20.2.11

प्रवासी हिंदी साहित्य : कुछ प्रश्नों के उत्तर (अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन का वक्तव्य)


                       मिसफ़िट पर  पिछली पोस्ट में एक ब्लागर (शायद-साहित्यकार नहीं) के द्वारा  घोषित वाक्य से मुझे बेहद हैरानी थी  हैरानी इस लिये कि कुछ लोग बेवज़ह ही लाइम लाईट में बने रहने के लिये उलजलूल बातें किया करते हैं. हालिया दौर में ऐसे लोगों की ओर से कोशिश रही  है कि किसी न किसी रूप में सनसनीखेज बयान/आलेख पेश कर हलचल पैदा की जाए. कुछ इसी तरह के सवाल  प्रवासी साहित्य के विषय में हमेशा से बहुत से प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। हाल ही में यमुना नगर में आयोजित एक सेमीनार में अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन ने इनके उत्तर देने की कोशिश की है  उनका वक्तव्य यहाँ जस का तस  प्रकाशित किया जा रहा है.
 प्रवासी हिंदी साहित्य : कुछ प्रश्नों के उत्तर
यमुना नगर में आयोजित सेमीनार में अभिव्यक्ति की संपादक पूर्णिमा वर्मन का वक्तव्य

नमस्कार-
आज के इस सत्र में अनेक प्रवासी लेखकों की अनेक कहानियों पर चर्चा सुनकर कल उपजा बहुत सी निराशा का बादल तो छँट गया। जानकर अच्छा लगा कि इतने सारे लोग प्रवासी कहानियाँ पढ़ते हैं और अधिकार से उनके संबंध में कुछ कहने की सामर्थ्य रखते हैं।
कल के अनेक सत्रों में विदेशी हिंदी लेखन के संबंध में कुछ प्रश्न उठाए गए थे। जिनके उत्तर मैंने इस लेख में देने की कोशिश की है।

