24.10.11

आधा लाख लोग पढ़ चुके होंगे मिसफ़िट को इस धनतेरस...तक


ब्लाजगत को नमन
न्यू-मीडिया ने गोया एक अनोखी क्रांति को जन्म दिया है.  क्रांति जिसके सकारात्मक और नकारात्मक दौनों पहलू हैं. मिसफ़िट को मैने साल भर से अधिक समय पूर्व ज्वाइन किया. गिरीष जी का आमंत्रण पाडकास्टिंग की वज़ह से था मेरे लिये. अचानक वेबकास्टिंग का प्रयोग हुआ मैने भी अपना खाता खोला वेबकास्टिंग में. सच कितना तेज़ बदलाव जीवंत संपर्क सहज अभिव्यक्ति और ढेरों पाठक नित नऎ आलेख, जानकारियां एक क्लिक मात्र से वाक़ई कमाल है. इन दिनों मिसफ़िट अपने तरीके से सृजन-यात्रा के एक नये मुक़ाम पर पहुंच रहा है.. अगले कुछ घण्टों में पाठक संख्या 49,834 से बड़कर आधा लाख हो जाएगी ये तय है. पर इसमें सबसे बड़ा अवदान आपके स्नेह का ही तो है.
        मिसफ़िट :सीधीबात को आपका प्रोत्साहन एवम स्नेह इसी प्रका मिलेगा हमें उम्मीद है
 आप सभी के प्यार और प्रोत्साहन के लिए आभार .......अब तक बहुत अच्छा समय बीता ,अनुभव भी अच्छा रहा बहुत कुछ सीखा,.....खोया भी और पाया भी....कोशिश रहेगी कि हर पल कुछ नया करूँ........

21.10.11

साहब आए और गये

    विक्रम की पीठ पे लदा बेताल टाइम पास करने की गरज़ से बोला :- विक्रम,   साहब का आने और वापस जाने के बीच से  एक  बरसाती नदी की तरह सियासती नदी उन्मुक्त रूप से बहा करती है. सुनो कल सा’ब आएंगे ? अच्छा कल ! काहे से आएंगे .. चलो अच्छा हुआ वो पुराना वाला था न ससुरा हर छुट्टी में आ धमकता था.. इनमें एक बात तो है कि ये .. छुट्टी खराब नहीं करते थे  ज़्यादा परेशान भी नहीं करते.  और ये अरे राम राम........मत पूछो गुप्ता बाबू.. 
      इस "अरे राम राम........मत पूछो गुप्ता बाबू.." में जितना कुछ छिपा है उसे आसानी से कोई भी समझ सकता है. 
      पुराना साहब अक्सर बुरा और उपेक्षा भाव से भरे "ससुरा" शब्द से कमोबेश हर डिपार्टमेंट में अलंकृत हुआ करता है. जितने भी साहब टाइप के पाठक इस आलेख को बांच रहे हैं बाक़ायदा अपनी स्थिति को खुद माप सकते है.यानी आज़ से उम्दा और कल से बेदतर न कुछ था न होगा ऐसा हर सरकारी विभाग में देखा जा सकता है. कल ही की बात है एक विभाग का अधिकारी अपने आकस्मिक आन पड़े कार्यों के चलते दिल्ली मुख्यालय से रीजनल आफ़िस आए स्थानीय अधिकारी  निर्देश के परिपालन में  कोताही न हो इसके मद्देनज़र एक अनुभवी इंतज़ाम-अली को ज़िम्मेदारी कार्यालयीन परंपरानुसार सौंप दी. आला-अफ़सर विज़िट में ऐसी बात का खास खयाल रखा जाता है  कि कोई ऐसा तत्व विज़िटार्थी अफ़सर के सामने न आ जाए जिसमें विज़िटार्थी  को प्रभावित करने सामर्थ्य हो अथवा तत्व विघ्न-संतोषी हो. हां एक बात और चुगलखोर और आदतन शिकायतकर्ता अधिकारी को तो क़तई पास न फ़टकने दिया जाता है. यथा सम्भव ऐसे तत्वों को सूचना से मरहूम रखने के भरसक प्रयास एवम बंदोबस्त कर लिये जाते हैं. पर साक्षर प्यून एवम हमेशा दफ़्तर की हर खबर से खुद को बाखबर रखने वाला "निषेधित-तत्व" सब कुछ जान ही लेता है. 
              तो दिल्ली से साहब आए  सरकारी कारज़ आड़ में ढेरों निजी निपटा गए .तो पाठको कैग की नज़र में  पर अन्ना-कसम  ये सरकारी है और अ-सरकारी भी.. जनता जनार्दन  का राजकोष को दिया कर का एक हिस्सा ऐसे काम पर भी खर्च होता है..क्या यह सही है विक्रम बोल ज़ल्दी बोल वरना....... 
विक्रम ने करा :-बैताल, आला अफ़सर को नहीं दोष गुसाईं..इस बात की पुष्टि तुम स्वर्गीय श्री श्रीराम ठाकुर के सटायर "अफ़सर को नहिं दोष गुसाईं"  से कर सकते हो.. विक्रम बोला और बेताल फ़ुर्र    

