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3.2.13

इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत !
                         बहुत उम्दा कहा है कृष्ण बिहारी नूर ने. एक अदद  बेचारा  दिमाग उस पर बाहरी वाहियाद बातों का दबाव तो ऐसा होना लाज़िमी भी है. आज़ का आदमी फ़ैंटेसी में जी रहा है वो खुद को धर्मराज और दूसरों को चोर मानता है. 
 इस बात को नक़ारना नामुमक़िन है. किसी से किसी को कुछ भी लेना देना न हो फ़िर भी अपेक्षाएं उफ़्फ़ यूं कि गोया आपस में एक दूसरे के बहुत बड़ा लेन-देन बाक़ी है गोया. कल दफ़्तर पहुंचते ही एक बीसेक बरस का नौजवान हमारे कमरे में तांक झांक कर रहा था पर हमें मीटिंग लेता देख वापस जाने लगा.  हमने सोचा इस युवक को हमारी ज़रूरत है सो बस हमने उसे बुला लिया. बिना दुआ सलाम किये लगभग टिर्राते हुए युवक ने सामने  हमारे सामने टेबल के उस पार वाली कुर्सी पर  अपना दक्षिणावर्त्य टिका दिया. हाथ से एक मैगजीन निकाली बिना कुछ कहे हमारे सामने पटक दी.
                 हमने सोचा चलो छोटी सी जगह में  कोई तो है जो मैगजीन लाएगा हमारी अध्ययन वृत्ति के लिये . 
                पहला पन्ना पलटते ही हमें उस मैगज़ीन का पीलापन साफ़ दिखाई देने लगा. युवक  ने  
बताया कि मैगजीन का लोकल करेस्पांडेस है.तो मुझे लगा कि  अगले कुछ पलों में ये मुझसे एड के नाम पर पैसे मांगेगा. हुआ भी ऐसा ही. हम भी पन्ने पलट कर उसे मैगज़ीन के रूप में मान्यता देने की ग़रज़ से उसमें "मैग्जीनिया तत्व" तलाश रहे थे. पर ऐसी पठन-सामग्री  हम खोज न सके   हक़ीकत में उस कथित  मैगज़ीन का हर पन्ना या तो किसी व्यक्ति विशेष की  अकारण तारीफ़ वाला था अथवा किसी को भ्रष्ट साबित कर रहा था. ऐसा लगा कि जिसकी तारीफ़ छपी है उसके जेब से कुछ निकला है जिसकी निंदा छपी उसके जेब से कुछ निकला नहीं. बस इसी की पुष्टि के लिये अचानक हमने उस युवक से पूछा- भई, ये मैगज़ीन है इसमें मैगज़ीन होने जैसी कोई बात नज़र नहीं आ रही है. ? हमारे सवाल पर भाई के तोते फुर्र हो गये. हमसे येन केन प्रकारेण सम्बंध बनाने की ग़रज से युवक पूछता है.. सर, सुना है आप लिखते हैं 
हां, सही सुना. तो
तो आप भी अपने लेख दीजिये ?
हां, मेरे ब्लाग से लिफ़्ट कर लिया करो. अलग से लिखने के लिये नोट लगेंगे, !
युवक बोला- सर, ये तो सम्भव नहीं. 
मैं- तो मैं भी छपास का भूखा नहीं. 
युवक- तो फ़िर सरकारी एड ही दे दिया कीजिये..!
मैं- क्यों, मुझे अधिकार नहीं हैं इसका. 
युवक- तो ये समाचार  देखिये.. कहते हुए उसने एक ऐसा  समाचार दिखाया जो किसी व्यक्ति  के   
दुर्गुणों की गाथा थी. जो युवक द्वारा भेजी गई थी छपी भी थी . 
          पत्रिका क्या मुझे तो पिस्टल नज़र आ रही थी वो क़िताब. दो वर्ना आपकी भी ... ये ही गत होगी. कमज़ोर दिलवाले डर जाते हैं. पर हम ठहरें जबलईपुर वाले हम भी बिंदास वक्तव्य जारी करते रहे 
          दाल गलती  न देख युवक खीज कर मुद्दे पे आया और बोला - तो तीन हज़ार की रसीद काट दूं.. 
मैने लगभग डपट दिया. तय है  उस युवक के लिये बुरा हो चुका हूं .. कल कुछ ज़रूर  होगा जो होगा उसके लिये  मैं ही ज़वाबदार रहूंगा तय है. बात निकली है  तो उसका दूर तलक़ जाना तय है, निकलने दीजिये बात है ही निकलते ही माउथ टू माउथ दूर तलक जावेगी ही. जाना भी चाहिये . ज़रूरी भी है कुछ खास चेहरे बेनाक़ाब करने का जोखिम उठाना ही है मुझे. वर्ना ये सत्यकथा मुझे सोने न देगी . 

