29.10.22

मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश नहीं होता...!


   सिर्फ पूजा इबादत प्रार्थना से खुश नहीं होता
मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश  नहीं होता।
              *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
   तुम ईश्वर वादी हो मैं भी उसकी सत्ता को अस्वीकृत नहीं करता । कोई भी व्यक्ति उसकी सत्ता के बाहर नहीं। मुझसे यह मत पूछना कि-" नास्तिक भी...?"
   मुझसे मत पूछो इन लिखे हुए अक्षरों पर विश्वास मत करो। इसका अनुभव प्राप्त करो "अप्प दीपो भव..!"
  चलो जिद्द  कर रहे हो तो बता देता हूं हां सर्वोच्च सत्ता ईश्वर की है । उसे अस्वीकार्य करने वाला नास्तिक अपनी ओर से दावा कर रहा है न ईश्वर ने कहा।
  ईश्वर न होने का दावा तो आप भी कर सकते हो? मैं भी हम सब कर सकते हैं।
नास्तिक इसी आधार पर पूछते हैं- ईश्वर तत्व के अस्तित्व ही होने के कोई प्रमाण है क्या?

   हां मेरे पास प्रमाण है ईश्वर के। हो सकता है कि तुम उन्हें अपने तर्कों से भरे तरकश से तीर निकाल निकाल कर खंडित करने के प्रयास करो। मुझे इसका भय नहीं है।
किसी भी सृजन का एक सृजक होता है जिसे करता कहते हैं। जरूरी नहीं है कि वह व्यक्ति हो वह परिस्थिति भी हो सकता है? वह पावर भी हो सकता है कुछ भी हो सकता है। मैं तो उससे पावर के रूप में पहचानने की कोशिश करता हूं आप भी यही करते होंगे। सभी जानते हैं कि ईश्वर शक्तिमान सर्व शक्तिमान अनुभूति है। उसका आकार वजन विस्तार अर्थात उसका क्षेत्रफल कोई नहीं जान सकता परंतु भारतीय जीवन दर्शन और अध्यात्मिक दर्शन ईश्वर तत्व विस्तारित पाता है उसे कण-कण में व्याप्त होने के सिद्धांत को मानता है। आप किसी धर्म  संप्रदाय पंच कुछ भी कह सकते हैं कोई फर्क नहीं पड़ता। परंतु इतना तय है कि तत्व ही पूर्ण है। इसे समझने के लिए हम अपनी पूजन प्रक्रिया को देखें विशेष तौर पर पूजन प्रक्रिया के अंतर को देखें जब हम अपनी पूजन प्रक्रिया पूर्ण करते समय यही दोहराते हैं  न -
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
श्लोक का अर्थ क्या है ?
यही न कि अब पूजा पूरी हो गई है अब हमें अन्य कार्य करनी चाहिए ? यही सोच रहे हो न तो गलत हो ?
  इसका अर्थ यह है कि तुम आश्वस्त हो जाओ
सब कुछ उस पूर्ण पर छोड़ दो जो संपूर्ण विश्व का संचालन करता है। जीवन की दैहिक भौतिक जरूरतों को पूरा करो। ईश्वर ठीक ऐसे ही मेरा विश्वास है। ईश्वर की आराधना को लेकर पूजन प्रणाली या पूजन प्रणालियों का आप और हम अनुसरण करते हैं इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे अभी तो हम यह जान लें कि ईश्वर तत्व संपूर्ण विश्व में ही नहीं बल्कि अखिल ब्रह्मांड में सर्वोच्च सत्ता स्थापित करता है
..   पूर्ण और पूर्ण की पूर्णता ब्रह्म और ब्रह्म तत्व का एहसास है ईश्वर। श्लोक का अर्थ भी यही है शाब्दिक अर्थों में तो यही हुआ ना कि पूर्ण में से पूर्ण को निकाल दो तब भी पूर्ण बचेगा...!
   इस इस लोक का एक अन्य महत्वपूर्ण अर्थ भी है,,,,जो पूर्ण बचता है वह बचता नहीं है...! वास्तव में वह  पूर्ण ही है। ध्यान से समझो मैंने पूर्ण की बात की है जो पूर्ण है वही तो ईश्वर है और तुम्हें केवल पूर्णता का अनुभव बस करना है । तुम्हारे नास्तिक होने न होने से मेरा कोई सरोकार नहीं है। मेरा सरोकार तो केवल इस बात से है कि-" बस इतना जान लो कि आधा अधूरा अर्थात अपूर्ण कुछ भी नहीं था न है और न रहेगा। वैज्ञानिक अनुसंधान और  ने सिद्ध कर दिया है कि-" चंद्रमा सदैव पूर्ण रहता है लेकिन यह बेहद परीक्षण के बाद किया। पर पूर्ण विकसित ऋषियों के मस्तिष्क विज्ञान की खोज के पहले ही यह सिद्ध कर दिया था कि केवल प्रकाश का खेल है वरना चंद्रमा पूरे महीने भर प्रकाश दे सकता था। बहुत कम उम्र में एक कविता लिखी थी मुझे उस वक्त इस कविता का अर्थ भी नहीं मालूम था , उस कविता की एक पंक्ति है -
दर्पण के लघुत्तम कण
अर्पण के उत्तम क्षण
बिखर टूट जाते हैं।
हर कण में क्षण-स्मृति..
हर क्षण की कण - स्मृति..!
अक्सर तनहाई में
बाक़ी रह जाती है...
बाक़ी रह जाती है.. !
     जो ना तुम्हें दिखाना मुझे दिखा और लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में हो गई। जी हां मैं कोविड-19 के विषाणु की बात कर रहा हूं। चलो प्लेग की बात कर लेते हैं आपने देखा? नहीं देखा पर वह घातक था। बहुतेरे लोगों के प्राण हर लिए थे उसने। हां भई ! मैं कोविड-19 के विषाणु या 100 साल पहले फैले प्लेग के बारे में ही कह रहा हूं। चलो अनदेखा वायरस पोलियो जिस का शिकार मैं भी उसे भी तो किसी ने नहीं देखा क्यों नहीं दिखता वह अस्तित्व नहीं है ऐसा आप कैसे कह सकते हैं ?
   दुनिया में न कभी कुछ रुकेगा न ही कोई उसे रोक सकता है। बस कुछ बायोलॉजिकल   फिजिकल, कुछ मेंटल, सोशल पॉलीटिकल इकोनॉमिकल बदलाव ही होते हैं, ऐसे  हर एक बदलाव का अगले नवनिर्माण से सीधा संबंध होता है । लोग सोचते हैं कि-' हमारा स्वप्न टूट गया हम काम पूरा नहीं कर पाए।'
   कुछ लोग किसी को पराजित होता दिल उसे ही दोष देने लगते हैं। यह सब गलत बात है। सत्य तो यह है कि जिसे जो करना है जिसमें जिसे जो सफलता मिल गई है उसका मूल्यांकन करना किसी के बस की बात नहीं है। चलिए सीधे विषय पर लौटते हैं... जितना अब तक पढ़ लिया है उसे छोड़ दो भूल जाओ विराट को जानने के लिए आत्मज्ञान की जरूरत है। आपको याद है न.... बुल्ले शाह गली कूचे में गाता फिरता था..." बुल्ला की जाणा मैं कौन ?"
   विज्ञान अंतरिक्ष अंतरिक्ष खोजता है विज्ञान समंदर खोजता है पर विज्ञान एक बूंद पानी के रहस्य को नहीं जानता। जबकि योगी ध्यान मग्न होकर पृथ्वी से आकाश के पिंडो की दूरी का अनुमान लगा चुके थे। तुम कहते हो सूर्य सर्वशक्तिमान है, समझते भी होना? परंतु ऐसे अनंत सूर्य है जिनके अनंत ग्रह है उनके अनंत उपग्रह है विज्ञान कह रहा है मैं नहीं। तो ब्रह्म सकता है न इस वक्त तो है न बहुत दूर भटकने की जरूरत नहीं है। जान लो कि ब्रह्म निरंकार है ईश्वर तत्व यानी ब्रह्म महाशक्ति है। ब्रह्म का चिंतन करो बाहर नहीं मिलेगा ध्यान मग्न होकर निर्विकार देखोगे तो विश्वास के साथ कह दोगे-
सिर्फ पूजा इबादत प्रार्थना से खुश नहीं होता
मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश  नहीं होता।
     
     

