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9.10.12

सही प्रबंधक वो है जो अपने चम्मचों को लटका के रखे ...........!!







चमचों के बिना जीना-मरना तक दूभर है. खास कर रसूखदारों-संभ्रांतों के लिये सबसे ज़रूरी  सामान बन गया है चम्मच. उसके बिना कुछ भी संभव नहीं चम्मच उसकी पर्सनालिटी में इस तरहा चस्पा होता है जैसे कि सुहागन के साथ बिंदिया, पायल,कंगन आदि आदि. बिना उसके रसूखदार या संभ्रांत टस से मस नहीं होता.  एक दौर था जब चिलम पीते थे लोग तब हाथों से आहार-ग्रहण किया जाता था तब आला-हज़ूर लोग चिलमची पाला करते थे. और ज्यों ही खान-पान का तरीक़ा बदला तो साहब चिलमचियों को बेरोज़गार कर उनकी जगह चम्मचों ने ले ली . लोग-बाग अपनी   क्षमतानुसार चम्मच का प्रयोग करने लगे. प्लैटिनम,सोने,चांदी,तांबा,पीतल,स्टेनलेस, वगैरा-वगैरा... इन धातुओं से इतर प्लास्टिक महाराज भी चम्मच के रूप में कूद पड़े मैदाने-डायनिंग टेबुल पे. अपने अपने हज़ूरों के सेवार्थ. अगर आप कुछ हैं मसलन नेता, अफ़सर, बिज़नेसमेन वगैरा तो आप अपने इर्द गिर्द ऐसे ही विभिन्न धातुओं के चम्मच देख पाएंगे. इनमें आपको बहुतेरे चम्मच बहुत पसंद आएंगे. कुछ का प्रयोग आप कभी-कभार ही करते होंगे. 

  चम्मच का एक सबसे महत्वपूर्ण और काबिले तारीफ़ गुण भी होता है कि वो सट्ट से गहराई तक चला जाता है. यानी आपके कटोरे के बारे में और आपके मुंह  के बारे में, आपके हाथों के बारे में 
    अब आप डायनिंग टेबल पर सजे चम्मच देखिये और याद कीजिये उस दौर को जब हमारे खाने-खिलाने के तरीके़ में "छुरी-कांटे" का कोई वज़ूद न था.केवल चम्मच से ही काम चलाया जाता था... हज़ूर आप बे-खौफ़ थे अभी भी हैं बे-खौफ़ पर आज़ आपको खबरदार किये देता हूं... अब हर जगह एक से बढ़कर एक "चम्मच" मौज़ूद मिलेंगे... पर छुरी-कांटों के साथ अब तय आपको करना है कि "चम्मच-बिरादरी" का उपयोग आप कितना और कैसे करना है. जैसे भी करें पर "खाते-वक़्त" इस बात का ध्यान भी रखें कि आप सिर्फ़ चम्मच से नहीं खाएंगे. उसके साथ छुरी-कांटों का प्रयोग भी करेंगे. और आप तो जानते हैं कि छुरी-कांटा तो छुरी-कांटा है .......आज अल्ल-सुबह मेरी नज़र डायनिंग टेबल पर रखे स्पून-स्टैंड पर पड़ी. उधर श्रीमति जी बोलीं- सुनते हो ?
आप की तो सुनता हूं.! बोलिये..
अबकी बार जब छुट्टी में आओगे तो कटलरी और स्पून स्टैंड खरीदना है..
क्यों...?
अरे, पुराना हो गया है. 
हां, ठीक है.सोच रहा था कि मैं अपने सजीव चम्मचों को तो मैं हमेशा खड़ा ही रखता हूं. और श्रीमती जी काहे स्पून स्टैंड मंगा रहीं हैं..सो हम फ़िर बोले..
"ये डब्बा बुरा है क्या..?"
न बुरा तो नहीं है मैं चाहती हूं कि ऐसा स्टैंड खरीदूं कि सारी कटलरी को लटका सकूं..
                                   मुझे उनकी इस बात से आत्म-बोध हुआ कि सही प्रबंधक वो है जो अपने चम्मचों को लटका के रखे ........... आप क्या सोचते हैं.. ?

25.9.12

मेरा डाक टिकट

                   
इस स्टैम्प के रचयिता हैं
 ब्ला० गिरीश के अभिन्न मित्र
राजीव तनेजा
वो दिन आ ही गया जब मैं हवा में उड़ते हुए
अपना जीवन-वृत देख रहा था..
               मुद्दतों से मन में इस बात की ख्वाहिश रही कि अपने को जानने वालों की तादात कल्लू को जानने वालों से ज़्यादा हो और जब मैं उस दुनियां में जाऊं तब लोग मेरा पोर्ट्फ़ोलिओ देख देख के आहें भरें मेरी स्मृति में विशेष दिवस का आयोजन हो. यानी कुल मिला कर जो भी हो मेरे लिये हो सब लोग मेरे कर्मों कुकर्मों को सुकर्मों की ज़िल्द में सज़ा कर बढ़ा चढ़ा कर,मेरी तारीफ़ करें मेरी याद में लोग आंखें सुजा सुजा कर रोयें.. सरकार मेरे नाम से गली,कुलिया,चबूतरा, आदी जो भी चाहे बनवाए. 
जैसे....?
जैसे ! क्या जैसे..! अरे भैये ऐसे "सैकड़ों" उदाहरण हैं दुनियां में , सच्ची में .बस भाइये तुम इत्ता ध्यान रखना कि.. किसी नाले-नाली को मेरा नाम न दिया जाये. 
       और वो शुभ घड़ी आ ही गई.उधर जैसे ही किराने-परचून की दूकानों का ठेका मल्टी नेशन को मिला और   गैस सिलेंडर के दाम बढ़े इधर अपना बी.पी. और अपन न चाह के भी चटक गए. घर में कुहराम, बाहर लोगों की भीड़,कोई मुझे बाडी तो कोई लाश, तो साहित्यकार मित्र पार्थिव-देह कह रहे थे. बाहर आफ़िस वाला एक बाबू बार बार फ़ोन पे नहीं हां, तीन-बजे के बाद मट्टी उठेगी की सूचनाएं दे रहा था. हम हवा में लटके सब कार्रवाई देख रए थे.जात्रा निकली  जला-ताप के लोग अपने धाम में पहुंचे. शोक-सभाओं में किसी ने प्रस्ताव दिया 
"गिरीश जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक हम सरकार से उनकी स्मृति में गेट नम्बर चार की रास्ता को उनका नाम दे दे"
दूसरे ने कहा न डाक टिकट जारी करे,
तीसरे ने हां में हां मिलाई फ़िर सब ने हां में हां ऐसी मिलाई जैसे पीने वाले सोडे में वाइन मिलाते हैं..और एक प्रस्ताव कलेक्टर के ज़रिये सरकार को भेजना तय हुआ.
              कलैक्टर साब को जो समूह ग्यापन सौंपने गया उसने जब हमारे गुणों का बखान किया तो "आल-माइटी सा’ब" को भी मज़बूरन हां में हां मिलानी पड़ी. वैसे वो हमारे बारे में ज़रूरत से ज़्यादा जानते थे बेचारे क्या करें ज़रूरत से ज़्यादा जानना उनकी मज़बूरी थी कान से देखने का नतीज़ा था कि जीते जी वे हमको नटोरियस वाली सूची में रक्खे हुये थे पर कहते हैं न कि  मरने के बाद सबकी भावनाएं बदल जाती हैं.. डी एम साब की भी बदली 
                  पेपर बाज़ी हुई मांग की गई आंदोलन की धमकियों के ऐलान किये गये. महीना  सवा महीना बीतते बीतते सी एम साब ने गली का नाम धरवा दिया "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" खुद आये नाम धरने 
                                       केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी किया. हम बहुत खुश हुए.हमारी आत्मा मुक्ति की ओर भाग रही थी कि उसने मुड़ के देखा .. "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" पर हमने पडोसी गोलू भैया के कुत्ते पीज़ो को "शंका निवारते" देखा तो सन्न रह गये. सोचा डाकघर और देख आवें सो पोस्ट आफ़िस में ससुरे डाक-कर्मी गांधी जी वाले ख़तों पे तो  तो सही साट ठप्पा लगाय रहे थे .  जिंदगी भर सादा जीवन उच्च विचार वाले हम (एकाध दोस्त ही जानता होगा  हमारी चारित्रिक विशेषताएं) पर इन  डाक कर्मी जी को नहीं जो  लैटर पे चिपकाई डाक-टिकट पे  बेतहाशा काली स्याही वाला ठप्पा लगा रहे थे.. पूरा मुंह काला कर दिया हमारा . अब बताओ हज़ूर तुम्हारे मन में ऐसी इच्छा तो नईं है.. होय तो कान पकड़ लो.. मूर्ती-वूर्ती तो क़तई न लगवाना.. वरना
       आकाश का कौआ तो दीवाना है क्या जाने
         किस सर को छोड़ना है, किस सर पे छोड़ना है..?   
रुकिये ये गीत तो सुन ही लीजिये 