5.6.12

शो मस्ट गो आन


साभार:-"Owaisihospital "
वातावरण की गहमा गहमीं के बाद  एक निर्वात सी स्थिति थी सहमे सहमे चेहरे . कुछ देर पहले की ही तो बात है   स्ट्रैचर  पर बेहोश देह आई.सीं.यू. में प्रवेश करा दी मुस्तैद स्टाफ़ ने. लगभग भागता हुआ ड्यूटी-डाक्टर मरीज के लिये सही डाक्टर को बुलाने में सफ़ल हो जाता है. अगले दस मिनिट में  आत्मविश्वास से लकदक एक काया प्रवेश करती है आई.सी.यू. में. परिजन नि:शब्द किंतु उनकी पथराई आंखें अपलक गोया पूछतीं हैं -"बचालोगे न ? "
             कुछ देर के बाद ही स्ट्रैचर को मरीज़ सहित ओ.टी. में आकस्मिक आपरेशन  के लिये ले जाया गया. और अगले पंद्रह मिनिट बाद हताश डाक्टर के मुंह से "सारी" निकलता है. परिजनों में से किसी एक के मुंह से चीख.. और एक धैर्यवान युवक सम्भवत: बेटा तो न था पडौसी सी रहा होगा..(बेटे तो विदेशों में होते हैं ) जेब से रुपये निकालते हुये  रिशेप्शन पर कुछ बतियाता है.
     फ़र्स्ट फ़्लोर से ग्राउंड-फ़्लोर तक के सारे मरीज़ों के परिजनों के चेहरों पर एक अज़ीब सा भाव था. भयातुर ही तो थे वे ..
   पडौसी का बेटा सेल फ़ोन से  :- "बोस साहब नहीं रहे.." की सूचना जारी करता है.  मेरे लगभग बराबर खड़ा डाक्टर बुदबुदा रहा था..."पता नहीं बाडी कब ले जाते हैं ?" आनन फ़ानन बोस साहब के पडौस वाला लड़का सब कुछ व्यवस्थित कर देता है. बोस साहब जो अब बोस साहब न होकर बाडी थे को घर ले जाया जाता है.
आधे घण्टे बाद एक निर्वात सी स्थिति थी सहमे सहमे चेहरे धीरे धीरे नार्मल होने लगते हैं. जैसे कुछ हुआ ही न हो.
एक युवा बाप के कष्ट को न देख सकने की स्थिति देख कर मुक्ति की कामना करता है उसकी सुर्ख लिपिस्टिक वाली बीवी सहमति जताती है. कुछ लोग बुके लेकर हालिया भर्ती मिश्रा साहब को फ़िल्मी स्टाइल में पेईंग वार्ड में घुसते हैं. विधायक जी सदलबल क्षेत्र के यशस्वी दादाजी के हालचाल लेने उनके कमरे में घुस जाते हैं. मौका मिलते ही वो लड़का उस लड़की से बातें करने लगता है. सच शो फ़िर से चालू हो जाता है कभी न रुकने वाला शो..
 





17.5.12

एक हैलो से हिलते लोग..!!

छवि साभार : समय लाइव
    उस वाले  मुहल्ले में अकेला रहने वाला वह बूढ़ा रिटायर्ड अफ़सर .मुझे सुना दिया करता था.अपना अतीत..बेचारा मारे ईमानदारी सबसे खुल्लम-खुला पंगे लेता रहा ईमानदार होने के कई नुकसान होते हैं.  
फ़ूला यानी उसकी  सतफ़ेरी बीवी कई बार उसे समझा चुकी थी कि -”अब, क्या करूं तुम पे ईमानदारी का भूत सवार है बच्चों का क्या होगा गिनी-घुटी पगार में कुछ किया करो...!  पर बीवी का भी कहा न माना . बार बार के तबादलों से हैरान था. एक पोस्ट  पे बैठा बैठा रिटायर हो गया. भगवान के द्वारे पर न्याय का विश्वासी  उसे अपने जीवन काल में कभी न्याय मिला हो उसे याद नहीं भगवान की अदालत का इंतज़ार करता वो वाक़ई कितना धैर्यवान दिखता है अब जो बात बात पे उलझा करता था .                

               सात बच्चों का बाप आज़ औलादों से कोसा जा रहा है-"वर्मा जी भी तो बाप हैं उनके भी तो आपसे ज़्यादा औलादें थीं सब एक से बढ़कर एक ओहदेदार हैं..एक तुम थे कि ढंग से हायरसेकंड्री भी न पढ़ा पाए..वो तो नाना जी न होते तो .!" फ़ूला के मरने के बाद एक एक कर औलादों ने  बाप से विदा ली. वार त्यौहार बच्चों की आमद होती तो है ऐसी आमद जिसके पीछे  बच्चों का लोकाचार छिपा होता है. बूढ़े को लगता है कि घर में उसके औलादें नहीं बल्कि औलादों की मज़बूरियां आतीं हैं.
           अस्सी बरस की देह ज़रा अवस्था की वज़ह से ज़र्ज़र ज़रूर थी पर चेहरा वाह अदभुत आभा मय सच कितना अच्छा दीप्तिमान चेहरा चोरों के चेहरे चमकते नहीं वो चोर न था लुटेरा भी नहीं एथिक्स और सीमाओं की परवाह करने वाला रिटायर्ड बूढ़ा आदमी दुनियां से नाराज़ भी नहीं दिखा कभी होता भी किस वज़ह से उसकी ज़िंदगी को जीने की एक वज़ह थी हर ऊलज़लूल स्थिति से समझौता न करने की प्रवृत्ति . और यही बात इंसान को पुख्ता बनाती है. दफ़्तर से बच्चों के लिये स्टेशनरी न चुराने वाला हर हस्ताक्षर की क़ीमत न वसूलने वाला व्यवस्था से लगातार जूझता रहा. किसी भी हैल्लो पर न हिलने वाले बुज़ुर्ग ने बताया था – क्या बताएं.. एक बार आला अफ़सर से उसके तुगलक़ी फ़रमान को मानने इंकार करने की सज़ा भोगी सड़ता चला गया एक ही ओहदे पर वरना आज मैं “….” होता…!
मैने पूछा-’दादा, क्या हुआ था..?’
वो-“कुछ नहीं मैनें उसे कह दिया था.. बेवज़ह न दबाओ साहब, मैं मैं हूं आप नहीं हूं जो एक हैलो से हिल जाऊं..!
-मैं-“फ़िर..?”
वो-“फ़िर क्या, बस नतीज़ा मेरा रास्ते लगातार बंद होने लगे कुछ दिन बिना नौकरी के रहा फ़िर आया तो माथे पे कलंक का टीका कि ये.. अपचारी है..?”
 आज़ वो बूढ़ा मुझे अखबार के निधन वाले कालम में मिला “श्री.. का दु:खद दिनांक .. को हो गया है. उनकी अंतिम-यात्रा उनके निवास से प्रात: साढ़े दस बजे ग्वारीघाट के लिये प्रस्थान करेगी-शोकाकुल- अमुक, अमुक, तमुक तमुक.. ..कुल मिला कर पूरी खानदान लिस्ट ..”
 ड्रायवर चलो आज़ आफ़िस बाद में जाएंगें पहले ग्वारीघाट चलें. रास्ते से एक माला खरीदी . शव ट्रक से उतारा गया मैने माला चढ़ाई चरण-स्पर्श किया बिना इस क़ानून की परवाह किये लौट आया कि दाह-संस्कार के बाद वापस आना है. सीधे दफ़्तर आ गया .
  ड्रायवर बार बार मुझे देख रहा था कि मैं आज़ स्नान के लिये घर क्यों नहीं जा रहा हूं…अब आप ही  बताएं किसी पवित्र निष्प्राण को स्पर्श कर क्या नहाना ज़रूरी है..?