26.10.22

ब्रेकिंग न्यूज़ की खूंटी से लटके टीवी चैनल्स

 *ब्रेकिंग न्यूज़ के खूंटी से लटके टीवी चैनल्स*
             गिरीश बिल्लोरे मुकुल
  25 अक्टूबर 2022 को लगभग डेढ़ घंटे के लिए व्हाट्सएप सेवाएं बाधित हुई हो सकता है कोई तकनीकी कारण रहा हो परंतु एक मुद्दा तुरंत मिल गया खबरिया चैनल्स को। मुझे तो लगा कि कहीं ऐसा ना हो कि शाम तक अगर व्हाट्सएप चालू ना हो तो पक्का राष्ट्रीय शोक की घोषणा करने के लिए सारे खबरिया चैनल एकजुट न हो जाए विराम
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद से एक दिन पहले तो ऋषि सुनक की खूंटी  पर सारे के सारे चैनल लटके नजर  आ रहे थे कि अचानक व्हाट्सएप की सेवाएं बंद हो गई लगभग एक घंटा 30 मिनट के आसपास खराब एवं अवरुद्ध सेवाओं के दौरान हंगामा खड़ा हो गया। पैनिक क्रिएशन इतना तेजी से हुआ कि- लोग घबरा गए. सभी जले हुए थे कि कहीं उनका डाटा गायब न हो जाए ?
ट्विटर पर मैंने लोगों को सलाह दी कि भैया कुछ घर परिवार के काम कर लो अगर व्हाट्सएप नहीं है तो थोड़ा सा रिलैक्स तो मिला। पर कहां लोगों की आत्मा बेहद कुंठित ही हो गई थी। हमारे खबरिया चैनल ने  एक दृश्य पैनिक क्रिएट कर दिया।
  एक ओर व्हाट्सएप चलाने वाली मेटा कंपनी के लोग हड़बड़ा कर सुधारने की कोशिश कर रहे थे, दूसरी ओर खबर-रटाऊ रुदाली चैनल्स ने अपने अखंड रुदाली होने का दायित्व निभाया। मुझे तो लगा कि कहीं अगर रात तक या एक-दो दिन व्हाट्सएप ना चला तो कहीं ऐसा ना हो कि सरकार को राष्ट्रीय शोक घोषित करना पड़े..!
   एक टेलीविजन चैनल तो परमाणु बम पटके जा रहा है। रोज वह समाचार बदल बदल कर बताता है कि -" विश्व परमाणु युद्ध के कगार पर है..!"
  आप सबको याद होगा स्वर्गीय राजू श्रीवास्तव ने इन चैनल्स के बारे में जबरदस्त कॉमेडी की है । आपको यह भी याद होगा कि  एक चैनल की महिला संवाददाता ने किसी महिला  आई एफ एस अधिकारी के मुंह में माइक लगा दिया और सवाल पूछने लगी। वैसे आपको एक बात मैं ऐसा बता दूं कि यह खबरिया चैनल महिलाओं के प्रति सकारात्मक भाव रखते हैं। दोपहर में सास बहू देवरानी जेठानी के कार्यक्रम उनके हाईलाइट दिखा कर मध्यमवर्गीय महिलाओं को बांधे रहने की ड्यूटी बखूबी निभाते हैं। जबकि शाम को पुरुष अगर समाचार देखना भी चाहे तो उसे सिवाय लड़ाई झगड़े के कुछ नहीं मिलता। चार-पाँच पैनलिस्ट आमंत्रित किए जाते हैं, जो वास्तव में खबरिया चैनलों के लिए एक तरह का प्रोडक्ट होते हैं उनके मुंह से जो चाहे उगलवाने में माहिर होस्ट कभी गंभीर विषय पर चर्चा करते नजर नहीं आए। शाम की डिबेट देखना पुरुषों के लिए बड़ा घातक तक हो जाता है। कई मित्र कहते हैं कि - "हमने टीवी देखना छोड़ दिया।" स्वाभाविक भी है लड़ाई झगड़ा देखते रहना किसे पसंद होगा।
   खबरिया चैनलों की रिस्पांसिबिलिटी है कि वे सुव्यवस्थित तरीके से कार्यक्रम प्रस्तुत कर संपूर्ण विषयों पर केंद्रित जानकारियां प्रस्तुत करें। परंतु उनके विषय फिक्स होते हैं। किसी खबरिया चैनल ने यह नहीं बताया कि केवल रुपया नहीं बल्कि विश्व की सभी करेंसी डॉलर के मुकाबले कमजोर होती जा रही है। अगर किसी ने दिखाया भी होगा तो भारत के वित्त मंत्री के भाषण के बाद। अर्थात कुल मिलाकर महत्वपूर्ण विषयों पर विशेषज्ञता ना होने के कारण खबरिया चैनलस कटघरे में खड़े हुए हैं। अगर आप गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि सामाजिक मुद्दों स्पेस ना के बराबर मिलता है। हमारे एक मित्र अक्सर कहते थे-" कुत्ते ने आदमी को काटा यह कोई खबर ही नहीं है, आप तो बताओ किसी आदमी ने कुत्ते को काटा हो तो? बढ़िया चटपटी खबर बनेगी।
   भारतीय मीडिया अब एग्रेसिव मीडिया हो गया है पश्चिमी मीडिया की तरह। हमें अनुशासन का ध्यान रखना चाहिए ताकि विजुअल जर्नलिज्म खतरनाक स्थिति तक ना पहुंच जाए। देखिए कब तक हम समाचारों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करते रहेंगे। खास तौर पर खबरीले चैनलस् को अनुशासन पर रहने की जरूरत है।

25.10.22

Rishi Sunak proved the claims of Winston Churchill wrong

Winston Churchill had said that the people of India cannot be politically strong and he is not capable of running this power. Rishi Sunak has proved this fact to be false. 
The most serious problem for the newly elected Prime Minister of Britain, Rishi Sunak, will be the energy crisis in Britain.
  The UK economy is going through a serious crisis these days.Our best wishes to Rishi Sunak and Sunak family on the occasion of Diwali. We are sure that Rishi Sunak will establish the image of an honest Hindu by taking England out of the crisis of the economy.Now no Prime Minister of India will have to go to England to praise the education system there.This is the second achievement that Indians have achieved political status in Europe.Rishi Sunak is the first Hindu after Kamala Harris to achieve this feat. Now no prime minister or political figure should feel ashamed of calling himself a Hindu, I hope so.
The situation in UK cities has become such that there is a very deep energy crisis.It would be wrong to consider white superior in the changing global situation.Rishi Sunak had provided stability to the UK economy in his capacity as Finance Minister and he made important contributions to deal with the problems of Kovid-19.The rate of Pound in Hindi in UK against Dollar is very low relative to India.Free trade agreement with India is also currently pending.Rishi Sunak has a plethora of problems as the Prime Minister.Britain is grappling with China's problems, including transportation, medical facilities, unemployment and public distrust of the government.How Rishi Sunak can conquer all the issues, it will be proved by his hard work and dedication.The Indian people will definitely like Rishi Sunak becoming the Prime Minister of the United Kingdom, but we should believe that a Prime Minister will work within his own limits.Under no circumstances will the British constitution be separated and it is necessary for them to do so.
   Rishi Sunak is basically used to taking tough decisions. He will not do anything that is against Britain's internal and international policy.
Rishi Sunak also has to deal with internal crises within the Conservative Party. On the other hand, power has to be protected from the aggressive attitude of the Labor Party.This is a different challenge.Overall, it is the goal of Rishi Sunak to establish himself in 2 years.If media reports are to be believed, it is known that when Boris Johnson wanted him to go to the post of Prime Minister again, but Rishi Sunak did not agree to his proposals. You must have heard that - "Later Boris Johnson found himself unsuitable as well.Boris Johnson said that he wants to be Prime Minister but at present he does not feel capable to fulfill this responsibility.That is, he wants to be the Prime Minister in a comfort zone. He also claims that he will definitely lead the party in the 2024 general elections.If Rishi succeeds even 50% in his tenure, then it is certain that Boris Johnson's dream will remain a dream.
Overall, you know that Rishi Sunak will definitely take some difficult decisions in the near future, apart from India, changes can be expected in his relations with South Asia and the Middle East.

24.10.22

नारी स्वातंत्र्य नहीं नारी सशक्तिकरण

 




    ईरान के घटनाक्रम को हम देखते हैं तो हमें एक नवीन क्रांति का प्रादुर्भाव होता दिखाई देता है। परंपराएं क्या है? परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए? परंपराओं में परिवर्तन और परिवर्द्धन के तरीके क्या है? इन सभी सवालों का उत्तर मैं अपने चिंतन के आधार पर यहां प्रस्तुत करना चाहता हूं
*परंपराएं क्या है*:- 

  परंपराएं समकालीन व्यवस्था के लिए प्रावधान हैं जो समय अनुकूल परिस्थिति मैं सम्यक रूप से लागू होती हैं। परंतु अगर परिस्थिति बदलती है और बदली हुई परिस्थिति में कोई परंपरा  लंबे समय तक अगर जारी रहती है अथवा इसे जारी रखा जाता है तो परंपरा -"रूढ़ी" के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
  इस क्रम में यह सुझाव अनुकूल है कि परंपराओं का विश्लेषण समय-समय पर होते रहना चाहिए और अगर परिवर्तनशील परिस्थितियों में परंपरा में
परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए यह सुनिश्चित किया जा सके, साथ ही साथ  परंपराएं कठिन परिस्थितियों का निर्माण ना कर पाऐं..!
  महिलाओं के संदर्भ में देखा जाए तो उनके लिए बनाए गए सारे नियम सनातन में अन्य संप्रदाय के सापेक्ष बेहद बहुविकल्पीय एवं परिवर्तनशील होते हैं। घूंघट प्रथा के बारे में विचार करें तो क्या आपको स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत में यह प्रथा आदिकाल से नहीं थी। पूर्व मध्यकालीन भारत से मध्य कालीन भारत तथा कुछ हद तक अफगानी एवं पूर्णतया चंगेज खान के काल में भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पर्दा प्रथा प्रारंभ हुई। अरब में चंगेज खान का आक्रमण बुर्का प्रणाली का जनक रहा है। चंगेज खान पूरे विश्व में अपने कबीले के डीएनए को विस्तारित करना चाहता था। वह असभ्य एवं बर्बर प्रजाति का लुटेरा था..न की चंगेज खान कोई मुसलमान था। चंगेज खान और उसकी सेना नहीं अरब में सर्वाधिक हिंसक एवं यौन शोषण संबंधी अपराधों को कारित किया था। उसके फलस्वरूप  ऐसी संताने जन्मी जो कुछ लोग कहते हैं कि मुगलों के रूप में बाद में प्रतिष्ठित हुई? यदि यह सही भी है अथवा नहीं भी तब भी महिलाओं की बाध्यता थी कि- "तत्सम कालीन परिस्थितियों में महिलाओं को परदे में रखा जाए।" यह एक मनोवैज्ञानिक और तात्कालिक आवश्यकताओं की परिणिति थी।

परंपराएं किस हद तक अपनाई जानी चाहिए

   भारतीय जीवन दर्शन के अनुसार परंपराएं ठीक उसी तरह से और ऊंची सीमा के भीतर स्वीकार करनी चाहिए जितना उसे सहने की क्षमता हो। उदाहरण के तौर पर अगर एक थैली में आप 5 किलो भार उठा सकते हैं तो आप उससे ही कम  या उसके बराबर हो जो थैली कि भार-क्षमता के अनुकूल हो। एक और विश्व में जहां महिला सशक्तिकरण और विकास में महिलाओं की सक्रिय एवं समानांतर भागीदारी सिद्ध हो रही है वही आप महिलाओं को विभिन्न प्रतिबंधों से अगर जोड़ेंगे तो उत्तर है कि विद्रोह और विवाद स्वभाविक है। हम जिस विषय पर चर्चा कर रहे हैं किसी धर्म संप्रदाय  डॉक्ट्रिन अथवा पंथ के निर्देश से संबंधित ना होकर वर्तमान सामाजिक आवश्यकताओं पर केंद्रित है। बदलते परिवेश में अगर आप और दबाव की स्थिति उत्पन्न करेंगे तो दबाव विस्फोटक होगा। और यह विस्फोट आपको भरेगी बुरा लगे परंतु यह विस्फोट परिवर्तन का आधार होता है। भारतीय सनातनी पौराणिक कथाओं में आपने देखा होगा कि अत्यधिक शारीरिक मानसिक हिंसा एवं दबाव की प्रतिक्रिया होती हैं। प्रतिक्रिया का परिणाम कभी-कभी भीषण और विप्लवी हो जाती है। फिर होता है विध्वंस और यही  विध्वंस एक नए निर्माण का प्रवेश द्वार है