28.8.12

भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है..!!

कला साधना के लिये मशहूर शहर में अपने कलासाधक मित्र से पूछ बैठा- भई, क्या चल रहा है..?
सिगरेट का कश खींचते बोले- बस यूं ही फ़ाकाकशी में हूं. 
और ज़ीने का ज़रिया ..?
बस, अब मिल गया, 
क्या..? ज़रिया.. !
न, गिरीश भाई नज़रिया,
     "नज़रिया" शब्द का अर्थ लगाए हम उनसे विनत भाव से विदा लेकर कामकाज़ निपटाने चल पड़े. मुलाकात वाली बात भी आई गई हो गई कि एक दिन वही हमारे मित्र दरवाज़े ज़िंदगी के दर्द भरे गीतों का पोटला लेके पधारे. संग साथ ले आए आए अपनी बीवी को बोले भैया -कलाकारों का भारी शोषण है. अब तो हमारी ज़िंदगी दूभर हो गई..अब बताइये क्या खाएं 
अपन भी कृष्ण बन गये लगा साक्षात सुदामा पधारे हमारे द्वारे बस हमारे हुक़्म पर चाय पेश हुई.. हम भी करुणामय हो गये.उनकी बातें सुनकर  हमारी अदद शरीक़-ए-हयात ने कहा - कुछ मदद कीजिये इनकी  !
बस बीवी के आदेश को राजाज्ञा मान हम ने तय कर लिया इस मित्र की मदद तो करनी ही है. सो हमने कहा -भई पब्लिसिटी खाते से आपको हम अपनी सामर्थ्य अनुसार काम देते रहेंगें. आपसे बड़ा वादा तो नहीं पर हां थोड़े थोड़े काम आपके खाते में ज़रूर आएंगें.
          मित्र को काम दिया कुछ हजार भी दिये काम ठीक ठाक था सबको पसंद आया भाई की डिमांड हुई. एक दिन अचानक श्रीमान ने मुझसे कुछ कविताएं पोस्टर बनाने मांग उपकृत करने का नुस्खा आज़माया. हमने खूब टाला वो टस से मस न हुआ. दे दीं कुछ कविताएं.
  भाई ने आकाश में मछलियां उड़ाईं.. कुछ आड़ी तिरछी लक़ीरें खींची.. गनीमत है कि भाई ने समंदर में घुड़दौड़ का आयोजन चित्रित नहीं किया.
 एक दिन हुज़ूर हमाए घर पधारे आते ही चीखे ..गिरीश भाई   गिरीश भाई !
’चंद स्कैच लाया हूं....!’
..दिखाएं.. भाई
ये रहे.. और फ़िर मित्र ने बेतरतीब लम्बे बालों को जो बिना रिबन के आंखों के सामने आकर हिज़ाब बनने की की कोशिश कर रहे थे को मुंडी उचका के पीछे ढकेलते हुए बड़ी अदा से पेंटिंग्स का पिटारा खोला आर्ट क्या आकाश में मछलियां उड़ रहीं थीं, पानी में घोड़े चर रहे थे, एक औरत की तस्वीर जानते ही होंगे आप तथा कथित आर्टिस्ट जैसी बनाया करते है ठीक वैसी ही. एक सेब का चित्र बीच से काटा गया उसे एक पुरुष बड़े ध्यान से देखे जा रहा था.. यानी उनकी चित्रकला का अर्थ केवल यौनिक अंगों का चित्रण साबित कर रही थी पेंटिंग्स जी में आया कि उनको बता दें कि चित्र कारी क्या चीज़ है पर सोचा कि कौन किस्से को खींचे टालने की गरज़ से हमने  वाह वाह कर दी.  हम  उनके  उत्साह को ठण्डा नहीं करना चाहते थे और न ही  मक़बूलिया कल्ट जो उनने पहन रखी थी  उसे भी क्षति पहुंचाना चाह रहे थे इस लिये हमने कहा भई ये मछलियां उड़ने वाला कांसेप्ट बेहद नया है आपके कई स्कैच में इसे देखा है सो वे तपाक से बोले - "गिरीश भाई.. सच आप तो गद्य,पद्य,कविता, अकविता, आलेख यानी हर क्षेत्र में दखल रखते हैं आज़ जाना कि पैंटिंग्स के मामले में भी क्रिटिक्स वाला नज़रिया रखते है वाह ..! .. ये बाद कहकर बड़ी उदारता से हमारी कुछ मिनिट पहले दी दाद वापस की और बोले आपके यहां कोई पेंटिंग करता है क्या..?
                                         हम अचकचा गये हमने कहा-भाई, हमारी सात पुश्तों में कोई ऐसा नहीं हुआ पर आप ये कयास कैसे लगा रहें हैं..?
वे बोले - ये , (बालकनी  बाएं तरफ़ की दीवार की ओर इशारा कर बोले) वाह क्या चित्र है.. ज़रूर कोई न कोई पेंटिंग वाला है..आपके यहां.
हमें हंसी छूट पड़ी हमने कहा- भैये,ये कोई पेंटिग वेंटिग नहीं है.  कई दोस्त हमारे रगड़ा ( घिसी हुई तम्बाखू ) खाऊ कमेटी के मेम्बर हैं मेरी तरह उनमें से एक हैं जिनने पिच्च से यहीं.. हा हा हा                               भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है.
        यह सुन कर उनकी मक़बूलिया कल्ट ठीक वैसे उतरने लगी गोया घरों की दीवारों पर जमीं पुताई वाली परतें गिरतीं है या ये भी मान लीजिये कि बजरंग बली की प्रतिमा से सिंदूरी चोला छूटता है .
             आपके इर्द-गिर्द ऐसे कल्टधारी आर्टिस्ट और उनके उतरते कल्ट की तस्वीर आप महसूस करेंगे.. !आप यह भी महसूस करएंगे  कि  हम मनुष्यों के सबसे बड़ी खराबी है कि हम जितना प्रतिभावान होते नहीं उससे अधिक प्रतिभावान होने का दावा करतें हैं.हम कितने भी जतन से अपने हुलिये को सजाएं संवांरे पर जब पानी बरसता है तो हमारे शरीर का रोगन बह निकलता है. पता नहीं लोग दिखावे की दौड़ में क्यों दौड़ रहें हैं किसी भी चेहरे पर मौलिकता एवम सामान्य छवि क्यों नज़र नहीं आती ..?