22.4.12

हरि रैदास की रोटियां....

रोटीयों पर लिखी नजीर अकबराबादी की   नज़्म  तो याद है न आपको  नजीर साहेब  का नज़रिया साहित्य के हिसाब किताब से देखा जाए तो साफ़ तौर पर एक फ़िलासफ़ी है.. 
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों[1] से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
         जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।
रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
         सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।
                                      
                        अदभुत है.. सच मुझ से दूर नहीं हो पातीं वो यादें...  जब रेल की पटरियों  का काम करने वाली गैंग वाले मेहनत मज़दूरों के पास न चकला न बेलन बस हाथ से छोटी सी अल्यूमीनियम की छोटी सी परात में सने आटे के कान मरोड़ कर एक लोई निकाल लेते हाथ गोल-गोल रोटियां बना देते थे.उधर पतले से तवे पर रोटी गिरी और आवाज़ हुई छन्न से पलट देता मज़दूर रोटी को  खुशबू  बिखेरती रोटी ईंट के चूल्हे में जवां आग जो रेल पातों के स्लीपर  वाली लकड़ी या आसपास के पेढ़ से जुगाड़ी लकड़ी की वज़ह से इतराती थी से जा मिलती थी. रोटी के चेहरे पर काले दाग हो जाया करते पर मोटी ताज़ी रोटी दूसरी तीसरी चौथी... दसवीं तक बनाया करते मज़दूर ढांक लेते थे झक्क सफ़ेद कपड़े में और फ़िर आलू बैगन का रसीला साग मुझे लगातार वहीं रोक लेता था उधर मां बार बार पुक़ारती होगी इस बात से बेसुध होता था तब . फ़िर अचानक नौकर खोजने आता गोद में उठा कर वापस घर ले आता रास्ते में समझाना नहीं भूलता-"पप्पू भैया उनके पास काय जात हौ रोज.. कल जाहौ तो बाबूजी से बता दैहों.."
 बाबूजी के डर से एकाध दिन नहीं जाता पर फ़िर रोटियां खींच लेतीं थी मुझे उन तक उनके डेरे में जा बैठता. वे भी किस्से-कहानी सुनाते रोटी बनाते बनाते .एक बार मैने कहा-"हरि चाचा मुझे भी दो..रोटी.."
हरी हक्का बक्का मुझे एकटक देखता रहा फ़िर जाने क्या सोचा बोला-"ब्राह्मण के बेटे हो मैं अछूत हूं न भैया जे पाप न कराओ तुम..?"
   ये अछूत क्या होता है..? मेरे सवाल का ज़वाब न दिया हरि ने.. मुझे लगा ये मुझे रोटी नहीं खिलाने का कोई बहाना बना रहा है..
    पर मन में बसी मज़दूर की भीनी भीनी खुशबू वाली रोटियां खाने का मन था सो मैने कह दिया तुम हब्सी हो गंदे हो कट्टी तुमसे.. और लौट आया घर मन ही मन क़सम खा के कि अब न जाऊंगा उस गंदे आदमी के डेरे तक. बहुत दिनों तक गया भी नहीं. फ़िर जब सुना कि दफ़ाई वाले कुछ दिन बाद जाने वाले हैं मैं मिलने गया इस बार हरी के पास न बैठा उसके पास वाले साथी के पास जा बैठा वो भी रोटियां वैसी ही बनाता था खुशबू वाली . उसे सब महाराज कहते थे 
    महाराज ने भी किस्से कहानी सुनाए.. हरी देखता रहा मुझे हंसा भी मुस्कुराया भी .. और फ़िर बोला -’महाराज, पप्पू भैया को रोटी खिला दो..