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हिंसक क्रांति या होनी चाहिए रक्त पास होना चाहिए परंतु यह स्वभाविक घटनाएं हो सकती हैं अतः  सामाजिक व्यवस्था में धर्म एवं संप्रदायों के निर्देशों पर आधारित परंपराओं की आड़ में किसी भी तरह की अतिवादी परंपरा को प्रश्रय ना दिया जाए।

*परंपराओं में परिवर्तन और परिवर्द्धन के तरीके क्या है..*
   जैसा ऊपर बताया कि परंपराओं की निरंतर समीक्षा होनी चाहिए ऐसी स्थिति में परिवर्तन और परिवर्धन के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर इसे ऐसा समझिए कि यदि आप रोज वस्त्र को धोते हैं तो उसे आप हमेशा सच ही रखते हैं वरना आपको वस्त्र परिवर्तन शीघ्रतम करने की आवश्यकता पड़ती है। फिर अगर परिस्थिति वश आप किसी भी परंपरा का पालन करने के लिए बाध्य हैं तो उसके स्वरूप में उपलब्ध संसाधन एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन कर लेना सनातन व्यवस्था में प्रतिबंधित कदापि नहीं है। आपने देखा होगा कि हमारी बहुत सारी पौराणिक कथाएं बहुत सारे संकेत देती हैं। राजा हरिश्चंद्र एवं तारामती की कहानी बेहद उल्लेखनीय है। राजा हरिश्चंद्र डोम राजा के कर्मचारी हुए उनका काम था चिता के अंतिम संस्कार में सहायता करना तथा शमशान व्यवस्था के लिए कर अथवा शुल्क वसूल करना। तारामती के पुत्र का आकस्मिक देहावसान करने पर तारामती को अंतिम संस्कार करना था। सामान्यतः अंतिम संस्कार की प्रक्रिया दिन में निष्पादित की जाती है। रात्रि में निष्पादन न करने के बहुत सारे कारण हैं। यह कोई तांत्रिक बाध्यता नहीं है। अंतिम संस्कार रात्रि काल में भी हो जाते हैं और किए जा सकते हैं। सामान्यतः दिन में इसलिए यह कार्य कर आना चाहिए क्योंकि प्राचीन भारत में विद्युत उपलब्ध न थी रात्रि काल जटिल होते थे। कहने का आशय है कि सनातन विकल्प युक्त सामाजिक दक्षिणी एवं अध्यात्मिक व्यवस्था है। यहां तारामती ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया, तथा शुल्क स्वरूप साड़ी का हिस्सा फाड़ कर दिया। कुल मिलाकर व्यवस्था बिल्कुल साफ है कि-" श्मशान में नारी का जाना वर्जित है परंतु यह पूरी तरह से नहीं। अगर हिंदू धर्म में पूर्ण रूप से इस बात की वर्जना होती तो तारामती को शमशान जाना अनुचित था । अंतिम संस्कार का अधिकार केवल पुरुषों को है ऐसा नहीं अंतिम संस्कार का अधिकार परिवार की महिलाओं को भी होता है और यही महिला सशक्तिकरण का ही संकेत एक उदाहरण है जो प्राचीन व्यवस्था में समाहित है।


 

17.10.22

बुद्ध के विचारों के पुन: प्रचारित/स्थापना का प्रयास

 


बौद्ध मत : विस्तार सीमाएं तथा नव-बुद्धिज्म से आगे ....... 

    बुद्धिज्म  को स्वीकारना प्राचीन काल में स्वभाविक था. खासकर उन स्थानों पर जहाँ लोग एक झुण्ड के रूप में रहते थे, उनमें सभ्यता के विकास का तत्व मौजूद न था. भिक्खुओं ने उनकी जीवन शैली में आमूल-चूल परिवर्तन किया. 

     बुद्धिज्म के  बाहरी विस्तार को अवेस्ता और यवनों का दबाव के कारण रुक सा गया तथा भारत में  आतंरिक  परिस्थिति  को देखा जावे तो "सनातन व्यवस्था" का शुद्धि करण एवं पुनरीक्षण  प्रारम्भ हो गया. यही वो दौर था जब आदिगुरु शंकराचार्य का अभ्युदय हो चुका था. आदि गुरु ने बुद्धिज्म के अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना को समाप्त करते हुए अद्वैत-मत का प्रभावी प्रवर्तन किया. आदि-गुरु ने ही सनातन को सुदृढ़ किया उसे सांगठनिक स्वरुप-दिया. साथ ही  पूजा प्रणालियों  का एकीकरण तथा सरलीकरण किया. 

       अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना पर आम असहमति  :-   अन-ईश्वर वाद की परिकल्पना कोई भी जन सामान्य अस्वीकृत  करता है. ऐसा होना स्वाभाविक है. क्योंकि हर किसी को आप नास्तिक नहीं बना सकते . एक ओर विज्ञान ईश्वरीय तत्व की तलाश रहा है वहीं दूसरे छोर पर आप ईश्वर विहीन विश्व की परिकल्पना करें यह असंभव है कि कोई इस विचारधारा को सहज स्वीकार करे.   

 निरंतर जारी 

16.10.22

बौद्ध मत : विस्तार सीमाएं तथा नव-बुद्धिज्म

 

14 अक्टूबर 2056 को भीमराव अंबेडकर जी ने हिंदुत्व से स्वयं को पृथक किया था। आज 14 अक्टूबर 2022 है यानी आज से 66 वर्ष पूर्व से अब तक सिलसिला जारी है आज के दिन इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती ही है।

14 अक्टूबर 300 BCE में सम्राट अशोक  बौद्ध हुए थे। इसी दिन को अशोक विजयादशमी के रूप में भी  मनाया जाता है। 

बीबीसी के अनुसार दीक्षा ग्रहण करने का क्रम आज़ से 66 वर्ष से जारी है ,   परंतु यह अर्ध्दसत्य है पूर्ण सत्य है कि- 300 ईसा  पूर्व से जारी है। 

    महात्मा गौतम बुद्ध का जन्म 563 BCE में हुआ । उनको तत्व ज्ञान होने के उपरांत बुद्धिज़्म का प्रसार भी होने लगा । 

     बुद्ध के प्रवचनों का जन मानस पर सीधा एवम गहरा प्रभाव पड़ता था।  बौद्धमत, का विस्तार  भारत एवं विश्व के अधिकांश हिस्सों में हज़ारों साल पहले  होना प्रारम्भ हो चुका था। 

आप जानते ही हैं कि बुद्ध ने पंचशील का प्रवर्तन किया, उसका प्रबोधन भी किया. जो जन-मन मानस के लिए नया विज़न था . 

1. किसी जीवित वस्तु को न ही नष्ट करना और न ही कष्ट पहुंचाना।

2. चोरी अर्थात दूसरे की संपत्ति की धोखाधड़ी या हिंसा द्वारा न हथियाना और न उस पर कब्जा करना।

3. झूठ न बोलना।

4. तृष्णा न करना।

5. मादक पदार्थों का सेवन न करना।

फिर अष्टांग योग का प्रबोधन भी कम प्रभावी न था ...

बुद्ध मानते थे कि संसार में दु:ख के समापन के लिए बुद्ध ने आर्य अष्टांग मार्ग निर्धारित किया.........

1. सम्यक दृष्टि, अर्थात अंधविश्वास से मुक्ति।

2. सम्यक संकल्प, जो बुद्धिमान तथा उत्साहपूर्ण व्यक्तियों के योग्य होता है।

3. सम्यक वचन अर्थात दयापूर्ण, स्पष्ट तथा सत्य भाषण।

4. सम्यक आचरण अर्थात शांतिपूर्ण, ईमानदारी तथा शुद्ध आचरण।

5. सम्यक जीविका अर्थात किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार की क्षति या चोट न पहुंचाना।

6. अन्य सात बातों में सम्यक परिरक्षण।

7. सम्यक स्मृति अर्थात एक सक्रिय तथा जागरूक मस्तिष्क, और

8. सम्यक समाधि अर्थात जीवन के गंभीर रहस्यों के संबंध में गंभीर विचार। 

मेरे मतानुसार बुद्ध का यह लोक-दर्शन ही धम्म के लोक व्यापीकरण तेज़ी से हुआ है और होता भी है.   

 प्रमुख विस्तारक के रूप में प्रियदर्शी अशोक ने किया।  प्राचीन इतिहासकार  कहते हैं कि -" बुद्धिज्म बुद्ध के उपरांत  तेजी से राजाश्रय के साथ विकसित एवं विस्तारित हुआ है । श्रीलंका चीन हांगकांग, थाईलैंड, बर्मा जापान अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया के देशों सहित  इस विचारधारा ने विस्तार पाया। बौद्ध इसे धम्म कहते हैं। कई विचारकों का मानना है कि इस विचारधारा ने सीरिया तक विस्तार किया थाकिंतु अवेस्टा के प्रसार से इस विचारधारा को सीमित रहना पड़ा। यहां यह कहना एकदम सटीक नहीं है कि- "केवल अवेस्टा के कारण ही ऐसा हुआ। बल्कि इसके कई और कारण थे.. आइए देखते हैं हम कि और क्या कारण हो सकते हैं बुद्धिज्म के विस्तार के रुक जाने के...

 

   सबसे पहले बताना चाहता हूँ कि- धर्म में में एक विशेष गुण होता  है - कि इसका विस्तार सत्ता के जरिए न होकर दार्शनिक महापुरुषों के जरिए होता है, जबकि अन्य सभी संप्रदायों/मतों का विस्तार राज्य के प्रमुख द्वारा कराया जा सकता है और ऐसा हुआ भी है.। संप्रदायों की यह प्रवृत्ति स्वभाविक है।

सनातन के अलावा जैन केवल जैन मत ही एक ऐसा सोशल रिवॉल्यूशन कहा जा सकता है जो राजा महाराजाओं के दखल के बिना अथवा अल्प दखल से विस्तारित हुआ है।

  बौद्ध मत  को मानने वाले राजाओं ने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि बुद्धिज्म को भी विस्तार दिया।

बुद्ध के विचार सहज स्वीकार्य क्यों ?

