16.4.22

"भारतीय मानव सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेशद्वार 16000 ईसा-पूर्व" .......... क्यों लिखी गई


 

1.      प्राचीन इतिहास केवल मिथक हो गया तथा मध्यकाल और उसके बाद का इतिहास तो मुगलिया इतिहास बन के रहा गया। अतएव आत्मप्रेरणा से यह कृति लिखने का प्रयास किया है। इस कृति की सफलता पूर्वक पूर्णता के लिए गणनायक बुद्धि दाता श्री गणेश को सर्वप्रथम नमन करता हूं:

2.      तीर्थंकरों का उल्लेख अवश्य है पर यहाँ दो तीर्थंकरों का उल्लेख नहीं किया जो महाभारत कालीन श्रीकृष्ण के समकालीन थे। ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के नामों का उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान श्रीकृष्ण का निकट संबंधी माना जाता है। उपरोक्त विवरण से श्रीकृष्ण को इतिहास से  विलोपित रखे जाने के उद्देश्य से नेमीनाथ जी का विस्तृत विवरण विलुप्त किया गया।

3.      महात्मा बुद्ध एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ। इनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थीं, फिर भी इतिहास वेत्ताओं ने उसी कुलवंश इक्ष्वाकु वंश के बुद्ध के पूर्वज को काल्पनिक निरूपित किया है .... है न हास्यास्पद तथ्य !

4.      अजीवात जीवोतपत्ति: जीवन का अस्तित्व में लाने में भौतिकरासायनिक-बायोलाजिकल तीन तरह की प्रक्रिया शामिल हैं. परन्तु जीवन का प्राथमिक निर्माण केवल स्वचालित-रासायनिक-प्रक्रिया (Auto-Cemical-Process)” से ही हुई है।

5.      मध्य प्रदेश में भीमबेटका के अवशेष साबित करते हैं कि भारतीय मानव-सभ्यता संस्कृति का अस्तित्व 2.6 लाख साल प्राचीन है.

6.      विश्व में मानव प्रजाति के वर्गीकरण से निम्नानुसार Race को चिन्हित किया गया है... मानव की प्रमुख प्रजातियाँ Principal Races Man निग्रिटो Negrito, नीग्रो Negro आस्ट्रेलॉयड Australoid, भूमध्यसागरीय Mediterranean, नॉर्डिक Nordic, अल्पाइन Alpine, मंगोलियन Mongoion,एस्किमो Eskimo बुशमैन Bushmen, खिरगीज Khirghiz, पिग्मी Pigmy, बद्दू Bedouins, सकाई Sakai, सेमांग Semang, मसाई Masai.यहाँ एक चर्चित विवादित रेस का ज़िक्र करते हैं जिसका उल्लेख ऊपर नहीं हुआ अर्थात कहीं भी आर्य प्रजाति Aryan-Race का ज़िक्र नहीं है. जो यह सिद्ध करता है कि आर्य कोई प्रजाति नहीं है।

7.      रामायण और महाभारत काल काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविकता से परिपूर्ण है। इस कृति की सह लेखिका के रूप में डॉक्टर हंसा व्यास ( शिष्या प्रोफेसर वाकणकर जी ) जिन बिंदुओं पर प्रमुख रूप से आगे चर्चा करेंगी उनमें से एक है नर्मदा तट पर मौजूद रामायण एवं महाभारत ग्रंथों में मौजूद तत समकालीन स्थावर अवशेष राम के वन मार्ग के का निर्धारण आदि के संदर्भ में लेखन कार्य कर रहे हैं। राम केवल करुणानिधान राम नहीं है कृष्ण केवल कर्म योगी कृष्ण नहीं है हमें ऐतिहासिक संदर्भों को प्रस्तुत करते हुए उनके अस्तित्व और काल्पनिक संदर्भों से उनको दूर करने की जरूरत है। आने वाली पीढ़ी को यह बताना भी आवश्यक है कि राम और कृष्ण किसी भी स्थिति में मिथक नहीं है।

8.      इंडस वैली सिविलाइजेशन जिस पर अभी मात्र 10% से 15% तक कार्य हो सका है। खुदाई से प्राप्त अवशेषों से यह पुष्टि हो रही है कि वे अवशेष 3500 वर्ष प्राचीन न होकर लगभग 4500 वर्ष पुराने हैं। मोहनजोदड़ो हड़प्पा धौलावीरा आदि क्षेत्रों की खुदाई तथा उससे मिलने वाले अवशेषों को ईसा के 4500 से 5000 वर्ष पूर्व का माना है जो कि सभ्यता के अंत के हैं तो सभ्यता का प्रारम्भ कब का होगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। भारतीय भूभाग में यद्यपि नदी घाटी सभ्यता के संदर्भों में पर अभी बहुत सारा काम होना शेष है।

9.      हमारे दो प्रतिष्ठित साहित्यकारों क्रमश: श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन की कृति वोल्गा से गंगा तक एवं श्रीयुत रामधारी सिंह जी दिनकर की कृति संस्कृति के चार अध्याय साहित्यानुरागी/विद्यार्थी/एवं मानव समाज भी भ्रमित हुआ हैं। तथा भारतीय जन-मानस में वे इस मंतव्य को स्थापित करने में सफल भी हो गए कि जो तथ्य साहित्यिक कृति में अंकित हैं वे ऐतिहासिक भी हैं। भले ही वे अपनी-अपनी कृतियों को साहित्यिक कृति का रहे थे।

10.    डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर (उपाख्य : हरिभाऊ वाकणकर ; 4 मई 1919 – 3 अप्रैल 1988) भारत के एक प्रमुख पुरातत्वविद् थे। उन्होंने भोपाल के निकट भीमबेटका के प्राचीन शिलाचित्रों का अन्वेषण किया। अनुमान है कि यह चित्र 175000 वर्ष पुराने हैं। इन चित्रों का परीक्षण कार्बन-डेटिंग पद्धति से किया गया, परिणामस्वरूप इन चित्रों के काल-खंड का ज्ञान होता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय रायसेन जिले में स्थित भीम बैठका गुफाओं में मनुष्य रहता था और वो चित्र बनाता था। सन 1975 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।

11.    श्री वेदवीर आर्य अध्यावसाई विद्वान हैं । श्री आर्य रक्षालेखा विभाग के में उच्च पद पर आसीन हैं। संस्कृत, आंग्ल, पर समान अधिकार रखने वाले श्री आर्य का रुझान भारत के प्राचीन-इतिहास में है। वे तथ्यात्मक एवं एस्ट्रोनोमी एवं वैज्ञानिक आधार पर इतिहास की पुष्टि करने के पक्षधर हैं। उनकी अब तक दो कृतियाँ क्रमश: THE CHRONOLOGY OF INDIA from Manu to Mahabharata, तथा THE CHRONOLOGY OF INDIA From Mahabharata to Medieval Era, वो कृतियाँ हैं जिनके आधार पर हम भारत के वास्तविक इतिहास तक आसानी से पहुँच सकते हैं। यह कथन इस लिए कह सकने की हिम्मत कर पा रहा हूँ क्योंकि श्री आर्य ने इतिहास को मौजूद वेद, वैदिक-साहित्य में अंकित/उल्लेखित विवरणों, घटनाओं को नक्षत्रीय गणना के आधार पर अभिप्रमाणित करते हुये सम्यक साक्ष्य रखे  हैं। इस कृति का आधार भी श्री वेदवीर आर्य की कृति The chronology of India from Manu To Mahabharata ही है।