  महाराज ने मुझे एक रोटी थोड़ा सा साग दिया मैने खाया भी.. वो अदभुत स्वाद आज तलक तलाशता हूं इन रोटियों में  . बहुत दिनौं के बाद पता चला कि हरि ने मुझे रोटियां क्यो नहीं खिलाईं थीं. हरि जाति से रैदास थे.. उफ़्फ़ क्या हुआ थी उनको जो अन देखे वाले भगवान को भोग लगाते थे एक टुकड़ा गाय को एक कुत्ते को खिलाते थे मुझे कान्हा बुलाते थे फ़िर क्यों उनने मुझे तृप्त न किया.. अब तो शायद वे होंगे भी कि नहीं इस दुनियां में कौन जाने कहां होंगे ? दिहाड़ी मज़दूर थे..रेल्वे के .
उनकी बनाई रोटी अभी भी जब याद आतीं हैं तब मैं घर में मोटी रोटीयां बनाने को कहता हूं रोटियां  बनती तो हैं पर वो  सौंधी सौंधी खुशबू.. वो स्वाद जो बज़रिये महाराज़ मुझे मिला था आज तक नहीं मिला.. !!


12.1.12

नन्हां दिन जाड़े का


मेरा ट्रेनिंग कालेज 


जनवरी-दिसंबर 1996 की यादें आज ताज़ा हो आईं .नौकरी में ट्रेनिंग की ज़रूरी रस्म के लिये  लखनऊ के  गुड़म्म्बा गांव में हमें  ट्रेनिंग कालेज . ट्रेनिंग के लिये भेजा सरकारी फ़रमान का अनादर करना हमारे लिये नामुमकिन था. सो निकल पड़े . जाते वक़्त ये याद न रहा कि उत्तर भारत में गज़ब जाड़ा पड़ता है.  सुईयां चुभोती शीतलहर और उत्तर भारत के जाड़े का एहसास मेरे लिये बिलकुल नया था सच इतनी सर्दी से मुक़ाबले का मौका मेरे लिये पहला ही था.


   इतनी सर्दी कि शरीर को गर्म रखना मेरे लिये एक भारी आफ़त का काम था. वो लोग जिनको जाड़ा जाड़ा महसूस न होता उनको देखना मेरे लिये अचम्भे की बात थी.जाड़ा तो जबलपुर में भी गज़ब होता है पर हिमालय को चूम के आने वाली हवाएं बेशक हड्डियों तक को बाहर पडे़ लोहे के सरिये की तरह ठण्डी जातीं थी वहां.उस दिन जब मेरा सब्र टूट गया तब मित्र ने कहा भाई कुछ लेते क्यों नहीं..?
    उस रविवार लखनऊ घूमने की गरज़ से हम दोस्त विक्रम पे सवार हो निकल पड़े खूब पैदल घूमें चिकन के कपड़े खरीदे सोचा रिक्शे की सवारी कर लें जबलपुरिया रिक्शों से अलग लखनवी रिक्शे छोटे और बहुत सस्ते थे पांच किलोमीटर तक घुमाया था उसने मालूम है हम दो लोगों से भाड़े के नाम पर कितना लिया..? बस दो -दो रुपये मैने कहा-अशोक भाई ये क्या मांग रहा है, बूढ़ा रिक्शे वाला घबरा गया था मेरे सवाल को सुन बोला सा’ब, एक रुपया कम देदो..! 
     हम हंस दिये जेब से दस का नोट निकाला और दे दिया रिक्शे वाला बोला-"छुट्टा नईं है साब," अशोक जी बोले मांग कौन रहा है दादा जाओ तुमको दस देना चाहते हैं. हमारे चेहरे ताक़ता बूढ़ा गोया नि:शब्द आभार कह रहा हो. गुड़म्म्बा का नाई भी दो रुपये में दाढ़ी-कटिंग-चम्पी करता था. 
 जाड़े से बचने के लिये दो घूंट अल्कोहल .फ़िर खुद ब खुद बोला.. न भाई न हम लोग हास्टल के नियम भंग क्यों करें . बाज़ार से बोरे खरीद लाए हम जमीन पे बिछाने न बिस्तर के नीचे बिछा लिये थे तब जाकर लगा कि बिस्तर सोने लायक है. रूम पार्टनर बोला-यार अगर रजाईयां जाड़ा न रोक पाएं तो क्या करेंगे ?
"रजाई और कम्बल के बीच लगा लेंगे बोरे हा हा हा "
    बाहर बर्फ़ीली हवाएं हिटलर ब्राण्ड डायरेक्टर साहब का हीटर पर प्रतिबंध लकड़ी फ़ाटे से गुरसी जलाने का ज्ञान न होना कम ऊलन कपड़े यानी कुल मिला कर पिछले जन्म के पापों  की सजा भोगने जैसी स्थिति . उधर हर सुबह टाइम पे यानी नौ बजे  क्लास में पहुंचने की अनिवार्यता ..सोच रहा था किसी डाक्टर को सेट करके बीमारी के बहाने छुट्टी चला जांऊं रूम पार्टनर बोला -"यार, साला इधर के मेडिकल कालेज में भर्ती करा दिया इन लोगों ने तो घर वाले भी बेक़ार परेशान हो जाएंगे" सो हमने अपने पलायन का विचार किनारे रख दिया. एक दिन यानी 15 दिसम्बर के आस पास बताया गया कि अब गांव में जाना होगा हम सबको. रोज़ सुबह आठ बजे बस रवाना होगी . तय शुदा कार्यक्रम के मुताबिक हम अगले दिन गुड़म्म्बा और कुर्सी रोड के बीच के गांवों में छोड़ दिये गये जहां हमको आंगनवाड़ी सहायिकाओं, कार्यकर्ता से लेकर मातहत सुपरवाईज़र के काम देखने थे. 
          इस दौरान होम-विज़िट भी पाठ्यक्रम के मुताबिक़ करनी होती थी. उस गांव में सभी लोग मज़दूर थे मर्द बाहर काम पे जाते थे औरतें चिकन वर्क करतीं . मंहगे दामों में बाज़ार में बिकने वाले चिकन वर्क वाले कपड़ों को खूबसूरत बनाने वाले धंसी आखों वाले जिस्म उन औरतों के थे जो दिन भर में एक दो कुर्ते तैयार कर पातीं थीं . एक लड़की जो वहां की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता थी ने  मुझे सब कुछ बताया गांव -स्वास्थ्य सुविधाएं, पानी, बिजली सब के बारे में बताया. मैने पूछ ही लिया-"तुम कम से कम ग्रेजुएट तो हो मुझे लगता है "
आंखों में उदासी छा गई फ़िर अचानक बोली-"हां सर, बी एस सी सेकण्ड के आगे न पढ़ सकी"
तभी अंदर से आवाज़ आई -"बेटा भीतर भेज दो साहब को"
   दलान में जूते उतार जब कमरे में गया तो बिस्तर पर पड़ा एक अधेड़ जो किसी दुर्घटना का शिक़ार लगता था  सम्मान से आगवानी के लिये उठ बैठने की असफ़ल कोशिश करने लगा. उसके बिस्तर का मुआयना करने पर पाया खटिया उसपर पुआल बोरा एक गंदा सी गद्दा उस पर मैली चादर फ़िर वह आदमी. पास ही में गुरसी जिसकी आग उसकी बेटी बार बार चेताने ही जाती होगी. गुरसी में आग थी किसी मुद्दे पर वो कुछ कहना चाह रहा था पर मौन मुझे देख रहा था फ़िर अचानक बोला-"ट्रेनिंग पे आए हो ?"
"हां"
किधर से बाबू..
मध्य-प्रदेश से..जनते हो..
हां जबलपुर गया था एक बार 
हां, मैं वहीं से हिइं..
हम कायस्थ हैं..
अच्छा आप किस बिरादरी के हो 
तबी लड़की चाय ले आई 
बिरादरी से ब्राह्मण हूं पर शादी शुदा हूं 
कोई कायस्थ है ट्रेनिंग में तुम्हारे साथ..
हां, एक तो बिहार का, डिप्टी कलेक्टर है. 
उसे लाना बेटा 
पर वो भी शादी शुदा है
    ओह तब ठीक है भगवान की जैसी मर्जी. 
अगले दिन मैं फ़िर उसी गांव में गया उस लड़की से पूछा-"तुम्हारे पिता बहुत परेशान हैं उनका इलाज़ हो तो सकता है न ..?"
 हां, हो सकता है साहब , उनको मुआवज़े के दो लाख रुपए मिले थे बैंक में जमा रखते हैं बोलते हैं मेरे दहेज में खर्च करेंगे .
पता नहीं उस अधेड़ के संकल्प का क्या हुआ होगा 