महात्मा बुद्ध के सिद्धांतों में अहिंसा करुणा दया और आत्म विकास तपस्या समभाव  जो उपनिषदों का निचोड़ है के प्रचार करने के लिए प्रभावी कदम उठाने से बुद्धिज्म सरलता से जन सामान्य को स्वीकार्य हुआ। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि केवल बौद्ध भिक्षुको द्वारा ही विस्तार किया गया हो । गौतम बुद्ध के विचारों के विस्तार के लिए  राजश्रय से भी प्राप्त हुआ।

   दीर्घकाल में बुद्धिज्म में भी मानवीय महत्वाकांक्षा एवं लोकेशणा के चलते, बुद्धिज्म प्रभावित होने लगा। बुद्धिज्म में सब कुछ अति उत्तम होने के बावजूद भी एक और कमी थी जिसे सांस्कृतिक आकर्षण का अभाव कहा जा सकता है। परिणाम स्वरूप सामान्य व्यक्तियों ने इसे अस्वीकार करना प्रारंभ कर दिया। और यहीं से बुद्धिज्म का विस्तार रुकने लगा। मनुष्य के जीवन में व्यक्तिगत एवं सामूहिक उत्सव के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। उसे मनोरंजन भी चाहिए उसकी इंद्रियों के सुख की पूर्ति के लिए भी जीवन आवश्यक संसाधन जुटाना चाहता है। लेकिन वैराग्य का अतिरेक मनुष्य जीवन को जटिल बना देता है। शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति ना होने पर अर्थात डिजायर्स की पूर्ति का अभाव कुंठा को जन्म देता है। जीवन प्रणाली के लिए अनुकूलता के महत्व को अधिकृत नहीं किया जा सकता। शनै शनै बुद्धिज्म का स्थानीय विस्तार भौगोलिक एवं सामाजिक रुप से क्रमशः रुकता चला गया।

   वैसे यह सर्वव्यापी है कि-"बौद्धमत का आधार सनातन ही है". साथ ही एक बिंदु सनातन का असली संवाहक “सन्यासी ही नहीं बल्कि सद-गृहस्थ भी होता है.”

क्रमश: जारी अगले भाग में 

बुद्धके विचारों के पुन: प्रचारित/स्थापना का प्रयास  



11.10.22

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् : सलिल समाधिया अपने जन्म पर्व पर

हर जन्मदिन यह बता जाता है कि उम्र का गिनती (क्रोनोलॉजी) से कुछ लेना-देना नहीं !
इधर मेरे हमउम्र.. दादा, नाना हो चुके हैं, उधर मैं तरुणाई से एक वर्ष आगे न बढ़ा हूं. शायद यह क्वांटम फील्ड को मिली 'गुड कमांड' का असर है कि शरीर भी एकदम तरुण है, आवाज और हंसी भी, मन और भाव भी .
मैं अक्सर अपनी पोस्ट में जिस प्रेम और उल्लास की बात करता हूं उसका सैंपल मॉडल मैं स्वयं हूं. मुझे मिलने वाली उलाहनाओं में सबसे बड़ी उलाहना यही होती है कि  "अब बड़े हो जाओ."

मगर जीवन में सब कुछ अपने किए धरे से नहीं होता. बहुत कुछ पहले ही लिख दिया जाता है.
मेरा पूरा जीवन इस अनुसंधान में गुजरा कि 'हर हाल में मानसिक सुकून और खुशी को कैसे बरकरार रखा जा सकता है?'  तब, जबकि आप की पट्टिका में कुछ दुख भी लिखे जा चुके हों !

इस अनुसंधान में मैं दो प्रक्रियाओं से गुजरा.
एक - कोशिश करके जीना.
दूसरा - बिना कोशिश के जीना.
कोशिश करके जीना हमें सब ओर से सिखाया जाता है.  बिना कोशिश के जीना, स्वयं सीखना होता है.
कोशिश का जीवन..उद्यम है.
बिना कोशिश का जीवन..साधना है.
जीने के यही दो तरीके हैं - या तो तैरकर जियो या बहकर जियो.
मैंने दोनों तरह से जीकर देखा. मेरा अनुभव यह रहा कि तैरकर जीना लड़कर जीना है.  यह हमारी ऊर्जा को खा जाता है, यह हमें दूसरों के साथ निरंतर युद्धरत रखता है. इसमें दूसरे से भय है, उसके प्रति अविश्वास है, अलगाव है. 
हम अलग-अलग द्वीपों में रहते हैं और अपने-अपने द्वीप को महफूज करने में लगे रहते हैं.
यह शंका का जीवन है. 
शंका, निरंतर चेतना को कंपायमान रखती है और सिकोड़ देती है.
फिर ऐसा जीवन कितने ही पराक्रम का जीवन क्यों न हो, वह उदात्त नहीं है. वह प्रेम का जीवन नहीं है, वह चिंता और भय का जीवन है.

बेफिक्री का तो एक ही मंत्र है- समर्पण.

तो क्या समर्पण का अर्थ  यह है कि अब पराक्रम न होगा, बेहतरी के लिए कोई उद्यम न होगा ??
नहीं,
समर्पण की यात्रा ऐसी आसान भी नहीं.
समर्पण का एक ही अर्थ है- कर्ता की गैरमौजूदगी.
करनेवाले के हटते ही कर्म में अद्भुत निखार आ जाता है.
सबसे अच्छा खिलाड़ी वही होता है जो एफर्टलेस खेलता है.
सबसे सुंदर गीत लिखा नहीं जाता, उतर आता है.
वह आर्कमिडीज का 'यूरेका' हो कि न्यूटन का सेब, बुद्ध का बुद्धत्व हो  कि ऋग्वेद की ऋचा ..सारे अवतरण तब ही हुए हैं जब कर्ता ग़ैरमौजूद था.
योग में आसन की सिद्धि भी तभी बताई गई है जब साधक एफर्टलेस अवस्था में  हो. 
"प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्" 

मेरा अनुभव है कि यह दूसरा फार्मूला कारगर है. जो काम कोशिश से नहीं होता वह प्रार्थना से हो जाता है.
इस प्रार्थना ने तो सौ दफे मुझे माया में लिप्त होने से बचाया है. 
"भगवान मेरी नैया, उस पार लगा देना
अब तक तो निभाया है, आगे भी निभा देना
दल बल के साथ माया, घेरे जो मुझ को आकर
तो देखते ना रहना, झट आ के बचा लेना.

मैं अब वैसा ही जी रहा हूं जैसा जीवन का बहाव है. एक तृण-भर की इच्छा जो है तो बस यही कि बचा जीवन, कहीं नदी किनारे एक छोटी सी कुटिया बनाकर, संपूर्ण सजगता और ध्यान की गहनता उतर कर जिऊं.
यदि कोई प्रेमी मित्र मिलने आए तो अपने हाथों से भोजन पकाकर उसका सत्कार करूं.
तब नदी किनारे कहीं मौन बैठें या तत्व-दर्शन की गूढ चर्चा हो.

आह्ह ! आज फिर वही प्रार्थना याद आ गई जो जैसे मेरे हृदय की पुकार है.
इस प्रार्थना को स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी बहुत मीठा गाते थे -
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में।
है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में॥

यदि मानव का मुझे जन्म मिले तो प्रभु चरणों का पुजारी बनूँ 
और अंत समय में प्राण तजूँ, साकार तुम्हारे हाथों में, निराकार तुम्हारे हाथों में.

##सलिल##

6.10.22

"हाँ भई..नमक का दरोगा है गुजरात..!"

तथ्य संकलन एवं प्रस्तुति:गिरीश बिल्लोरे
        एक प्रोफेसर के एक ट्वीट ने हंगामा बरपा दिया है। महामहिम राष्ट्रपति  ने जब कहा कि भारत की 70% आबादी गुजरात का नमक खाती है। तो इस बात को अन्य अर्थों में ले जाते हुए पॉलिटिकल रंगों में रंगने की कोशिश करने वाले एक राजनीतिक दल के नेता ने महामहिम के वक्तव्य की न सिर्फ आलोचना की बल्कि उनके विरुद्ध अनाप-शनाप बातें  ट्विटर पर कर दीं।
मित्रों, वास्तव में भारत में नमक का दरोगा अगर है तो वह गुजरात ही है। गुजरात के जामनगर, मीठापुर, झाखर, चैरा, भावनगर, राजुला, गांधीधाम, कांधला, मालिया और लावणपुर.  सहित 15 जिलों में दैनिक उपयोग के नमक का उत्पादन होता है। जबकि तमिलनाडु में तूतीकोरिन, वेदारानयम, कोवलांग. आंध्र प्रदेश में चिन्नागंजम, इसकापल्ली, कृष्णापट्टम, काकीनाड़ा और नौपाडा. महाराष्ट्र में भांडप, भायंदतर और पालघर. ओडिसा में गंजम और सुमादी. पश्चिम बंगाल में कोंतेई

राजस्थान में झीलों  सांभर, नेवा, राजस, कुच्चाम, सुजानगढ़ और फलोदी हैं आदि झीलों में नमक की मौजूदगी है.
   जमीन के नमक उत्पादन कच्छ के रण में कारागोंडा, धरंगधारा और संथालपुर मैं होता है.
   पहाड़ियों पर भी नमक का उत्पादन किया जाता हिमाचल प्रदेश में  इसका उत्पादन होता है।
विश्व में नमक का उत्पादन करने वाले प्रथम तीन देशों में अमेरिका चीन और भारत का नाम है। भारत में सर्वाधिक नमक गुजरात के समुद्र तटीय इलाकों से उत्पादित होता है जिसकी आपूर्ति भारत की 70% आबादी के लिए की जाती है। पूरे देश में 11799 यूनिट है.
    