·         विदेशों में रहने वाले ऐसा क्या रच रहे हैं जिसे इतना विशेष समझा जाए
प्रवासी कहानी हिंदी के अंतर्राष्ट्रीयकरण का सबसे मजबूत रास्ता है। हिंदी साहित्य का एक रास्ता विश्वविद्यालयों से होकर गुजरता है जो अध्ययन और गंभीर किस्म का है, जिसे सब लोग नहीं अपनाते हैं। दूसरा रास्ता फिल्मों से होकर गुजरता है जो अक्सर सस्ता और हवा हवाई समझा जाता है, जिसके लिये यह भी समझा जाता है कि वह समाज की सही तस्वीर नहीं प्रस्तुत करता।  प्रवासी हिंदी कहानी का रास्ता इन दोनो के बीच का मज्झिम निकाय है जो समांतर फ़िल्मों और सुगम संगीत की तरह हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय करण का रास्ता बना रहा है। इसमें विदेशों में बसे भारतीयों और हिंदी पढ़ने वाले विदेशियों को वह अपनापन मिलता है जो अन्यत्र दुर्लभ है।
·         उनका शिल्प इतना बिखरा हुआ क्यों है?
प्रवासी कहानी का शिल्प अपना अलग शिल्प है। वह हिंदी कहानियाँ पढ़ पढ़कर विकसित नहीं हुआ है। वह अपने अनुभवों अपनी अपनी अपनी भाषाओं और अपनी अपनी परिस्थितियों से पैदा हुआ है। इसलिये वह बहुत से लोगों को वह अजीब लगता है। वह अजीब इसलिये भी है कि वह नया है इसलिये वेब पर हिंदी पढ़नेवालों को खूब लुभाता भी है। बहुत सी चीजें जो शुरू में अजीब लगती हैं बाद में वही लोग उन्हें शौक से अपनाते हैं, जो प्रारंभ में उनकी आलोचना करते थे। प्रवासी कहनियों के संबंध में भी यह सच होने वाला है।
·         उनके कथानक इतने अजीब क्यों हैं
प्रवासी लेखकों की कहानियों के कथानक अजीब नहीं है, वे अलग है, उनकी सोचने का तरीका, उनका परिवेश, उनका रहन सहन, बहुत सी बातों में आम भारतीय से अलग है। उनका यह अलगपन उनकी कहानियों में भी उभरकर कर आता है। यह प्रवासी कथाकारों की कमजोरी नहीं शक्ति है। तभी तो सामान्य अंतर्राष्ट्रीय पाठक इनके देश, परिस्थितियों, संवेदनाओं और परिणामों से अपने को सहजता से जोड़ लेते हैं। इतनी सहजता से जितनी सहजता से वह भारत की हिंदी कहानी से भी खुद को नहीं जोड़ सकते।
·         वह भारतीय साहित्य की बराबरी नहीं कर सकता
प्रवासी कहानियों के संबंध में यह कहा जाता है कि वे भारतीय सहित्य की बराबरी नहीं कर सकती। यह बात बिलकुल सही है। न तो भारतीय कहानी प्रवासी कहानी की बराबरी कर सकती है न ही प्रवासी कहानी भारतीय कहानी की। दोनो के अपने अपने क्षेत्र हैं और दोनों अपने क्षेत्र में विशेष स्थान रखती हैं। काल स्थान और परिस्थिति के अनुसार साहित्य का अपना महत्तव होता है। जब प्रवासी कथाकार किसी विदेशी गली का वर्णन कर रहा होता है तो वह गली उसकी संवेदनाओं में बस कर कलम से गुजरती है। जब कि पर्यटक उस गली से बहुत कुछ देखे समझे बिना निकल जाता है। अनेक बार प्रवासी कहानी की समीक्षा करने वाले भारतीय आलोचक प्रवासी साहित्य को पर्यटक की दृष्टि से देखते हैं और एक दूसरे पर वार करने की मुद्रा में रहते हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि हम एक दूसरे के मार्ग दर्शक बनें और उन्हें अपनी अपनी गलियों की सैर कराएँ और हिंदी कहानी के विस्तार में नए आयाम जोड़ें।
·         उसकी घटनाएँ दिल को नहीं छूतीं
यह तो स्वाभाविक ही है। जिन परिस्थितियों से भारतीय लेखक या पाठक नहीं गुजरा उसको प्रवासी कहानी की घटनाएँ नहीं छुएँगी। ठीक उसी तरह जैसे भारतीय कहानियों की बहुत सी घटनाएँ प्रवासी या विदेशी पाठकों के मन को नहीं छूतीं या उन्हें अजीब लगती हैं। अंतर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में अपना सा न लगना बहुत जल्दी दूर हो जाने वाला है। व्यापार और मीडिया ने मोटी मोटी सब बातों का तो वैश्वीकरण कर दिया है। लेकिन संवेदनाओं रिश्तों और सोच का वैसा वैश्वीकरण नहीं हुआ है। इसमें समय लगेगा। पिछले दस सालों में जिस तरह पिजा सबको अपना लगने लगा है, प्रवासी कहानी भी भारतीय संवेदना के स्तर पर सबको छूने लगेगी।