12.    यहां अन्य और दो कृतियों का पुन: उल्लेख आवश्यक हैंजिनमे एक श्री राहुल सांकृत्यायन - वोल्गा से गंगा, दूसरे श्री रामधारी सिंह दिनकर जी संस्कृति के चार अध्याय । दोनों ही कृतियों में क्रमशः तक तथा में भारतीय संस्कृति को केवल ईसा-पूर्व, 1800-1500 वर्ष पूर्व तक सीमित कर देते हैं।दिनकर जी तो चार कदम आगे आ गए और उनने यहाँ तक कह दिया –“”

13.    मान॰ राहुल सांकृत्यायन अपनी किताब वोल्गा से गंगा तक में कथाओं का विस्तार देते हुए मूल वैदिक चरित्रों और वंश का उल्लेख करते हैं तथा उन्हें 6000 से 3500 साल की अवधि तक सीमित करने की कोशिश करते हैं। वे अपनी प्रथम कहानी निशा में 6000 ईसा पूर्व दर्शाते हैं। दूसरी कथा निशा शीर्षक से है जिसमें 3500 वर्ष पूर्व का विवरण दर्ज है।

14.    वेदांग ज्योतिष आदियुग को इस प्रकार से चिन्हांकित किया –“जब सूर्य, चंद्रमा, वसव, एक साथ श्रविष्ठा-नक्षत्र में थे तब आदियुग का प्रारंभ हुआ था।इस तथ्य की पुष्टि करते हुए वेदवीर आर्य ने साफ्टवेयर से गणना करके पहचाना कि – 15962 ईसा-पूर्व अर्थात आज से 15962+2021= 17,983 साल पहले हुआ था।

15.    ब्रह्मा प्रथम नक्षत्र-विज्ञानी हैं जिन्हौने 28 नक्षत्र, 7 राशि, की अवधारणा को स्थापित किया था आदिपितामह ब्रह्मा ने ही पितामह-सिद्धान्त की स्थापना की। धनिष्ठादि- नक्षत्र के नाम इस प्रकार हैं : धनिष्ठा, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्दा, पुनर्वसु, पुष्य,अश्लेषा, माघ, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजितश्रवण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती।

16.    वेदवीर आर्य जी ने ऋग्वेद के कालखंड को 14500 BCE से 11800 BCE तक कालखंड निर्धारित किया है। ऋग्वेद निर्माण के मध्यकाल को 11800 BCE से 11000 BCE तथा उत्तर ऋग वैदिक काल को 11000 BCE से 10,500 BCE (ईसा पूर्व) चिन्हित किया। अनुसंधानकर्ता श्री वेद वीर ने उन समस्त ऋषियों का भी सूचीकरण किया है जो वेद निर्माण में प्रमुख भूमिका में थे जिसमें लोपामुद्रा का नाम भी सम्मिलित है। ऋग्वेद के उपरांत यजुर्वेद अथर्ववेद सामवेद के निर्माण कालखंड को 14000 से 10500 BCE मानते हैं।

17.    वैदिक संहिताओं, और अन्य ग्रंथों उपनिषदों के लेखन का समय अर्थात कालखंड 10,500 ईसा पूर्व से 6777 ईसा सुनिश्चित करते हैं।

18.    भारत-भूमि पर ईसा पूर्व कम से कम 2.5 लाख से 2 लाख वर्ष पूर्व की कालाअवधि में मानव प्रजाति का जन्म हो चुका था, परंतु 72 हज़ार साल पूर्व के टोबा ज्वालामुखी के प्रभाव से होने वाली धूल मिट्टी इत्यादि के प्रभाव से बचने का केवल एक तरीका था कि लोग किसी कठोर संरचना जैसे गुफा, आदि के भीतर निवास करें। ऐसी स्थिति में पर्वतों जैसी विंध्याचल सतपुड़ा हिमालय तथा आदि की गुफाओं से श्रेष्ठ आश्रय स्थल और कौन सा हो सकता था। इसकी पुष्टि वनों में निवास करने वाले वनवासियों द्वारा बनाए गए शैल चित्रों से होती है जिनका निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के सतपुड़ा पर्वत माला में वाकणकर जी ने किया है। ऐसी स्थिति में यह तथ्य पूर्णता है स्पष्ट है कि.....

19.    इससे यह सिद्ध होता है कि जन-मानस में कहानियों के माध्यम से त्रुटिपूर्ण जानकारी को प्रविष्ट कराया जा रहा है। कहानी तो एक था राजा एक थी रानी के तरीके से सुनाई जा सकती थी परंतु गंगा से वोल्गा तक के सफर में ऐसा प्रतीत होता है कि बलात एक मंतव्य अर्थात नैरेटिव स्थापित करने की प्रक्रिया पूज्यनीय राहुल सांकृतायन ने करने का प्रयास किया है ।

20.    स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर जी ने भी आर्य सभ्यता एवं संस्कृति और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को पृथक पृथक रूप से वर्गीकृत कर समाज का वर्गीकरण करने में कोई कोताही नहीं बरती है। इतना ही नहीं वे कहते हैं कि महाभारत का युद्ध पहले हुआ तदुपरांत उपनिषदों का जन्म हुआ। यह तथ्यों की जानकारी अथवा साहित्यिक कृति के रूप में लिखी गई किताब अथवा लिखवाई गई किताब में संभव है कि ऐसा लिखवाया  जाए। वास्तव में तथ्य एवं सत्य यह है कि – “महाभारत ईसा के 3162 वर्ष पूर्व हुआ और संहिता ब्राह्मण आरण्यक एवं उपनिषदों की रचना का काल 10,500 से 6677 ईसा पूर्व माना गया है।

21.    साहित्य अकादमी से पुरस्कृत संस्कृति के चार अध्याय नामक कृति के प्रारंभ में ही ऐसी त्रुटियां क्यों की गई इसका उत्तर मिलना भले ही मुश्किल हो लेकिन इस कृति का उद्देश्य बहुत ही स्पष्ट रूप से समझ में आ रहा है कि पश्चिमी विद्वानों के दबाव में किसी राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते इस कृति का निर्माण किया गया। हतप्रभ हूं कि महाकवि पूज्य रामधारी सिंह दिनकर ने इसे क्यों स्वीकारा ?