 जबकि आयुर्वेद मैं सबसे महत्वपूर्ण एवं व्रत उपवास करने वाले हर भारतीय साधक के मुंह में जाने वाला नमक जिसे हम सेंधा नमक के नाम से जानते हैं पाकिस्तान से ही आता है। इस लिहाज से तो हम सब पाकिस्तान का नमक खाते हैं। सेंधा नमक को लेकर पाकिस्तान और भारत के बीच एक ऐसी संधि है किसी भी परिस्थिति में इस नमक का आयात न तो भारत रोक सकता न ही पाकिस्तान निर्यात रोक सकता है। सेंधा नमक चट्टानी नमक होता है। आप सोच रहे होंगे कि भारत में सेंधा नमक का उत्पादन बिल्कुल नहीं होता ऐसा नहीं है,
सेंधा नमक राजस्थान के सांभर नामक झील से प्राप्त होता है। परंतु पाकिस्तान में सेंधा नमक के उत्पादन के सापेक्ष भारत में इसकी उत्पादन क्षमता और गुणवत्ता उतनी नहीं है जितनी पाकिस्तान से आने वाले नमक में है।
नमक को लेकर भारतीय फिल्म शोले का एक डायलॉग मुझे याद आ रहा है तेरा क्या होगा कालिया? सरदार मैंने आपका नमक खाया। तो फिर आपको याद होगा कि सरदार ने क्या कहा अब गोली खा. इसी तरह मुंशी प्रेमचंद नमक का दरोगा कहानी लिखकर ईमानदारी की पराकाष्ठा का आकलन प्रस्तुत किया था। कुछ लोग सैलरी मिलते ही सबसे पहले नमक खरीदते हैं। जबकि कुछ खीर में मिठास की समृद्धि को बढ़ाने के लिए चुटकी भर नमक डाल देते हैं। नमक कभी किसी के हाथ में नहीं दिया जाता वरना उस व्यक्ति से झगड़ा हो जाता है । नमक हलाल नमक हराम ई जैसे शब्द बड़े मायने रखते हैं। जबकि कुछ लोग ऐलान करते हुए सीना तान कर यह कहते हुए सुने गए कि-"मैंने तुम्हारा नमक थोड़ी खाया है जो तुम्हारी गुलामी करूंगा ..?"
   नमक का सीधा संबंध नैतिकता से जोड़ा जाता है यह सही है कि भारत में कुल खपत होने वाली नमक की मात्रा का लगभग 70% से अधिक हिस्सा गुजरात से आता है। गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री भी गुजरात से आते हैं गुजरात में महात्मा जी ने  नमक सत्याग्रह प्रारंभ किया था। भारत में नमक का उत्पादन बहुत पुराना है। आयुर्वेद में भी नमक के इस्तेमाल का विवरण प्राप्त है। कहने का अर्थ यही है कि-" सच में गुजरात भारत में नमक का दरोगा है। नमक को लेकर कुछ अवधारणाएं कुछ मिथक तथा कुछ भ्रांतियां हैं..! परंतु हमारे पॉलिटिकल विचारक अध्ययन करते हैं और बातें अधिक करते हैं। विगत 2 दिनों से एक विद्वान प्रोफ़ेसर जो पॉलिटिकल भी हैं ने महामहिम राष्ट्रपति जी के बयान पर सवाल खड़ा करने के लिए  ट्वीट कर दिया। इस समय उनके कारण सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ट्विटर का माहौल नमकीन सा हो गया है। इसके साथ साथ लोगों को बात करने का मौका भी नहीं दिया। जब तक पूरी जानकारी न हो तब तक हमें कुछ बोलना अथवा लिखना नहीं चाहिए। अब प्रोफेसर डॉ उदित राज के ट्वीट को ही देख लीजिए महामहिम पर सवाल उठाकर वह अब जनता के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। दशहरा मना कर फुर्सत हुई जनता सोशल मीडिया पर टिकलियां फोड़ते नजर आ रही है ।


  

4.10.22

जबलपुर का दशहरा : 400 वर्ष से अधिक पुरानी परंपरा (लेखक प्रशांत पोळ )

( प्रशांत पोळ एक सामाजिक विचारक इतिहास विद और चिंतनशील व्यक्ति हैं.)
  जबलपुर का दुर्गोत्सव यह अपने आप मे अनूठा हैं. *पूरे देश मे रामलीला, दुर्गोत्सव और दशहरा जुलूस का अद्भुत और भव्य संगम शायद अकेले जबलपुर मे होता हैं.*
  भारत मे 1857 का क्रांतियुध्द समाप्त होने के कुछ वर्ष बाद, अंग्रेजों ने बाॅम्बे  - हावडा रेल लाईन का काम शुरु किया. १८७० मे यह रेल लाईन प्रारंभ हुई. जबलपुर इस लाईन का महत्वपूर्ण स्टेशन / जंक्शन था. इस काम के सिलसिले मे अनेक बंगाली परिवार जबलपुर मे स्थाईक हुए. और 1872 मे पहली बार एक नई ऐतिहासिक परंपरा का आरंभ हुआ. बृजेश्वर दत्त जी के यहां दुर्गा देवी की मिट्टी की प्रतिमा स्थापित की गई. तीन वर्ष के पश्चात यह उत्सव अंबिकाचरण बंदोपाध्याय (बॅनर्जी) जी के यहां स्थानांतरीत हुआ. ठीक आठ वर्ष के बाद, अर्थात 1878 मे सुनरहाई मे कलमान सोनी जी ने बुंदेली शैली की दुर्गा प्रतिमा स्थापित की. मिन्नीप्रसाद प्रजापति इसके मूर्तिकार थे. 
  उन दिनों गढा यह एक परिपूर्ण और व्यवस्थित बसाहट थी. गढा वासियों ने इस उत्सव को हाथों हाथ लिया. जबलपुर के बाकी मोहल्लों मे यह उत्सव प्रारंभ हुआ. देवी की मूर्ती बनाने जबलपुर के शिल्पी (कलाकार) तो सामने आएं ही, साथ ही जबलपुर जिस 'सीपी एंड बरार' प्रांत का हिस्सा था, उसकी राजधानी नागपुर से भी मूर्तिकार आने लगे. *धीरे - धीरे यह दुर्गोत्सव भव्य स्वरुप मे मनाया जाने लगा. मूर्तियों के विसर्जन के लिये दशहरा विसर्जन जुलूस प्रारंभ हुआ, जिसने इतिहास रच दिया..!*

    किसी जमाने मे जबलपुर का दशहरा चल समारोह, जिसमे दुर्गा प्रतिमाएं भी विसर्जन के लिये शामिल होती थी, अत्यंत भव्य होता था. चौबीस घंटे जुलूस चलता था. सवा सौ के लगभग प्रतिमाएं होती थीं. किंतु कालांतर मे शहर बडा होता गया. उसमे उपनगर जुडते गए, तो स्वाभाविक रूप से दशहरा चल समारोह का विकेंद्रीकरण होता गया. इस समय मुख्य चल समारोह के साथ ही गढा, सदर, कांचघर, रांझी आदी क्षेत्रों मे भव्यता के साथ चल समारोह निकलते हैं. दशहरे का उत्साह और इस उत्सव की उमंग पूरे जबलपुर क्षेत्र मे समान रुप से फैली हुई दिखती हैं.  
*जबलपुर यह उत्सवप्रिय शहर हैं. इस शहर ने उत्तर प्रदेश की रामलीला को अपना लिया.* दुर्गोत्सव के प्रारंभ होने से भी पहले, अर्थात सन 1865 मे मिलौनीगंज मे गोविंदगंज रामलीला समिति व्दारा रामलीला प्रारंभ हुई, जो आज तक अविरत चल रही हैं. मशाल और चिमनी के प्रकाश मे प्रारंभ हुई यह रामलीला आज अत्याधुनिक तकनिकी का प्रयोग कर रही हैं, और इसीलिये यह आज भी प्रासंगिक हैं तथा भक्तों की भीड खिंचती हैं. यह रामलीला, पारंपारिक एवं शुध्द स्वरुप मे मंचित होती हैं. इसके पात्र भी मंचन के दिनों मे पूर्ण सात्विक जीवन जीते हैं. 
गोविंदगंज की देखा देखी, गढा, सदर, घमापुर, रांझी आदी अनेक स्थानों पर आज भी रामलीला का मंचन उसी भक्तिभाव से होता हैं. 
*सप्तमी से लेकर तो दशहरे तक, जबलपुर के रौनक की, जबलपुर वासियों के उत्साह की कोई तुलना हो ही नही सकती. लगभग ६०० से ७०० भव्य मूर्तियों की प्रतिष्ठापना की जाती हैं.* पहले नागपुर के मूर्तिकारों व्दारा प्रमुख उत्सव समितीयों मे मूर्ती बनाई जाती थी. पुराना बस स्टैंड (सुपर बजार) की मूर्ती मूलच॔द व्दारा निर्मित होती थी, तो शंकर घी भंडार (सब्जी मंडी), गल्ला मंडी और हरदोल मंदिर (गंजीपुरा) की प्रतिमाएं, सुधीर बनाते थे. अनेक वर्षों पहले, सब्जी मंडी मे रखी गई, सिंह के रथ पर सवार, सुधीर व्दारा बनाई गई, मां जगतजननी की प्रतिमा आज भी अनेकों के स्मरण मे होगी. नागपुर की इस परंपरा को अभी - अभी तक जीवित रखा हैं, शरद इंगले ने. दिक्षितपुरा की हितकारिणी शाला मे स्थापित प्रतिमा उन्ही के व्दारा बनाई जाती हैं. कुछ वर्ष पहले तक, शरद और वसंत इंगले यह भाई घमापुर, चोर बावली (आज का ब्लूम चौक) और सुभाष टाॅकीज की प्रतिमाएं भी बनाते थे. मूलचंद, सुधीर, शरद इंगले यह सभी कलाकार, नागपुर के चितार ओल से आते थे. 
किंतु जबलपुर के दुर्गोत्सव मे जलवा होता था तो कलकत्ता से आनेवाले जगदीश विश्वास का. बंगाली शैली मे बनी अनेक प्रतिमाएं उनके तथा उनके भाई के व्दारा बनाई जाती थी. मूलतः, लगभग पचपन - साठ वर्ष पूर्व उन्हे टेलिग्राफ वर्क शॉप की दुर्गा उत्सव समिती ने बुलाया था. दुर्गोत्सव के लगभग एक महिने पहले आकर जगदीश विश्वास और उनकी टीम, टेलिग्राफ काॅलोनी के डिस्पेंसरी मे मूर्ती बनाना प्रारंभ करती थी. उन दिनों उनकी दो मूर्तियां भव्यता की श्रेणी मे आती थी. एक - टेलिग्राफ काॅलोनी की और दुसरी शारदा टाॅकीज, गोरखपुर की. लगभग सारी मूर्तियां दुर्गा जी की होती थी. बंगाली पंडालों के लिये गणेश, सरस्वती, कार्तिकेय इत्यादी भी रहती थी. अपवाद एक था. कछियाना की समिती के लिये, लेटे हुए शंकर पर खडी महाकाली की मूर्ती वे बनाते थे. 
धीरे - धीरे जबलपुर के मूर्तिकार अपनी कला मे निखार लाते गए. बचई जैसे कलाकार, महाराष्ट्र स्कूल के सामने रखी गई प्रतिमा मे अपनी कला का अविष्कार दिखाते रहे. किंतू अनेक मूर्तिकार परंपरागत शैली मे सुंदर प्रतिमाएं बनाते रहे. शीतलामाई के पास आज भी बडी संख्या मे शानदार प्रतिमाएं बनती हैं. 
कुछ उत्सव समितियों का जनमानस मे श्रध्दाभाव के साथ, अटूट स्थान बन गया हैं. गढाफाटक की तथा पडाव की महाकाली यह आस्था की अद्भुत प्रतीक बन गई हैं. सुनरहाई तथा नुनहाई की पारंपारिक बुंदेली शैली की प्रतिमाएं, यह जबलपुर की शान हैं. जबलपुर का गौरव हैं. सुनरहाई की देवी, 'नगर सेठानी' कहलाती हैं. सुनरहाई के ही आगे एक भव्य देवी प्रतिमा स्थापित की जाती हैं, जिसमे किसी पौराणिक कथा की शानदार प्रस्तुती होती हैं. मोहन शशि जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की लेखनी से उतरी यह कथा, भक्तों का मन मोह लेती हैं. 
उपनगरों की देवी प्रतिमाएं भी आकर्षण का केंद्र बन रही हैं. मंडला रोड पर बिलहरी मे स्थापित दुर्गा प्रतिमा यह अनेक वर्षों से भव्यता और झांकियों के लिये प्रसिद्ध हैं. रांझी, गढा और सदर की भी अनेक प्रतिमाएं आकर्षण का केंद्र रहती हैं. 
*सप्तमी से लेकर तो विजया दशमी (दशहरे) तक, सारा जबलपुर मानो सडकों पर होता हैं. शहर का कोना - कोना रोशनी से जगमगाता रहता हैं. आजुबाजू के गांव वाले भी इस दुर्गोत्सव और दशहरे का आनंद लेने शहर आते हैं.* दशहरे के एक दिन पहले, अर्थात नवमी के दिन, पंजाबी दशहरा संपन्न होता हैं. पहले राईट टाऊन स्टेडियम मे जब यह होता था, तो इसकी भव्यता का आंकलन करना भी कठीन होता था. बच्चों के लिये तो यह विशेष आकर्षण रहता था. 