·         उनकी भाषा बनावटी है
प्रवासी कहानी की भाषा बनावटी होने के बहुत से कारण है। प्रवासी लेखक भाषा के एक गंभीर संकट से गुजरता है। जिन घटनाओं और परिस्थितियों से वह गुजरता है उन्हें हिंदी में कैसे व्यक्त किया जाय वह विश्लेषण की एक गंभीर समस्या होती है। भारतीय लेखक के लिये यह अपेक्षाकृत आसान है। गाँव की परिस्थिति है तो वैसी भाषा का प्रयोग कर लिया, शहर की परिस्थिति है तो अंग्रेजी का तड़का मार दिया, बंगाली, पंजाबी, मराठी सब भाषाओं का प्रयोग हिंदी में किया जा सकता है और पाठक उसको सहजता से समझ भी लेते हैं।
लेकिन अगर सभी काम हिंदी से इतर भाषाओं में हो रहे हैं तब उसको कैसे व्यक्त किया जाय कि वातावरण बन जाए और जो कहा गया है उसका ठीक से रूपांतर हिंदी में हो जाए वह काफी मुश्किल है। यह काम और भी मुश्किल हो जाता है अगर लेखक अंग्रेजी भाषी देशों में नहीं रहता है। अनेक संवादों घटनाओं परिस्थितियों में प्रयुक्त भाषा को हिंदी में रूपांतरित करना आसान नहीं है। वह इस ऊहापोह के घने द्वंद्व से गुजरता है कि अपने देश की भाषा का प्रयोग कहाँ करे कितना करे, किस तरह करे।
हिंदी को अगर अंतर्राष्ट्रीय होना है तो उसे एक सामान्य हिंदी विकसित करने और उसमें लिखने की आवश्यकता है, जिसमें गाँव, प्रांत या अंग्रेजी जैसी भाषा का प्रयोग बहुत ही कम हो। अभिव्यक्ति के साथ पिछले 10-15 वर्षो से वेब पर रहते हुए मैंने जाना है कि अभिव्यक्ति के लगभग 30 प्रतिशत पाठक चीन, कोरिया, जापान और सुदूर पूर्व इंडोनेशिया तथा पूर्वी योरोप के देशों में बसते है जो अँग्रेजी नहीं जानते हैं। इसलिये जिस प्रकार भारत में हिंदी कहानी में अंग्रेजी स्वीकृत हो जाती है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती है। विषय, कथानक, परिस्थितियाँ, भाषा, शैली के वे बहुत से घटक है जो भारत में आसानी से स्वीकृत हो सकते हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार नहीं किये जाते।
इन सब कठिनाइयों से छनकर जो साहित्य आज विद्शी या प्रवासी कहानी के रूप में आ रहा है उसका सबसे बड़ा संग्रह अभिव्यक्ति पत्रिका में है जहाँ 50 कथाकारों के 130 कहानी संग्रहीत है। इसी प्रकार अनुभूति में 105 कवियों की 1000 से अधिक कविताओं का संग्रह है।
कहा जाता है कि भारत में इंगलैंड की कुल जनसंख्या से ज्यादा कंप्यूटर (नेट कनेक्शन) हैं। आशा है जब हम अगली बार मिलेंगे तब सेमीनार के भागीदार बार बार उन्हीं 10 लेखकों की 25 कहानियों के विषय में बात नहीं करेंगे। कम से कम 50 लेखकों की 100 कहानियों के विषय में बात करेंगे। ताकि सबको ठीक से पता चल जाए कि भारत में इंगलैंड की कुल जनसंख्या से ज्यादा कंप्यूटर (नेट कनेक्शन) हैं।
एक अंतिम प्रश्न
सारे हिंदी साहित्य में प्रवासी कहानी का स्थान कहाँ है
·         हिंदी कहानी के रास्ते हिंदी भाषा तथा भारतीय साहित्य और संस्कृति की अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता बढ़ाने के लिये प्रवासी हिंदी कहानी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।
·         अंतर्राष्ट्रीय पाठक की रुचि और समझ की हिंदी कहानी को समझदारी के साथ प्रस्तुत करना आज की बड़ी आवश्यकताओं में से एक है। अभिव्यक्ति द्वारा हम वेब पर यह काम सफलता पूर्वक कर रहे हैं।
·         हिंदी साहित्य को विश्व के कोने कोने में पहुँचाने और विश्व का कोना कोना हिंदी साहित्य में लाने का महत्वपूर्ण काम केवल प्रवासी साहित्य ही नेट के जरिये कर सकता है।
                                                                                  धन्यवाद!

