14.9.20

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  सूफीवाद ने मोहब्बत का पैग़ाम दिया । हमारे संत कवियों ने भी तो यही किया था । सूफीवाद हर धर्म की जड़ में मौज़ूद है.. क़बीर जब बोले तो अध्यात्म बोले खुलकर बोले । क़बीर मीरा तुलसी रसखान बुल्ले शाह, यहां तक कि लोकभजनों में भी यही सब है । 
रामायण महाभारत में न तो राम की पूजा न ही कृष्ण की पूजा का कोई विधान आदेशित है न ही कोई प्रक्रिया बताई है । परंतु शास्त्रों ने नवदा भक्तियोग को अवश्य किया है । राम मर्यादा जिसे उर्दू में हुदूद कहते हैं कहा है । तो कृष्ण ने कर्मयोग का सिद्धांत तय किया है । 
मित्रो, राक्षसों का वध तब ही हुआ जब वे आतंकी हमला करने लगे । जब भी मानवाधिकारों को किसी ने भी लांघा तो उसे दण्ड मिला । फिर वो ऋषि मुनि, देवता, गन्धर्व, और राक्षस ही क्यों न हों । 
   पूजा अर्चना आराधना भक्ति के लिए किसी मुहूर्त की ज़रूरत कहाँ..?
एक बार ख्याल आया कि पूजा कब स्वीकारेगा परमात्मा..?
बुद्धि ने समझाया- जब तुम्हारा मन करे तब ब्रह्म के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करो । योग निद्रा में रहो कौन रोकता है ? 
मन ने पूछा - तो त्रिसंध्या का अर्थ क्या है ?
बुद्धि ने कहा- त्रिसंध्या का अर्थ है कर्म के दायित्व से विमुक्त मत हो । वो भी करो रोटी कपड़ा मकान सुनिश्चित कर लो कर्मशील रहो और सही वक़्त निकाल कर कम से कम 3 बार तो ब्रह्म का आभार मानो । परमात्मा का अर्थ ही यह है कि वो आपसे जुड़ा है पर आप उससे कितने जुड़े हैं इसका ज्ञान तो तभी सम्भव है जब आप योगी की अवस्था में होते हैं । आप घर के द्वार पर बैठ कर या ट्रेन में या कहीं भी सिर्फ चेहरे पढ़िए तो आप देखेंगे कि अलौकिक आभा युक्त  सतगुणी जन मुस्कुराते नज़र आएंगे । रजोगुणी जन माधुर्य के साथ खुद को प्रस्तुत करते नज़र आएंगे । और तमोगुणी जन जिनका प्रतिशत सर्वाधिक होगा आक्रामक तेवर के साथ खुद को अभिव्यक्त करते नज़र आएंगे । आजमा कर देख लीजिए यह सत्य ही है । 
   आज विश्व में तमोगुणी शक्तियों का राज़ हरेक मानस पर है । वे खुद को उग्र तेवर के साथ अभिव्यक्त करते नज़र आते हैं । रजोगुण वाले लोग 2 या 3 प्रतिशत में हैं जो हैं वे भी खुद को बचाते हुए नज़र आते हैं । और सतोगुणी तो न के बराबर आपको आपके भाग्य से मिलेंगे । 
अब जब कि ज़ेहाद बुलंदी पर है तो सिद्ध करते रहिए कि-हम रजोगुणी हैं कर्मयोग हमारा बल है हम शास्त्र के साथ शस्त्र का अनुप्रयोग भी जानते हैं । गीता में कृष्ण ने यही तो सिखाया है । ध्यान रहे कल सुबह आयुध लेकर निकलने को नहीं कह रहा हूँ । कह रहा हूँ सतोगुणी बनो और ज्योतिर्मय अन्तस् से शांति का पैगाम दो । भरम मत पालो कि विष्णुसहस्त्रनाम को रट के पढ लिया तो ब्रह्म के करीब हो गए पुष्पदन्त ने एक पुष्प के अभाव में नेत्र अर्पित किया था । केवल सामवेदानुकूल शिवमहिम्न का गायन मात्र नहीं किया था । रेवा के उछाह को शंकराचार्य ने गुरु को बचाने आर्त भाव से प्रार्थना की थी जिसे आप नर्मदाष्टक के रूप में बाँचते हैं तब माँ रेवा थम गई थी । 
अब अंत में एक बात और ... 
सोलह दिन बीतने वाले हैं । पुरखे चले जाएंगे ? नहीं वे कहां जाते हैं ? यहीं रहेंगे हमारे इर्दगिर्द। सुना है इस बार वे देखेंगे कि आप जीवितों को कितना सम्मान देते हो । सच ऐसा ही होने जा रहा है इस बार ! इस बात को समझना है तो बताए देता हूँ..  हम केवल 16 दिन के अनुष्ठान को अवधि तक सीमित न रखें ! क्या मालूम तुम मेरे किसी पूर्वज का पुनर्जन्म हो और मैं मूढ़ तुम्हारे दिल को दुःखी करूं या तुम खुद ऐसा करो ..? 
तो है पूर्वजो मेरे मन की उद्दंडता से अगर शाब्दिक व्यवहारगत कोई त्रुटि हुई है तो केवल इस बार क्षमा करना अगली बार तक आत्म सुधार अवश्य कर लूंगा ।

12.9.20

"क्या खास है नई शिक्षा नीति में"