20.10.11

न मैं कंटक व्यस्त-पथ का न मैं पहिया पार्थ रथ का


कल एक आलेख पढ़ा है न आपने अपने कुछ खास मित्रों के लिये लिखा आलेख आज इस गीत में उतर आया है अजित गुप्ता जी ने आलेख को देख कर कहा था नेपथ्‍य से बहुत कुछ कहा गया है। सच !! कहा भी ऐसा ही था.अजित जी  
नेपथ्य की ध्वनियां उन तक पहुंच भी जाएं तो शायद ही मित्र गण खुद को आगे के लिये बदल पाएं. आज़ सोचा कि शायद उनको विश्वास दिलाने में सफ़ल हो जाऊं कदाचित जो मेरे साथ किया आगे से किसी और के साथ न करेंगें !! जो भी हो लिखना था लिख मारा

19.10.11

दोस्तों सुनो जो अब तक न कह सका था..!!

                                                 मैं जानता हूं कि आज़ तुम झुका हुआ सर लेकर किस वज़ह से मेरे तक आ रहे हो . सच आज तुम्हारे झुक जाने के लिये मैं बेहद खुश हूं. ऐसा नहीं है न ही मैं किसी किसी झूठे यक़ीन के साथ ज़िंदा हूं. हां बस इतना ज़रूर है कि तुमने मुझे बर्बाद करने के लिये जितने प्रयास किये सच मैं उतना ही मज़बूत हुआ केवल इसी लिये तुम्हारी आभारी हूं.   बेशक एक ज़िंदा एहसास लेकर हूं कि वो सुबह ज़रूर आएगी जो सुबह मुझे इर्द-गिर्द के अंधेरों से विमुक्त करेगी. पर तुम जो अंधेरों के संवाहक हो बेशक यही अंधेरा तुमको डसेगा यह सच है. 
                               मुझे अभ्यास है पराजय का तुम्हैं अभ्यास नहीं है मुझे मालूम है कि तनिक सी पराजय  भी तुम्हारे लिये बेशक जान लेवा साबित होगी. पर जब अपने सीने के ज़ख्मों को " गिनता हूं देर रात तक", तब मुझे बस तुम्हारे षड़यंत्रों के चक्रव्यूह साफ़ साफ़ नज़र आ जाते हैं फ़िर भी दोस्तो मैं यक़ीन करो बायस नहीं हूं. यक़ीन करों तुम्हारा शिकार मैं तुम पर आक्रमण करने पर यक़ीन नहीं करता वरन तुमको आक्रामकता का शिकार होने से बचा लेने का हिमायती हूं. मुझे तुम्हारी हर क़मीनगी से दोहरी ताक़त मिली है.. तुम्हारी तारीफ़ क्यों न करूं. तुम जो मेरे जीवन को मज़बूती देते रहे हो. तुमको मार देता ..? न ऐसा क्यों करूं तुम ही तो वो हो जिसकी वजह से मुझे रणकौशल का ग्यान हुआ है. मेरे गुरु हुए न तुम. 
    ओह..! ये क्या दु:खी मत हो रोना भी मत मुझे न तो तुम रुला सकते न ही मार सकते और न ही भुला सकते तुम्हारा मुझसे भयभीत होकर पीछे से वार करना बेशक तुम्हारे स्वान-चरित्र का सूचक है जो मालिक की रक्षा के वास्ते नहीं आसन्न भय से भयातुर होकर पीछे से भौंकता है. काट भी लेता है. तुम में और स्वान में फ़र्क करना मुझे कतई अच्छा नहीं लगता. 
   ओह..! ये क्या तुम्हारा सत्ता के निकट बने रहने का शौक कदाचित तुम्हारे अंत का कारण न बन जाए यही भय सदा सालता है मुझे.. पर यही तो प्राकृतिक न्याय है दोस्त शायद तुम्हारे इंतज़ार में है..   
पता नहीं किस कारण से तुम भयातुर हो सच यक़ीन करो मैं हर स्थिति में मित्र भाव से भरा हूं तुम जो हमेशा शत्रु होने का एहसास दिलाते रहे एक बार मुझे देखो गौर से एक दावानल हूं जो जला देगा अनचाहे खरपतवार तुम्हारे मन के  और तुम उस कंचन-काय होकर सामने होगे.. तब तक शायद मै न रहूं.. 