सुशील कुमार ने कहा :- पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी , इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।


सुशील कुमार ON SATURDAY, FEBRUARY 19, 2011 
                                 भईया ब्लॉग पर आकर सिर्फ़ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। आप कुछ साहित्यकारों जैसे डा. नामवर सिंह,  सर्वश्री राजेन्द्र यादवअशोक वाजपेयी,मंगलेश डबरालअरुण कमलज्ञानेन्द्रपतिनरेश मेहताएकांत श्रीवास्तवविजेन्द्रखगेन्द्र ठाकुर इत्यादि या आपको जो भी लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक-कवियों के नाम जेहन में हैंके नेट पर योगदान को बतायें और यहाँ चर्चा करें। पूरा खुलासा करें कि कौन-कौन सी चीजें नेट पर हिन्दी साहित्य में ऐसी आयी हैं जो अभिनव हैं यानि नूतन हैं और उन पर  प्रिंट के बजाय सीधे नेट पर ही काम हुआ है तभी आपके टिप्प्णी की सार्थकता मानी जायेगी और आपको ज्ञान-गंभीर पाठक माना जायेगा, केवल शब्दों की बखिया उघेरने और हवा में तीर चलाने से काम नहीं चलने को हैवर्ना "मैं तेरा तू मेरा"  यानि तेरी-मेरी वाली बात ब्लॉग पर तो लोग करते ही हैं। (आगे यहां से )
                        इस आलेख का औचित्य आपसे जानना चाहता हूं आपको चैट आमंत्रण भेजा है जिसे आपने स्वीकारा मै चाहता हूं कि आप वीडियो चैट के ज़रिये ब्लाग जगत के सामने आएं ताक़ि सब आपको जान सकें ? 
मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है! सुशील आगे कहते हैं :-" पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।" .........। अविनाश वाचस्पति जी को ही ले लीजियेनेट पर समय देने को तैयार हैं अपनी स्वास्थ्य खराब करके भी टिप्पणी सवा एक बजे रात में जगकर लिखने की क्या जरुरत थी उन्हें? पर उन्होंने यह मुगलता पाल रखा है  कि हिन्दी पर बहुत अच्छा काम नेट में हो रहा है। जितने भी आप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैंवे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे ,  कर सकते क्योंकि वह उनके क्षमता से बाहर है। पर ऐसा क्यों है, यही मूल चिंता का विषय है। 
                इस आलेख में के ज़रिये एक बात तो स्थापित हो गई नागफ़नी जवां हो चुकी है.  यानी एकदम जावां हुए कांटों से गुज़ारा करना होगा हमको अब यह तय शुदा है. मेरी नज़र में सुशील जी ने  चिट्ठाकारिता के स्वरूप पर चर्चा न करते हुआ एक भड़ास निकाल दी आपने.और तो और इससे राहत न मिली तो व्यक्तिगत आलोचना करते हुए उन पति-पत्नी की याद दिला दी  जो एक छत के नीचे न्यूनतम समझौते यानी केवल सात + सात =चौदह कसमों के सहारे एक-दूसरे के साथ रहतें हैं. फ़िर इन देहों की वज़ह से उत्पन्न पैदावार को सम्हालने की वज़ह से शेष ज़िंदगी गुज़ार देतें हैं. ज़िन्दगी खत्म हो जाती है एक दूसरे को गरियाते-लतियाते उनकी. अच्छा हुआ कि आपने चिंता करके  घरेलू -किस्म के व्यक्तित्व का परिचय दिया अब गेंद आपके पाले में है चिंता नहीं अपने निष्कासन पर चिंतन कीजिये. वैसे मुझे तो दु:ख ही हुआ आपके हटाये जाने पर. पर क्या करें ?
              अरे हां भूल ही गया था आपने जो लिखा उसका ओर छोर यानी सूत्र पकड़ने का प्रयत्न कर रहा हूं.... पर सच कहूं लगा कभी कभार तरंग मे लिखे गये आलेख (साहित्य नहीं) सूत्र हीन ही होते हैं. 
कुछ लाइने देखिये :-
  • मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है” इसका अर्थ क्या है..? वैसे इससे न तो ब्लाग खत्म होंगे न ही मीडिया. 
  • पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।" .........। ”:- इसका भी अर्थ बताएं ज़रा.  
                      फ़िर अचानक बेचारे अविनाश पर आक्रमण ? खैर जो भी आपसी मामला हो आपलोग आपस में निपट लें नुक्कड़ पर "गोबर की थपाल" रखने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी .आपके अलावा हम लोग भी सदस्य हैं नुक्कड़  ब्लाग के  अगर अविनाश उद्दंड हैं आपकी नज़र में तो आप ने कौन सा ..?
अविनाश जी आपसे अनुरोध है कि इनके आलेख को माडरेट न करॆं लगे रहने दें नुक्कड़ पर अभी काफ़ी विमर्श करने हैं सुशील जी से शायद हिंदी ब्लागिंग का सुधार हो जाए 

19.2.11

संगीता पुरी जी की कहानी मेरी जुबानी:अर्चना चावजी (पाडकास्ट)