*जबलपुर यह भारत की सारी संस्कृतियों को समेटता हुआ शहर हैं. ये सारे लोग बडे उत्साह से, उमंग से, उर्जा से और गर्व से दुर्गोत्सव और दशहरा मनाते हैं.* यह सभी का उत्सव हैं. इसलिये एक ओर जहां गरबा चलता रहता हैं, तो दुसरी ओर सिटी बंगाली क्लब और डी बी बंगाली क्लब मे बंगाली नाटकों का मंचन चलता हैं. छोटा फुआरा, गढा, घमापुर, सदर, गोकलपुर, रांझी आदी स्थानों पर रामलीला का मंचन होता रहता हैं, तो दत्त मंदिर मे मराठी समाज अष्टमी का खेल खेलता हैं. सैंकडो देवी पंडालों मे देवी पूजा, सप्तशती का पाठ, होम-हवन होता रहता हैं, तो जगह - जगह सडकों पर भंडारा चलता रहता हैं. 
*ये जबलपुर हैं. एम पी अजब हैं, तो हमारा जबलपुर गजब हैं. इस उत्सव के रंग मे रंगने के लिये अगले वर्ष, इन दिनों जबलपुर अवश्य आइये..!*
आपका स्वागत हैं. 🙏
- प्रशांत पोळ
#जबलपुर; #Jabalpur; #दुर्गोत्सव
यहां देवी गीत गाने वाली हस्तियों में प्रेम कुशवाहा राकेश तिवारी आदि ने राष्ट्रीय स्तर पर सफलता प्राप्त की और लोकप्रिय हुए जबकि मूर्तिकार कुंदन के पास सबसे ज्यादा मूर्तियां 80 और 90 के दशक में बनाई जाने लगी थी

अगर हमारे सींग होते..!




  अगर हमारे सींग होते तब क्या होता ? कभी सोचा है आपने ?
सोचा तो हमने भी न था पर शहर की सजावट और दुर्गा उत्सव की हलचल देखते हुए अचानक फुटपाथ पर बोरा बिछा कर बैठे एक विक्रेता से हमारी श्रीमती जी ने सींग  खरीदने की इच्छा जाहिर की..?
हमने कहा - इसकी जरूरत कहां है आपको .. पिछले बरस तो हम आपकी जीभ की पूजा कर अपनी विजयादशमी को सिद्ध कर चुके थे परंतु इस बार मैं नहीं चाहता कि आप इस तरह का कोई शस्त्र खरीदें..!
  ऑटो रोककर हमने वही किया उन्होंने तय किया था। मनुष्य प्रस्तावित करता है और उसका निराकरण ईश्वर करता है यह कहावत बिल्कुल झूठी है पति-पत्नी के संदर्भ में। पति प्रस्तावित करता है पत्नी उसे डिस्पोज करती है। और पति की क्या मजाल की पत्नी द्वारा प्रस्तावित कोई भी प्रस्ताव निर्णायक मोड़ पर न ला सके..? मेरी अकेले की आत्मकथा नहीं है।
तुम पढ़ रहे हो ना अगर विवाहित पुरुष तो तुम्हारी यही समस्या है लिख कर दे दूं.. ? धोखे से कुंवारे लड़के अगर इस विवरण को पढ़ रहे होंगे अपने सोना बाबू वाले इवेंट मुक्त होकर तो भैया जान लो यह तुम्हारा भी भविष्यफल है। सोना बाबू वाला लफड़ा जब से युवाओं के बीच पनप रहा है जब से लड़के इस समस्या के अभ्यस्त हो गए हैं।
चलो मूल विषय पर आते हैं। अगर    
    हमारे सींग होते तो क्या होता और क्या न होता...?
   हमने इस बारे में श्रीमती जी से पूछ लिया कि अगर वास्तव में हमारे सींग होते तो क्या होता..?
" क्या ही होता एक तो  सूट सिर में घुसाने में बड़ी तकलीफ होती। और क्या ब्यूटी पार्लर का खर्चा दुगना हो जाता । केश सज्जा के साथ-साथ सींग सज्जा के लिए बजट तुम्हारा कि बिगड़ता मुझे क्या? यह कहकर वे अपने कामकाज में व्यस्त हो गई।
  बात तो सही है अगर सींग होते तो कितनी ही मजबूत माचो बनियान होती जल्दबाजी में फट जाती और नुकसान हमारा ही होता। सबसे ज्यादा परंपरागत बनने वालों का नुकसान होना तय था। जैसे कोई बुजुर्ग दादाजी सिर हिला हाथ हिला बस कुर्ते में छेद
हां यह बात सही है अब शब्दों का प्रयोग नहीं होता डायरेक्ट सींग से जवाब दिया जाता। सरकार को इंडियन पैनल कोर्ट की धाराओं में बदलाव लाना पड़ता ।
   जब किसी से नाराजगी के बाद बहुत दिनों बाद मिलो तो उसका यही वाक्य होता है-" आजकल तुम हमसे मिलते ही नहीं क्या हमारे सींग निकले हैं..?
  या फिर कोई यह भी पूछता है -"कहां नदारद थे, गधे के सिर पर सींग की तरह गायब..!"
   इस तरह के सवालों का कोई औचित्य न रह जाता।
   सींगों की मौजूदगी में सबसे ज्यादा तकलीफ हमारे शारदा  अथवा हमारे अन्य की सज्जाकारों  को होती ।
शारदा भैया पूछ ही लेते:-" तुमाए बांए बाजू वारो सींग तनक बैंड सो हो गओ , कौनों अच्छे डांक्टर को काय नईं दिखाते ?
   घर में आने जाने वाले आगंतुक पति-पत्नी के चेहरे के भाव से आजकल अंदाज लगा लेते हैं-" कि किस स्तर पर द्वंद हुआ है ?" और अगर मनुष्य प्रजाति के सींग होते तो लोग सींग की स्थिति देख कर अनुमान लगाते।
   मेरे एक योग मित्र से पूछा कि भाई अगर ऐसा होता तो क्या होता?
  होना क्या था शीर्षासन लगना बंद हो जाता।
   मास्टर साहब को टेंशन होती अब गुड्डी कैसे तनवाएं..!
    दीपावली पर हम अपने लोगों पर बेहतरीन कलर करवा सकते थे अगर सींग होते तो। दिवाली के दूसरे दिन फिर  बैल गाय बछड़े का क्या काम..!
पॉलीटिशियंस के संदर्भ में सोचा जाए जिसके जितनी मजबूत सींग उसके उतने विधायक पीएम तो वह पक्का अब मौका लगे तो प्राइम मिनिस्टर।
  ब्यूरोक्रेसी के बारे में कुछ नहीं कहूंगा उसी का हिस्सा हूं। जो मैंने कहा है उसे आप स्वयं कह लीजिए मुस्कुराइए हंसी है हंसते रहिए वैसे एक बात बता दूं   अपने कान जरा पास लाना.. हमारे तो परमानेंट निकले किसी को बताना नहीं।
*यह आर्टिकल केवल हास्य-विनोद के लिए लिखा गया है, कोई से क्रोधित होकर मेरी और अपने  सींग लेकर न दौड़ना भाई. लेखक हूं मेरी कलम ज्यादा घातक हो सकती है इन काल्पनिक सींगो की तुलना में*
अटैचमेंट क्षेत्र