मेरे बाल सखा भाई #श्रीपद_कायंदे का सबसे पहली आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने यह चाहती मैं नेट यानी न्यू एजुकेशन पॉलिसी पर अपने विचार रखूँ । 
नेप यानी न्यू एजुकेशन पॉलिसी हिंदी में कहें तो नई शिक्षा नीति। अधिकांश लोगों का यह आरोप है कि नई शिक्षा नीति को नीति बनने के पूर्व जनता के सामने नहीं लाया गया। नई शिक्षा नीति के लिए ऐसा आरोप मिथ्या और तथ्य हीन है। इसके लिए भारत सरकार द्वारा विधिवत प्रचार प्रसार किया गया। 
    भारत में कैसी शिक्षा प्रदान की जाए इस संबंध में आजादी के बाद से ही काफी कोशिश जारी रही। मैकाले की शिक्षा प्रणाली शिक्षा व्यवस्था को मुक्त कराने की कोशिश 1968 से प्रारंभ है। 1986 में आए बदलाव जिसमें आंशिक बदलाव 1992 में किया गया आज तक लागू है 2020 की पॉलिसी आने के बाद और आगामी 2 या 3 वर्षों में इसे विधिवत लागू हो जाने के बाद की परिस्थितियां आज एकदम अलग ही होना तय है ।
यह शिक्षा प्रणाली बुनियादी स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन के लिए सक्षम है ऐसा सिर्फ मेरा मानना नहीं है बल्कि प्रख्यात शिक्षा शास्त्री सोनम वांगचुक का भी मत है इतना ही नहीं टिप्पणी कार योगेंद्र यादव भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए हैं।
शिक्षा प्रणाली कैसी हो इसके लिए भारत सरकार द्वारा जिस नीति को सारांश के रूप में प्रस्तुत किया गया है वह कस्तूरी रंगन समिति की 480 पन्नों वाली रिपोर्ट का 60 पृष्ठीय सारांश है।
मोटे तौर पर पहली बार सरकार ने शिक्षा पर जीडीपी के 6 प्रतिशत भाग का शिक्षा के मद में खर्च करने का संकल्प लिया है । देशवासियों को इस पर खुश होना चाहिए। परंतु मेरा मानना है कि जीडीपी के 6% को बढ़ाकर लगभग 8% कर देना उचित होगा ताकि शिक्षा संस्थानों की आधारभूत सुविधाओं के लिए वित्त का प्रावधान हो सके। इस आलेख में प्रस्तावित 2% की बढ़ोतरी की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को उठा लेनी चाहिए इससे जीडीपी का 8% हिस्सेदारी सुनिश्चित हो सकती है।
इसका विश्लेषण टेन प्लस टू के सापेक्ष इसलिए नहीं करूंगा क्योंकि यह है पुरानी शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह से फॉर्मेट कर देने वाली शिक्षा नीति है जो नई शैक्षिक प्रणाली को जन्म देगी।
 इसे 72 साल बाद एकदम नई शिक्षा नीति के रूप में अधिमान्यता देना उचित है।
   इस बात से असहमति आप सबके मन में संभव है परंतु यहां यह प्रयास किया है कि शिक्षा नीति के संबंध में अपनी बात तब ही रखी जावे  जबकि मैं उसका संपूर्ण अध्ययन करलूँ । मेरी समझ के अनुरूप उन मुद्दों पर विमर्श करना चाहूंगा जिससे आपको शिक्षा नीति के मूल स्वरूप का दर्शन करा सकूँ ।
   मार्च 80 में 11वीं की परीक्षा पास करने में मुझे जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उनमें एक गणित विज्ञान विषय को चुनना बेहद मेरे लिए कठिन था। इसका अर्थ यह है कि मेरे पास प्राकृतिक रूप से सीखने के लिए कोई अकैडमी गलियारा नहीं था। मुझसे अधिक इंटेलिजेंट मेरे परिवार के कई सारे सदस्य थे। मैं अपने आप को हीन भावना से ग्रस्त मानता था क्योंकि- उस वक्त में अच्छे विद्यार्थी होने का अर्थ होता था कि वह विज्ञान समूह का विद्यार्थी है । कुछ परिवार का दबाव और कुछ यह तय ना कर पाने की क्षमता का विकास न होने के कारण  मुझे क्या करना चाहिए और कैसे अपनी बात मनवानी चाहिए जैसे विकल्प न थे । मजबूरन नौवीं क्लास में मुझे विज्ञान लेना पड़ा। उस वक्त विकल्पों के मामले में शिक्षा व्यवस्था बेहद विपन्न थी।
इसी विपन्नता के चलते मेरे पास कोई विकल्प नहीं थे । फिजिक्स केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स से कंपार्टमेंट और 6 नंबर के ग्रेस के जरिए सेकंड डिवीजन में  । इस तरह  11वीं का सर्टिफिकेट हासिल कर लेना आज भी शूल की तरह चुभता है ।
   लेकिन  यह दर्द तब कम  हुआ जब मेरी बेटी ने मुझसे कहा था- पापा मुझ पर दबाव  कि मैं 10वीं क्लास  के बाद साइंस की विद्यार्थी बनूँ । क्योंकि यह मेरी रुचि के विषय नहीं है । स्पष्ट है कि युग परिवर्तन के साथ हो रही विकास या विकास के कारण हो रहे युग परिवर्तन के संदर्भ में अभिव्यक्ति में भी बदलाव आया है।
    यहां मुझे 1986 और 92 में आई शिक्षा नीति भले ही वह पूरी तरह से मेरी सोच के अनुरूप नहीं थी परंतु अंधेरे कमरे में रोशनदान खुलने की तरह अवश्य नजर आई।
    शिक्षा के मौलिक अधिकार बनने पर बेहद प्रसन्नता हुई थी अभी भी उसका एहसास मन में बाकी है। तो आइए इस बदलाव को बुलेट प्वाइंट उजागर करने की कोशिश करता हूं नई शिक्षा नीति के संदर्भ में
[  ] सबसे बड़ा बदलाव जो है वह यह कि इस नीति को स्वीकार करने के पूर्व लगभग दो लाख से अधिक विचारों को विश्लेषित किया गया । आप यह भी कह सकते हैं कि यह अपर्याप्त था मित्रों ऐसा इसलिए मत कहिए कि भारत में लागू शिक्षा प्रणाली र  पर ना तो कभी किसी अभिभावकों से मैंने कुछ सुना और ना ही कभी किसी सामाजिक या पॉलिटिकल मीटिंग्स ने इस पर चिंता व्यक्त की गई। समाचार रचाने वाले मीडिया के लिए यह विषय बहुत गैरजरूरी समझा जाता रहा है । मेरे मित्र अनंत पांडे बताते हैं कि लगभग 60,000 विचार हमारे मन में पूरे 24 घंटे में आते हैं । इसमें भारत की शिक्षा नीति पर भी कभी को कोई सोशल मीडिया पोस्ट अथवा ट्वीट या आर्टिकल जो सोशल मीडिया के उपयोगकर्ताओं द्वारा लिखा गया हो नहीं देखा। इसकी वजह यह है कि दिन भर में हम जागृत  समय का  30% मनोरंजन 30% पॉलिटिक्स संबंधी उत्प्रेरक समाचारों तथा शेष 30% हिस्सा निरर्थक बिंदुओं पर तथा मात्र 10% परिवार और दफ्तर पर संयुक्त रूप से खर्च करते हैं । मौलिक चिंतन पर यह प्रतिशत उसी 10% समय का एक या 2% हिस्सा ही होता है। वरना सवा सौ करोड़ में से कम से कम 5000000 ईमेल अवश्य सरकार के पास जाते। फिर भी दो लाख लोगों को बधाई देना जरूरी है ।