11.2.12

राजकाज

संस्थानों के दीमक आगामी अंक में तब तक इस व्यंग्य को देखिये
साभार : दखलंदाजी.काम 
से इस पन्ने से 
         सरकारी आदमी हर्फ़-हर्फ़ लिखे काम करने का संकल्प लेकर नौकरी में आते हैं सब की तयशुदा होतीं हैं ज़िम्मेदारियां उससे एक हर्फ़ भी हर्फ़ इधर उधर नहीं होते काम. सरकारी दफ़तरों के काम काज़ पर तो खूब लिक्खा पढ़ा गया है मैं आज़ आपको सरकार के मैदानी काम जिसे अक्सर हम राज़काज़ कहते हैं की एक झलक दिखा रहा हूं.                            
        सरकारी महकमों  में अफ़सरों  को काम करने से ज़्यादा कामकाज करते दिखना बहुत ज़रूरी होता है जिसकी बाक़ायदा ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत तो होती नहीं गोया अभिमन्यु की मानिंद गर्भ से इस विषय  की का प्रशिक्षण उनको हासिल हुआ हो.                        
               अब कल्लू को ही लीजिये जिसकी ड्यूटी चतुर सेन साब  ने वृक्षारोपण-दिवस” पर गड्ढे के वास्ते  खोदने के लिये लगाई थी मुंह लगे हरीराम की पेड़ लगाने में झल्ले को पेड़ लगने के बाद गड्डॆ में मिट्टी डालना था पानी डालने का काम भगवान भरोसे था.. हरीराम किसी की चुगली में व्यस्तता थी सो वे उस सुबह “वृक्षारोपण-स्थल” अवतरित न हो सके जानतें हैं क्या हुआ..हुआ यूं कि सबने अपना-अपना काम काज किया कल्लू ने (गड्डा खोदा अमूमन यह काम उसके साब चतुर सेन किया करते थे)झल्ले ने मिट्टी डालीपर पेड़ एकौ न लगा देख चतुर सेन चिल्लाया-ससुरे  पेड़ एकौ न लगाया कलक्टर साब हमाई खाल खींच लैंगे काहे नहीं लगाया बोल झल्ले ?“
चतुरसेन :- औ’ कल्लू तुम बताओ , ? झल्ले बोला:-साब जी हम गड्डा खोदने की ड्यूटी पे हैं खोद दिया गड्डा बाक़ी बात से हमको का मामूल  ?”
कल्लू:-का बताएं  हज़ूरहमाई ड्यूटी मिट्टी पूरने की है सो हम ने किया बताओ जो लिखा आडर में सो किया हरीराम को लगाना था पेड़ लाया नहीं सो का लगाते जिसकी ड्यूटी बोई तो लाता और लगाता बो नईं आया  उससे पूछिये सरकार ! 
         “कल्लू दादा स्मृति समारोह” के आयोजन स्थल पर काफ़ी गहमा गहमीं थी सरकारी तौर पर जनाभावनाओं का ख्याल रखते हुए इस आयोजन के सालाना की अनुमति की नस्ती से सरकारी-सहमति-सूचना” का प्रसव हो ही गया जनता के बीच उस आदेश के सहारे कर्ता-धर्ता फ़ूले नहीं समा रहे थे. समय से बडे़ दफ़्तर वाले साब ने मीटिंग लेकर छोटे-मंझौले साहबों के बीच कार्य-विभाजन कर दिया. कई विभाग जुट गए  कल्लू दादा स्मृति समारोह” के सफ़ल आयोजन के लिये कई तो इस वज़ह से अपने अपने चैम्बरों और आफ़िसों से कई दिनों तक गायब रहे कि उनको इस महत्वपूर्ण राजकाज” को सफ़ल करना है. जन प्रतिनिधियों,उनके लग्गू-भग्गूऒंआला सरकारी अफ़सरों उनके छोटे-मंझौले मातहतों का काफ़िला दो दिनी आयोजन को आकार देने धूल का गुबार उड़ाता आयोजन स्थल तक जा पहुंचा. पी आर ओ का कैमरा मैन खच-खच फ़ोटू हैं रहा था. बड़े अफ़सर आला हज़ूर के के अनुदेशों को काली रिफ़िलर-स्लिप्स पर ऐसे लिख रहे थे जैसे वेद-व्यास के  कथनों गनेश महाराज़ लिप्यांकित कर रहे हों. छोटे-मंझौले अपने बड़े अफ़सर से ज़्यादा आला हज़ूर को इंप्रेस करने की गुंजाइश तलाशते नज़र आ रहे थे. आल हज़ूर खुश तो मानो दुनियां ..खैर छोड़िये शाम होते ही कार्यक्रम के लिये तैयारियां जोरों पर थीं. मंच की व्यवस्था में  फ़तेहचंद्रजोजफ़और मनी जीप्रदर्शनी में चतुर सेन साब,बदाम सिंगआदिपार्किंग में पुलिस वाले साब लोगअथिति-ढुलाई में खां साबगिल साबजैसे अफ़सर तैनात थे. यानी आला-हज़ूर के दफ़्तर से जारी हर हुक़्म की तामीली के लिये खास तौर पर तैनात फ़ौज़. यहां ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इतने महान कर्म-निष्ठअधिकारियों की फ़ौज तैनात है कि इंद्र का तख्ता भी डोल जाएगा वाक़ई. इन महान सरकारीयों” की सरकारियत” को विनत प्रणाम करता हूं .
                                                             