22.    कालानुक्रम का बोध न होने के कारण पूज्य दिनकर जी ने एक स्थान पर लिखा है –“ कथा-किंवदंतियों का जो विशाल भंडार हिंदू पुराणों में जमा है उसका भी बहुत बड़ा अंश आग्नेय सभ्यता से आया है। किसी किसी पंडित का यह भी अनुमान है कि - रामकथा की रचना करने में आग्नेय जाति के बीच प्रचलित कथाओं से सहायता ली गई है तथा पंपापुर के वानरों और लंका के राक्षसों के संबंध में विचित्र कल्पनाएं रामायण मिलती हैं, उनका आधार आग्नेय लोगों की ही लोक कथाएं रही होंगी । किंवदंतियाँ और लोक कथाएं पहले देहाती लोगों के बीच फैलती हैं और बाद में चलकर साहित्य में भी उनका प्रवेश हो जाता है।

23.    रामधारी सिंह दिनकर जी ने पुराण में वर्णित सीता का उल्लेख किया है वह मान्य है किंतु यह कैसे मान लें कि दिनकर जी को इस तथ्य का स्मरण में नहीं रहा था कि ऋग्वेद में ज्ञान देवी सरस्वती और वेद निर्माण क्षेत्र की गुमशुदा नदी सरस्वती एक ही नाम थे परंतु एक देवी के रूप में और दूसरी नदी के रूप में भौतिक रूप में उपलब्ध थी। जिनका स्वरूप अलग अलग था। यह स्वाभाविक है कि एक ही नाम किन्ही दो व्यक्तियों के हो सकते हैं ।

24. दिनकर जी ने इस तरह है तो रामायण एवं महाभारत के संदर्भ में कृष्ण की व्याख्या नहीं थी और ना ही कोई तकनीकी साक्ष्य प्रस्तुत किए है जो यह साबित कर सके कि राम और कृष्ण इतिहास पुरुष है। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि वह इस तथ्य को तो स्वीकारते हैं कि राम और कृष्ण हमारे शाश्वत पुरुष हैं जिनकी चर्चा आज भी होती है किंतु वे उन्हें ऐतिहासिक रूप से संस्कृति के चार अध्याय में सम्मिलित नहीं करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दिनकर जी द्वारा जिन्होंने रश्मि रथी जैसी कृति का लेखन किया उनने जाने किन कारणों से इतिहास की शक्ल में एक कल्प-कथ्य लिखा होगा...?

25. एक और प्रश्न मस्तिष्क पर बोझ की तरह लगा हुआ था ... "ईसा के पंद्रह सौ साल पहले ईसा मसीह के जन्म काल तक क्या चार वेद 18 पुराण ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद, ज्योतिष भाषा विकास मोहनजोदड़ो हड़प्पा धौलावीरा, नर्मदा-घाटी के आसपास के अतिरिक्त  सभी नदियों के आसपास ) सभ्यता एवं संस्कृति का विकास कैसे हो गया था ?

             भाषा बनने में ही कम से कम 100 वर्ष  लग जाते हैं भाषा के विकास में कम से कम 500 साल फिर उन ग्रंथों को रचना इतना आसान तो नहीं ..?

26. समाज का तत्समय चार नहीं 5 खंड में विभाजन किया गया था न कि 4 खंडों में। ब्राह्मण क्षत्रि वैश्य एवं छुद्र (शूद्र ) एवं चांडाल। यह वर्गीकरण पेशे के आधार पर था। पांचों वर्णों का क्रमश: ब्राह्मण क्षत्रि वैश्य एवं छुद्र (शूद्र ) एवं चांडाल का कार्याधारित वर्गीकरण किया गया था न कि जाति के आधार पर।

1.                शूद्र: शूद्र शब्द केवल छुद्र शब्द का अपभ्रंश है। चीनी यात्रियों के द्वारा लिखित विवरण अनुसार उपरोक्त तथ्य प्रमाणित हैं। छुद्र अस्पृश्य नहीं होते। न ही उनको दलित या महा दलित जैसे विशेषणों से संबोधित करना चाहिए । केवल तत्कालीन समय में चांडाल स्वयंभू अस्पृश्य थे।

2.                वणिक या वैश्य: इस वर्ण का कार्य व्यवसाय से अर्थोपार्जन करना था। राज्य की वित्तीय व्यवस्था का के भुगतान एवं राजा को आवश्यकतानुसार धन उपलबढ़ा कराने का दायित्व प्रमुख-रूप से इसी वर्ग का था। ताकि राज्य में क्ल्यानकारी कार्यों, सामरिक, रक्षा, आदि की व्यवस्था के लिए धन का प्रवाह हो सके। इसे रामायण काल कृष्ण के काल, तदुपरान्त नन्द वंश के विवरण एवं अन्य राजाओं के इतिहास के सूक्ष्म विश्लेषण से समझा जा सकता है।

3.                क्षत्री: राज्य की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा व्यवस्था, का भार सम्हालने का दायित्व इसी वर्ण का था

4.                ब्राह्मण: शास्त्र अर्थात- अध्यात्म, दर्शन, कला, शिल्प, युद्ध की नीति, राज्य की नीति, एवं अन्य मानवोपयोगी ज्ञान जैसे आयुर्वेद् वास्तु-कला करना

चांडाल: मानवीय एवं पशुओं के शवों के निपटान शमशान की व्यवस्था, जैविक-कचरे का निपटान कर स्वच्छता का उत्तर-दायित्व। समाज में उनको उनके राजा के अधीन किया था। काशी में यह परंपरा आज भी देखी जा सकती है। केवल तत्कालीन समय में चांडाल स्वयंभू अस्पृश्य थे। वे बहुसंख्यक शाकाहारी समुदाय को स्पर्श नहीं करने देना चाहते थे। क्योंकि वे कायिक-कचरे के निपटान में शामिल होते थे अत: आयुर्वेदिक अनुदेशों का पालन करते हुए लोक-स्वास्थ्य-गत कारणों से गाँव में प्रविष्ट होते समय ढ़ोल पीटते शोर मचाते थे। शमशान घाटों पर भी किसी को भी न छूने की परंपरा का पालन कराते थे ।

 

 

 

 







पुस्तक प्राप्ति : अमेजान, फ्लिप-कार्ट, गूगल बुक्स 

10.4.22

“भगवान श्री राम का जन्म ईसा पूर्व 3 फरवरी 5674 ईसा पूर्व हुआ था..!”

 

विदित है आपको कि  कि भगवान श्री राम की वंशावली राम से शुरू नहीं होती इक्ष्वाकु वंश के वंशज हैं. जिनके वंशज आज भी भारत में मौजूद हैं . राम की त्रेता युगीन वंशावली आज से 6777 ईसापूर्व से 5577 वर्ष ईसापूर्व में त्रेता युग के 5674 से  5577 ईसापूर्व की अवधि में अस्तित्व में रही है  . श्रीराम का ऐतिहासिक कालखंड 97  वर्षों का आंकलित है. भगवान राम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी जब शनि का उदय (exaltation) हुआ था .श्री वेदवीर आर्य अपनी कृति The Chronology of India के पेज क्रमांक 217  में इस तथ्य का भी उल्लेख करतें हैं कि उस समय तुला राशि की स्थिति 26°52¨ पर थी. यह स्थिति 3 फरवरी 5674 ईसा-पूर्व को थी. अत: श्री राम का जन्म ईसा पूर्व 3 फरवरी 5674 को हुआ था.  

आप सोचते होंगे कि-“वर्त्तमान में राम नवमीं अप्रैल माह से मई माह होती है ..तब उस समय फरवरी माह में चैत्र मास कैसे पड़ा फरवरी माह में शीत ऋतु होती है ?”- आपका प्रश्न स्वाभाविक है. परन्तु पृथ्वी पर ऋतुएँ पृथ्वी के “अयन-चलन” के कारण होतीं हैं .  