[  ] उत्तर प्रदेश में बाल विकास परियोजना अधिकारी प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में जब हमने देखा कि वहां का अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन सिस्टम कैसा है उससे मन बेहद सकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ । वहां की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ने बताया कि उसके आंगनवाड़ी केंद्र में पढ़े बच्चों में से अधिकांश बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं। तब समझ नहीं आया कि अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन स्कूल ड्रॉपआउट रेट को किस तरह से कम कर सकती है। भारत सरकार और राज्य सरकारें इन लाखों आंगनबाड़ियों का उपयोग यानी अर्ली चाइल्डहुड एजुकेशन सेंटर के रूप में कर सकतीं हैं। नई शिक्षा नीति में 3 साल से शैक्षणिक व्यवस्था सुनिश्चित करा दी गई है। ताकि बुनियाद ही सरकार के रडार पर आ जाए ।
  साथ ही इससे शासकीय मौजूद इंफ्रास्ट्रक्चर का सही सही उपयोग करके भारत सरकार एवं राज्य सरकारें अपने लक्ष्य की प्राप्ति आसानी से कर सकती हैं ।
[  ] यह शिक्षा नीति 5 प्लस 3 प्लस 3 प्लस 4 अर्थात 15 वर्ष तक जारी रहेगी । जिसमें 3 वर्ष अनौपचारिक शिक्षा प्रणाली के रूप में चिन्हित किए गए हैं । अनौपचारिक शिक्षा प्रणाली में काम करते हुए मुझे 28 से 30 वर्ष का जैसा अनुभव है उस अनुसार यह पूर्ण रूप से निर्मुक्त एवं बाल मनोविज्ञान पर आधारित तथ्य है ऐसा मेरा निष्कर्ष है।
[  ] फाउंडेशन अगर मजबूत है तो पक्का मानिए की बिल्डिंग तो मजबूत होगी ही और यह 5 साल सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं बच्चों के लिए भी ।
[  ] सबसे आकर्षक बिंदु यह है कि 5 वर्षों में दी जाने वाली शिक्षा मातृभाषा स्थानीय भाषा एवं राष्ट्रभाषा में सुनिश्चित कराई जानी है। अपनी भाषा में अध्यापन कराने के कारण हमारे मस्तिष्क में समझ के साथ शिक्षा का प्रवेश होता है जबकि किसी विदेशी भाषा को माध्यम बनाकर पढ़ाना और पढ़ना सीधे फादर  कामिल बुल्के की डिक्शनरी की तरफ रुझान बढ़ाता है। और ऐसी खोजा-तपासी में पठन-पाठन का जो हिस्सा छूट जाता है उसकी भरपाई जिंदगी में कभी भी नहीं हो पाती है । इस तथ्य की पुष्टि के लिए  सोनम वांगचुक के विचार एवं उनके द्वारा प्रस्तुत उदाहरण उल्लेखनीय हैं । सोनम ने  प्रमाण सहित अपनी बात की पुष्टि के लिए तिब्बत की निर्वासित सरकार के शिक्षा मंत्री जेटसन पेमा को मिलवा ते हुए बताया कि उनकी शिक्षा व्यवस्था में तिब्बती भाषा को माध्यम के रूप में चुना जाना 2 तरीकों से सफल रहा है एक तो बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ा है तथा उनकी तिब्बत संस्कृति का भी संरक्षण मूल रूप से हो सकता है । आपको याद होगा गुप्त काल में फ़ाह्यान नाम के चीनी यात्री ने भारत में आने से पूर्व  संस्कृत का ज्ञान अर्जित कर किया और भारत आए तथा उन्होंने बौद्ध धर्म की विस्तृत मीमांसा भी की । भाषा सीख कर ज्ञान अर्जित करना तथा अतिरिक्त भाषाओं का ज्ञान होना व्यक्ति की समझ पर अर्थात उसकी बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है । और बौद्धिक क्षमता का विकास अपनी भाषा में ज्ञान अर्जित कर के जितनी आसानी से किया जा सकता है उतना आसानी से विदेशी भाषा में ज्ञान अर्जित करना संभव कभी नहीं हो सकता है ।
[ ] छठी क्लास से ही इंटर्नशिप एक अच्छा प्रयोग है तो कोडिंग सिखाना नवाचार है । 
[  ] इस नीति में 360 डिग्री का अर्थ यह है कि विद्यार्थी के रूप में विद्यार्थी की योग्यता का मूल्यांकन कई एंगल से होगा । उसने एक एंगल यह होगा कि विद्यार्थी स्वयं को किस स्तर पर देखता है यह चकित कर देने वाला तथ्य है । अपने आप को किस स्तर पर रखना है या रखा जाएगा इसका मूल्यांकन स्वयं विद्यार्थी भी करेगा जो आत्म विश्लेषण का सूचक है ।
[  ] मूल्यांकन का क्रेडिट स्टोर अद्भुत वैज्ञानिक प्रणाली है। जिस तरह आप बैंक में अपना अध्ययन जमा करते हैं वैसे ही आप अपना बौद्धिक मूल्यांकन बैंक में जमा होगा यह प्रणाली पूर्णता है डिजिटल ही होगी इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
[  ]  विकल्पों से भरी इस शिक्षा नीति में एक और बेहतरीन विकल्प नजर आया है एंट्रेंस एग्जाम का। अगर किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए कट ऑफ नंबर तक कोई बच्चा या विद्यार्थी इच्छुक होने के बावजूद प्रवेश नहीं पा सकेगा तो वह एक परीक्षा के विकल्प को भी अपना सकता है और उस विकल्प में उसे जो अंक अर्जित हो सकेंगे उन अंकों को न्यूनतम क्वालीफाइंग क्लास की परीक्षा के अंकों के साथ जोड़ दिया जावेगा ।
[  ] जब से भारतीय शिक्षा प्रणाली से संस्कृत को आउट किया है तब से भारतीय दर्शन का मनुष्य के जीवन से अवसान हो ही गया है जबकि संस्कृत से अंग्रेजी या विदेशी भाषा में अनुदित ज्ञान और सिद्धांतों को हम विदेशी ज्ञान समझ बैठे हैं और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं ।
[  ] व्यक्तिगत रूप से अंग्रेजी का ज्ञान होना आपत्तिजनक बिल्कुल नहीं है नई शिक्षा नीति यही कहती है। आपत्ति तो इस बात की है कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से लोग बहुत कन्फ्यूज्ड है। अगर इस आर्टिकल का ट्रांसलेशन अंग्रेजी में कीजिएगा तो इस पर बेहद सकारात्मक टिप्पणीयाँ किंतु अच्छे से अच्छा विचार रख इस आर्टिकल को अगर वह हिंदी भाषा से परिचित नहीं है तो इसके कर जाएगा क्योंकि उसके पास उसकी अपनी मातृभाषा मैं लिखे गए कंटेंट को पढ़ने की क्षमता तो बचपन से ही छीन ली गई है ।  भारत में ही भाषाओं की कमी नहीं है आप गुजराती मलयाली बांग्ला तमिल मराठी आदि किसी भी भाषा का ज्ञान अर्जित कर सकते हैं और एक विषय के रूप में उसे अंगीकार कर लेते हैं तो कोई आपत्ति नहीं क्योंकि हमारी अपनी राष्ट्रभाषा का ज्ञान होना सबके लिए जरूरी है ।
[  ] शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए शिक्षकों के शिक्षण प्रशिक्षण की जिम्मेदारी केंद्र सरकार ने अपने पास रखी है। शिक्षण व्यवस्था में एकरूपता बनाए रखने की स्थिति को बरकरार रखा जा सकेगा
[  ] विश्व की टॉप मोस्ट 50 यूनिवर्सिटीज को उच्च शिक्षा में सहभागी बनाने की व्यवस्था नीति में सम्मिलित की गई है ।
[  ] बिहार से एक यूनिवर्स जो खान सर के नाम से अपना चैनल प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए चलाते हैं का मानना है कि - शैक्षिक एंट्री और एग्जिट आज ही एंट्री बेहद प्रभावशाली धूल बन जाएगा इससे उन गरीब बच्चों को फायदा होगा जो अनचाही परिस्थितियों के कारण पढ़ नहीं सकते ।
[  ]  प्रत्येक स्कूल साहित्य कला और संगीत के साथ-साथ संस्कृत को भी बढ़ावा देगा । 
    मिलाकर यह शिक्षा नीति अगर किसी कुचक्र में फंस कर रूपी नहीं तो इससे देश का भला ही होगा यह सब का मानना है ।

