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8.7.13

दो बार दफ़नाया गया था मुमताज़ को...प्रदीप श्रीवास्तव

विश्व के सात अजूबों में से एक, प्रेम का प्रतीक ताजमहल और आगरा आज एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. अब ताज भारत का गौरव ही नहीं अपितु दुनिया का गौरव बन चुका है. ताजमहल दुनिया की उन 165 ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, जिसे राष्ट्र संघ ने विश्व धरोहर की संज्ञा से विभूषित किया है. इस तरह हम कह सकते हैं कि ताज हमारे देश की एक बेशकीमती धरोहर है, जो सैलानियों और विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. प्रेम के प्रतीक इस खूबसूरत ताज के गर्भ में मुग़ल सम्राट शाहजहां की सुंदर प्रेयसी मुमताज महल की यादें सोयी हुई हैं, जिसका निर्माण शाहजहां ने उसकी याद में करवाया था. कहते हैं कि इसके बनाने में कुल बाईस वर्ष लगे थे, लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि सम्राट शाहजहां की पत्नी मुमताज की न तो आगरा में मौत हुई थी और न ही उसे आगरा में दफनाया गया था. मुमताज महल तो मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले बुरहानपुर (पहले खंडवा जिले का एक तहसील था) के जैनाबाद तहसील में मरी थी, जो सूर्य पुत्री ताप्ती नदी के पूर्व में आज भी स्थित है. इतिहासकारों के अनुसार लोधी ने जब 1631 में विद्रोह का झंडा उठाया था तब शाहजहां अपनी पत्नी (जिसे वह अथाह प्रेम करता था) मुमताज महल को लेकर बुरहानपुर चला गया. उन दिनों मुमताज गर्भवती थी. पूरे 24 घंटे तक प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए जीवन-मृत्यु से संघर्ष करती रही. सात जून, दिन बुधवार सन 1631 की वह भयानक रात थी, शाहजहां अपने कई ईरानी हकीमों एवं वैद्यों के साथ बैठा दीपक की टिमटिमाती लौ में अपनी पत्नी के चेहरे को देखता रहा. उसी रात मुमताज महल ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया, जो अधिक देर तक जिन्दा नहीं रह सका. थोड़ी देर बाद मुमताज ने भी दम तोड़ दिया. दूसरे दिन गुरुवार की शाम उसे वहीँ आहुखाना के बाग में सुपुर्द-ए- खाक कर दिया गया. वह इमारत आज भी उसी जगह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ी मुमताज के दर्द को बयां करती है. इतिहासकारों के मुताबिक मुमताज की मौत के बाद शाहजहां का मन हरम में नहीं रम सका. कुछ दिनों के भीतर ही उसके बाल रुई जैसे सफ़ेद हो गए. वह अर्धविक्षिप्त-सा हो गया. वह सफ़ेद कपड़े पहनने लगा. एक दिन उसने मुमताज की कब्र पर हाथ रखकर कसम खाई कि मुमताज तेरी याद में एक ऐसी इमारत बनवाऊंगा, जिसके बराबर की दुनिया में दूसरी नहीं होगी. बताते हैं कि शाहजहां की इच्छा थी कि ताप्ती नदी के तट पर ही मुमताज कि स्मृति में एक भव्य इमारत बने, जिसकी सानी की दुनिया में दूसरी इमारत न हो. इसके लिए शाहजहां ने ईरान से शिल्पकारों को जैनाबाद बुलवाया. ईरानी शिल्पकारों ने ताप्ती नदी के का निरीक्षण किया तो पाया कि नदी के किनारे की काली मिट्टी में पकड़ नहीं है और आस-पास की ज़मीन भी दलदली है. दूसरी सबसे बड़ी बाधा ये थी कि तप्ति नदी का प्रवाह तेज होने के कारण जबरदस्त भूमि कटाव था. इसलिए वहां पर इमारत को खड़ा कर पाना संभव नहीं हो सका. उन दिनों भारत की राजधानी आगरा थी. इसलिए शाहजहां ने आगरा में ही पत्नी की याद में इमारत बनवाने का मन बनाया. उन दिनों यमुना के तट पर बड़े -बड़े रईसों कि हवेलियां थीं. जब हवेलियों के मालिकों को शाहजहां कि इच्छा का पता चला तो वे सभी अपनी-अपनी हवेलियां बादशाह को देने की होड़ लगा दी. इतिहास में इस बात का पता चलता है कि सम्राट शाहजहां को राजा जय सिंह की अजमेर वाली हवेली पसंद आ गई. सम्राट ने हवेली चुनने के बाद ईरान, तुर्की, फ़्रांस और इटली से शिल्पकारों को बुलवाया. कहते हैं कि उस समय वेनिस से प्रसिद्ध सुनार व जेरोनियो को बुलवाया गया था. शिराज से उस्ताद ईसा आफंदी भी आए, जिन्होंने ताजमहल कि रूपरेखा तैयार की थी. उसी के अनुरूप कब्र की जगह को तय किया गया. 