3.10.22

नजर और नजरिया

  
द्वारपाल ने उससे कठोर शब्दों में पूछा _" कौन हो भाई, फटे कपड़े कपड़ों में कहां घुसे  आ रहे हो...? यह राज महल है यहां दरबार है यहां केवल उनको प्रवेश मिलेगा जो राज सेवक हों अथवा जिन्हें राजा ने बुलाया हो..!
   वह अकिंचन व्यक्ति अपने ज़ेब से रुक्का निकालता है, तथा दरबान को दिखाता है।
   दरबान अपने वरिष्ठ अधिकारी से परामर्श करके कहता है कि-" यह आमंत्रण तुम किसी से चुरा कर लाए हो ना जाओ भाग जाओ अब मुंह ना दिखाना फिर..!"
   इस चेतावनी के बाद यह निर्धन व्यक्ति वापस लौट जाता है। कुछ देर बाद सजा संवरा युवक पहरेदार को अपना आमंत्रण दिखाता है और महल में प्रवेश कर देता है।
   हुआ यूं था कि राजा ने प्रतिभाशाली लोगों को आमंत्रित किया था अपने साथ भोजन करने। जिसके लिए बाकायदा आमंत्रण भेजे गए थे और प्रतिभाशाली कलाकार आए।
   राजा अपने राज्य के इन महान कलाकारों को प्रोत्साहित किया कोई मूर्तिकार था कोई चित्रकार था उन कवि था तो कोई वक्ता था कोई मधुर तान छेड़ता तो मानो स्वर्ग में इंद्र अपनी सभा में बैठे हो और गंधर्व ब्रह्म की आराधना का शाम गायन कर रही हूं । दिनभर यह क्रम चलता रहा राजा को इन कलाकारों की प्रतिभा पर गर्व होने लगा और वह नतमस्तक हुआ राजा  मुक्त हस्त दान करता चला गया।
   जब भोजन की बारी आएगी तब सभी एक पंगत में बैठे हुए थे। राजा स्वयं भोजन परोस रहे थे और अचानक वे सुदर्शन युवक के बाजू में जाकर बैठ गए।
   युवक सहित अन्य कलाकारों  की प्रतिभा से वाकिफ तो थे। युवक के साथ भोजन करते हुए तुम्हें कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा था।
   यह क्या? राजा चकित रह गए राजा ने कहा-" आप अपनी पगड़ी पर दिवाली क्यों लगा रहे हैं अरे यह क्या आपने तो अपनी कुर्ते  को खिलाने लगे ।
    राजन, मुझे मेरी पोशाक की वजह से आपके द्वारपाल ने भगा दिया था। मैं सामान्य वस्त्र पहना था इनमें कुछ फटे वस्त्र भी थे। मेरी पादुका भी खंडित थी। आपके प्रहरियों ने मुझे तब लौटा दिया था। दूसरी बार में नगर सेठ के पुत्र जो मेरे मित्र हैं उनसे यह सब लेकर आया। तब प्रहरियों ने मुझे बिल्कुल नहीं रोका, पूरे सम्मान के साथ मुझे राज महल में प्रवेश किया है।
  हे भूपति... मेरा मूल्यांकन जिस आधार पर हुआ है और जिसे देख कर आपके प्रहरियों ने मुझे महल में प्रवेश दिया है यह महान है कि मैं? निसंदेह मेरे वस्त्र महान है श्रेष्ठ वरना आपके प्रहरियों के मन में ऐसी कोई भावना ना होती।
    राजा शर्म से सर झुका कर बोले-" जिस राष्ट्र में गंधर्व का को सम्मान नहीं मिलता यह सृजन हीन कांति हीन राष्ट्र होते हैं। युवक मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं।
    यह कहानी फिर कहानी है पुराना कथानक है सब जानते हैं कोई इनके पात्र के रूप में मिर्जा गालिब को रख देता है तो कोई अन्य किसी को। परंतु यह सत्य है कि वेशभूषा आज की भाषा में कहें तो अपीरियंस के आधार पर यह तय किया जाता है कि हमें क्या करना है।
   आपकी कीमत आपकी नौकरी के स्तर तथा आपके आर्थिक बैकग्राउंड से आती जाती है । वरिष्ठ पदों पर रहने वाले व्यक्ति आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति भले ही वह वैशाख नंदन क्यों ना हो उनका सम्मान करने में इसी को अपराध बोध महसूस नहीं होता। मुझे दफ्तर से आने जाने के लिए एक ऑटो आता है । सोसाइटी का दरबान पहले दो-तीन दिनों तक उस ऑटो वाले से अभद्रता से व्यवहार करता था।
इसकी अभद्रता इस हद  तक पहुंच गई सोसाइटी के पोर्च में मुझे उतारने के लिए ऑटो वाले ने जैसे ही ऑटो खड़ा किया तुरंत वह दरबान चीख पड़ा ऑटो बाहर लेकर आओ । यह दुनिया की रीत है दुनिया उनकी पतंगों की तरह है जो चमकते दीपक के इर्द-गिर्द घूमते हैं और उसमें जलकर मर भी जाते हैं। आपकी सादगी को कोई पसंद नहीं करता बस इतनी सी बात नहीं है यह आपकी सादगी को बर्दाश्त भी नहीं कर सकते।

चर्चिल गांधी से ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत को घृणा के भाव से देखते थे..!