10.9.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 04


गंदगी स्वच्छता और ज्ञान का अभाव कुछ ऐसा प्रसव पूर्व और दशक के बाद की सावधानियाँ उच्च मध्यम वर्ग तक को नहीं मालूम थी और वह काल भारत सरकार के लिए भी संकट का काल था ।
मेरे जन्म के समय का भारत टीनएजर भारत था । तब का भारत कैसा था मुझसे ज्यादा तो उन्हें मालूम होगा जो भारत में 1947 से 1955 के बीच 5 या 6 वर्ष के रहे होंगे । 
 उस दशक के बारे में इससे ज्यादा कुछ लिखने के लिए मेरे पास बहुत कुछ नहीं है इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं  पूरी कहानियां जिसे पढ़कर लगता है कि तब का मध्यम वर्ग आज के निम्न वर्ग के समान ही रहा होगा ऐसा मेरा मानना है हो सकता है मैं गलत ही हूं या गलत भी हूँ । 

    मेरे मुंबई वाले काका जिनका नाम रमेशचंद्र बिल्लोरे है की शादी इटारसी के ऐन पहले गुर्रा नाम की स्टेशन में पिताजी पदस्थ थे से संपन्न हुई। और मैं पहली बार बरात में गया अपने काका की शादी में। बहुत कम उम्र थी। पर आश्चर्य होता था कि जो भी मुझे देखता मेरे विषय में बात करता था। कहते हैं कि मैं बहुत सुंदर दिखता था परंतु खड़ा नहीं हो पाता था मुझे कोई ना कोई गोद में ले जाकर एक जगह से दूसरी जगह पर रख देता था। और वह मेरे लिए काफी देर तक बैठे रहने के लिए अड्डा बन जाता था।
    तब तक ईश्वरी चाचा ने मेरे लिए कोई बैसाखी ईजाद नहीं की थी। जिन चाची को लेने हम बारात लेकर गए थे उनकी एक बहन नेत्र दिव्यांग थीं । और उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हुआ मैंने उनसे पूछा कि आप को दिखता नहीं है क्या ?
उन्होंने कहा- हां मुझे नहीं दिखता ।
      यह रिश्ता तो मुझे मालूम था कि वे मेरी मौसी हैं मैंने कहा मौसी दिखता है मुझे लेकिन मैं वहां तक जा नहीं सकता !
मौसी ने पूछा तुम जा क्यों नहीं सकते जाओ देखो मंडप में क्या काम हो रहा है ?
मैंने कहा मौसी मैं चल नहीं सकता और घुटने के बल अगर जाऊंगा तो मेरे पैरों में और घुटने में  मिट्टी रेट कंकड़ लगेंगे ।
मैंने पहली बार ज्योति विहीन आंखों में आंसू देखे थे उनके । वे मुझे देख कर द्रवित और करूणा से भर गईं । पर मैं समझ नहीं पाया था । 
भाव शून्य  हो कर उनको देखता रहा मुझे लगा कि उनको कोई और तकलीफ होगी जिससे वे रो रहीं हैं ।
  ऐसा नहीं कि मेरा ध्यान कोई नहीं रखता था सभी रखते थे विशेष रूप से रखते थे। 
     मेरे पिताजी का एक बहुत बड़ा परिवार है पिता के परिवार में सात भाई और चार बहनें हुआ करती थीं । आजा स्वर्गीय गंगा विशन बिल्लोरे कृषक और मकड़ाई रियासत के पटवारी थे बाद में वे रियासत के रैवेन्यू इंस्पेक्टर भी हुए । उनकी पोस्टिंग उनके गृह ग्राम सिराली में ही थी ।
   मेरे जन्म के पूर्व ही उनका निधन हो चुका था । दादी का नाम था गंगा तुल्य रामप्यारी देवी । दादी बड़ी जीवट महिला थी । ब्रिटिश इंडिया के किसान की भार्या को कुशल गृह प्रबंधन का दायित्व निर्वाहन करना हमारी पर पितामहि ने सिखाया गया।
    मेरी दादी के सर पर जब भी हाथ फेरता तो पूछता बड़ी बाई आप बाल क्यों कटवा लेती हो और कब ? अच्छा नहीं लगता था दादी को शायद यह सवाल । वे  अक्सर टाल जाया करती और इधर उधर की बातें किया करती थीं ।  दादी अधिकतर सफेद साड़ी पहना करती थीं पर सूरज के 7 अश्वों (मेरे ताऊ पिता और काका जी लोगों ) को ये ना पसन्द था  । चैक वाली सुनहली पतली बॉर्डर वाली साड़ियां उनके पास नज़र आने लगीं थीं।  मुझे उनके बारे में कुछ याद हो ना हो दादी की खुशबू आज तक याद है । पता नहीं आजकल बच्चे महसूस कर पाते हैं या नहीं पर मुझे मेरी दादी की खुशबू भुलाए नहीं भूलती । 
 बुआ विधवा हो गईं थीं वे भी बेचारी सफेद धोती पहनतीं थीं पर प्रगतिशील परिवार  ने उनको भी कलर्ड साड़ियाँ पहनवानी शुरू कर दीं ।  सफेद चमकदार बाल बुआ की पहचान थी। गलती करने पर बुआ तर्जनी और अंगूठे से इस कदर चमड़ी मसल देतीं थीं कि उफ़ हालत खराब । बुआ की बेटी ब्याह दी गई थी । 
     मेरी एक और बुआ जी का निधन मेरी जन्म के पूर्व ही हो गया था परंतु फूफा जी की दूसरी शादी हुई और उनकी जो नई पत्नी थी उनको मेरे पिताजी के सभी भाई और उनकी पत्नियां यानी मेरी ताई जी काकी जी सभी बिल्लोरे परिवार की सदस्य ही मानती हैं ।  आज तक हम यह महसूस नहीं कर पा रहे कि इन की संताने हमारी वंश की नहीं हैं । हमें बहुत बाद में पता चला कि हमारे फूफाजी डीएन जैन कॉलेज में क्लर्कशिप करते हैं। जिनकी पत्नी यानी हमारी बुआ किसी और परिवार की बेटी हैं । अदभुत रिश्ते जिनको बनाना भी सहज और सम्हालना तो और भी सरल था ।  