19.11.11

ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर.

खास सूचना: इस आलेख के किसी भी भाग को  अखबार  प्रकाशित 21.11.2011 को ब्लाग के लिंक के साथ प्रकाशित कर सकते हैं.
ज्ञानरंजन जी
                          अनूप शुक्ल की वज़ह से डा. किसलय के  साथ उनकी पिछली१७ फ़रवरी २०११ को हुई थी तब मैने अपनी पोस्ट में जो लिखा था उसमें ये था "  ज्ञानरंजन जी  के घर से लौट कर बेहद खुश हूंपरकुछ दर्द अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूंनींद की गोलीखा चुका पर नींद  आयेगी मैं जानता हूंखुद को जान चुकाहूं.कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद  आएगी.  एककहानी उचक उचक के मुझसे बार बार कह रही है :- सोने सेपहले जगा दो सबकोकोई गहरी नींद  सोये सबका गहरी नींदलेना ज़रूरी नहींसोयें भी तो जागे-जागेमुझे मालूम है कि कईऐसे भी हैं जो जागे तो होंगें पर सोये-सोयेजाने क्यों ऐसा होताहै
                   ज्ञानरंजन  जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में विचारधाराएं अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बनेइस  तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था इसीबात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़रआती है :-  आगे पढ़ने "“ज्ञानरंजन जी से मिलकर…!!”" पर क्लिक कीजिये" कुछ ज़रूरी जो शेष रहा वो ये रहा .... 
              ज्ञानरंजन के मायने पहल अच्छा लिखने की सच्चा लिखने की एक  अच्छे लेखक जो अंतर्जाल को ज़रूरी मानते तो हैं किंतु उनकी च्वाइस है क़िताबें. किसी से बायस नहीं हैं ज्ञानरंजन तभी तो ज्ञानरंजन है.. एक बार मेरी अनूप शुक्ला जी डा०विजय तिवारी के साथ उनसे हुई  एक मुलाक़ात में उनका गुस्सा राडिया वाले मामले को लेकर लेकर फ़ूटा तो था बिखरा नहीं साफ़ तौर पर उन्हौने समझौतों की हद-हुदूद की ओर इशारा कर दिया था .. गुस्सा किस पर था आप समझ सकते हैं ..ज्ञानरंजन कभी टूटते नहीं बल्कि असहमति की स्थिति में  इरादा दृढ़ और अपनी  गति तेज़ कर देते हैं.पूरे ७५बरस के हो जाएंगे २१ नवम्बर २०११ को इस अवसर पर  नई-दुनियां अखबार का एक पूरा पन्ना सजाया है . 
                     मेरे  बाद मेरे नातेदार भाई मनोहर बिल्लोरे जी का संस्मरणालेख प्रस्तुत है....
      ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर. घर के पास ही संजीवन अस्पताल. यह 'घर पूरे देश और विदेश का भी - सांस्कृतिक केन्द्र है. यहाँ ग्रह-उपग्रह से जुड़ा कोई भारी उपकरण नहीं, टीवी, मोबाइल के सिवाय. पर खबरें... खबरें यहाँ पैदल,साईकिल,रिक्शे से लेकर इन्टरनेट तक के माध्यम से हड़बड़ाती दौड़ती-भागती चली आती हैं और हवा में पंख लगाकर जबलपुर की फिज़ा में उड़ने लगती हैं. हम रोज मंदिर की सुबह-शाम या एक बार यहाँ भले न जायें, पर हफ़्ते में दो तीन बार जाये बिना चैन से रह नहीं सकते. और यदि कतिपय कारणों से न जा पायें तो ज्ञान जी का फोन आ जायेगा - 'क्यों क्या बात है - आ जाओ जरा. और हम दौड़ते-भागते 101 नम्बर रामनगर हबड़-दबड़ पहुँच जाते हैं. - 'क्यों कोई खास बात, कहाँ थे, क्या कहीं बाहर चले गये थे.मेरी पहली मुलाकात कथाकार, पत्रकार, पर्यावरण कर्मी, सक्रियतावादी और अब अनुवादक भी - राजेन्द चन्द्रकांत राय, के साथ उनके अग्रवाल कालोनी वाले दूसरे तल पर बने उस छोटे से आयताकार आश्रम में - जिसमें नीचे एक मोटा किंतु खूब मुलायम गद्दा बिछा रहता और दो ओर पुस्तकों से भरी पूरी सिर की ऊँचाई तक पुस्तकों से अटी खुली अलमारी एक ओर टिकने की दीवार और चौथी ओर घर में भीतर की ओर खुलने वाला दरवाजा था. पत्रिकाओं-पुस्तकों के यहाँ-वहाँ लगे ढेर अलग. यहाँ-वहाँ बिखरे रहते. मैं जाता और चुपचाप बैठा लुभाता, पुस्तकों के नाम पढ़ता रहता. जब कभी कोई पत्रिका या पुस्तक ले आता और पढ़कर लौटा देता. सिलसिला चल निकला. वहीं पर दानी जी और इंद्रमणि जी से पहली मुलाकात हुई और बाद में मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, जो आज तक मुसलसल जारी है.