18.10.11

ज़ील ने गलत नहीं लिखा पर संतुलित नहीं लिखा

" मेरे देश की धरती गद्दार उगले , उगले रोज़ मक्कार ...." शीर्षक से ज़ील ने अपने ब्लाग ZEAL पर  जो लिखा उसमें कोई गलत बात मुझे समझ नहीं आ रही ज़ील क्या कोई भी सच्चा भारतीय  प्रशांत भूषण से सहमत न होगा. भारत की अखण्डता को बनाए रखने के लिये उनका यह बयान  सर्वथा ग़लत है. आपको याद दिला दूं कि प्रशांत भूषण ने क्या कहा
" प्रशांत भूषण ने  पिछले महीने 26 सितम्बर को कश्मीर मसले पर कहा था कि सालों से मौजूद सेना को वहां से हटा लेना चाहिए। साथ ही कश्मीर में लागू 'सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम' को हटा लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि भारत के किसी भी क्षेत्र के लोग अगर भारत में नहीं रहना चाहते है तो ऐसी स्थति में वहां जनमत संग्रह कराया जाना चाहिए।" (स्रोत : दैनिक भास्कर)
     क्या यह बयान उचित है कोई भी सच्चा देशभक्त इसे स्वीकरेगा कदापि नहीं न ही उसे स्वीकारना चाहिये. भारत सरकार ने भी अपना मत स्पष्ट रूप से रक्खा है -"सरकार का कहना है कि वो प्रशांत भूषण की राय से सहमत नहीं हैं. सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा कि वो प्रशांत के निजी बयान हो सकते हैं लेकिन भारत सरकार की राय उनसे नहीं मिलती है. "(स्रोत :news bullet.in)
    हां एक बात तय शुदा है कि कि ज़ील के आलेख में भारत-सरकार पर आक्रामता अवश्य दिखाई दी जो गैर ज़रूरी और कश्मीर के संदर्भ में सरकार के रुख से को रिलेट नहीं करती यानी बेहद उत्तेज़ना में लिखा आलेख और उससे अधिक उसपर एक बेनामी ब्लागर की टिप्पणियां और उस बेनामी ब्लागर की खुद के ब्लाग पर लिखी पोस्ट  ब्लागिंग को गर्त में भेज आमादा है.
                 मेरे व्यक्तिगत विचार ये हैं कि प्रशांत भूषण हालिया कथित सुर्खियों से बौरा से गए हैं. किसी भी कथन को सार्वजनिक करने से पेश्तर उसके प्रभाव का भली भांति पूर्वानुमान लगाना सार्वजनिक जीवन में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. यहां हम ब्लागर प्रशांत-भूषण पर हुए उत्तेजना जनित हमले की निंदा करते हैं. मेरी जिन भी ब्लागर साथियों से मुलाक़ात हुई वे सब इस बात से दु:खी थे . सब का मत है कि  हिंसा किसी भी स्थिति में हो क्षम्य नहीं होनी चाहिये  

17.10.11

क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?