   गर्व का अनुभव होता है कि भारत में यह व्यवस्था हर एक परिवार में जीवंत है अब है कि नहीं यह तो मुझे नहीं मालूम परंतु हमने इसे महसूस किया है ।
  जीवन में पीछे मुड़के जब देखो तो पता चलता है कि हम कितने गरीब किंतु रिश्तों से कितने धनी लोग हुआ करते थे।
  हमारी सबसे बड़े पिताजी श्री पुरुषोत्तम जी जो रेलवे में फायरमैन हुआ करते थे और गंभीर रूप से अस्वस्थ होने के कारण उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और वह कालांतर में तहसील में क्लर्कशिप करने लगी थी। उन्हें पूरा परिवार पिताजी के नाम से जानता था। उनसे छोटे वाले भाई श्री शिवचरण जी को बप्पा, एडवोकेट श्री ताराचंद्र प्रकाश जी को काका साहब की पारिवारिक उपाधि दी गई थी। उनके बाद चौथे  ताऊ जी राम शंकर जी को भैया जी के नाम से पुकारा जाता रहा । पूज्य बाबूजी को पूरा कुटुंब भैया साहब और उमेश नारायण जी को छोटा भाई तथा जिनको मैं अब तक मुंबई वाले काका कहकर संबोधित करता रहा उनका वास्तविक नाम रमेश नारायण जी है, उनको कुटुंब में नाना भाई के नाम से संबोधित किया जाता है ।
   सूरज के सातों घोड़े स्वयं स्फूर्त स्वयं  ऊर्जावान और स्वयम में संस्कारों के प्रकाश के साथ जीवन संघर्ष के लिए आज से 80 वर्ष पूर्व हरदा और जबलपुर में आ गए । मध्य प्रदेश का पंजाब कहलाने वाला हरदा जिला होशंगाबाद ज़िला हुआ करता था । खेती किसानी नुकसान होना सामान्य सी बात हुआ करती थी ।
सिराली में हमारी जमीन की उपज़  भरपूर थी परंतु एक बहुत बड़े कल को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वज श्री गंगा विशन जी ने यह निर्णय लिया कि सारे बच्चे गांव में नहीं  बल्कि क्रमशः हरदा और पहले वाले की जहां जॉब होगी सारे भाई उनके पास रहकर ही पढ़ेंगे और सरकारी नौकरियों में जाएंगे। हुआ भी यही परिवार के सातों सितारे कहीं ना कहीं सामान्य से सुरक्षित जीवन की कामना से जबलपुर आ गए ।  तब गांव से हरदा तक आना जाना भी बहुत मुश्किल होता था या तो आप पैदल आइए या बैलगाड़ी से आए या फिर फौजदार साहब की बस में आए । मकड़ाई स्टेट में चलने वाली बसों में आज की ड्राइवर के पीछे की सीट पर स्टेट के राज परिवार के लिए स्थान सुरक्षित रहता है अब फौजदार साहब की संताने परंपरा निभातीं हैं कि नहीं इसका हमें ज्ञान नहीं है । पर शाह परिवार के राजा साहब के प्रति उनकी रियाया , और उनके वंशजों में सम्मान जरूर है।
   राज्य सेवा में उस परिवार के 2 सदस्य तो मेरे साथ ही हैं ।
    सिराली से हरदा होते हुए जबलपुर तक की 80 बरस पुरानी यात्रा ने इस वंश को बहुत कुछ दिया है। आप सोचते होंगे कि मैं आत्मकथा लिख रहा हूं या समकालीन सामाजिक परिस्थितियों तो कभी वंशावली से परिचित कराने की कोशिश कर रहा हूं । सुधी पाठकों लेखन एक प्रवाह है और आत्मकथा लिखना तो सबसे बड़ा कठिन कार्य है ।
लेखक के मानस में विचार आते हैं और उतरते जाते हैं अक्षर बनकर ! इस प्रवाह को रोकना मेरे बस में नहीं है अतः क्षमा कीजिए परंतु जरूरी इसलिए भी है कि आप परिचित हो जाएं कि हमारी वंश में और कौन-कौन है.. तो जानिए कि जब हम पूरे परिवार के लोग एकत्र हो जाते हैं तो हमें बहुत बड़ी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होती है ।  हमारी तरह की ऐसे सैकड़ों परिवार होंगी जो परंपराओं के साथ रिश्तों  को बड़े उल्लास के साथ जीवंत बनाए रखते हैं ।
  लेखन में काल्पनिकता से ज्यादा वास्तविकता का समावेश करना जरूरी है वरना भविष्य में अदालतों में सिद्ध होता है कि राम कहां पैदा हुए !
    हमारे कवियों लेखकों एवं विचारकों ने राम की कहानी कुछ इतनी काल्पनिक लिख दी जिसका फायदा उठाकर लोगों ने उसे मिथक मान लिया इसलिए पाठकों को यह संदेश देना जरूरी है वह किताब में बिल्कुल प्रमोट ना की जाए जिनमें यथार्थ को भविष्य में शक नजरिए से देखा जाए ।
जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाले इन सातों के बारे में आगे फिर कभी
( क्रमशः भाग 5 में जारी )