22 सालों के बाद जब प्रेम का प्रतीक ताजमहल बनकर तैयार हो गया तो उसमें मुमताज महल के शव को पुनः दफनाने की प्रक्रिया शुरू हुई. बुरहानपुर के जैनाबाद से मुमताज महल के जनाजे को एक विशाल जुलूस के साथ आगरा ले जाया गया और ताजमहल के गर्भगृह में दफना दिया गया. इस विशाल जुलूस पर इतिहासकारों कि टिप्पणी है कि उस विशाल जुलूस पर इतना खर्च हुआ था कि जो किल्योपेट्रा के उस ऐतिहासिक जुलूस की याद दिलाता है जब किल्योपेट्रा अपने देश से एक विशाल समूह के साथ सीज़र के पास गई थी. जिसके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि उस जुलूस पर उस समय आठ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. ताज के निर्माण के दौरान ही शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने उन्हें कैद कर के पास के लालकिले में रख दिया, जहां से शाहजहां एक खिड़की से निर्माणाधीन ताजमहल को चोबीस घंटे देखते रहते थे. कहते हैं कि जब तक ताजमहल बनकर तैयार होता. इसी बीच शाहजहां की मौत हो गई. मौत से पहले शाहजहां ने इच्छा जाहिर की थी कि "उसकी मौत के बाद उसे यमुना नदी के दूसरे छोर पर काले पत्थर से बनी एक भव्य इमारत में दफ़न किया जाए और दोनों इमारतों को एक पुल से जोड़ दिया जाए", लेकिन उसके पुत्र औरंगजेब ने अपने पिता की इच्छा पूरी करने की बजाय, सफ़ेद संगमरमर की उसी भव्य इमारत में उसी जगह दफना दिया, जहां पर उसकी मां यानि मुमताज महल चिर निद्रा में सोईं हुई थी. उसने दोनों प्रेमियों को आस-पास सुलाकर एक इतिहास रच दिया. बुहरानपुर पहले मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की एक तहसील हुआ करती थी, जिसे हाल ही में जिला बना दिया गया है. यह जिला दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर इटारसी-भुसावल के बीच स्थित है. बुहरानपुर रेलवे स्टेशन भी है, जहां पर लगभग सभी प्रमुख रेलगाड़ियां रुकती हैं. बुहरानपुर स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर दूर शहर के बीच बहने वाली ताप्ती नदी के उस पर जैनाबाद (फारुकी काल), जो कभी बादशाहों की शिकारगाह (आहुखाना) हुआ करती थी, जिसे दक्षिण का सूबेदार बनाने के बाद शहजादा दानियाल ( जो शिकार का काफी शौक़ीन था) ने इस जगह को अपने पसंद के अनुरूप महल, हौज, बाग-बगीचे के बीच नहरों का निर्माण करवाया था, लेकिन 8 अप्रेल 1605 को मात्र तेईस साल की उम्र मे सूबेदार की मौत हो गई. स्थानीय लोग बताते हैं कि इसी के बाद आहुखाना उजड़ने लगा. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मनोज यादव कहते हैं कि जहांगीर के शासन काल में सम्राट अकबर के नौ रतनों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना ने ईरान से खिरनी एवं अन्य प्रजातियों के पौधे मंगवाकर आहुखाना को पुनः ईरानी बाग के रूप में विकसित करवाया. इस बाग का नाम शाहजहां की पुत्री आलमआरा के नाम पर पड़ा. बादशाहनामा के लेखक अब्दुल हामिद लाहौरी साहब के मुताबिक शाहजहां की प्रेयसी मुमताज महल की जब प्रसव के दौरान मौत हो गई तो उसे यहीं पर स्थाई रूप से दफ़न कर दिया गया था, जिसके लिए आहुखाने के एक बड़े हौज़ को बंद करके तल घर बनाया गया और वहीँ पर मुमताज के जनाजे को छह माह रखने के बाद शाहजहां का बेटा शहजादा शुजा, सुन्नी बेगम और शाह हाकिम वजीर खान, मुमताज के शव को लेकर बुहरानपुर के इतवारागेट-दिल्ली दरवाज़े से होते हुए आगरा ले गए. जहां पर यमुना के तट पर स्थित राजा मान सिंह के पोते राजा जय सिंह के बाग में में बने ताजमहल में सम्राट शाहजहां की प्रेयसी एवं पत्नी मुमताज महल के जनाजे को दोबारा दफना दिया गया. यह वही जगह है, जहां आज प्रेम का शाश्वत प्रतीक, शाहजहां-मुमताज के अमर प्रेम को बयां करता हुआ विश्व प्रसिद्ध "ताजमहल" खड़ा है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