 उन दिनों रचनात्मकता का भूत सा मुझ पर सवार था. जो लिखता वह मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता. एक गलतफहमी अंदर भर गई थी कि जो मैं लिख रहा हूँ वह मुझे नामवर बना देगा. पर उसमें भावुकता बहुत भरी थी - इसका मुझे बहुत धीमे-धीमे कई सालों में अहसास हुआ. उसी समय मैंने गीता का अपने ही भावुक छंद में हिंदी में काव्यानुवाद सा किया था. मैंने उसके दूसरे अध्याय की एक-एक फोटोकापी ज्ञानजी और इन्द्रमणि जी को दी थी - उसी आयताकार छोटे कमरे में - जिसे देखकर उन्होंने चुपचाप रख लिया था. इंद्रमणि जी ने ज़रूर गीता पर अपनी कुछ टिप्पणियाँ दी थीं, अनुवाद पर नहीं. फिर मैंने भी     कभी उस बावत बात नहीं की. इससे पहले मैं किसी ठीक-ठाक ठिये की तलाश में भटक रहा था जो सामूहिक रचनात्मकता का केन्द्र हो. चंद्रकांत जी तो साथ थे ही, पर वे मजमा नहीं रचाते थे. हाँ निरंतर लिखने-पढ़ने रहते. उस समय उनका राजनीति के प्रति रुझान भी बड़ा गहरा था जो उनके लेखन की गति को अवरुद्ध किये रहता था. मैंने देखा कि शहर में हर साहित्यिक केन्द्र पर गंडा-ताबीज बांधन-बंधवाने, का रिवाज सा था. 'जब तक गंडा बंधवाकर पट और आज्ञाकारी शिष्य न बन जाओ और आज्ञाकारी की तरह दिया गया काम न करो आपकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया जायेगा और तब तक आपके लिखे-सुनाये पर वाह तो क्या आह भी नहीं निकलेगी, हाँ तुम्हारी कमियाँ और कमजोरियाँ खोद-खोद कर संकेतों-सूत्रों में आपके सामने पेश की जाती रहेंगी. 
           बहरहाल भटकाव जारी रहा. इनमें से कुछ अडडे तो ऐसे थे कि उन पर मौजूद चेहरे ही वितृश्णा पैदा करते थे. उनसे विद्वता तो बिल्कुल भी नहीं शातिरपन रिसता-टपकता रहता था और समर्पण  करने से रोकता-टोकता रहता था. इतनी महत्वाकांक्षा खुद में कभी नहीं रही और आत्मसम्मान इतना तो हमेशा बना रहा कि कुछ प्राप्ति के लिये मन के विपरीत साष्टांग लेट सकूं. हाँ, अग्रज होने और उसमें भी विद्वता की खातिर किसी के भी पैर छुए जा सकते हैं. पर वह भी तब जब निस्वार्थता और गहरी आत्मीयता महसूस हो तब.          
       बहरहाल, चंद्रकांत जी किशोरावस्था से ही स्तरीय पढ़ने और सक्रिय विधार्थी जीवन जी रहे थे अत: उनके अनुभव ज़मीनी थे और उन्होंने कम उम्र में ही मुख्य धारा को समझने और उस ओर रुख करने का सहूर और सलीका आ गया था जो मुझमें बहुत बाद में बहुत धीरे-धीरे आया पर अब भी पूरी तरह नहीं आया है. स्वभाव का भी    फर्क रहा. वे बहिर्मुखी अधिक रहे और मेरी अंतर्मुखता अभी तक मेरा पीछा नहीं छोड़ पा रही. धीरे-धीरे वे मेरे 'भैया बन गये. उनसे मुझे हमेशा आत्मीयता का भाव मिलता रहा है. मनमुटाव कभी नहीं हुआ, हाँ जब कभी हल्के-दुबले मतभेद किसी मुद्दे को लेकर ज़रूर रहे पर वे भी बहुत जल्दी उनकी या मेरी पहल पर कपूर की तरह काफूर हो गये. अब तक मैं तीस से अधिक वसंत पार कर चुका था और भावुकता से लबालब भरा था. चंद्रकांत जी को जब भी मैं कुछ लिखकर दिखाता या सुनाता तो कोर्इ विपरीत टिप्पणी नहीं करते, 'ठीक है, या इसे एकाध बार और लिखो. कहकर आगे बढ़ जाते.
                  यह सन 91-92 के आसपास की बात है. मैंने एक कविता लिखी, और जैसा कि अमूमन होता था, कुछ भी लिख लेने के बाद चंद्रकांत जी को लिखी गयी कविता सुनाने का मन हुआ अत:   उनके घर - जो पास ही था, चला गया. नीचे दरी पर बैठे अधलेटे वे कुछ पढ़ रहे थे. संबोधित हुए तो मैंने एक कविता पूरी करने की बात कही. उन्होंने सुनाने की बात कही और बैठ गये. मैंने कविता सुनाई तो उन्होंने कहा - 'यह तो बहुत अच्छी कविता है. इसे एकाध बार  और लिखोगे तो यह संवर जायेगी. हम बात कर ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उस समय मोबाइल नहीं टिनटिनाते थे. चंद्रकांत जी ने बातचीत