               मुझे मंच के पास वाले साहब लोग काफ़ी प्रभावित कर रहे थे. इनके चेहरे पे वो भाव थे जैसे बैल गाड़ी के नीचे चलने वाला कालू कुत्ते के चेहरे पर किसी कहानी में सुने गए. हुआ यूं कि गाड़ीवान को रात भर में एक गांव से दूसरे गांव अनाज ले जाना था. गाड़ीवान ने अपने हीरा-मोती नामके बैलों को हिदायत दी –“रे रात भर में रामपुर का जंगल पार कराना समझे ”
      तीसरे प्रहर आंख लग गई थी गाड़ीवान की जब जागा तो भोर की सूचना देने वाला तारा निकल आया था. गाड़ी चल रही थी हीरा-मोती सम्हल सम्हल के चल रहे थे अपने मालिक नींद में दखल न हो इस गरज़ से धीरे-धीरे गाड़ी खैंच रहे हीरा-मोती को गाड़ीवान ने तेज़ चलने के लिये डपट के हिदायत दी.. मालिक की नींद खुली देख कालू झट गाड़ी पे उच्चक के आया बोला- मालिक ससुरे हीरा मोती रात भर सोये..
तो गाड़ी किसने खींची..
कालू-“हज़ूर.. हमने और कौन ने बताओ...? ”
                                               अब फ़तेहचन्द जी को लीजिये बार बार दाएं-बाएं निहारने के बाद आला हज़ूर के ऐन कान के पास आके कुछ बोले. आला हज़ूर ने सहमति से मुण्डी हिलाई फ़िर तेज़ी से टेण्ट वाले के पास गये .. उसे कुछ समझाया वाह साहब वाह गज़ब आदमी हैं आप और आला-हज़ूर के बीच अपनत्व भरी बातें वाह मान गए हज़ूर के मुसाहिब” हैं आप की क्वालिटी बेशक 99% खरा सोना भी शर्मा जाए.  आपने कहा क्या होगा बाक़ी अफ़सरान इस बात को समझने के गुंताड़े में हैं पर आप जानते हैं आपने कहा था आला-हज़ूर के ऐन कान के पास आकर सरदस कुर्सियां टीक रहेंगी. मैं कुर्सी की मज़बूती चैक कर लूंगा..आला-हज़ूर ने सहमति दे ही दी होगी. 
               जोज़फ़  भी दिव्य-ज्ञानी हैं. उनसे जिनका भी सरोकार  पड़ा वे खूब जानतें हैं कि "रक्षा-कवच" कैसे ओढ़ते हैं उनसे सीखिये मंच के इर्दगिर्द मंडराते मनी जी को भी कोई हल्की फ़ुल्की सख्शियत कदाचित न माना जावे. अपनी पर्सनालटी से कितनों को भ्रमित कर चुकें हैं . 
               आला-हज़ूर के मंच से दूर जाते ही इन तीनों की आवाज़ें गूंज रही थी ऐसा करो वैसा करोए भाई ए टेंट ए कनात सुनो भाई का लोग आ जाएंगे तब काम चालू करोगे ए दरी   भाई जल्दी कर ससुरे जमीन पे बिठाएगा का .. ए गद्दा ..
  जोजफ़ चीखा:-अर्रए साउंडइधर आओ जे का लगा दियामुन्नी-शीला बजाओगे..अरे देशभक्ति के लगाओ. और हां साउण्ड ज़रा धीमा.. हां थोड़ा और अरे ज़रा और फ़िर   मनी जी की ओर  मुड़ के बोला इतना भी सिखाना पड़ेगा ससुरों को “ 
 तीनों अफ़सर बारी-बारी चीखते चिल्लाते निर्देश देते  रहे टैंट मालिक रज्जू भी बिलकुल इत्मीनान से था सोच रहा था कि चलो आज़ आराम मिला गले को . टॆंट वाले मज़दूर अपने नाम करण को लेकर आश्चर्य चकित थे  जो दरी ला रहा वो दरी जो गद्दे बिछा रहा था वो गद्दा .. वाह क्या नाम मिले . 
        कुल मिला कर आला हज़ूर को इत्मीनान दिलाने में कामयाब ये लोग जैक आफ़ आल मास्टर आफ़ ननवाला व्यक्तित्व लिये  इधर से उधर डोलते  रहे इधर उधर जब भी किसी बड़े अफ़सर नेता को देखते सक्रीय हो जाते थोड़ा फ़ां-फ़ूं करके पीठ फ़िरते ही निंदा रस में डूब जाते . 
 फ़तेहचंद ने मनी जी से दार्शनिक भाव सहित पूछा :यार बताओ हमने किया क्या है..?
जवाब दिया जोजफ़ और मनी जी ने समवेत स्वरों में ;”राजकाज 
फ़तेहचंद – यानी  राज का काज हा हा 

**************


13.1.12

नाई के नौकर की समयबद्धता और और भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार..

                                                   बिना शेव चेहरा जाहिल गवांरपने से लबालब होना साबित करता है पर गुरुवार घर में सेव करने की सख्त पाबंदी के चलते आफ़िस जाने से पहले यादव कालोनी के  श्रेष्ठ सैलून चोरी से पर जाना लाज़िमी था  सो चले गये. धर्म भीरू हम मन ही मन भगवान की प्रार्थना करते निकल पड़े ड्रायवर बोला -सा’ब, आफ़िस..?
न, ज़रा यादव कालोनी होके चलतें आफ़िस शेविंग कराके ही जाऊंगा. डर था कि  चपरासी समुदाय और बाबू साहबान क्या सोचेंगे.बोलेंगे भी. आज़ बिल्लोरे जी को तो देखो कैसे दिख रए हैं..बस इसी इकलौते भय से  भगवान को मन ही मन सैट किया और सैलून में जा घुसे..
दो बंदे एक मालिक दूसरा उसका कर्मचारी बाक़ायदा अभिवादन की औपचारिकता के साथ खाली कुर्सी पे बैठने का आग्रह करते नज़र आये.मेरी शेविंग के लिये दौनों में अबोला काम्पीटिशन चल पड़ा मालिक ने तेज़ आवाज़ में चल रहे  टी.वी. को कम करने की हिदायत मातहत को दी घर से हनुमान चालीसा पाठ बांचने के बाद "कोलावरी-डी" बहुत सुकू़न से सुनने की तमन्ना तो भी मैने शराफ़त और सदाचारी होने का अभिनय किया. कर्मचारी को दूसरे काम में लगा कर मालिक मेरे पास आ के बोला "तो शेविंग बस.."
हां भई.. ज़ल्दी जाना है मीटिंग  बस शेव करो..
      गुनगुना पानी तेज़ शीत लहर के दबाव में बार बार अपने मूल स्वरूप में लौट रहा था कि एक आवाज़ सुनाई दी बीस बाइस साल का लड़का दूसरे दोस्त से कहता सुना गया-"अरे, बस घण्टे आध घण्टे में निकल जाऊंगा तुम भी चेहरा साफ़ करालो "
दूसरा लड़का बोला-भाई न मुझे कराना है चेहरा साफ़ नही मुझे इस सब की आदत है
अर्र.. पैसा कौन तुम दोगे ....
दूसरा लड़का स्पष्ट रूप से बोला-"भाई, पैसे मैं न दूंगा तो फ़ेश क्लीनिंग मैं क्यों कराऊं"
अरे मेरी गर्लफ़ैण्ड क्या सोचेगी...
वो तुम्हारी है मुझसे क्या...
           काफ़ी देर तक हां-ना का धंधा चला दोस्तों के बीच अंतत: पहला वाला युवक कुर्सी पे जा धंसा बोला-यार भाई, शाम को गर्ल-फ़्रैण्ड की सगाई  है तुम ऐसा कुछ करो कि चेहरे में ग्लो कम से कम शाम तक रहे.                
                                पिंड खजूरी चेहरे में ग्लो.. मन ही मन मुझे हंसी आ गई हंसी एक्स गर्ल-फ़ैण्ड की सगाई में जाने के उछाह को देखकर भी आ रही थी. यानी अहम नाते की अर्थी निकलना आज की जनरेशन को सहजता से स्वीकार्य है... तू नहीं और सही .....
            इसी बीच ऐन मेरी कार के पीछे पासिंग-शो सिगरेट की तरह कृशकाय युवक ने अपनी कार लगाई और कोलावरी डी गुनगुनाते  हुए सैलून में घुसा उसका प्रवेश ही इतना अभद्र था कि उस युवक को आप गुण्डे की संज्ञा  दे सकते हैं शोहदा बोल सकते हैं
 बारबर से बड़े अक्खड़पन से उस शोहदे ने पूछा-"आज तुम और ये बस बाक़ी..."
"बाक़ी आज़ देर से आते हैं गुरुवार है न" यानी तुम तो मालिक हो ये तो नौकर होके टाइम पे हाज़िर हो गया इस जैसे दो चार और हो जाएं तो देश भ्रष्टाचार खतम समझो.. ही ही जै अन्ना महराज़ की..
     मेरी खोपड़ी "नाई के नौकर की समयबद्धता और और भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार " को लेकर जंग छिड़ गई तभी अनायास मैं पूछ बैठा-बेटे, इसके समय पर काम पर आने से भ्रष्टाचार का क्या नाता है..?
        उसका जवाब आने लगा कि मेरे शेविंग करने वाले ने फ़रमाया.. सर ज़रा मुण्डी सीधी हां अब ठीक है.
 वो लड़का बोल रहा था-"अंकल, देश के सारे लोग अपना कम ईमान दारी से करें तो भ्रष्टाचार दूर होगा कि नहीं "
  बात तो सही थी पर समीकरण मेरी खोपड़ी को नामंज़ूर था. सो मैने पूछ लिया-तुम क्या पढ़ाई करते हो..?
 न,मैं रुपए कमाता हूं..?
वाह, यानी नौकरी

