट के चूल्हे में जवां आग जो रेल पातों के स्लीपर  वाली लकड़ी या आसपास के पेढ़ से जुगाड़ी लकड़ी की वज़ह से इतराती थी से जा मिलती थी. रोटी के चेहरे पर काले दाग हो जाया करते पर मोटी ताज़ी रोटी दूसरी तीसरी चौथी... दसवीं तक बनाया करते मज़दूर ढांक लेते थे झक्क सफ़ेद कपड़े में और फ़िर आलू बैगन का रसीला साग मुझे लगातार वहीं रोक लेता था उधर मां बार बार पुक़ारती होगी इस बात से बेसुध होता था तब . फ़िर अचानक नौकर खोजने आता गोद में उठा कर वापस घर ले आता रास्ते में समझाना नहीं भूलता-"पप्पू भैया उनके पास काय जात हौ रोज.. कल जाहौ तो बाबूजी से बता दैहों.."
 बाबूजी के डर से एकाध दिन नहीं जाता पर फ़िर रोटियां खींच लेतीं थी मुझे उन तक उनके डेरे में जा बैठता. वे भी किस्से-कहानी सुनाते रोटी बनाते बनाते .एक बार मैने कहा-"हरि चाचा मुझे भी दो..रोटी.."
हरी हक्का बक्का मुझे एकटक देखता रहा फ़िर जाने क्या सोचा बोला-"ब्राह्मण के बेटे हो मैं अछूत हूं न भैया जे पाप न कराओ तुम..?"
   ये अछूत क्या होता है..? मेरे सवाल का ज़वाब न दिया हरि ने.. मुझे लगा ये मुझे रोटी नहीं खिलाने का कोई बहाना बना रहा है..
    पर मन में बसी मज़दूर की भीनी भीनी खुशबू वाली रोटियां खाने का मन था सो मैने कह दिया तुम हब्सी हो गंदे हो कट्टी तुमसे.. और लौट आया घर मन ही मन क़सम खा के कि अब न जाऊंगा उस गंदे आदमी के डेरे तक. बहुत दिनों तक गया भी नहीं. फ़िर जब सुना कि दफ़ाई वाले कुछ दिन बाद जाने वाले हैं मैं मिलने गया इस बार हरी के पास न बैठा उसके पास वाले साथी के पास जा बैठा वो भी रोटियां वैसी ही बनाता था खुशबू वाली . उसे सब महाराज कहते थे 
    महाराज ने भी किस्से कहानी सुनाए.. हरी देखता रहा मुझे हंसा भी मुस्कुराया भी .. और फ़िर बोला -’महाराज, पप्पू भैया को रोटी खिला दो..

  महाराज ने मुझे एक रोटी थोड़ा सा साग दिया मैने खाया भी.. वो अदभुत स्वाद आज तलक तलाशता हूं इन रोटियों में  . बहुत दिनौं के बाद पता चला कि हरि ने मुझे रोटियां क्यो नहीं खिलाईं थीं. हरि जाति से रैदास थे.. उफ़्फ़ क्या हुआ थी उनको जो अन देखे वाले भगवान को भोग लगाते थे एक टुकड़ा गाय को एक कुत्ते को खिलाते थे मुझे कान्हा बुलाते थे फ़िर क्यों उनने मुझे तृप्त न किया.. अब तो शायद वे होंगे भी कि नहीं इस दुनियां में कौन जाने कहां होंगे ? दिहाड़ी मज़दूर थे..रेल्वे के .
उनकी बनाई रोटी अभी भी जब याद आतीं हैं तब मैं घर में मोटी रोटीयां बनाने को कहता हूं रोटियां  बनती तो हैं पर वो  सौंधी सौंधी खुशबू.. वो स्वाद जो बज़रिये महाराज़ मुझे मिला था आज तक नहीं मिला.. !!


19.4.12

कलेक्टर गुलशन बामरा ने बिना शर्त माफी मांगी



जबलपुर, 18 अप्रैल, 2012
          पिछले दो दिन से समाचार पत्रों में 16 अप्रैल 2012 को गेहूँ खरीदी के संबंध में ली गई मीटिंग तथा उसके बाद मीडिया प्रतिनिधियों को दिये गये वक्तव्य के संबंध में कलेक्टर गुलशन बामरा ने अपने जिले के किसानों से बिना शर्त माफी मांगी है।
          इस संबंध में कलेक्टर ने कहा है कि मेरी याददाश्त और समझ के अनुसार मेरे द्वारा जिले के किसानों के संबंध में किसी प्रकार के अपशब्द नहीं कहे गये हैं। उन्होंने कहा है कि कतिपय गेहूँ खरीदी केन्द्रों में गेहूँ की गुणवत्ता ठीक नहीं होने की सूचना मिलने के उपरांत इस संबंध में मेरे द्वारा किसानों से अपील की गई थी किसमर्थन मूल्य पर खरीदा गया गेहूँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से आंगनवाड़ियों में बच्चोंगर्भवती माताओंस्कूलों में मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम तथा पीला एवं नीला राशन कार्ड के माध्यम से गरीबों कोसार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से वितरित किया जाता है। मेरे द्वारा यह भी कहा गया था कि कतिपय किसान  बिना गुणवत्ता का गेहूँ खरीदी केन्द्र पर लाकर किसानों की अन्नदाता की छबि खराब कर रहे हैं तथाआवश्यकता पड़ने पर ऐसे किसानों पर खाद्य अपमिश्रण अधिनियम के तहत कार्यवाही की जानी चाहिए।
          कलेक्टर ने कहा है मैं यह अनुरोध करना चाहूँगा कि मेरी मंशा किसानों के खिलाफ कार्यवाही करने की नहीं बल्कि गुणवत्ता युक्त गेहूँ केन्द्र पर लाने के संबंध में किसानों से अपील की थी। मेरे ऐसे वक्तव्य से किसानोंके आत्म सम्मान को ठेस लगीइसका मुझे खेद है।
          कलेक्टर ने जिले के किसानों की भावनाओंजनप्रतिनिधियों की भावनाओंसाथी अधिकारियों एवंकर्मचारियों की राय तथा मीडिया सार्थियों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए मैं अपने वक्तव्य के लिये बिना शर्तमाफी मांगने के लिए प्रेरित हुआ हूँ  मेरे द्वारा प्रयोग किये गये शब्दों से संबंधितों को किसी प्रकार से ठेस लग सकती हैइस संबंध में मुझे संवेदनशील बनाने के लिए मैं समस्त किसानों , जनप्रतिनिधियोंसहयोगी अधिकारियों एवं कर्मचारियों तथा मीडिया साथियों का आभार मानता हूँ।

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...