अयन गति या अयन चलन किसी घूर्णन (रोटेशन) करती खगोलीय वस्तु में गुरुत्वाकर्षक प्रभावों से अक्ष (ऐक्सिस) की ढलान में धीरे-धीरे होने वाले बदलाव को कहा जाता है। अगर किसी लट्टू को चलने के बाद उसकी डंडी को हल्का सा हिला दिया जाए तो घूर्णन करने के साथ-साथ थोड़ा सा झुकने भी लगती है । सन् 2700 ईसापूर्व के काल में पृथ्वी का जो ध्रुव तारा था लेकिन अयन चलन की वजह से ध्रुव के ऊपर से हट गया । वर्त्तमान में पृथ्वी 23.5 डिग्री झुकी है .

अन्य परिणाम :- अयन चलन से अब यह ध्रुव तारा नहीं रहा है।

अयन चलन की वजह से वर्तमान युग में सूरज बसंत विषुव के दौरान मीन तारामंडल के क्षेत्र में पड़ता है।

अयन चलन की वजह से वर्तमान युग में सूरज बसंत विषुव के दौरान मीन तारामंडल के क्षेत्र में पड़ता है।

ब्रह्मगुप्त और लल्ल ने अयन चलन के संबंध में काई चर्चा नहीं की है, परंतु आर्यभट द्वितीय ने इस पर बहुत विचार किया है।

काल्पनिक खगोलीय गोले के अन्दर पृथ्वी का अयन चलन-देखा जा सकता है कि उत्तर ध्रुव से निकलती हुई काल्पनिक अक्ष रेखा समय के साथ-साथ भिन्न तारों की तरफ़ जाती है, जिस से हज़ारों सालों के स्तर पर पृथ्वी का ध्रुव तारा बदलता रहता है

अयन चलन के कारण सूर्य की रश्मियाँ पृथ्वी पर सूर्य के स्थावर होने के कारण तिरछी गिरतीं हैं. जो ऋतु-परिवर्तन का कारण बनतीं हैं.

बाल्मिकी रामायण में वर्णित राम जन्म तिथि के इस वर्णन का नासा द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर के अनुसार श्री आर्य ने श्रीराम चन्द्र जी के जन्म की तिथि को प्रचलित ईस्वी कैलेण्डर की ऋणात्मक तिथि (दिनांक) का आंकलन किया है.  इस विवरण को मैंने अपनी कृति भारतीय मानव सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेश द्वार में भी शामिल किया है...            




5.4.22

नवरात्रि पांचवा दिवस : स्कंदमाता की आराधना

नवरात्रि का पांचवा दिवस : स्कंदमाता की आराधना
  भारतीय भक्ति दर्शन में जीवन मोक्ष के लिए जिया जाता है, जो मनुष्य स्वर्ग की कामना  के बिना भक्ति मार्ग को अपनाते हैं *मुमुक्ष* कहलाते हैं . नवरात्रि का यह दिन आराधना के साथ-साथ आत्मोत्कर्ष के लिए शक्ति की आराधना करने का दिन है। आज हम आराध्या देवी माता स्कंदमाता का स्मरण करेंगे। स्कंदमाता पथभ्रष्ट चिंतन को सही मार्ग पर लाने वाली शक्ति का प्रतीक है।
    ज्योतिष कहा गया है कि जिन जातकों का बृहस्पति कमजोर है वी स्कंध माता की आराधना करें तो उनका बृहस्पति उनके अनुकूल होगा ।
   स्कंदमाता को पीला रंग पसंद है साधक को आज पीले रंग के वस्त्र धारण करके मां की आराधना करनी चाहिए ।
   जिन बालक बालिकाओं का विवाह नहीं हो रहा है उन्हें ना केवल पंचमी के दिन बल्कि हमेशा स्कंदमाता की आराधना करनी चाहिए। स्कंदमाता बुद्धि ज्ञान एवं प्रपंच योग के लिए अनुकूल अवसर उपलब्ध करातीं हैं ।
    जिनके गुरु कुंडली में कमजोर हैं उन्हें गुरु माता अर्थात गुरुदेव की पत्नी मां महिला शिक्षिका या ज्ञान देने वाली किसी भी महिला के प्रति समान भाव रखना होगा। जातक को यथासंभव पंचमी में व्रत रखना चाहिए।
   पूजन के समय जब आप माता की प्रतिमा की सजावट करते हैं उन्हें नहीं लाते हैं उनका वात्सल्य पाने के लिए या
नवरात्र का पांचवा दिन मां स्कंदमाता के नाम होता है। मां के हर रूप की तरह यह रूप भी बेहद सरस और मोहक है। स्कंदमाता अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती है। चाहे जितनाभी बड़ा पापी क्यों ना हो अगर वह मां के शरण में पहुंचता है तो मां उसे भी अपने प्रेम के आंचल से ढ़क लेती है। मां स्कंदमाता की पूजा नीचे लिखे मंत्र से आरंभ करनी चाहिए।
1 बाधा मुक्ति के लिए मंत्र
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:,
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:
2 आत्मरक्षा के लिए मंत्र
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे, सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते'
3 विवाह के लिए मंत्र
'पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्, तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्  ।
    यदि आज आप यह सब नहीं कर पाते हैं तो भी मां कभी अपने पुत्रों पुत्रियों के प्रति क्रोध का भाव नहीं रखती है। अगर हम यह सब नहीं कर सकते तो हम आज एक ऐसी महिला के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करें जो विदुषी अथवा किसी भी क्षेत्र में विशिष्ट ज्ञान रखती है, ऐसी महिला आपकी मां बहन पुत्री पत्नी कोई भी हो सकती है ।
   हमें इन 9 दिनों में विशेष रुप से ना तो अपमानित करना है ना ही उनकी उपेक्षा करनी है।
    सनातन धर्म ने 365 दिनों में 18 दिवस क्वार एवं चेत्र माह में इस शक्ति साधना के लिए पूर्ण विराम ताकि यह अभ्यास हमारी जीवन में स्थाई रूप से आदत में परिवर्तित हो जावे।
    सनातन धर्म नारी की स्थिति श्रेष्ठतम स्थान पर है। अन्य विदेशी संप्रदायों में अत्यंत प्रतिबंध असामान्य व्यवहार क्रूरता उपेक्षा और दासता पर कोई नियम निर्देशित नहीं है ।