9.9.20

जन्मपर्व की बधाई आशा ताई

जन्म पर्व की हार्दिक बधाई आशा ताई
आशा भोसले (जन्म: 8 सितम्बर 1933) हिन्दी फ़िल्मों की मशहूर पार्श्वगायिका हैं। लता मंगेशकर की छोटी बहन और दिनानाथ मंगेशकर की पुत्री आशा ने फिल्मी और गैर फिल्मी लगभग 16 हजार गाने गाये हैं और इनकी आवाज़ के प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। हिंदी के अलावा उन्होंने मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, भोजपुरी, तमिल, मलयालम, अंग्रेजी और रूसी भाषा के भी अनेक गीत गाए हैं। आशा भोंसले ने अपना पहला गीत वर्ष 1948 में सावन आया फिल्म चुनरिया में गाया। 
  लता जी आशा जी  सहित सभी गायकों के बारे में बहुत कुछ इंटरनेट पर   विकिपीडिया पर मौजूद है । आप देख सकते हैं परंतु मेरे नज़रिए से  से मैंने आशा जी  की आवाज को एक्सप्लेन कर रहा हूं । 
आशा जी की दिलकश आवाज युवाओं की दिल धड़काने के लिए काफी होती थी हमारे दौर में इश्क और मोहब्बत सबसे बड़ा वर्जित विषय था परंतु मुकेश का गीत याद ही होगा हर दिल जो प्यार करेगा वह गाना गाएगा । जिसे आज क्रश कहा जाता है तब भी हुआ करता था, और उसे अभिव्यक्त करने के लिए आशा जी सुमन कल्याणपुर  और लता ताई के सुर पर्याप्त हुआ करते थे । आज आशा जी के जन्म पर्व पर मैं उनके चरणों में नमन करता हूं। आप लोग चाहे तो रिया सुशांत सीबीआई की जांच वाले चैनलों से छुट्टी लेकर आज आशा जी के गीतों को सुनिए आपके इस सेल फोन पर पूरसुकून देने वाले यह बॉलीवुड नगमे मौजूद है
  उनका यह दौर 60 के दशक से हम जैसे संगीत प्रेमियों की दिल पर छाप छोड़े जा रहा था । 
उस दौर में आशा जी की तुलना जब लता जी से की जाती थी तब अपने साथियों को मैं समझाता था की आने वाली पीढ़ियां इससे भी फास्ट गीतों को पसंद करेंगी । अब तो न शब्द और ना ही वह हुनरमंद गायक या गायिकाएं  जिनकी आवाज हमारे दिलों पर कुछ इस तरह हावी हो जाएगी नाचने को दिल करने लगे । आशा जी का तो इस कदर दीवाना हो गया कि मेरी बेटी जब संगीत की ओर झुकती नजर आई तो ढेरों सीडी आशा जी के  गीतों वाली मालवीय चौक से खरीदने में मुझे कोई मुश्किल ना हुई। उन दिनों इंटरनेट की स्पीड भी बहुत कम थी शायद यूट्यूब के बारे में भी मुझे खास जानकारी नहीं थी। हां कंप्यूटर था स्पीकर थे  और गीतों को सुनने की संगीत में डूब जाने की लालच हुआ करती थी । फेवीक्विक से कैसेटस जोड़ते जोड़ते पागल हो जाने वाले हम अब कंपैक्ट डिस्क के मुरीद हो गए । थ्री इन वन फिलिप्स का वीडियो रिकॉर्डर और कैसेट प्लेयर बार-बार परेशान भी तो करने लगा था खैर जब जब जो जो होना है तब तक सो सो होता है। अभी भी बेहतरीन कलेक्शन हमारे पास मौजूद है पर आशा जी के गीतों के सीडी पनाह मांग रहे हैं। आशा जी और लता जी के दौर को वापस लाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। परंतु यह बच्चे उस दौर को वापस ला सकते हैं तो आइए सुनते हैं शांभवी पंड्या और इशिता तिवारी स्वरों में दो गीत यद्यपि वर्तमान दौर की चुनिंदा गीत ही मुझे पसंद है उस दौर के गीतों को कौन भुलाएगा ..! यह वह दौर था जब हम नए-नए कथित रूप से बड़े हुए थे चार लोग क्या कहेंगे इस बात का भी हमें दर्द बना रहता था। अब वह चार लोग पता नहीं है भी कि नहीं इस दुनिया में होते तो भी हम कमसिनी के दौर में पसंद आई गीतों को ख्यालों को और उस दौर की रूमानियत को भी अपने जेहन से अलग नहीं कर सकते

7.9.20

गिद्ध मीडिया...!आलेख- सलिल समाधिया

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बस करो यार !! 
हद होती है किसी चीज की !
उस पर आरोप लगा है, वह दोषी सिद्ध नहीं हुई है अभी !
कानून अपना काम कर रहा है, उसके बाद न्यायालय अपना काम करेगा !
आपका काम मामले को उजागर करना था, कर दिया न !
अब बस करो,  हद होती है किसी चीज की !!
वह भी एक स्त्री है,उसकी भी अपनी निजता है, कुछ गरिमा है !!
टी.आर.पी के लिए कितना नीचे  गिरोगे !

यह ठीक है कि सुशांत के परिवार को न्याय मिलना चाहिए ! यह भी ठीक है कि अगर सुशांत की मृत्यु में कुछ Fowl play नज़र आता है तो उसकी जांच होनी चाहिए.. सो वो हो रही है !
देश की सबसे सक्षम जांच एजेंसियां आप अपना काम कर रही हैं !
जिम्मेदार मीडिया होने के नाते आप का काम उन तथ्यों को सामने लाना था.. जो संदेहास्पद थे ! वह काम आपने कर दिया ! आपको धन्यवाद,  अब बस कीजिए !!!
 अन्य मसले भी हैं देश में!
NCRB (National Crime Records Bureau) के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 1,20,000 से अधिक आत्म हत्याएं होती हैं ! साल 2019 में 1,39, 123 आत्महत्याएं रजिस्टर हुई हैं !
Crime against women की संख्या 3,59,849 है !(October 21, 2019 NCRB )
मादक पदार्थो, हत्याओं, दलित उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि की बात ही मत पूछिए !  चूंकि आंकड़े बताना बोरिंग काम है.. इसलिए उनका जिक्र नहीं कर रहा हूं !
किंतु इन अपराधों के सामाजिक-आर्थिक कारणों की तहकीकात भी मीडिया द्वारा की जानी चाहिए कि नहीं ?? 
 हजार मसले हैं इस देश में - शिक्षा भी,  रोजगार भी,  स्वास्थ्य भी !
 हजार घटनाएं रोज घटती हैं.. अच्छी भी,  बुरी भी!
मगर उनसे टीआरपी नहीं मिलती इसलिए कोई न्यूज़ चैनल, उन्हें नहीं दिखाता !
एक संवाददाता नहीं झांकता उन गांव और गलियों में... जहां ब्रूटल रेप और नृशंस हत्याएँ हो जाती हैं.. और पीड़ित परिवार भय से चुप्पी साधे रह जाता है !
... इसी तरह उन अच्छी खबरों पर भी कोई झांकने नहीं जाता.. जहां गरीबी और अभावों के बीच भी.. कोई प्रतिभा का फूल खिलता है !

 मगर 2 ग्राम, 10 ग्राम गांजा खरीदने वाला, शौविक राष्ट्रीय न्यूज़ बन जाता है!!
आए दिन अनेक शहरों में लाखों रुपयों की ब्राउन शुगर, हशीश, कोकेन, एलएसडी पकड़ी जाती है... और चार ठुल्लों के साथ लोकल अखबार के किसी कोने में न्यूज़ छप जाती है !
लेकिन कोई NCB की बड़ी जाँच नही होती.. किसी माफिया, किसी नेक्सस का पर्दाफ़ाश नही होता ! 
.. किसी न्यूज़ चैनल के लिए ये अपराध, न्यूज़ नहीं बनते.. क्योंकि इनसे टीआरपी नहीं मिलती !
 
लेकिन अकेले मीडिया को ही क्यों गुनाहगार ठहराया जाए !!!
हम लोग भी क्या कम हैं.. जो चस्के ले लेकर  इन 'मनोहर कहानियों' को देखते हैं !
 दो टके की, सड़ियल सी खबर की लाश पर.. गिद्धों से मंडराते संवाददाता और कैमरामैन...., 
 और उन्हें  टीवी पर टकटकी लगाए देखतीं.. हमारी जिगुप्सा भरी, रसोन्मादी, क्रूर ऑंखें  !!
.. और फिर मोबाइल के कीपैड से बरसती नफरतें, शर्मसार कर देने वाली अश्लील फब्तियां और फूहड़ मज़ाक़ !!
...अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लाशखोर गिद्ध है.. तो हम भी, मौका मिलते ही बोटी खींच निकालने वाले हिंसक भेड़ियों से कम नहीं है !!
 यही वजह है कि सत्तर दिन से अधिक हो गए हैं.. मगर शौविक, रिया और मिरांडा की "सत्य-कथाएं" हर न्यूज़ चैनल के स्टॉल पर अब भी, बेस्ट सेलर बनी बिक रही हैं !!
मीडिया की छोड़िए,  जरा आत्म निरीक्षण कीजिए कि हम क्या देख रहे हैं, क्यों देख रहे हैं, कितना देख रहे हैं... और कब तक देखेंगे ?? 
 हद होती है किसी चीज की !!
"रिया" को खूब देख लिया, अब ज़रा अपना "जिया" भी देख लें !