के दौरान ज्ञान जी के पूछने पर कि 'क्या कर रहे हो? -  बताया - 'बिल्लौरे जी ने एक बहुत बढि़या कविता लिखी है, वही सुन रहा था. तो ज्ञान जी का उत्तर था - 'यहीं चले आओ हम भी सुनेंगे. कहकर फोन रख दिया. हम दोनों आनन-फानन में जेपीनगर से ज्ञान जी के घर 101 रामनगर पहुँच गये. उन्होंने वह कविता सुनी नहीं, लिखी हुई कविता ली और उलट-पलट कर देखी. पहले अंतिम भाग पढ़ा, फिर ऊपर, फिर बीच में देखकर एक बार फिर षुरू से आखीर तक पुन: नज़र दौड़ार्इ और बोले - 'यह तो पहल में छपेगी. कहकर उन्होंने पन्ना लौटा दिया और कहा - 'तीन चार कविताएं और इसके साथ दे देना अगले अंक के लिये. और वह कविता तीन और कविताओं के साथ पहल के 46 वें अंक में सन 92 में प्रकाशित हुर्इ. यह मेरा किसी भी साहित्यिक-पत्रिका में छपने का पहला अवसर था. और षायद मेरे साहित्यिक जीवन की षुरूआत भी यहीं से मुझे मानना चाहिये. इसक पहले तो बस लपड़-धों-धों थी. मेरी रचनात्मक प्यास ने तब फिर कभी नहीं सताया. बस एक और दूसरी प्यास और भूख भी जागने लगी - अच्छा पढ़ने और उसे पाने की, जो अब तक मुसलसल जारी है और मिटती नहीं, बढ़ती ही जाती है, जितना खाओ-पीओ या कहें पीओ-खाओ. एक और बात थी ज्ञान जी के यहाँ निर्द्वंद्व जाने की. भाभीजी की स्वागत मुस्कान और आगत चाय-पकवान तथा पाशा-बुलबुल का स्नेह. उनकी सहज सरलता, अपनत्व और वहाँ आने जाने वाले स्तरीय लोगों से मेल मुलाकात तब मिलता रहा. यह सिलसिला अब तक जारी है और ताजिंदगी रहेगा ऐसा मेरा प्लेटिनिक-विश्वास कहता है.
       पाशा अब नागपुर में हैं और बुलबुल विदेश में. पाशा तो आते जाते रहते हैं और उनसे मेल-मुलाकात और फोन से बातचीत होती रहती है. कुछ काम-धाम की बातें भी. पर बुलबुल, बुलबुल का दरस-परस दुर्लभ हो गया है. अब तो एक और छोटी बुलबुल उनके पास आ गयी है. पिछली बार जब बुलबुल अमरीका से अल्पकाल के लिये आयी थी तो मेरे और मेरे घर के लिये भी चाकलेटों के दो बडे़ से पैकेट और पल्ल्व (बेटे) के लिये एक बहुत सुन्दर किताब भेंट में दी थी. जिसे अब तक सहेजकर मैंने अपने पास रखा है.
        ज्ञान जी की एक खास आदत ने भी मुझे उनकी ओर गहरे आकर्षित किया. वे न तो फालतू बातें कभी करते हैं और न ही उनमें उन्हें सुनने रुचि या क्षमता. वे काम और उसमें भी मुद्दे की बात वे करते सुनते हैं. बकवाद में उनकी रुचि बिल्कुल नहीं. हमेशा सजग, सतर्क और तत्पर ज्ञानेनिद्रयाँ. अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्य पर धारदार हमला, और अपने मिलने-जुलने वालों के भीतरी संसार की नियमित स्केनिंग उनके द्वारा होती रहती और नकारात्मक सोच देख सुन कर बराबर सचेत करते रहने का उनका उपक्रम कभी नहीं रुका, और अब तक जारी है. मुसलसल...
एक खास बात और - मैं उनके साथ पहल-सम्मानों के दौरान देष के छोरों तक के कर्इ षहरों में गया हूँ. हर जगह उन्हें खूब प्यार और दुलार देने वाले लोगों का समूह है. उनके हमउम्र, उनसे वरिष्ट तो उनसे प्रभावित रहते ही हैं, पर खास बात यह कि युवा लोंगों का स्नेह और प्यार उन्हें बेइंतहा मिलता है. कार्यक्रम की जिम्मेदारी स्थानीय टीम इतनी तत्परता और जिम्मेदारी से करती कि हम जबलपुर से पहुंचे कार्यकर्ताओं को अधिक दौड़धूप और मशक्कत नहीं करना पड़ती, बलिक मेहमान की तरह हमारा स्वागत और देखभाल की जाती. देष के हर शहर, कस्बे और गाँवों में तक ज्ञान जी का आंतरिक सम्मान और आदर करने और उनके इषारों को समझने और उन पर तत्परता से अमल करने वाले मिल जायेंगे. यह मैंने उनके साथ अपनी यात्राओं के दौरान महसूस किया.
और इस संस्मरण के अंत में इतना और कहने की गहरी इच्द्दा है कि मेरे साहित्यिक जीवन को दिषा देने वालों में राजेन्द्र चंद्रकांत राय के बाद यदि प्रमुखता से किसी और का नाम जुड़ता है तो वह है - ज्ञानरंजन. उनके दिशा-निर्देशों के बिना शायद में आज यह सब लिखने के काबिल न हो पाता और यह साहस भी न कर पाता.
 