तो
धंधा करता हूं
दो माह में मैने तीन लाख रुपए कमाए..पूरी मेहनत से काम करता हूं
                         इधर साला पूरा छै महीने लगते हैं तीन लाख तब कमा पाते हैं. इस शोहदे को दो महीने में तीन लाख..?
उसकी बात सुनकर गुस्से से मेरे दाढ़ी के एक एक बाल खड़े हो गए और क्या  खर्र-खर्र दाढ़ी सफ़ा चट्ट हो गई . मैने पूछा -ऐसा कौन सा अंनात्मक कार्य करते हो कि माह में डेढ़ लाख कमा लेते हो
"अंकल प्लाट-खरीद-बेच करता हूं...दिन के दूने हो जाते है"
                           सच कितना ईमानदार है मेरा देश का युवा कितना सच्चा चरित्र है उसकी नज़र से भ्रष्टाचार काश अन्ना जी को नज़र आ जाता तो "मैं अन्ना हूं कहने वाले हरेक सख्श को अन्ना जी आप जान लेते भीड़ में वास्तविक रूप से कितने अन्ना है आप जान लेते"
                      तभी मुंह से निकल गया तो यानी तुम दूध से धुले हो बेटे ..?
 "हां अंकल,दूध से एकदम धुला हूं पर दूध ही मिलावट वाला है ..? -पूरी मक्कारी थी उस की आवाज़ में
   अपनी मां के दूध को लजाते उस युवक को सड़क पर एक लक्ज़री कार जाते दिकी अऔर वो सैलून मालिक की ओर मुखातिब हो के बोला-"अरे लगता है मेरा बाप जा रहा है.. पर इत्ती ज़ल्दी !!"


30.10.11

तरक्क़ी और गधे : गिरीश बिल्लोरे मुकुल


               हमने सड़क पर एक बैसाख नन्दन का दूसरे बैसाख नन्दनों का वार्तालाप सुना ..आपने सुना सुना भी होगा तो क्या खाक़ समझेंगे आप आपको समझ में नहीं आई होगी क्योंकि अपने भाई बन्दों की भाषा हम ही समझ सकतें हैं । 
 आप सुनना चाहतें हैं..........?
सो बताए देता हूँ हूँ भाई लोग क्या बतिया रहे थे :
पहला :-भाई ,तुम्हारे मालिक ने ब्राड-बैन्ड ले लिया ..?
दूजा :- हाँ, कहता है कि इससे उसके बच्चे तरक्की करेंगें ?
पहला :-कैसे ,
दूजा :- जैसे हम लोग निरंतर तरक्की कर रहे हैं
पहला :-अच्छा,अपनी जैसी तरक्की
दूजा :- हाँ भाई वैसी ही ,उससे भी आगे
पहला :-यानी कि इस बार अपने को वो पीछे कर देंगें..?
दूजा :-अरे भाई आगे मत पूछना सब गड़बड़ हो जाएगा
पहला :-सो क्या तरक्की हुई तुम्हारे मालिक की
दूजा :- हाँ,हुई न अब वो मुझसे नहीं इंटरनेट के ज़रिए दूर तक के अपने भाई बन्दों से बात करता है। सुना है कि वो परसाई जी से भी महान हो ने जा रहा है आजकल विश्व को व्यंग्य क्या है हास्य कहाँ है,ब्लॉग किसे कहतें हैं बता रहा है।
पहला :- कुछ समझ रहा हूँ किंतु इस में तरक्की की क्या बात हुई ?
दूजा :- तुम भी, रहे निरे इंसान के इंसान .........!! अरे बुद्धू बताना भी तो तरक्की है.. तरक्क़ी..
पहला :-अरे हां पर क्या भाई उस दिन भीड़ काहे की थी बगीचे में हम चर न पाए.. 
दूजा :-अरे.. वो अन्ना जी का समर्थन करने वाले लोग थे तुमको बताया था न..?
पहला :- साला भूखों मर गए हम..
दूजा :-   तो अन्ना के लिये ह इतना त्याग नही कर सकते क्या..?
पहला :- हमारे त्याग करने से क्या भ्रष्टाचार बंद होगा
दूजा :-   तो क्या उनके से हुआ ..? नहीं न पर एक शुरुआत तो हुई न..!!
पहला :-  हां हुई.. उस दिन धोबन बोली थी धोबी से सुनो अन्ना का ज़माना किसी भी दिन आ सकता है.. ईमानदारी से कपड़े धोना
दूजा :-  धोबी का बोला..?
पहला :- का बोलेगा बोला अरी भागवान..निरी मूरख है तू.. अगले महीने दीवाली है सेठ ने नकली मावा मंगवा लिया, सेठों ने   टेक्स छिपाने बड़ी बड़ी गिफ़्ट खरीदी है.. सब सरकारी दफ़्तर वालों के लिये है.. जिसने ज़ादा खटर-पटर की उसको  नाप देंगें इस कानून से अरी पागल तू तो बाई साब की साड़ी में वोईच्च कलफ़ मार जो सस्ता वाला मैं लाया हूं..तभी   तो  अपना  बेटा भी तो इंजिनियर बनेगा . पागल है समझती नहीं अरे सब जैसा था वैसा ही चलेगा तू अपना काम कर दुनियां जहान की बात सोच सोच कर अपने घुटनों को काहे तकलीफ़ देती है.
               धोबी बोला तो  साफ़ बात खुद हरिश्चंद्र भी आ जाएं तो कुछ न बदलेगा बस तरीकों को छोड़ के सब एक दूसरे से लगे हैं.. यही विकास है इसे तरक्क़ी कहते हैं ये बात वो गधे तक बेहतर तरीके से समझ गये हैं.. पर आप लोग.. चुप क्यों हो बोलो न .....
             आप क्या बोलेंगे जी कुछ भी बोल नहीं पाएंगे अरे आप काहे बोलो जी. बोलने वाले अटे पड़े हैं दुनियां में. कोई ज़रूरी है कि सब बोलें तुम तो केवल पढ़ो उनके बोले हुए को.. जो  अखबार में है.. और्   सुनो जो  सबसे तेज़ चैनलों पे   तोते की तरह रटाया जा रहा  समझो अपने जीने के तौर - तरीक़े.