##सलिल##

6.9.20

भीष्म पितामह के तर्पण के बिना श्राद्ध कर्म अधूरा क्यों ?

     
गंगा और शांतनु के पुत्र देवव्रत ने शपथ ली कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो यह पूछा कि उसे कोई आशीर्वाद मिले . हस्तिनापुर की राजवंश की रक्षा अर्थात संपूर्ण राष्ट्र की रक्षा का दायित्व लेकर ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए इस पर बहुत अधिक विवरण देने की जरूरत नहीं है। आप सभी इस तथ्य से परिचित ही है .
 
      भीष्म पितामह को श्राद्ध पक्ष में याद क्यों किया जाता है यह महत्वपूर्ण सवाल है ?
     सुधि पाठक आप जानते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध होने के एक कौटुंबिक युद्ध भी था ! क्योंकि इसमें पारिवारिक विरासत का राज्य एवं भूमि विवाद शामिल था। ध्यान से देखें तो हस्तिनापुर पर दावा तो पांडव कब का छोड़ चुके थे। महायोगी कृष्ण के संपर्क में आकर उन्होंने मात्र 5 गांव मांगे थे। परंतु कुटुंब में युद्ध सभी होते हैं जबकि अन्याय सर चढ़कर बोलता है। विधि व्यवसाय से जुड़े विद्वान जानते हैं कि सर्वाधिक सिविल मामले न्यायालयों में आज भी  रहते हैं। महाभारत का स्मरण दिला कर हमारे  पुराणों के रचनाकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि कौटुंबिक अन्याय हमारे पूर्वजों पर ही भारी पड़ता है। हमें अन्याय नहीं करना चाहिए ना ही उस अन्याय में भागीदारी देनी चाहिए। पारिवारिक की सा प्रतिस्पर्धा निंदा अच्छा या बुरा होने की निरंतर समीक्षा भेद की दृष्टि अर्थात अपने और अन्यों के पुत्रों में पुत्रियों में अंतर स्थापित करने की प्रक्रिया और घर में बैठकर अपने बच्चों को यह सामने पूर्वजों या समकालीन रिश्तेदारों को पूछने की प्रक्रिया आज के दौर में महाभारत को जन्म देती है। विद्वान ऋषि मुनि जान  चुके थे कि द्वापर के बाद कलयुग में यह स्थिति चरम पर होगी। पिता अपनी संतानों को श्रेष्ठ साबित करेंगे और सदा केवल उन्हीं के पक्ष में बोलेंगे, कई बार तो असंतुष्ट पिता और माताएं संतानों में ही भेद की दृष्टि अपनाने लगेगी । चाचा बाबा दादा काका बुआ भतीजे केवल आत्ममुग्ध होकर सामुदायिक न्याय से विमुख होंगे, संपदा एवं अस्तित्व की लड़ाई होगी सब परिजन अदृश्य रूप से युद्ध रत होंगी और वह युद्ध महाभारत का होगा। ऐसे युद्ध की परिणीति का स्वरुप होगा कि घर का कोई ना कोई बुजुर्ग जीत या हार के  परिणाम के बावजूद  सर-शैया पर लेटा हुआ नजर आएगा है ।
     जहाँ तक भीष्म के पास  इच्छा मृत्यु का वरदान था ।  मिला या उन्होंने मांग लिया था ये अलग मुद्दा है । वे चाहते थे कि जब सूर्य दक्षिणायन हो तब उनकी आत्मा शरीर को छोड़ें। वे सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हुए वह मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम समझे तो पाते हैं कि भीष्म पितामह पीड़ा की उस शैया पर लेटे लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे जो शैया उन्हें चुप रही थी ।
यह शैया कैसे बनी थी ?
  जी हां यह बनी थी उन परिजनों की मर जाने के दुखों से ....!
  हजारों हजार रिश्तेदार मारे गए थे और यह महा शोक पल-पल उन्हें चुभ रहा था !
    इतना बड़ा विशाल लेकर मरने वाली भीष्म पितामह की आत्मा को शांति मिले इसलिए पुराणों में कहानियों में पितृपक्ष के दौरान भीष्म पितामह के लिए भी अपना परिजन मानते हुए तर्पण किया जाता है ।
   बिना भीष्म पितामह को अंजुरी जल दिए श्राद्धकर्म अपूर्ण है । और यह तर्पण इसलिए किया जाता है कि हम याद रखें कि हम कौटुंबिक युद्ध में अपने कुटुंब को ना जो झोंके। हम सत्ता पद प्रतिष्ठा यश और  नाम की लालच में पक्षद्रोही ना होकर और सदा अपने कुटुंब के साथ ही रहें ।
भीष्म पितामह का तर्पण यही संदेश देता है।

4.9.20

पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960


पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960 श्रीधाम आश्रम सतना*
अपने मन से झूठे मत बनो। कितना भी बड़ा दुष्कर्म मन से या तन से हुआ हो उसे मंजूर करो , उसे दूसरा रंग मत दो, उसका दोस्त दूसरों पर ना करो । जो भी होता है वह अपनी ही भूल के कारण होता है। इसलिए अपने मन से और मन में भूल को मत छुपाओ, भूल की छानबीन करो। अपनी मम्मत्व भावना अपने को  निष्पक्ष विचार करने से रोकती है । इसलिए हम तो भाव को त्याग करके विचार करने का प्रयत्न करो।
   जीवन के सरल से सरल पद पर रहना ही अध्यात्म कहा जाता है। जीवन में प्राप्त और अब प्राप्त वस्तुओं की प्रीति और वियोग में ही चित्र का विकास होता है। विकास की प्रक्रिया ही अध्यात्मिक साधना का अंतरंग है। इस प्रक्रिया से सिद्धि हेतु वातावरण का निर्माण अनुकूलता की रचना तथा प्रतिकूलता के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य उत्पन्न करना होता है।
   इस सामर्थ्य के के लिए बहुत सी बहिरंग साधनाएं करनी पड़ती हैं । धारणा के योग्य मनस्वी गुरु जन इस प्रकार का आदेश देते हैं। आज से आपके जीवन में एक नया जागरण होने जा रहा है ।
#शुद्धानंद

3.9.20

गिरीश के दोहे

*गिरीश के दोहे*
फूटा कलसा देख तू, भय का बीन बजाय ?
टूटे घड़े कुम्हार के, वंश कहां रुक जाए ।
हर कण क्षण नश्वर सखि, देह होय कै शान !
चेतन पथ तैं दौड़ जा, तेहि पथ पै भगवान
कुंठा तर्क-कुतर्क से, जीत न सकि हौ आप
ब्रह्म अनावृत होत ह्वै, जीव जो करै जब ताप
कान्हा तोड़ें दधि कलश, गोपिन मन में भाग
कंस वधिक श्रीकृष्ण ने, खोले जन जन भाग ।।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
कंस वधिक श्रीकिशन ने, खोले सबके भाग
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