नवरात्रि का चतुर्थ दिवस : माता कुष्मांडाकी आराधना



    आज नवरात्रि का चतुर्थ दिवस है और आज कुष्मांडा देवी की आराधना करेंगे। आप यह जानते हैं कि सृष्टि का निर्माण शक्तियों से हुआ है। ब्रह्मांड का निर्माता होने के कारण तथा शक्ति का सर्वोच्च पुंज होने के कारण मां कुष्मांडा को आप तेजस स्वरूप में देख सकते हैं। भारतीय सनातन में सृष्टि का निर्माण वैज्ञानिक सांकेतिक सत्य है। जिसमें यह कहा है कि सृष्टि का सृजन शक्ति के बिना असंभव है। शक्ति के अभाव में ना तो दुनिया चलती है नाही शरीर यहां तक कि इस संपूर्ण ब्रह्मांड जिसमें हजारों आकाशगंगा नक्षत्र लाखों सूर्य का अस्तित्व है जो अनंत विस्तारित है उसके संचरण में संचालन में शक्ति की मौजूदगी अर्थात उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। मां कुष्मांडा के मौजूद होने तथा उनके अस्तित्व का अर्थ है कि यह वह शक्ति है जिसके माध्यम से पूरा विश्व जीवंत है और संपूर्ण ब्रह्मांड विभिन्न गतिविधियों से गतिमान है।
   हम जिस गैलेक्सी में निवास करते हैं जिसे हम मिल्की वे गैलेक्सी कहते हैं उस गैलेक्सी के हजारों सूर्य में हमारे सूर्य के मंडल में मां कुष्मांडा के अस्तित्व की कल्पना पुराना एवं सनातन शास्त्रों में की गई है। अगर हम वैज्ञानिक भाषा में कहें तो अष्टभुजी मां कुष्मांडा द्वारा प्रदत्त ऊर्जा से विश्व ही नहीं बल्कि समूचे ब्रह्मांड अस्तित्ववाद है।
   मां अष्टभुजा के हाथों में कमंडल धनुष बाण कमल अमृत से भरा हुआ कलश चक्र गदा है तथा एक हाथ में सिद्धियों और निधियों की दात्री जपमाला दर्शित है। मां कुष्मांडा के वाहन को सिंह के स्वरूप में प्रदर्शित किया है।

सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।

दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे ॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।

पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।

सामान्य व्यक्ति को इस श्लोक का जाप करना चाहिए 

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।'

विशेष :- इस दिन जहाँ तक संभव हो बड़े माथे वाली तेजस्वी विवाहित महिला का पूजन करना चाहिए। उन्हें भोजन में दही, हलवा खिलाना श्रेयस्कर है। इसके बाद फल, सूखे मेवे और सौभाग्य का सामान भेंट करना चाहिए। जिससे माताजी प्रसन्न होती हैं। और मनवांछित फलों की प्राप्ति होती है।


   

4.4.22

शूद्रों के साथ वेदों में कोई दुर्व्यवहार नहीं किया..!