21.10.11

साहब आए और गये

    विक्रम की पीठ पे लदा बेताल टाइम पास करने की गरज़ से बोला :- विक्रम,   साहब का आने और वापस जाने के बीच से  एक  बरसाती नदी की तरह सियासती नदी उन्मुक्त रूप से बहा करती है. सुनो कल सा’ब आएंगे ? अच्छा कल ! काहे से आएंगे .. चलो अच्छा हुआ वो पुराना वाला था न ससुरा हर छुट्टी में आ धमकता था.. इनमें एक बात तो है कि ये .. छुट्टी खराब नहीं करते थे  ज़्यादा परेशान भी नहीं करते.  और ये अरे राम राम........मत पूछो गुप्ता बाबू.. 
      इस "अरे राम राम........मत पूछो गुप्ता बाबू.." में जितना कुछ छिपा है उसे आसानी से कोई भी समझ सकता है. 
      पुराना साहब अक्सर बुरा और उपेक्षा भाव से भरे "ससुरा" शब्द से कमोबेश हर डिपार्टमेंट में अलंकृत हुआ करता है. जितने भी साहब टाइप के पाठक इस आलेख को बांच रहे हैं बाक़ायदा अपनी स्थिति को खुद माप सकते है.यानी आज़ से उम्दा और कल से बेदतर न कुछ था न होगा ऐसा हर सरकारी विभाग में देखा जा सकता है. कल ही की बात है एक विभाग का अधिकारी अपने आकस्मिक आन पड़े कार्यों के चलते दिल्ली मुख्यालय से रीजनल आफ़िस आए स्थानीय अधिकारी  निर्देश के परिपालन में  कोताही न हो इसके मद्देनज़र एक अनुभवी इंतज़ाम-अली को ज़िम्मेदारी कार्यालयीन परंपरानुसार सौंप दी. आला-अफ़सर विज़िट में ऐसी बात का खास खयाल रखा जाता है  कि कोई ऐसा तत्व विज़िटार्थी अफ़सर के सामने न आ जाए जिसमें विज़िटार्थी  को प्रभावित करने सामर्थ्य हो अथवा तत्व विघ्न-संतोषी हो. हां एक बात और चुगलखोर और आदतन शिकायतकर्ता अधिकारी को तो क़तई पास न फ़टकने दिया जाता है. यथा सम्भव ऐसे तत्वों को सूचना से मरहूम रखने के भरसक प्रयास एवम बंदोबस्त कर लिये जाते हैं. पर साक्षर प्यून एवम हमेशा दफ़्तर की हर खबर से खुद को बाखबर रखने वाला "निषेधित-तत्व" सब कुछ जान ही लेता है. 
              तो दिल्ली से साहब आए  सरकारी कारज़ आड़ में ढेरों निजी निपटा गए .तो पाठको कैग की नज़र में  पर अन्ना-कसम  ये सरकारी है और अ-सरकारी भी.. जनता जनार्दन  का राजकोष को दिया कर का एक हिस्सा ऐसे काम पर भी खर्च होता है..क्या यह सही है विक्रम बोल ज़ल्दी बोल वरना....... 
विक्रम ने करा :-बैताल, आला अफ़सर को नहीं दोष गुसाईं..इस बात की पुष्टि तुम स्वर्गीय श्री श्रीराम ठाकुर के सटायर "अफ़सर को नहिं दोष गुसाईं"  से कर सकते हो.. विक्रम बोला और बेताल फ़ुर्र    