*चर्चिल गांधी से ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत को घृणा के भाव से देखते थे..!*
   *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
   उपनिवेश के रूप में भारत को  शोषित करने वालों में ब्रिटिश क्रॉउन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का नाम सर्वोपरि है। वे भारत को राष्ट्र कभी नहीं मानते थे। भारत के सामंतों और बादशाहों के  कुकृत्यों के कारण चर्चिल के मस्तिष्क में भारत को एक कमजोर भूखंड के रूप में स्वरूप नजर आता था। परंतु जैसे जैसे  भारत की विशेषताओं का ज्ञान उनको होने लगा तो वह भारत को एक तरफ से अपमानित करने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। अपने मंतव्य को पूर्ण करने के लिए उन्होंने भारत की परिभाषा देते हुए कहा-" भारत कोई राष्ट्र नहीं है बल्कि पृथ्वी का एक टुकड़ा है जैसे महाद्वीप होते हैं जैसे महासागर होते हैं।"
   चर्चिल का चिंतन भारत के अध्यात्म से घबराकर चिंता में बदल गया था। भारत की बौद्धिक संपदा चर्चिल के मस्तिष्क को हिला देने का आधार थी। महात्मा गांधी से विंस्टन चर्चिल आत्मिक विद्वेष रखते थे। वह गांधी जी को पाखंडी बूढ़ा इत्यादि शब्दों से संबोधित करते हुए उनके अनशन को भी संदिग्ध मानते थे। यह वही वक्त था जब महात्मा जी को आगा खां पैलेस में गिरफ्तार कर रखा गया था । सुधी पाठकों जानिए कि महात्मा गांधी ने बंगाल की दुर्दशा देखते हुए 21 दिन के कठोर उपवास की घोषणा की और इस उपवास में वह मौत के साथ आंख मिचोली करते रहे। यह वही दौर था जब कोलकाता और संपूर्ण बंगाल में फसल ही नहीं हुई थी। तब बंगाल की जनता दाने-दाने को मोहताज हो गई थी। विंस्टन चर्चिल ने भारत को घृणा के भाव से देखते हुए भारत के अकाल पीड़ित लोगों की जीवन संभावनाओं को समाप्त करने का जैसे संकल्प ही ले लिया था। चर्चिल ने ब्रिटिश कॉलोनी भारत के अकाल पीड़ित क्षेत्रों में घृणास्पद शब्दों का प्रयोग करते हुए भारत में खाद्यान्न की आपूर्ति रोक दी थी। विंस्टन चर्चिल के दौर में सर्वाधिक शोषण भारत का हुआ। वह गांधी जी के विरुद्ध पूरी तरह से तैयार था। आज भी बहुतेरे लोग गांधी जी से असहमति रखते हैं रखना चाहिए कोई आपत्ति नहीं परंतु गांधी का हद से ज्यादा जिद्दी होना ही उनकी ताकत थी। गांधी जी ने भारतीय जनता को आत्मनिर्भरता का सूत्र दिया। महात्मा थे वे तभी तो वह यह सब कर पाए। स्वदेशी जागरण का बीड़ा उठाने वाले महात्मा गांधी ने कपास और तकली के छोटे से सस्ते से यंत्र के जरिए बता दिया कि तुम अपने शरीर को खुद ढक सकते हो। मैनचेस्टर में लगे कल कारखानों से आयातित हो रहे कपड़े को स्वीकार मत करो एक वृद्ध क्रश काय व्यक्ति की आवाज क्यों मानी गई? उसका कारण था गांधी का आत्मिक रूप से पवित्र होना। आप बगैर किसी भी बच्चे को बुलाएंगे तो संभवतः बच्चा नहीं आ पाएगा आने में आनाकानी करेगा परंतु जैसे ही कोई मां अपनी संतान को पुकारती है बच्चा दौड़ा दौड़ा मां की गोद में जाकर बैठ जाता है। गांधी की स्थिति भी लगभग वही थी। मैं नहीं जानता तब क्या ऐसी स्थिति रही होगी? परंतु इतना अवश्य जानता हूं मेरी नानी सभी देवताओं की पूजा करने के साथ-साथ अंत में गांधी बाबा की जय जरूर बोलती थी। नानी के दिवंगत हुए 3 दशक से अधिक समय बीत चुका है। पर भी अच्छी खासी परिपक्व उम्र में दिवंगत हुए परंतु गांधी जी के प्रति उनका आदर भाव अविस्मरणीय है।
   यह बात और है कि मैं एक गांधी जी को 100% स्वीकार नहीं करता परंतु मेरे मन में थी गांधी के प्रति वही अगाध श्रद्धा है जो मेरे पूर्वजों के लिए मेरे मन में है। गांधी कभी नहीं मरते गांधी के विरुद्ध लाखों गोडसे खड़े हो तो भी गांधी को हम तब तक जीवंत रख सकते हैं जब तक की यह दुनिया जीवंत है। गांधी भारतीय दर्शन की व्याख्या हैं गांधी जीवन की वास्तविकता भी हैं।
   विंस्टन चर्चिल पश्चिमी आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में पढ़ा लिखा व्यक्ति था तो महात्मा भारतीय दर्शन और अहिंसा का अभी दुर्ग.. !
    अपनी 40 साल के सार्वजनिक जीवन में गांधी के चिंतन को देखने से लगता है कि कोई भी शोषण करने वाला गांधी से घबराता है। 75 वर्ष बीत गए गांधी ने स्वच्छता के बारे में जो बात कही उसका महत्व हम लोगों को समझ में आ रहा है। महात्मा का सानिध्य भारत को मिला विश्व एक आध नंगे शरीर को तब भी महान मानता था और अब भी उसे महान बताता है। यह सच है कि मैं औरों की तरह गांधी जी से 100% सहमति व्यक्त नहीं कर सकता। चाहे आप ब्रह्मांड में उनके जीवन दर्शन पर गहन समझाएं लिख दे परंतु एक प्रयोगवादी व्यक्तित्व को पूर्णत: स्वीकार लेना मेरे लिए असमंजस की स्थिति है। गांधी जी और सबसे ऊपर वाले स्तर के लोगों से भी ऊपर थे परंतु मुझे आज भी शत-प्रतिशत से कार्य हो यह जरूरी नहीं है। थे
        स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की जन्म तिथि पर उन्हें शत शत नमन करते हुए इस महान व्यक्ति के मानवीय गुणों की सराहना किए बिना कैसे रह जा सकता है?
       *वैज्ञानिक नियम  है बड़े पेड़ के नीचे छोटे पेड़ों का विकास और उद्धव से होता है*  परम पूज्य लाल बहादुर शास्त्री के मूल्यांकन के मद्देनजर कुछ ऐसा ही हुआ है। भारत है ही अद्भुत राष्ट्र जहां बांसुरी बजाने के वाले के पीछे आज तक लोग चल रहे हैं जहां धोती पहनने वाले के पीछे पूरा का पूरा हिंदुस्तान घूम रहा है, वही एक कद काठी में अत्यंत सामान्य व्यक्ति के लिए इतना प्रेम? जिस का बखान करना मुश्किल हो जाए। इस व्यक्ति में जिसे हम जय जवान जय किसान का उद्घोष करते हैं  नैतिकता का बल था कि एक आवाज पर लोगों ने व्रत रखना प्रारंभ कर दिया।
इसके पीछे एक कहानी थी 1965 के युद्ध में अमेरिका के राष्ट्रपति जॉनसन ने उन्हें खुलेआम धमकाया था-" कि यदि पाकिस्तान के खिलाफ आपने युद्ध नहीं रोका तो अमेरिका पीएल 480 समझौते के तहत भेजे जाने वाली लाल गेहूं की आपूर्ति बंद कर देंगे।"
   आपको याद होगा कि उसी दौर में भारत में कृषि उत्पादन विभिन्न कारणों से बहुत कम हुआ करता था। एक ओर शास्त्री जी ने भारतीय सेना का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए जय जवान का नारा दिया तो दूसरी ओर उन्होंने जय किसान कहते हुए नागरिकों का आह्वान किया कि-" हम अन्न की बचत करें, अगर संभव हो तो व्रत भी रखें। ताकि भारत के उन नागरिकों की भूख मिट सके जिन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है।
शास्त्री जी के इस कार्य की पुष्टि करते हुए उनके बड़े पुत्र अनिल शास्त्री ने बताया था कि - मां ललिता शास्त्री शहीद दिन उन्होंने अचानक प्रश्न पूछा क्या आप एक शाम सामूहिक उपवास करवा सकती हैं?
ललिता शास्त्री जी ने हां में उत्तर दिया, उत्तर सुनकर उन्होंने आकाशवाणी के माध्यम से भारत की जनता से 1 दिन के उपवास की अपील की। पतली सी आवाज भारतवंशियों की दिल को छू गई थी। मित्रों मेरी उम्र के लोगों की उम्र उस वक्त 4 या 5 वर्ष की रही होगी। हम नहीं जानते थे कि भारत की आर्थिक स्थिति क्या है? भारत में गेहूं की उपज कैसी है? परंतु जो मूल रूप से किसान परिवार से आते हैं ऐसे मित्रों को याद होगा कि उन दिनों भारतीय कृषि व्यवस्था और उसमें सरकार की भागीदारी सकारात्मक नजर नहीं आती थी। क्योंकि घर के पास आजादी के बाद अर्थव्यवस्था को सुरक्षित रखने सुव्यवस्थित करने के लिए कुछ भी बेहतर न था। एक घटना कभी किसी अखबार मैं प्रकाशित हुई थी जिसमें महान व्यक्तित्व के धनी शास्त्री जी के छोटे पुत्र ने स्वीकारा- प्रधानमंत्री के रूप में बाबूजी को एक लग्जरी कार इंपाला मिली हुई थी। सुनील शास्त्री जी ने उनके सचिव से उस कार की मांग की और वे भ्रमण पर निकल गए। अगले दिन शास्त्री जी ने नाश्ते की टेबल पर सुनील शास्त्री जी को डाटा नहीं बल्कि सुनील शास्त्री को ड्राइवर को बुलाने के लिए भेजा। ड्राइवर से पूछा गया कि गाड़ी कितने किलोमीटर चली थी? ड्राइवर ने बताया 14 या 15 किलोमीटर। शास्त्री जी का प्रश्न था कि क्या गाड़ी के चलने का हिसाब किताब किसी लाग बुक में मेंटेन करते हैं ड्राइवर ने बताया हां हम गाड़ी को जहां ले जाते हैं वहां का आने जाने का समय और किलोमीटर गाड़ी की लॉग बुक में भरते हैं। इस सूचना प्राप्ति के बाद माता ललिता शास्त्री से कहा-" गाड़ी के उपयोग का अधिकार हमें नहीं है हम केवल सरकारी कार्य के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं। फिर भी अगर उपयोग हो चुका है तो सचिव को उतनी राशि दे दी जावे ताकि वह खजाने में जमा हो जाए। इससे सुनील शास्त्री सहित पूरे परिवार को यह शिक्षा मिली कि हमें शासकीय सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं करना है निजी इस्तेमाल के लिए तो बिल्कुल नहीं ।
   आप सब ने अयूब खान का नाम सुना होगा। पाकिस्तानी जनरल अयूब खान ने शास्त्री जी के एयरक्राफ्ट में बैठते समय अपने लोगों की ओर देखते हुए शास्त्री जी का मखौल उड़ाते हुए कहा था-" यह व्यक्ति कमजोर प्रधानमंत्री है। इससे बात करना बहुत आवश्यक नहीं महसूस करता।"
 ताशकंद में पूज्य शास्त्री जी के निधन के उपरांत उनके अंतिम संस्कार में भाग लेने यही अयूब खान भारत आए और उन्होंने भारत और पाकिस्तान आपसी संबंधों में सुधार का प्रतीक निरूपित किया था शास्त्री जी को।
   हरित क्रांति और सेना में बदलाव के प्रणेता पूज्य लाल बहादुर शास्त्री की जन्म जयंती पर उनके महा निर्वाण पर टिप्पणी नहीं करूंगा न ही उस रहस्य के भीतर आपको जाने को कहूंगा, परंतु पड़ोसी देशों के साथ हमारे युद्ध के निर्णय को श्रेष्ठ अवश्य बताऊंगा आप को स्वीकारना होगा कि यदि वह छोटी सी पर्सनालिटी वाला महान व्यक्ति युद्ध की घोषणा ना करता तो शायद हम आज इस श्रेष्ठ युग में इतराते न पाते । सच मायने में आजाद भारत में किसान को पहचानने वाला यदि वहीं था जवान के महत्व को पहचानने वाली ताकत उन्होंने ही हासिल की थी । बताओ भला शरीर से अति साधारण कद काठी का होना वैचारिक रूप से असाधारण होने का अनुपम उदाहरण थे। मैंने इस बार व्यौवहार  राजेंद्र सिंह जी से कहा था-" दादाजी मेरा आप पर आकर्षण केवल इसलिए है कि आप साहित्यकार हैं ऐसा नहीं है। आप पर आकर्षित होने का कारण आपके व्यक्तित्व में सहजता सरलता की झलक पूज्य लाल बहादुर शास्त्री के समतुल्य है।" एक किशोर द्वारा की गई तुलना से प्रभावित व्यौवहार  राजेंद्र सिंह जी अपलक  मुझे देखते रहे और फिर आशीष आशीर्वाद दिया था उन्होंने।
   परम पूज्य शास्त्री जी को शत शत नमन मैं 100% शास्त्री बनना चाहूंगा क्योंकि वे अत्यधिक प्रयोगवादी नहीं थे न ही जिद्दी थे , पूज्य शास्त्री जी महात्मा गांधी की तरह सरल सहज दिव्य दर्शक थे ,वे भारत का भविष्य का निर्धारण कर चुके थे आज आप देखिए विश्व भारत की ओर उसकी जवानों की ताक़त और भारत को फूड सिक्योरिटी प्रदान करने की ताकत  समक्ष नतमस्तक हो कर देख रहा है। जरा सा विषय अंतर होते हुए आपको सूचित करना चाहता हूं पूज्य शास्त्री जी के व्यवहार से प्रेरित होकर 1964 में ही मनोज कुमार ने उपकार फिल्म का निर्माण प्रारंभ कर दिया था। इस फिल्म में भारत की तत्सम कालीन कृषि समस्या का स्वरूप स्पष्ट हुआ है।
  मैं यह नहीं कहता कि जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के नाम का परिवर्तन कर दिया जाए क्योंकि वे भ महान विचारक थे
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे परंतु मैं चाहूंगा कि कृषि कर्मणा जैसे पुरस्कार  पूज्य प्रधानमंत्री शास्त्री जी के नाम पर भी होनी चाहिए।       हमें अपने पूर्वजों का स्मरण करते रहना जरूरी है। इन पुरखों ने देश के लिए क्या नहीं किया सीमित साधनों में उनके असीमित प्रयासों को अस्थाई अनियंत्रित विचारधारा आयातित विचारधारा की स्थापना के लिए गलत तरीके से प्रचारित किया है।
    विंस्टन चर्चिल का गांधी के प्रति विद्वेष युग युग तक निंदनीय रहेगा। चर्चिल कुंठित थे, उनको लगता था अगर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ गई तो यूरोप का क्या होगा पश्चिम का क्या होगा?
    देर सबेर भारत की प्रतिष्ठा का बढ़ना स्वभाविक था। आप देख रहे हैं होगी वही रहा है। 16000 वर्ष ईसा पूर्व से जारी भारत की गतिशीलता मात्र ढाई से तीन हजार वर्ष पुरानी सभ्यता को स्पर्श तक नहीं कर पाई। भारतीय उपमहाद्वीप की सभ्यता और संस्कृति का लेखा जोखा गलत लाइन से सेट करने वाला ब्रिटिश क्रॉउन अब हतप्रभ है। यूरोप की मजबूरी है जी वह भारत का पुनरीक्षण करें और नए रिश्ते कायम हों। हो भी यही रहा है । विश्व की सोशियो  इकोनामिक पॉलीटिकल परिस्थितियों को देखा जाए तो भारत आज भी उसी तरह महत्वपूर्ण है जैसा लगभग 800 वर्ष पूर्व हुआ करता था। मेरे मित्र कहा करते हैं कि- "कदाचित हमारे सॉफ्टवेयर में बदलाव आ गया है?" मित्र समीर शर्मा इस आर्टिकल के जरिए बता देना चाहता हूं चार वेद पांच पुराण महाभारत भगवत गीता अरण्यक उपनिषद् के अलावा गांधी और शास्त्री जैसे महान विचारकों का भारत सॉफ्टवेयर बनाता है दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है उसके सॉफ्टवेयर में किसी भी तरह की मिलावट और गड़बड़ी की कल्पना मत कीजिए।

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