साभार: "स्वार्थ"ब्लाग से
               आज इस व्‍हील चेयर पर बैठे हुए मुझे एक महीने हो गए थे। अपने पति से दूर बच्‍चों के सानिध्य में कोई असहाय इतना सुखी हो सकता है , यह मेरी कल्‍पना से परे था। बच्‍चों ने सुबह से रात्रि तक मेरी हर जरूरत पूरी की थी। मैं चाहती थी कि थोडी देर और सो जाऊं , ताकि बच्‍चे कुछ देर आराम कर सके , पर नींद क्‍या दुखी लोगों का साथ दे सकती है ? वह तो सुबह के चार बजते ही मुझे छोडकर चल देती। नींद के बाद बिछोने में पडे रहना मेरी आदत न थी और आहट न होने देने की कोशिश में धीरे धीरे गुसलखाने की ओर बढती , पर व्‍हील चेयर की थोडी भी आहट बच्‍चों के कान में पड ही जाती और वे मां की सेवा की खातिर तेजी से दौडे आते , और मुझे स्‍वयं उठ जाने के लिए फिर मीठी सी झिडकी मिलती। ( आगे=यहां ) संगीता पुरी जी की कहानी का वाचन करते हुए मैं अभिभूत हूं.


18.2.11

गौरैया तुम ये करो

एक खबर जागने की
तुम सुबह से ही
लेकर आ जाती हो
ये नहीं कहती तुम भी जागो
मुंडेर पर चहकना तुम्हारा
जगा देता है
सुनो अब से कुछ और देर
बाद बताने आया करो !
मुझे सोने दो जागते ही मुझे नहीं सुननी
वो गालियां जो
गांव की गलियों से शहर तक देतें हैं लोग
व्यवस्था वश एक दूसरे को
हां गौरैया तुम ये करो
उन जागे हुओं को जगा दो
उनको बता दो
मुझे चाहिये मेरे
मेरे पुराने गांव
मेरे  पुराने शहर
हां गौरैया तुम ये करो



17.2.11

एक मै और एक तू......हम बने तुम बने एक दूजे के लिए

हिंद-युग्म साधकों की साधना अंतरज़ाल के लिये एक अनूठा उपहार है. और जब मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिलता तो मैं सब कुछ छोड़कर पूरी लगन से काम करतीं हूं. मुझे ही नही सभी को हिंद-युग्म की प्रतीक्षा होती है. मिसफ़िट पर सादर प्रस्तुत है हिन्द-युग्म से साभार
 आवाज हिन्दयुग्म से ओल्ड इज़ गोल्ड श्रंखला---भाग 8 और 9-----
एक मै और एक तू---




 हम बने तुम बने एक दूजे के लिए------
 

15.2.11

बाबूजी


(इस आलेख का प्रकाशन मेरे एक ब्लाग पर हो चुका है किंतु उस ब्लाग पर आवाज़ाही कम होने तथा पोस्ट में लयात्मकता के अभाव को दूर करते हुए यह पोस्ट पुन: सादर प्रेषित है  की ) 