11.10.11

राज का काज


सरकारी महकमों  में अफ़सरों  को काम करने से ज़्यादा कामकाज करते दिखना बहुत ज़रूरी होता है जिसकी बाक़ायदा ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत तो होती नहीं गोया अभिमन्यु की मानिंद गर्भ से इस विषय
 की का प्रशिक्षण उनको हासिल हुआ हो. 
           अब कल्लू को ही लीजिये जिसकी ड्यूटी चतुर सेन सा’ब  ने "वृक्षारोपण-दिवस" पर गड्ढे के वास्ते  खोदने के लिये लगाई थी मुंह लगे हरीराम की पेड़ लगाने में झल्ले को पेड़ लगने के बाद गड्डॆ में मिट्टी डालना था पानी डालने का काम भगवान भरोसे था.. हरीराम किसी की चुगली में व्यस्तता थी सो वे उस सुबह "वृक्षारोपण-स्थल" अवतरित न हो सके जानतें हैं क्या हुआ..? हुआ यूं कि सबने अपना-अपना काम काज किया कल्लू ने (गड्डा खोदा अमूमन यह काम उसके सा’ब चतुर सेन किया करते थे), झल्ले ने मिट्टी डाली, पर पेड़ एकौ न लगा देख चतुर सेन चिल्लाया-"ससुरे  पेड़ एकौ न लगाया कलक्टर सा’ब हमाई खाल खींच लैंगे काहे नहीं लगाया बोल झल्ले ?"
हरीराम को यह करना था 
 झल्ले बोला:-"सा’ब जी हम गड्डा खोदने की ड्यूटी पे हैं खोद दिया गड्डा बाक़ी बात से हमको का ?"
चतुरसेन :- औ’ कल्लू तुम बताओ , ?
कल्लू:-"का बोलें हज़ूर, हमाई ड्यूटी मिट्टी पूरने की है सो हम ने किया बताओ जो लिखा आडर में सो किया हरीराम को लगाना था पेड़ आया नही उससे पूछिये "
        सरकारी आदमी हर्फ़-हर्फ़ लिखे काम करने का संकल्प लेकर नौकरी में आते हैं सब की तयशुदा होतीं हैं ज़िम्मेदारियां उससे एक हर्फ़ भी हर्फ़ इधर उधर नहीं होते काम. सरकारी दफ़तरों के काम काज़ पर तो खूब लिक्खा पढ़ा गया है मैं आज़ आपको सरकार के मैदानी काम जिसे अक्सर हम राज़काज़ कहते हैं की एक झलक दिखा रहा हूं.
      "कल्लू दादा स्मृति समारोह" के आयोजन स्थल पर काफ़ी गहमा गहमीं थी सरकारी तौर पर जनाभावनाओं का ख्याल रखते हुए इस आयोजन के सालाना की अनुमति की नस्ती से "सरकारी-सहमति-सूचना" का प्रसव हो ही गया जनता के बीच उस आदेश के सहारे कर्ता-धर्ता फ़ूले नहीं समा रहे थे. समय से बडे़ दफ़्तर वाले साब ने मीटिंग लेकर छोटे-मंझौले साहबों के बीच कार्य-विभाजन कर दिया. कई विभाग जुट गए  "कल्लू दादा स्मृति समारोह" के सफ़ल आयोजन के लिये कई तो इस वज़ह से अपने अपने चैम्बरों और आफ़िसों से कई दिनों तक गायब रहे कि उनको "इस महत्वपूर्ण राजकाज" को सफ़ल करना है. जन प्रतिनिधियों,उनके लग्गू-भग्गूऒं, आला सरकारी अफ़सरों उनके छोटे-मंझौले मातहतों का काफ़िला , दो दिनी आयोजन को आकार देने धूल का गुबार उड़ाता आयोजन स्थल तक जा पहुंचा. पी आर ओ का कैमरा मैन खच-खच फ़ोटू हैं रहा था. बड़े अफ़सर आला हज़ूर के के अनुदेशों को काली रिफ़िलर-स्लिप्स पर ऐसे लिख रहे थे जैसे वेद-व्यास के  कथनों गनेश महाराज़ लिप्यांकित कर रहे हों. छोटे-मंझौले अपने बड़े अफ़सर से ज़्यादा आला हज़ूर को इंप्रेस करने की गुंजाइश तलाशते नज़र आ रहे थे. आल हज़ूर खुश तो मानो दुनियां ..खैर छोड़िये शाम होते ही कार्यक्रम के लिये तैयारीयों जोरों पर थीं. मंच की व्यवस्था में  फ़तेहचंद्र, जोजफ़, और मनी जी, प्रदर्शनी में चतुर सेन साब,बदाम सिंग, आदि, पार्किंग में पुलिस वाले साब लोग, अथिति-ढुलाई में खां साब, गिल साब, जैसे अफ़सर तैनात थे. यानी आला-हज़ूर के दफ़्तर से जारी हर हुक़्म की तामीली के लिये खास तौर पर तैनात फ़ौज़. यहां ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इतने महान कर्म-निष्ठ, अधिकारियों की फ़ौज तैनात है कि इंद्र का तख्ता भी डोल जाएगा वाक़ई. इन महान "सरकारीयों" की "सरकारियत" को विनत प्रणाम करता हूं .
               मुझे मंच के पास वाले साहब लोग काफ़ी प्रभावित कर रहे थे. अब फ़तेहचन्द जी को लीजिये बार बार दाएं-बाएं निहारने के बाद आला हज़ूर के ऐन कान के पास आके कुछ बोले. आला हज़ूर ने सहमति से मुण्डी हिलाई फ़िर तेज़ी से टेण्ट वाले के पास गये .. उसे कुछ समझाया वाह साहब वाह गज़ब आदमी हैं आप और आला-हज़ूर के बीच अपनत्व भरी बातें वाह मान गए हज़ूर के "मुसाहिब" हैं आप की क्वालिटी बेशक 99% खरा सोना भी शर्मा जाए.  आपने कहा क्या होगा ? बाक़ी अफ़सरान इस बात को समझने के गुंताड़े में हैं पर आप जानते हैं आपने कहा था आला-हज़ूर के ऐन कान के पास आकर "सर, दस कुर्सियां टीक रहेंगी. मैं कुर्सी की मज़बूती चैक कर लूंगा..? आला-हज़ूर ने सहमति दे ही दी होगी. 
               जोज़फ़  भी दिव्य-ज्ञानी हैं. उनसे सरोकार  पड़ा वे खूब जानतें हैं रक्षा-कवच कैसे ओढ़ते हैं उनसे सीखिये मंच के इर्दगिर्द मंडराते मनी जी को भी कोई हल्की फ़ुल्की सख्शियत कदाचित न माना जावे. अपनी पर्सनालटी से कितनों को भ्रमित कर चुकें हैं . 
               आला-हज़ूर के मंच से दूर जाते ही इन तीनों की आवाज़ें गूंज रही थी ऐसा करो वैसा करो, ए भाई ए टेंट ए कनात सुनो भाई का लोग आ जाएंगे तब काम चालू करोगे ? ए दरी   भाई जल्दी कर ससुरे जमीन पे बिठाएगा का .. ए गद्दा ..
  जोजफ़ चीखा:-"अर्र, ए साउंड, इधर आओ जे का लगा दिया, मुन्नी-शीला बजाओगे..? अरे देशभक्ति के लगाओ. और हां साउण्ड ज़रा धीमा.. हां थोड़ा और अरे ज़रा और फ़िर   मनी जी की ओर  मुड़ के बोला "इतना भी सिखाना पड़ेगा ससुरों को " 
 तीनों अफ़सर बारी-बारी चीखते चिल्लाते निर्देश देते  रहे टैंट मालिक रज्जू भी बिलकुल इत्मीनान से था सोच रहा था कि चलो आज़ आराम मिला गले को . टॆंट वाले मज़दूर अपने नाम करण को लेकर आश्चर्य चकित थे  जो दरी ला रहा वो दरी जो गद्दे बिछा रहा था वो गद्दा .. वाह क्या नाम मिले . 
        कुल मिला कर आला हज़ूर को इत्मीनान दिलाने में कामयाब ये लोग "जैक आफ़ आल मास्टर आफ़ नन"वाला व्यक्तित्व लिये  इधर से उधर डोलते  रहे इधर उधर जब भी किसी बड़े अफ़सर नेता को देखते सक्रीय हो जाते थोड़ा फ़ां-फ़ूं करके पीठ फ़िरते ही निंदा रस में डूब जाते . 
 फ़तेहचंद ने मनी जी से पूछा :यार बताओ हमने किया क्या है..?
जवाब दिया जोजफ़ और मनी जी ने समवेत स्वरों में ;"राजकाज "
फ़तेहचंद - यानी  राज का काज हा हा हा 

12.7.11

मेरा डाक टिकिट : गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"