मनोहर बिल्लोरे जी की कविता 
पिछले - 
कई सालों से
हम हैं विधार्थी
'पहल स्कूल के
पहली कक्षा के 
पहले पाठ में पढ़ा, हमने 
'वैज्ञानिक दृ्ष्टिकोण 
वह दृष्टि
अक्सर होती है जो - 
कम ही वैज्ञानिकों के पास 
वह कोण जो माप ही नहीं पाते 
अक्सर गणितज्ञ, और वह भाव
जिसका होता है अक्सर, अभाव
वहाँ, जहाँ उसे होना चाहिए
यहाँ मिलती है दृष्टि 
मापन... और होता है 
मूल्यांकन सतत...
फिजूल बातों को यहाँ 
एडमीशन नहीं मिलती जगह,
नहीं मिलता अवकाश, 
नाटकों को मिलती है यहाँ 
पर्याप्त जगह, नाटक-बाजी के लिये 
यहाँ कोई सीट खाली नहीं 
स्कूल में बने रहना है, तो
दूर और देर तक देखना सीखो
हर कोण पर ध्यान दो, 
जगह को अच्छी तरह परखो
अपने काम मगनता से करो
उत्साह और उमंग की बसाओ 
अपनी एक नई दुनिया 
 
आपके पास नहीं है 
गहराने की चाह तो उपजाओ,
अपनी जमीन को हलो-बखरो, 
दो खाद-पानी, बौनी करो
 कितने ही लोग डरकर 
भाग जाते हैं यहाँ से
कितने ही लोग भय से 
नहीं आ पाते यहाँ 
'पहल का 
पहला पाठ, हमने पढ़ा 
कई साल पहले, लगाकर 
खूब मन, बदला खुद को 
धीरे-धीरे, थोड़ा  ही सही,
बदला सुध-बुध को... 
एक  आकाश देखा, 
खुला... खुला, निगाहें
बंद कीं तो खुला अंत: आकाष
धुला-धुला, स्वच्छ, उजला
एक नदी बह रही है,
पास जाकर सुनो 
नदी कुछ कह रही है 
अगर... धीमे ही सही
सकारात्मक बदलाव की क्रमबद्ध 
निरंतरता और प्रमाणिकता को 
बनाये नहीं रख सकते, तो 
फेल हो जायेंगे आप परीक्षा में
बहुत कम नंबर मिलेंगे, और जो 
मिलेंगे वह भी मनुश्यता और
मानवीय-दृष्टि की बदौलत
आप का नाम स्कूल के 
दाखिल-खारिज़ रजिस्टर से
कट भी सकता है
जन-संस्कृति के बीज यदि
आप अपने अंदर नहीं उगा सके 
तो, कारण बताओ नोटिस 
मिल सकता है आपको
स्कूल के बाग में आपका 
जाना - आना,
हो सकता है प्रतिबंधित
हमेशा-हमेशा के लिये 
डूबकर बातें आपसे 
नहीं हो सकतीं उस तरह
जैसी हो सकती थी।
उस समय, उस जगह... 
हम पढ़ रहे हैं
और अच्छे नम्बरों से न सही
परीक्षाएं, कर रहे हैं पास
साल-दर-साल, हर साल
पिछले - 
कई  सालों से
        
मनोहर बिल्लौरे,1225, जेपीनगर, अधारताल,जबलपुर 482004 (म.प्र.)मोबा. - 89821 75385
मेल आई डी "मनोहर बिल्लोरे " या manoharbillorey@gmail.com 

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