भास्कर से साभार 

  बूचड़खाने से चीखते पुकारते कटते पशुओं की सी स्थिति हो चुकी है गोया हमारे चिंतन के लिये विषय चुक से गए हों  अपने इर्द-गिर्द देखिये कोई मौन-दृढ़ता युक्त व्यक्तित्व आपको क़तई नज़र न आएंगें. हम किसे सच मानें किसे झूठ इतना तक सामर्थ्य शेष नहीं रहा . कारण कारण क्या है बताते शर्म आती है सच जानना है तो जान ही लो :-"हम एक मानसिक दीवालियेपन वाले दौर में आ चुकें हैं !" सूचनाऒं की बौछार को हम सत्य मान लेते हैं. 
हमारी नज़र में हम उम्दा हैं बाक़ी सब बाक़ी सब दोयम दर्ज़े के . यानी सरो-पा नैगिटिविटि . दस बरस पहले एक दम्पत्ति दीवाली की खरीदी के वास्ते पास के शहर से आई थी. उन दिनों वीडियो-गेम्स का बड़ा चलन था. स्टेटस सिंबल बढ़ाने किये जाने वाले यत्नों में  सपूत के लिये वीडियो-गेम खरीदता जोड़ा  आपस में बतिया रहा था गुप्ता जी के बेटे के पास जो है उससे बेहतर है न ये . गुप्ता जी उनका सहकर्मी या पड़ौसी था. पेशे से अफ़सर ये लोग वाक़ई आपसी स्पर्द्धा में बच्चों तक को घसीट लेते है .गुप्ता जी के बेटे से बेहतर वीडियो-गेम उनके पास होना क्यों ज़रूरी है इस बात की पतासाजी करने की गरज़ से हमने बेवज़ह बात शुरु करदी पर्सनालिटी से हम सामान्य हैं सो हमने ही उनको अभिवादन किया बेरुखी से बमुश्किल नमस्कार का ज़वाब देने वाले उस अफ़सर से हमने बताया कि हम कौन हैं. तो ज़रा शर्मिंदा हुए बोले -"सर नाम तो सुना है आपका"
हम:-सुना नहीं पढ़ा होगा, हम तो मिसफ़िट आदमी हैं. बहरहाल आप से हमारी मुलाक़ात हुई है कहीं है न..?
वे :- जी, पिछले माह मिले थे न एडवोकेट जनरल के दफ़्तर में.
हम:- अर्र हां याद आया
                            मैं उनसे वहीं मिला था इस मुलाक़ात के पंद्रह दिन पहले पर वे मुझसे वह परिचय छिपाना चाह रहे थे कारण क्या था मुझे समझ में नहीं आ रहा था. बहरहाल उनसे मैने पूछ ही लिया :-सर, ये सब चीजें उधर भी तो मिल जातीं अच्छा किसी नातेदारी में आये होंगे..?
वे:-न जी बस श्रीमति जी चाह रहीं थीं जबलपुर में तफ़रीह हो जाए. उनको कुछ-साड़ियां दिलानी थीं, बच्चों के लिये गेम्स-वेम्स एकाध पिक्चर बस और क्या वरना हमारी ज़िंदगी  कोल्हू के बैल से कम कहां ?.
         बेचारा कोल्हू का बैल सोच भी वैसी ही हो गई उसकी...बताओ बछड़ों में प्रतिष्पर्द्धा के बीज बो रहा उसे क्या मालूम कि यही बेटा किसी दिन उसकी सांसे रोक देगा 
 हम:-भई, ये टीवी बच्चों को वो सब बता रही है जो हमको भी नहीं मालूम ..?
 वो :- भाई, साहब हमारा वो है न गुप्ता उस दिन जो फ़ाईल दिखा रहा था पडोस में रहता है उसके लड़के के पास समुराई का वीडियो गेम है, बेटा पूछ रहा था कि पापा आप के बास है क्या गुप्ता अंकल उनके पास सब कुछ जल्दी आ जाता है. 
           मुझे ताज़ुब हुआ उनके बेटे के सवाल पर गुप्ता जी के बेटे के पास वीडियो-गेम है और उनके बेटे के पास नहीं तो ओहदे की रौनक में कमीं नज़र आई शायद वे मानसिक दिवालिये पन की हद में हैं नहीं तो बेटे को समझा देते कि बेटे वीडियो-गेम किसी के बड़े या छोटे को मापने का स्केल नहीं. शायद वे अपनी बीवी के लिये भी साड़ियां इसी कारण दिला रहे  थे...... गुप्ता से कमज़ोर न दिखने के लिये उनको कितना खर्च करना पड़ा सच अफ़सरी बचाने, और दिखाने के लिये कितनी व्यवस्था जुटानी होती है. 