   *हमें उपनिवेश काल के किसी भी दस्तावेज पर ना तो भरोसा करना चाहिए ना ही उसे अब पुनः रेखांकित करने की आवश्यकता है।*
          ईसाई मिशनरी ने कहा था कि-" अगर ब्राह्मण ना होते तो हम पूरे हिंदुस्तान को कन्वर्ट कर लेते"
       उपनिवेश काल में हिंदुस्तान को क्रिस्चियन बनाने के लिए विंस्टन चर्चिल का वह वाक्य भी विस्मरण हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि-" भारत एक भौगोलिक स्थान है इसे देश ना कहा जाए। ठीक उसी तरह जैसे भूमध्य सागर।"
     उपरोक्त दोनों बातें एक दूसरे की पूरक है। और यह हम वर्तमान में देख भी रहे हैं। भरत एक ऐसा देश है जहां पर उसके विद्वान वर्ग को लांछित और अपमानित करने में कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ता है। यह वर्ग है ब्राह्मणों का। मैंने अपनी कृति भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेश द्वार 16000 ईसा पूर्व ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि-" वर्ण व्यवस्था तत्कालीन भारतीय व्यवसायिक व्यवस्था पर आधारित थी।' कृति के अध्ययन करने पर आप पाएंगे कि भारत में दलित शब्द कभी भी इस्तेमाल नहीं किया गया है। वर्ण व्यवस्था के तहत क्षात्र वर्ण वाले लोगों ने अपनी जैसे वर्ण वाले लोगों के बीच रोटी बेटी का रिश्ता रखा। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत वह क्षत्रिय कहलाए। कालांतर में विदेशी यमन मुस्लिम आक्रांताओं एवं ब्रिटिश उपनिवेश काल में वर्ण व्यवस्था अचानक कब जाति व्यवस्था में इसकी पतासाजी करने पर पता चला कि जातियों को चिन्हित करने तथा समाज को वर्गीकृत करने में ब्रिटिश उपनिवेश काल का सर्वाधिक योगदान रहा है।
    वैश्य वर्ण बड़े व्यवसाय करता था चंद्रगुप्त मौर्य के कालखंड में उसे श्रेष्ठी या श्रेष्ठि वर्ण से संबोधित किया गया।
    बड़े व्यवसाय करने वाले का कार्य आंतरिक अर्थात अंतर्देशीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादों को भेजना और धन कमाना था। अर्थव्यवस्था में जनता पर बहुत अधिक भार नहीं हुआ करता था बल्कि वैश्य वर्ण पर राजसत्ता को राज्य के प्रबंधन के लिए धन की व्यवस्था करने का दायित्व दिया गया था।
छोटे व्यवसाय करने वाले वर्ण को छुद्र शब्द की संज्ञा दी गई। शूद्र शब्द उसी का पर्याय है। मैंने अपनी कृति में पांचवें वर्ण का उल्लेख किया है जो चांडाल वर्ण है। चांडाल वर्ण का काम शवों के निपटान का कार्य था कृति में आप भली प्रकार उस बिंदु का विश्लेषण देख सकते हैं।
    जाति व्यवस्था ना तो वैदिक काल में थी नाही विदेशी यात्रियों के भारत आगमन पर खास तौर पर चीनी यात्रियों के आगमन पर देखी गई।
  इसका आशय स्पष्ट है कि प्राचीन भारत ने जाति प्रथा एक व्यवस्था के अंतर्गत परिलक्षित होती है जिसे वर्ण व्यवस्था कहते हैं। अर्थात जैसे स्वर्ण आभूषणों का कार्य करने वाला व्यक्ति स्वर्णकार सोनी सर्राफ कहलाता है। मित्रों कश्मीर में लोहार वंश ने राज किया। यह तथ्य कल्हण की राजतरंगिणी नामक किताब में उल्लेखित है। अर्थात जाति बाध्यता नहीं है राजा को क्षत्रिय जाति का होना आवश्यक नहीं था। कल्याण स्वयं भी इन सब बातों पर ना तो भरोसा करते थे और ना ही इस पर उन्होंने प्रकाश ही डाला है। शक हूण जैसी विदेशी जातियां ने भारत में वैवाहिक संबंध स्थापित किए। अगर भारतीय जाति व्यवस्था प्राचीन इतिहास में जटिल होती तो ऐसा नहीं होता।
आइए अब हम चलते हैं ब्राह्मणों को अपमानित करने वाले आख्यानों नैरेटिवस पर।
    किसी भी संप्रदाय का लक्ष्य होता है कि वह अपने मंतव्य को स्थापित करते हुए संप्रदाय की जनसंख्या में वृद्धि करें। ऐसा ही हमेशा हुआ है। यवन, अपनी संस्कृति और सभ्यता को विस्तारित करने के उद्देश्य से भारत में आई थी। तदुपरांत अब्राह्मिक संप्रदायों ने अपना विस्तार करने का बीड़ा उठाया। और यह तब तक संभव ना था जब तक कि आप किसी वर्ग का ध्रुवीकरण करके उसे इनोसेंट पीड़ित प्रताड़ित साबित ना करें। ऐसा करने के बाद उसकी मानसिक स्थिति परिवर्तित होते ही अपने संप्रदाय में शामिल करने में बहुत आसानी होती है।
    नवबौद्ध भी यही सब कर रहे हैं। अब जब भारत में पिछले 100 वर्षों में यह स्थापित कर दिया गया है कि भारत जाति व्यवस्था से ग्रस्त है तथा यह साबित किया जा चुका है निकली जातियां बड़ी जातियों से पीड़ित रहे हैं ऐसी स्थिति में हिंदू धर्म को मानने वालों को आसानी से अपने संप्रदाय में शामिल किया जा सकता है। हां यह बात अवश्य है कि यह सब कुछ मध्यकाल और उसके बाद की स्थिति है।
    आप जानते ही होंगे बामसेफ एवं वामन मेश्राम तथा रावण जैसे लोग आज भी ब्राह्मणों के खिलाफ विष अमन करने में पीछे नहीं रहते।
ऐसे लोगों को स्पष्ट संदेश देना चाहूंगा की जाति व्यवस्था व्यक्ति के कार्यों पर आधारित थी जो कालांतर में जातीय संगठनों में परिवर्तित हो गई। मित्रों रामायण कालीन भारत में राम कथा में वर्णित शबरी के जूठे बेर खाना अथवा निषादराज को अपना मित्र बताना किस तत्व का प्रमाण है कि भारतीय व्यवस्था में जातियों के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्थान नहीं था। मित्रों भगवान राम क्षत्रिय थे भगवान कृष्ण यादव थे हम उनको नमन करते हैं और उनके प्रति ईश्वर तुल्य आस्था रखते हैं उन्हें भगवान मानते हैं।
     वर्तमान समय में जिस तरह से जातीय डिस्क्रिमिनेशन कथित शेड्यूल्ड जातियों में देखा जाता है उतना अन्य कहीं नहीं। अब ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं छुद्र के बीच वैवाहिक संबंध भी स्थापित हो रहे हैं। परंतु प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जहां भीड़ का महत्व है ध्रुवीकरण हो जाता है। निर्वाचन आयोग को चाहिए कि प्रेस एवं राजनीतिक दलों को ऐसी एडवाइजरी जारी करें अथवा ऐसे नियम स्थापित करें जो जातीय एवं सांप्रदायिक आधार पर प्रजातांत्रिक महापर्व में भाग लेने वाली लोगों को हतोत्साहित करें।
    धर्म केवल सनातन है शेष सभी संप्रदाय हैं संप्रदाय में धर्म के मौलिक सिद्धांतों का समावेश होता है। संप्रदाय देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने सिद्धांतों को सुनिश्चित करते हैं। शैव वैष्णव शाक्त संप्रदायों को मानने वालों के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने द्वैत अद्वैत अद्वैताद्वैत को स्पष्ट रूप से समझाया है। परंतु हम फिर से वर्गीकृत हो रहे हैं सनातनी यों को चाहिए कि वह एकात्म भाव से सनातन को अंगीकार करें।
    ब्रिटिश कॉलोनी पीरियड में जिस तरह से वर्गीकरण किया गया सन 1800 और उसके उपरांत भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न हितकारी विवरणों को सम्मिलित कर दिया गया। जिससे सामाजिक समरसता के ढांचे में जातिवाद क्षेत्रवाद भाषावाद को बल मिला है। और यही नकारात्मक बिंदु भारत को विश्व गुरु बनने से रोकेंगे।
   *हमें उपनिवेश काल के किसी भी दस्तावेज पर ना तो भरोसा करना चाहिए ना ही उसे अब पुनः रेखांकित करने की आवश्यकता है।*
     हाल ही में एक सामाजिक सम्मेलन में इसी तरह का कुछ घटनाक्रम घटित हुआ जिसमें ब्रिटिश कॉल खंड के विवरण को रेखांकित करते हुए उस जाति के लोगों को दुखी करने की कोशिश की गई। जब हम अब मुगल एवं अंग्रेजों द्वारा स्थापित मंतव्य का खंडन कर चुके हैं तथा यथासंभव करते भी जा रहे हैं तब हमें उनके दस्तावेजों के हवाले से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। हमें केवल राष्ट्र के प्रति सोचना है और वह भी शुद्ध भारतीय बनकर। अनर्गल वार्ता तथ्यहीन मंतव्य हमारी आत्मा साहस को कमजोर करते हैं। यही मेरी मनोकामना है कि हम अपने समूह में अपने समाज में अपने राष्ट्र में एकात्मता के भाव को प्रेरित करें ताकि हम भारत को विघटित करने वाली ताकतों से जुड़ सकें।
वेदों में छुद्र (शूद्र) वर्ण के अधिकार
   एक विवरण के अनुसार वेदों में यज्ञादि अधिकार प्राप्त थे ....


• परम्परा

वैदिक ग्रंथों में नहीं किया गया है शुद्रों के साथ भेदभाव




सचिन सिंह गौर

देश में दलित विमर्श करने वाले बुद्धिजीवियों द्वारा सनातन धर्म पर शुद्रों के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया जाता है। इसके लिए अक्सर श्रीराम द्वारा शम्बुक का वध किए जाने जैसी घटनाओं का उल्लेख किया जाता है। यदि हम शम्बुक की पूरी कथा और वेदादि शास्त्रों में शुद्रों के लिए दी गई व्यवस्थाओं को देखें तो यह कथा विश्वसनीय नहीं लगती।

शम्बूक वध का प्रसंग उत्तर रामायण में मिलता है जिसके अनुसार शम्बूक नाम के एक शूद्र के तपस्या करने के कारण अयोध्या में एक ब्राह्मण का पुत्र अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है। तत्पश्चात वह ब्राह्मण श्रीरामचंद्र के दरबार में जाकर अपने पुत्र की अकाल मृत्यु की शिकायत करता है एवं आरोप लगाता है कि यह राजा का दुष्कृत्य है जिसके परिणामस्वरूप ऐसा हुआ। तब श्रीराम ब्राह्मणो और ऋषियों की एक सभा करते हैं जिसमें नारद मुनि कहते हैं अवश्य ही आपके राज्य में कोई शूद्र तप कर रहा है जिसके फलस्वरूप ऐसी घटनायें हो रही हैं। चूंकि त्रेता युग में शूद्र का तप करना पूर्णत: वर्जित है एवं हानिकारक था, इसलिए यह सुनते ही श्रीराम चंद्र अपने पुष्पक विमान पर सवार हो ऐसे शूद्र को ढूंढने निकल पड़ते हैं। दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था।

प्रसंग के अनुसार श्रीराम उस शूद्र के पास जाते हैं और पूछते हैं ‘तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ की तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?’ कलेश रहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला – हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक है। इतना सुनते ही श्रीराम अपनी तलवार से उसका वध कर देते हैं। यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता है।