                   
इस स्टैम्प के रचयिता हैं
 ब्ला० गिरीश के अभिन्न मित्र
राजीव तनेजा
वो दिन आ ही गया जब मैं हवा में उड़ते हुए
अपना जीवन-वृत देख रहा था..
             मुद्दत   से मन में इस बात की ख्वाहिश रही कि अपने को जानने वालों की तादात कल्लू को जानने वालों से ज़्यादा और जब मैं उस दुनियां में जाऊं तब लोग मेरा पोर्ट्फ़ोलिओ देख देख के आहें भरें मेरी स्मृति में विशेष दिवस का आयोजन हो. यानी कुल मिला कर जो भी हो मेरे लिये हो सब लोग मेरे कर्मों कुकर्मों को सुकर्मों की ज़िल्द में सज़ा कर बढ़ा चढ़ा कर,मेरी तारीफ़ करें मेरी याद में लोग आंखें सुजा सुजा कर रोयें.. सरकार मेरे नाम से गली,कुलिया,चबूतरा, आदी जो भी चाहे बनवाए. 
जैसे....?
जैसे ! क्या जैसे..! अरे भैये ऐसे "सैकड़ों" उदाहरण हैं दुनियां में , सच्ची में .बस भाइये तुम इत्ता ध्यान रखना कि.. किसी नाले-नाली को मेरा नाम न दिया जाये. 
       और वो शुभ घड़ी आ ही गई.उधर जैसे ही गैस सिलेंडर के दाम बढ़े इधर अपना बी.पी. और अपन न चाह के भी चटक गए. घर में कुहराम, बाहर लोगों की भीड़,कोई मुझे बाडी तो कोई लाश, तो साहित्यकार मित्र पार्थिव-देह कह रहे थे. बाहर आफ़िस वाला एक बाबू बार बार फ़ोन पे नहीं हां, तीन-बजे के बाद मट्टी उठेगी की सूचनाएं दे रहा था. हम हवा में लटके सब कार्रवाई देख रए थे.जात्रा निकली  जला-ताप के लोग अपने धाम में पहुंचे. शोक-सभाओं में किसी ने प्रस्ताव दिया 
"गिरीश जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक हम सरकार से उनकी स्मृति में गेट नम्बर चार की रास्ता को उनका नाम दे दे"
दूसरे ने कहा न डाक टिकट जारी करे,
तीसरे ने हां में हां मिलाई फ़िर सब ने हां में हां ऐसी मिलाई जैसे पीने वाले सोडे में वाइन मिलाते हैं..और एक प्रस्ताव कलेक्टर के ज़रिये सरकार को भेजना तय हुआ.
              कलैक्टर साब को जो समूह ग्यापन सौंपने गया उसने जब हमारे गुणों का बखान किया तो "आल-माइटी सा’ब" को भी मज़बूरन हां में हां मिलानी पड़ी. पेपर बाज़ी हुई सवा महीना बीतते बीतते सी एम साब ने गली पर लिखवा दिया "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी किया. हम बहुत खुश हुए.हमारी आत्मा मुक्ति की ओर भाग रही थी कि उसने मुड़ के देखा .. इस पत्थर पर हमने गोलू भैया के कुत्ते को "शंका निवारते" देखा तो सन्न रह गये. सोचा डाकघर और देख आवें सो पोस्ट आफ़िस में ससुरे डाक-कर्मी गांधी जी वाले ख़तों पे तो  तो सही साट ठप्पा लगाय रहे थे .  जिंदगी भर सादा जीवन उच्च विचार वाले हम एकाध दोस्त ही जानतें हैं हमारी चारित्रिक विशेषताएं पर मुए डाक कर्मी  लैटर पे बेतहाशा काली स्याही पोत रहे थे.. पूरा मुंह काला किये पड़े थे. अब बताओ हज़ूर तुम्हारे मन में ऐसी इच्छा तो नईं है.. होय तो कान पकड़ लो.. मूर्ती तो क़तई न लगवाना.. वरना


       आकाश का कौआ तो दीवाना है क्या जाने
         किस सर को छोड़ना है, किस सर पे छोड़ना है..?   

11.4.11

हजारीलाल के डरावने सपने आने लगे करोड़ी को (भाग दो)


अब तक आपने पढ़ा     सेठ करोड़ी मल के कारखाने में जो भी कुछ बनता बाज़ार जाता गांधी छाप रुपए की शक्ल में वापस आता. तिजोरी में फ़िर बैंक में बेनामी खातों में... फ़िर और जब सेठ करोढ़ी मल सौ करोड़ी हुए तो क्या था स्विस बैंक के बारे में ब्रह्म-ज्ञान मिला. सो भाई उधरईच्च निकस गये. उधर हज़ारी की को भी बहुत दिनों से कोई खास काम न था सो आराम का जीवन ज़ारी था. कि  अचानक एक दिन हजारीलाल को का सूझी कै बो बस करोड़ी के पीछे लग गिया. 
 करोड़ी बोला:-"भई, कोई रोको उसे..?"
  रोकता कौन  कैसे.... उसे... दरबार में भी हज़ारी लाल की ही सुनाई हुई. फ़रमान आया. सबने एक दूसरे का मुंह मिठाया और का बस सब अपने अपने घर को निकस गये. करोड़ी लाल की सांसें फ़ूल रहीं हैं कि इब का होगा . हजारी जीत गिया उसके पास ताक़त है फ़िर मन इच्च मन बोला :-"दिल्ली दूर है.. देखतें हैं" 
     बड़ी मुश्किल से एक दिन बीता हता कि भैया रात करोड़ी मल उस सपने के बाद सो न पाया.... उस सपने के बाद .
अब आगे
आ जब राजा (ए राजा नहीं जे वाले राजा ) ने एक रुक्का भेजे तो पता चला कि अगस्त की पंद्रा तारीख तक लोकपाल से डरने की ज़रूरत नहीं...  
हम बोले :- भाई कड़ोरीमल घबराईये मत पंद्रह अगस्त को टाइम है..?
कड़ोरीमल:-"पर इत्ता समेटना है कैसे समेटूं "
हम:-"जे वी सी से उठवा लो बस "
करोड़ीमल :-"और फ़िर.."
हम :- और फ़िर क्या एक जमीन खुदवा के उसमें तलघरा बनाओ माल रख दो...!
करोड़ीमल:- उससे क्या होगा..? स्विस में का बुरा है..?
हम बोले:- भईये, अगर.. स्विस सरकार को रामदेव महाराज़ का कपालभाती भा गया और स्विस सरकार ने "अनुलोम विलोम" शुरु कर दिया तो तुम्हारी क्या दशा होगी जानते हो
          हमने भी करोड़ीमल के सरीखे अन्य दुखियारों के लिये  एक वीर रस के किसी कविता चोर कवि को अपनी एक कविता दी और बोला इसे सबके बीच गा गा कर नगर संकीर्तन करो..युवाओं में फ़ैलाओ 

उठा-कुदाल हाथ से कमा हज़ार हाथ से
पंद्रा अगस्त दूर है.......हज़ारे को तू पाठ दे .
करेगा क्या लोकपाल 
इंतज़ाम झोल-झाल ,
ऊपरी कमाई बिन
कौन होवे मालामाल !
वक़्त  शेष है अभी 
और काम टाल दे !
जेब भर तिज़ोरी भर
बोरे भर के नोट भर ,
खैंच हैंच फ़ावड़े से
या यंत्र का प्रयोग कर !
सवाल पे भी नोट ले
जवाब के भी नोट ले !
ले सप्रेम भेंट मीत -
परा ज़रा सी ओट से !!

क्रमश:

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...