14.1.13

मकर संक्रान्ति : सूर्य उपासना का पर्व :सरफ़राज़ ख़ान


भारत में समय-समय पर अनेक त्योहार मनाए जाते हैं. इसलिए भारत को त्योहारों का देश कहना गलत न होगा. कई त्योहारों का संबंध ऋतुओं से भी है. ऐसा ही एक पर्व है . मकर संक्रान्ति. मकर संक्रान्ति पूरे भारत में अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है. पौष मास में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तब इस त्योहार को मनाया जाता है. मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति शुरू हो जाती है. इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं. तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाया जाता है. हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है. इस दिन लोग शाम होते ही आग जलाकर अग्नि की पूजा करते हैं और अग्नि को तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति देते हैं. इस पर्व पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियां आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं. देहात में बहुएं घर-घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगती हैं. बच्चे तो कई दिन पहले से ही लोहड़ी मांगना शुरू कर देते हैं. लोहड़ी पर बच्चों में विशेष उत्साह देखने को मिलता है.

उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से दान का पर्व है. इलाहाबाद में यह पर्व माघ मेले के नाम से जाना जाता है. 14 जनवरी से इलाहाबाद मे हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है. 14 दिसम्बर से 14 जनवरी का समय खर मास के नाम से जाना जाता है. और उत्तर भारत मे तो पहले इस एक महीने मे किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम नही दिया जाता था. मसलन विवाह आदि मंगल कार्य नहीं किए जाते थे पर अब तो समय के साथ लोग काफी बदल गए है. 14 जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है. माघ मेला पहला नहान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि तक यानी आख़िरी नहान तक चलता है. संक्रान्ति के दिन नहान के बाद दान करने का भी चलन है. उत्तराखंड के बागेश्वर में बड़ा मेला होता है. वैसे गंगा स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं. इस दिन गंगा स्नान करके, तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है. इस पर्व पर भी क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े मेले लगते है. समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है और इस दिन खिचड़ी सेवन एवं खिचड़ी दान का अत्यधिक महत्व होता है. इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है.

महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल, नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं. ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा भी है. लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- `तिल गुड़ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला` अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं.

बंगाल में इस पर्व पर स्नान पश्चात तिल दान करने की प्रथा है. यहां गंगासागर में हर साल विशाल मेला लगता है. मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं. मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत किया था. इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीड़ होती है. लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं.

तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाया जाता है.पहले दिन भोगी-पोंगल, दूसरे दिन सूर्य-पोंगल, तीसरे दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल, चौथे व अंतिम दिन कन्या-पोंगल. इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकट्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है. पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं. इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है. उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं. असम में मकर संक्रांति को माघ-बिहू या भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं. राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद लेती हैं. साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन व संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं. अन्य भारतीय त्योहारों की तरह मकर संक्रांति पर भी लोगों में विशेष उत्साह देखने को मिलता है.
                                                         साभार 
 

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धर्म और संप्रदाय

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