इस प्रसंग को आधार बनाकर आज खूब राजनीति की जाती है, जबकि यह प्रसंग पूर्ण रूप से असत्य, काल्पनिक, प्रक्षिप्त है और बाद के काल में उत्तर रामायण में जोड़ा गया है। वैसे तो पूरी उत्तर रामायण ही संदिग्ध है, क्यूंकि महर्षि वाल्मीकि अपनी रामायण में केवल 6 काण्ड ही लिखे थे और युद्ध कांड में रावण वध के पश्चात श्रीराम जानकी और लक्ष्मण के अयोध्या वापिस आने पर रामायण समाप्त कर दी थी।
निषाद के साथ पढऩे वाले उससे जीवन भर मित्रता निभाने वाले, भील शबरी के जूठे बैर खाने वाले, वनवासियों को साथ लेकर उनका आत्मविश्वास बढ़ाकर रावण जैसे शक्तिशाली राजा का मान मर्दन करने वाले रघुनाथ ऐसा कार्य करें, यह असंभव है। इस प्रसंग को जोडऩे का कारण पूरी तरह राजनीतिक ही रहा होगा।

जहाँ तक शूद्रों के ऊपर किये जाने वाले अत्याचार करने और तपस्या न करने देने की बात है तो शास्त्रों में कहीं भी शूद्र को तपस्या करने, यज्ञ करने का निषेध नहीं किया गया है। सनातन धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ वेदों के आधार पर ये बात सर्वसिद्ध है। वेदों के नाम और सर्ग के अनुसार हमने यहाँ इस विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

वेदों में शूद्रों के विषय में कई मन्त्र एवं श्लोक हैं जो समाज में शूद्रों के महत्व का वर्णन करते हैं। वेदों में शुद्र को अत्यंत परिश्रमी कहा गया है। तप शब्द का प्रयोग अनंत सामथ्र्य से जगत के सभी पदार्थों की रचना करने वाले ईश्वर के लिए वेद मंत्र में हुआ है।

महापुराण में कहा गया है कि त्रेता युग में केवल एक वेद था, यजुर्वेद। यजुर्वेद मुख्य रूप से यज्ञों का विधान है। यज्ञ आर्य संस्कृति में सबसे मत्वपूर्ण, फलदायी एवं पवित्र कर्म माना गया है। अग्नि पवित्र है और जहां यज्ञ होता है, वहां संपूर्ण वातावरण, पवित्र और देवमय बन जाता है। यज्ञवेदी में ‘स्वाहा’ कहकर देवताओं को भोजन परोसने से मनुष्य को दुख-दारिद्रय और कष्टों से छुटकारा मिलता है। यजुर्वेद में कई मन्त्र हैं जो शूद्र को यज्ञ तप करने का अधिकार देते हैं। जिनसे स्पष्ट है कि शूद्र को यज्ञ आर्यों का सबसे पवित्र कर्म करने का पूर्ण अधिकार था।
यजुर्वेद अध्याय 30 मन्त्र 5 में कहा गया है – तपसे शुद्रम् अर्थात् तप यानी कठोर कर्म करने वाले पुरुष का नाम शुद्र है।
     यजुर्वेद अध्याय 16 मन्त्र 27 कहता है – नमो निशादेभ्य अर्थात् – शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (निषाद यानी शुद्र) हैं उनको नमन है ।
    ऋग्वेद 10. 53. 5 में कहा गया है – पञ्च जना मम होत्रं जुषन्तां गोजाता उत ये यज्ञियास: अर्थात् पांचों वर्गों के मनुष्य यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र यानी अवर्ण मेरे यज्ञ को करें। इसमें वर्ण व्यवस्था से बाहर के अतिशूद्रों का भी वर्णन है।
     वेदों में शूद्रों के लिये अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें :
वैदिक ग्रंथों में नहीं किया गया है शुद्रों के साथ भेदभाव




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नवरात्रि का तीसरा दिन : माता चंद्रघंटा की आराधना

आज 4 अप्रैल 2022 को नवरात्र का तीसरा दिन है और इस दिन हम मां चंद्रघंटा की आराधना करेंगे। मां चंद्रघंटा की विग्रह की आराधना के लिए जिस श्लोक से आवाहन किया जाएगा वह निम्नानुसार
पिण्डजप्रवरारुढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता | 
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता 
यदि यह श्लोक आप याद ना कर पाए तो निम्नलिखित श्लोक को पढ़िए
*या देवी सर्वभू‍तेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।*
*नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।*
    देवी के स्वरूप को समझने के लिए निम्न विवरण को अवश्य देखिए
माँ का यह स्वरूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घंटे का आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण से इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं। इनके दसों हाथों में खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने की होती है।
  मां चंद्रघंटा साधक को आत्मिक शांति एवं दुष्ट पर शक्तियों से मुक्त करती हैं।
सनातन पूजा प्रणाली में केवल मूर्ति पूजा का महत्व ही नहीं है बल्कि साकार आराधना को भी महत्वपूर्ण माना है। मां चंद्रघंटा के पूजन के लिए अगर आप अनुकूल वातावरण महसूस नहीं कर पा रहे हैं या आपको अनुकूल वातावरण नहीं मिलता है तो आप किसी भी श्यामवर्णी तेजस्विनी विवाहित महिला को बुलाकर उन्हें सम्मान देते हुए उनका पूजन करें तथा उन्हें आहार सम्मान सहित खिलाए आहार में दही और हलवा अवश्य दिया जाना चाहिए।
   सनातन को अपमानित करने वालों के लिए यह बता देता हूं कि-" सनातन में नारी का सम्मान करना सर्वोपरि धर्म है।"

3.4.22

नवरात्रित् द्वितीय दिवस की आराध्या देवी ब्रह्मचारिणी के बारे में

                 हिमालय पुत्री की मनोकामना थी  कि उनका विवाह  शिव के साथ हो। देवर्षि नारद उनकी मनोकामना की पूर्ति के लिए उन्हें कठोर तपस्या की सलाह देते हैं । सलाह मानते हुए हिमालय सुता ने 1000 वर्ष तक शिव की कठोर आराधना की और इस आराधना तपस्या के दौरान उन्होंने 1000 वर्ष केवल फल फूल खाए और 100 वर्षों तक केवल शाक आदि खाकर जीवन ऊर्जा प्राप्त की।
   आज यानी 3 अप्रैल 2022 को नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की आराधना के लिए हमें निम्नानुसार क्रियाएं करनी चाहिए...
 मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से व्यक्ति को अपने कार्य में सदैव विजय प्राप्त होता है। मां ब्रह्मचारिणी दुष्टों को सन्मार्ग दिखाने वाली हैं। माता की भक्ति से व्यक्ति में तप की शक्ति, त्याग, सदाचार, संयम और वैराग्य जैसे गुणों में वृद्धि होती है। आइए जानते हैं, मां ब्रह्मचारिणी की पूजा- सामान्य रूप से कैसे करें
• इस दिन सुबह उठकर जल्दी स्नान कर लें, फिर पूजा के स्थान पर गंगाजल डालकर उसकी शुद्धि कर लें।
• घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करें।
• मां दुर्गा का गंगा जल अथवा पवित्र नदी का जल जो स्थानीय रूप से उपलब्ध है से अभिषेक करें।
• अब मां दुर्गा को अर्घ्य दें।
• मां को अक्षत, सिन्दूर और लाल पुष्प अर्पित करें, प्रसाद के रूप में फल और मिठाई चढ़ाएं।
• धूप और दीपक जलाकर दुर्गा चालीसा का पाठ करें और फिर मां की आरती करें।
• मां को भोग भी लगाएं। इस बात का ध्यान रखें कि भगवान को सिर्फ सात्विक चीजों का भोग लगाया जाता है।
यदि मां ब्रह्मचारिणी के मंत्र को आप याद ना रख सकें तो निम्न लिखित मंत्र को सहजता से याद किया जा सकता है और एकाग्र चित्त होकर मां ब्रह्मचारिणी की आराधना की जा सकती है-