1.9.20

विघ्नहर्ता को विदा एवम उत्तम क्षमा

*मान्यवर एवम महोदया*
आपका एक एक शब्द विनम्रता और महानता का सूचक बन गया है। आप सब  मेरे जीवन के लिए  आईकॉनिक व्यक्तियों की तरह ही हैं ।
सभी तीर्थंकरों को नमन करते हुए उत्तम क्षमा पर्व पर्यूषण पर्व एवं बुद्धि विनायक  गणेश विसर्जन पर्व पर आप सबको को शत-शत नमन करता हूं ।  
मुझसे जाने अनजाने में अगर कोई ऐसी अभिव्यक्ति हो गई हो जो आपके सम्मान और मानसिक भाव के लिए अनुचित हो इसलिए मैं बिना किसी संकोच क्षमा प्रार्थी हूं .

*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
संचालक बालभवन जबलपुर

28.8.20

एक हथे पूरन दद्दा जू...

      आसौं बून्देली दिवस पै कछू होय नै होय हमौरे उनखौं भूलबे को पाप या नैं करबी ..! 
  जबलपुर सै बुंदेली की अलख जगाबे वारे कक्का जी के लानें विवेक भैया का लिख रय हैं तन्नक ध्यान से पढ़ियो ...
 बुंदेली और स्व डॉ पूरनचंद श्रीवास्तव जी जैसे बुंदेली विद्वानो की सुप्रतिष्ठा जरूरी  
 .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं ,उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है। उनकी ख्‍याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है,  उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है।
बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में  बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ  है। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है .  सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी। पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है।  बुंदेली की अपनी चाल,  प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है। भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी। आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन , संपन्न , बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है . आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है . क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं .
ऐसी लोकभाषा के उत्थान , संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों ,संस्थाओ , पढ़े लिखे विद्वानो के  द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे . बुंदेली में कार्यक्रम हों . जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे , वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध , अपनापन ली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो . प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद , गुंजन कला सदन , वर्तिका जैसी संस्थाओ ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है . प्रति वर्ष १ सितम्बर को स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सु अवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं .
आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक , कवि , शिक्षाविद स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व , विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाते रहे . जमाना इंटरनेट का है . इस कोरोना काल में सास्कृतिक  आयोजन तक यू ट्यूब , व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं , किंतु बुंदेली के विषय में , उसके लेकको , कवियों , साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है .
स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी का जन्म १ सितम्बर १९१६ को ग्राम रिपटहा , तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था . कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है , उन्होने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी , और पी एच डी की उपाधि अर्जित की .वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्रापत करते हुये प्राचार्य पद से १९७६ में सेवानिवृत हुये . यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था . पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे . बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था . उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा . रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं . वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं . रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है . भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है . भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तके लिखि , जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं . इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण , शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख , साक्षात्कार , अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं . मिलन , गुंजन कला सदन , बुंदेली साहित्य परिषद , आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं . वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नही माना जाता था , एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे .
उनके कुछ चर्चित बुंदेली  गीत उधृत कर रहा हूं ...

कारी बदरिया उनआई....... ️
 कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।
सोंधी सोंधी धरती हो गई,  हरियारी मन भाई,खितहारे के रोम रोम में,  हरख-हिलोर समाई ।ऊम झूम सर सर-सर बरसै,  झिम्मर झिमक झिमकियाँ ।लपक-झपक बीजुरिया मारै,  चिहुकन भरी मिलकियां ।रेला-मेला निरख छबीली-  टटिया टार दुवार,कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार ।
औंटा बैठ बजावै बनसी,  लहरी सुरमत छोरा ।  अटक-मटक गौनहरी झूलैं,  अमुवा परो हिंडोरा ।खुटलैया बारिन पै लहकी,  त्योरैया गन्नाई ।खोल किवरियाँ ओ महाराजा  सावन की झर आई  ऊँचे सुर गा अरी बुझाले,  प्रानन लगी दमार,कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।
मेंहदी रुचनियाँ केसरिया,  देवैं गोरी हाँतन ।हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं  भादों कारी रातन ।माती फुहार झिंझरी सें झमकै  लूमै लेय बलैयाँ-घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें,  प्यारी लाल मुनैयाँ ।हुलक-मलक नैनूँ होले री,  चटको परत कुँवार,कारी बदरिया उनआई,  हाँ काजर की झलकार ।
इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है .
इसी तरह उनकी  एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उनहोंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है .
बिसराम घरी भर कर लो जू...-------------
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,ढील ढाल हर धरौ धरी पर,  पोंछौ माथ पसीना ।तपी दुफरिया देह झांवरी,  कर्रो क्वांर महीना ।भैंसें परीं डबरियन लोरें,   नदी तीर गई गैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
सतगजरा की सोंधी रोटीं,  मिरच हरीरी मेवा ।खटुवा के पातन की चटनी,  रुच को बनों कलेवा ।करहा नारे को नीर डाभको,  औगुन पेट पचैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें,  एजू डीम-डिगलियां ।हफरा चलत प्यास के मारें,  बात बड़ी अलभलियां ।दया करो निज पै बैलों पै,  मोरे राम गुसैंयां ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
 वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे . सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे .
अकल-विकल हैं प्रान राम के----------------
अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,  करें झाँवरी मुइयाँ ।
पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें,  बरसज साज बहेरा ।धवा सिहारू महुआ-कहुआ,  पाकर बाँस लमेरा ।
वन तुलसी वनहास माबरी,  देखी री कहुँ सीता ।दूब छिछलनूं बरियारी ओ,  हिन्नी-मिरगी भीता ।
खाई खंदक टुंघ टौरियाँ,   नादिया नारे बोलौ ।घिरनपरेई पंडुक गलगल,  कंठ - पिटक तौ खोलौ  ।ओ बिरछन की छापक छंइयाँ,  कित है जनक-मुनइयाँ ?अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।
उपटा खांय टिहुनिया जावें,  चलत कमर कर धारें ।थके-बिदाने बैठ सिला पै,  अपलक नजर पसारें ।
मनी उतारें लखनलाल जू,  डूबे घुन्न-घुनीता ।रचिये कौन उपाय पाइये,  कैसें म्यारुल सीता ।
आसमान फट परो थीगरा,  कैसे कौन लगावै ।संभु त्रिलोचन बसी भवानी,  का विध कौन जगावै ।कौन काप-पसगैयत हेरें,  हे धरनी महि भुंइयाँ ।अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।

बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है , अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं , समय की मांग है कि स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानो को उनका समुचित श्रेय व स्थान , प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे .
     लेेेखक : विवेक रंजन श्रीवास्तव  

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...