बाबूजी उन प्रतीकों में से एक हैं जो अपनी उर्जा को ज़िंदगी के उस मोड़ पर भी तरोताजा रखते है जहां जाकर सामान्य लोग क्षुब्ध दिखाई देते हैं. हाल ही बात है  अरविन्द भाई को बेवज़ह फोटोग्राफी के लिए बुलवाया बेवज़ह . बेवज़ह इस लिए क्योंकि न तो कोई जन्म दिन न कोई विशेष आयोजन न ब्लागर्स मीट यानी शुद्ध रूप से  मेरी इच्छा  की पूर्ती ! इच्छा  थी  कि बाबूजी  सुबह सबेरे की अपने गार्डन वाले बच्चों को कैसे दुलारते हैं इसे चित्रों में दर्ज करुँ कुछ शब्द जड़ दूं एक सन्देश दे दूं कि :-''पितृत्व कितना स्निग्ध होता है " हुआ भी यही दूसरे माले पर  मैं और अरविन्द भाई उनका इंतज़ार करने लगे . जहां उनके दूसरे बच्चे यानी नन्हे-मुन्ने पौधे  इंतज़ार कर रहे थे दादा नियत समय पर तो नहीं कुछ देर से ही आ सके आते ही सबसे दयनीय पौधे के पास गए उसे सहलाया फिर एक दूसरे बच्चे की आसपास की साल-सम्हाल ही बाबूजी ने. यानी सबसे जरूरत मंद के पास सबसे पहले.यही संस्कार उनको दादा जी ने दिये होंगें तभी तो बाबूजी सबसे कमज़ोर पौधे की देखभाल सबसे पहले करतें हैं . ऐसे हैं बाबूजी.   जी सच सोच  रहें हैं आप सबके बाबूजी ऐसे ही होंगे होते भी  हैं हमारे परिवारों में बुज़ुर्ग धन-सम्पति से ज़्यादा कीमती होते हैं . बस सभी को आंखों से पट्टी उतारना ज़रूरी है अपने अपने बाबूजीयों को देखने के लिए एक पाज़िटिव विज़न चाहिये. बाबूजी को देखने के लिए बच्चे की नज़र चाहिये हम और आप मुखिया बन के तर्कों के  चश्में से  अपने अपने बाबूजी को देखेंते तो सचमुच हम उनको देख ही कहाँ पाते हैं. बाबूजी को पहले मैं भी तर्कों के  चश्में से देखता था सो बीसीयों कमियाँ नज़र आतीं थीं मुझे उनमें एक दिन जब श्रद्धा बिटिया, चिन्मय (भतीजे) की नज़र से देखा तो लगा सच कितने मासूम और सर्वत्र स्नेह बिखेरतें हैं अपने बाबूजी. सब के बाबूजी ऐसे ही तो होते हैं. बाबूजी के बड़े परिवार के अलावा 106 गमलों में निवासरत और इसी हफ़्ते मिट्टी से भरे बीस गमलों की साल सम्हाल के लिये इन्तज़ाम कर भी तय किया है बाबूजी ने . नौकर चाकर माली आदी सबके होते बाबूजी उनकी सेवा करते हैं. उनकी चिंता में रहते हैं हम भाइयों ने जब कभी एतराज़ किया तो महसूस किया बाबूजी पर उनकी रुचि के काम करने से रोकना उनको पीडा पंहुंचाना है. अस्तु हम ने इस बिंदु पर बोलना बंद कर दिया. जिस में वे खुश वो ही सही है. अपने बुज़ुर्गों को अपने सत्ता के बूते (जो उनसे और उनके कारण हासिल होती है) उनपर प्रतिबंध लगाना उनकी आयु को कम करना है.मेरे पचासी साल के बाबूजी खुश क्यों हैं मुझे शायद हम सबको इसका ज़वाब मिल गया है न !!

v  गिरीश बिल्लोरे मुकुल जबलपुर
बस थोड़ा सा हम खुद को बदल लें तो  लगेगा कि :-भारत में वृद्धाश्रम की ज़रुरत से ज़्यादा ज़रुरत है पीढ़ी की सोच बदलने की.

13.2.11

वही क्यों कर सुलगती है ? वही क्यों कर झुलसती है ?






वही  क्यों कर  सुलगती है   वही  क्यों कर  झुलसती  है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
न खुल के रो सके न हंस सके पल –पल पे बंदिश है
हमारे देश की नारी,  लिहाफ़ों में सुबगती  है !

वही तुम हो कि  जिसने नाम उसको आग दे  डाला
वही हम हैं कि  जिनने  उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है  भीतर से सुलगती वो..!
 
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?

मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला  है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "बा" ही क्यों झुलसती है ?

तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके न थे-गहने  मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर  मेरी   आंखैं  छलकतीं हैं.

विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख  माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जसुदा तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
उसी की दी हुई धड़कन इस दिल में धड़कती है.

आज़ की रात फ़िर जागा  उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ  तो  होगी  इधर  सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर  में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और  उजला सा फ़लक भी है !
        * गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर



अपने माता-पिता को ओल्ड-एज़-होम भेजने वालों  विनम्र आग्रह करता हूं कि वे अपने आकाश और अपनी ज़मीन को वापस लें आएं

देवाला=देवालय,पूजाघर,बा=मां, फ़लक=आसमान
प्रेम-दिवस पर विशेष "इश्क़-प्रीत-लव" पर

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