• मां ब्रह्मचारिणी का मंत्र:
या देवी सर्वभू‍तेषु ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
मां ब्रह्मचारिणी की आरती:
जय अंबे ब्रह्माचारिणी माता।
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।
ब्रह्मा जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो।
ब्रह्मा मंत्र है जाप तुम्हारा।
जिसको जपे सकल संसारा।
जय गायत्री वेद की माता।
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता।
कमी कोई रहने न पाए।
कोई भी दुख सहने न पाए।
उसकी विरति रहे ठिकाने।
जो ​तेरी महिमा को जाने।
रुद्राक्ष की माला ले कर।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर।
आलस छोड़ करे गुणगाना।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना।
ब्रह्माचारिणी तेरो नाम।
पूर्ण करो सब मेरे काम।
भक्त तेरे चरणों का पुजारी।
रखना लाज मेरी महतारी।
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            सनातन धर्म की विशेषता यह है कि वह इसी प्रकार की असंभव और कष्ट साध्य साधना के लिए साधक को बाध्य नहीं करता। जबकि अन्य संप्रदायों में जो हिंदू धर्म से अलग हैं कठोरता और भय समाविष्ट है परंतु सनातन में मन की शुचिता, आचार व्यवहार मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का होना आवश्यक है। और आप जिस जिस देवी मां अर्थात मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करेंगे वह स्वयं तो कठोर तापसी हैं किंतु अपने साधकों के प्रति दयालु भी हैं। ब्रह्मचारिणी की आराधना से जो फल की प्राप्ति होती है वह शक्ति पूजा में विशेष महत्व रखती है। हम 9 दिनों तक शक्ति पूजन करेंगे किंतु अगर हमारा मन मानस और चेतना समन्वित रूप से नहीं रह सकेगी तो हमारी पूजा का कोई अर्थ नहीं है। अतः हमें पूरी नवरात्रि के समय गंभीरता के साथ मन मानस और चेतना समन्वयन (सिंक्रोनाइज़ेशन) शुचिता के साथ करना चाहिए। अन्यथा पूजन का कोई अर्थ नहीं निकलता। शक्ति पूजा के दौरान मन में किसी भी तरह की विलासिता के भाव विशेष रुप से नहीं आने चाहिए । यदि आप मानसिक रूप से अपनी इंद्रियों को वश में नहीं कर सकते हैं तो पूजन अर्चन का अर्थ ही नहीं निकलेगा। आइए आज हम ब्रह्म मुहूर्त में उठकर मां ब्रह्मचारिणी की आराधना का उपरोक्त बताई गई विधि से प्रारंभ करें

2.4.22

नवरात्रि प्रथम दिवस जानिए मां शैलपुत्री के बारे में


   
       विक्रम संवत 2079 के शुभ आगमन पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई
    महाराजा विक्रमादित्य के नाम पर स्थापित सनातनी नव वर्ष में भारत का प्रवेश आज अंग्रेजी कैलेंडर दिनांक 2 अप्रैल 2022 से हो चुका है।
चैत्र नवरात्र भी आज से प्रारंभ है । आज हम साक्षात मां पार्वती अर्थात शैलपुत्री के स्मरण मैं अपना दिवस बिता रहे हैं। भारतीय सनातन परंपरा में नारी को समानता का ही अधिकार नहीं है बल्कि श्रेष्ठता प्रदान की गई है । पौराणिक मान्यताओं एवं पुराणों में लिखित तथ्यों के आधार पर अरुणाभ वस्त्र धारी मां शैलपुत्री को बेल पर विराजित ऐसी दिव्य तेजस्वी मां के रूप में दर्शित किया गया है जिनके एक हाथ में कमल और दूसरे हाथ में त्रिशूल होता है। कमल भारतीय संस्कृति और दर्शन में महत्वपूर्ण पुष्प है। अगर इसके भावार्थ को समझा जाए तो यह पोस्ट दर्शन अध्यात्म जीवन दर्शन एवं ज्ञान का प्रतीक है। कमल की निकले भाग को मृणाल कहते हैं। दूसरी ओर माता शैलपुत्री जो वस्तुतः हिमालय की पुत्री मानी जाती हैं या हिमालय की पुत्री के रूप में परिभाषित हैं, के हाथ में त्रिशूल दिखाई देता है। अर्थात ज्ञान वन होना और दुष्ट दलन का अधिकार भारत की हर स्त्री को भारतीय जीवन दर्शन में सम्मिलित किया गया है।
  मां शैलपुत्री अपने वाहन के रूप में वृषभ यानी बैल को उपयोग में लाते हैं। इसका अर्थ यह है कि वह पशु संवर्धन के प्रति निष्ठावान हैं। कृषि प्रधान भारत में बैल का अपना महत्व है। जिसे आप हम सब भली प्रकार जानते हैं। मां पार्वती अर्थात शैलपुत्री शिव की पत्नी हैं. सुधी पाठकों आप सभी को चैत्र प्रतिपदा नव वर्ष विक्रम 2079 की हार्दिक शुभकामनाएं और साधना पर्व चैत्र नवरात्र आध्यात्मिक उन्नति के लिए शत शत नमन
गिरीश बिल्लौरे "मुकुल"
कृतिकार
भारतीय मानव सभ्यता एवं
संस्कृति के प्रवेश द्वार 1
6000  ईसा पूर्व

Bhartiya Manav Sabhyta Evam Sanskriti Ke Pravesh Dwaar: 16000 Isa Purva ( भारतीय मानव–सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेशद्वार : 16000 ईसा पूर्व )  

तड़पती देह के मेले

            (गूगल से साभार)
*तड़पती देह के मेले*
फिसलता है पसीना सर से
भिगो देता है जिस्मों को
शहर,कस्बे, बस्ती में,
लगा करतें है तब अक्सर
तड़पती देह के मेले
तड़पती देह के मेले ।
दरकती की भू ने समझाया
तल में जल है अब कमतर
कि चेहरे और धरती को
अफजल की जरूरत है।
धरा पर घास, पौधे पेड़ लगाओ
रोक लो मीत अब पानी ।
न जी पाएंगे हम और तुम
हुआ न हमने जो पानी ।।
गगनचुंबी इमारत पर
सतपुड़ा के जंगलों में
मूक पंछी और पशुओं को बचा लो
संतुलन प्रकृति का बचा लो।
न कहना फिर कभी अक्सर
मरुस्थल में लगा करते हैं
तड़पती देह के मेले
तड़पती देह के मेले ।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...