   दस बरस बाद  स्थिति और अधिक बद से बदतर दिखाई दे रही है लोग इस कदर विचारधारों के पीछे भाग रहे हैं  मानो कल वह विचारधारा मंहगी हो जाएगी पेट्रोल अथवा गैस के सिलेण्डरों की तरह. मानो कि खुद के व्यक्तित्व में कोई ठोस चिंतन न हो. आपको याद होगा लोग सरकारी नौकरी इस कारण पसंद करते थे कि उनका भविष्य सुरक्षित सुनिश्चित एवम रुतबे वाला है. गिनी घुटी पगार के साथ ऊपरी आमदनी की आकांक्षाएं ताक़ि कल का जीवन सुरक्षित हो लड़कियों  के अभिभावक ऐसा लड़का खोजते जो सरकारी नौकरी वाला हो .कुछ ऊपरी आमद हो  यानी सदाचारी हो  न हो . बेटे को भी डाक्टर इंजिनियर केवल उच्च आय वर्ग में लाने कि होड़ के अलावा कुछ न था. मेरे बड़े भाई मेरा कामर्स में दाखिला लेना जाने क्यों कुछेक क़रीबी नातेदारों के मन में मेरे या भैया दोयम भाव जगाता था उन दिनों. एक महिला नातेदार के पति की कलाई पर सजी  मंहगी रिस्टवाच बड़े भैया ध्यान देख रहे थे उनको ऐसा करते देख वे महिला नातेदार  कह उठी थी-क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?
        बेशक हमारे पिता को मंहगी रिस्टवाच का कभी इंतज़ार न था वे तो उस घड़ी का इंतज़ार करते थे कि जब हम सफ़ल बनें. सफ़ल हैं हम मंहंगी रिस्टवाच वाली नातेदार के दिमागी दीवालिये पन पर हम ने संस्कारवश कोई टिप्पणी न की हमको मालूम था हमारा लक्ष्य जो मां बताया करती थी.    
लोग  भ्रष्टाचार का मूल तत्व है दिमागी दीवालिया पन यानी अंधी दौड़ दिखावा न्यूनतम ज़रूरतों से 
 . आगे सक्षमता हासिल कर लेने  की आकांक्षाएं
       यही भ्रष्टाचार अब खुद हमारा जीवन तबाह करने आमादा है तो हम अन्ना के पीछे हो लिये चीखने चिल्लाने लगे किंतु क्या वास्तविक बदलाव की अपेक्षा का भाव हमारे ज़ेहन में है नहीं तो पवित्र आंदोलन में गंदगी के साथ होकर न जुड़ें तो ही बेहतर होगा . जुड़ना है तो पूरे दिलो-दिमाग को मथ लीजिये सारी कालिमा को निकाल दीजिये बस इतना ही काफ़ी होगा. किसी भी विचारधारा को संयत भाव से समझिये अपने मौलिक चिंतन से उपजे नवनीत को जिसे अंतरआत्मा की आवाज़ पर  तय कीजिये कि आप स्वच्छ हाथों से पूजा करने जा      
                 मध्यवर्गीय जीवन बेतहाशा तनावग्रस्त एवम अकारण हीनता के भाव का शिकार है. खुद कम सोचता है किसी के सोचे पर अमल करता मध्य वर्ग एक अजीब सी जकड़न में है. हरेक पड़ौसी बदलाव के लिये बेवज़ह ज़द्दोज़हद  करता नज़र आ रहा है. कभी कभी तो क्रूरता पूर्ण तरीके तक स्तेमाल करता है.  

15.10.11

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता..


मीना कुमारी (1 अगस्त1932 - 31 मार्च1972भारत की एक मशहूर अभिनेत्री थीं। इन्हें खासकर दुखांत फ़िल्म में उनकी यादगार भूमिकाओं के लिये याद किया जाता है। 1952 में प्रदर्शित हुई फिल्म बैजू बावरा से वे काफी वे काफी मशहूर हुईं।
मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं । उनके पिता अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के एक मँजे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर परिवार से था । माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं।
1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरादो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा।

मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।

 मीना कुमारी जी की एक गज़ल ---




टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली
रिमझिम-रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आंखें हंस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली
मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली
होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आंखों में, सादा सी जो बात मिली


टेक्स्ट कंटेण्ट साभार विकीपीडिया  एवम स्टार-न्यूज़ एजेंसी से साभार  

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